मेरी मिस्र यात्रा
- 1 December, 2021
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मेरी मिस्र यात्रा
पुश्किन की नज्म है… ‘जिसने जन्म का चोला भी पहना/और मौत का कफन भी/पर फिर भी जिसे अपने/वजूद के सबूत के लिए/कागज का एक टुकड़ा/नसीब न हुआ’, लेकिन मुझे जन्म के सबूत के लिए उन पिरामिडों को देखना था जो 5000 साल का इतिहास समेटे मिस्र में विश्व धरोहर का दर्जा पाए मुझे जाने कब से अपनी ओर खींच रहे थे और इसे दृढ़ स्वप्न की तरह अपने दिल में तब से संजोए रखा है जब मेरी मुलाकात स्विट्जरलैंड के एंगलबर्ग शहर में पहाड़ पर स्थित होटल टेरेस में काहिरा की रहने वाली प्रसिद्ध पुरातत्वविद और मिस्र के पिरामिडों पर अनुसंधान कर रही डॉ. जोआन फ्लेचर से हुई। वे छुट्टियाँ बिताने टेरेस में ही आकर रुकी थीं। वे खासतौर से मिस्र की साम्राज्ञी नेफरटीटी के रहस्य को खोज रही थीं। इतिहास के गर्त में कई बार बहुत महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, दस्तावेज और शासक बड़े मानीखेज और सुनियोजित तरीके से दफना दिए जाते हैं।
बहरहाल वह मौका आ ही गया जब मैं अपनी संस्था विश्व मैत्री मंच के 24 सदस्यों के दल सहित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने मिस्र की यात्रा पर निकल पड़ी। मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल से 30 नवंबर 2019 की सुबह 4:20 पर हमने कुवैत एयरवेज से कुवैत के लिए उड़ान ली। भारतीय समयानुसार 6:10 पर सुबह कुवैत पहुँचे। मिस्र 3 घंटे 20 मिनट भारतीय समय से आगे है। 3 घंटे कुवैत एयरपोर्ट पर काहिरा की फ्लाइट का इंतजार करना पड़ा। काहिरा 11:20 पर पहुँचे। ऑन अराइवल वीजा की प्रक्रिया के बाद हम अपने गाइड अहमद के साथ अपनी 40 सीटर बस में थे और मिस्र की अजनबी मगर अपनी सी धरती पर खूबसूरत एहसास के साथ बेहद खुश थे। दिन में मिस्र का तापमान 22, 23 तक रहता है। रेगिस्तानी इलाका होने की वजह से धूप तेज लग रही थी। तेज और चमकीली। काहिरा में हम खूबसूरत रिसोर्ट पिरामिड पार्क में रुके।
भूख तेजी से लगी थी। इंतजार लंच का…आज ही सम्मेलन भी था। खूब उत्साह था सभी में। तय हुआ कि चूँकि हॉल रात 9:00 बजे तक ही हमारे पास है अतः कवि सम्मेलन क्रूज में करेंगे। लंच के बाद 5:00 बजे सम्मेलन शुरू हुआ। उद्घाटन सत्र में स्वागत भाषण, संस्था का परिचय, किताबों के लोकार्पण, एकल नाट्य प्रस्तुति हुई। द्वितीय सत्र में परिचर्चा। विषय ‘हिंदी साहित्य में अनुवाद की भूमिका’। बहुत शानदार रहा यह सत्र। टी ब्रेक के बाद प्रतिभागियों को स्मृति चिह्न से सम्मानित किया गया। विदेशी धरती पर हिंदी साहित्य का परचम लहरा कर हम पिछली रात के जागरण, लंबी हवाई यात्रा के बावजूद प्रफुल्लित थे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा के लिए अंश मात्र ही सही योगदान तो था ही हमारा। डिनर के लिए हम शहर के रेस्तराँ होटल पिरामिड गए जो शहर से दूर था। खुला इलाका…रात यहाँ वैसे भी ठंडी हो जाती है। इस वक्त तापमान 9 डिग्री सेल्सियस था। तिस पर ठंडी हवाएँ।
मिस्र में सब्जियाँ, हरे पत्ते वाली सलाद, सूप आदि भोजन में बहुत अधिक शामिल किया जाता है। अरहर, मसूर की दाल, मोटे गोल चावल, खमीरी रोटी जो मिक्स आटे की होती है और जो वहाँ के तंदूर में पकाकर होटलों में भिजवाते हैं। बाद में सफर के दौरान मैंने इन रोटियों को साइकिल ठेले में खुला बिकते देखा। लौकी का कोफ्ता और बैंगन भी यहाँ खूब खाया जाता है। सूजी का हलवा, सेवइयाँ मीठे व्यंजन के रूप में मौजूद रहती हैं।
आधे घंटे के सफर के बाद हम रेस्तराँ पहुँचे। ढेर सारी हरी सलाद, दाल, चावल, बैंगन, नानबाई की ठंडी रोटी, सूखी और रसेदार सब्जी, मैदे के लड्डू, सेवइयाँ की बर्फी। फल में मुसम्मी, तरबूज, अंगूर, खरबूजा। मेरी तो खाने के बाद डिनर टेबल पर ही आँखें मुँदने लगीं। चाय मँगवाई बिलकुल बेजायका। पानी की बोतल 25 इजिप्शियन पाउंड यानी 112 भारतीय रुपये में खरीदी। रिसोर्ट लौटकर इतनी थकान के बावजूद लोग रिसेप्शन में सोफे पर बैठ कर फ्री वाई-फाई का फायदा उठाने लगे। रिसेप्शन भी महल के दरबार जैसा। ढेर सारे बड़े-बड़े सोफे, मूर्तियाँ, नकली फूलों की सजावट।
अहमद ने कहा–‘सुबह 6:00 बजे वेकअप कॉल, 7:00 बजे ब्रेकफास्ट और 8:00 बजे गीजा पिरामिड के लिए हम प्रस्थान करेंगे।’
मेरी रूम पार्टनर अंजना ने भोपाल से लाए चाय के सैशे का बिलकुल सही वक्त पर इस्तेमाल किया। चाय पीकर आनंद आ गया। शांत सुखद नींद के बाद वेकअप कॉल के पहले ही हम दोनों जाग गए। आराम से तैयार हुए और कॉन्टिनेंटल ब्रेकफास्ट के बाद बस में आ बैठे।
मिस्र की सभ्यता अति प्राचीन है। प्राचीन सभ्यता के अवशेष यहाँ की गौरव गाथा कहते हैं। वैसे तो मिस्र में 138 पिरामिड हैं, लेकिन काहिरा के उपनगर गीजा स्थित तीन पिरामिड ग्रेट पिरामिड कहलाते हैं। ये विश्व के सात अजूबों की सूची में शामिल हैं। यहाँ के तत्कालीन सम्राट फेरो (वैसे मिस्र के सभी सम्राट फेरो या फराओ कहलाते थे जो देवताओं की तरह पूजे जाते थे) के लिए बनाए गए ये पिरामिड सचमुच अजूबे ही हैं। न जाने किस तरह के मसालों के लेप तैयार कर राजाओं के शवों की ममी बनाकर इन ग्रामीणों में सुरक्षित रखा गया, जो पाँच सदियाँ गुजर जाने के बाद आज भी ज्यों के त्यों हैं। ममियों के साथ खाद्य पदार्थ, वस्त्र, गहने, बर्तन, वाद्य यंत्र, हथियार, जानवर तथा जीवित दास-दासियों को भी राजा की तीमारदारी के लिए दफना दिया जाता था। वैसे पूरे विश्व का इतिहास ऐसी निर्ममताओं से भरा है। गीजा उपनगर में प्रवेश करते ही दूर-दूर तक फैले रेगिस्तान में तीन पिरामिड तेज धूप में अपने भूरे, धूसर रंग में अलौकिक आभा बिखेर रहे थे। मानो जीवन के सभी रंगों को विदा कर मृत्यु का एकाकी उदास रंग ही इन पिरामिडों की पहचान है। बड़े, मध्यम और छोटे आकार के ये पिरामिड जैसे किसी ने रेगिस्तान में अतिथि स्वागत का थाल सजाया हो। इस पूरे परिसर में घूमने की टिकट हम विदेशियों के लिए 160 इजिप्शियन पाउंड थी जो मूल टिकट दर से दुगुनी थी।
ग्रेट पिरामिड 481 फुट ऊँचा है। 3800 साल पहले यह दुनिया का सबसे ऊँचा स्मारक था। यह 13 एकड़ भूमि तक फैला है। इसे बनाने में 25 लाख चूना पत्थर लगे जिनमें से हर एक पत्थर का वजन 2 से 30 टन था। इसका निर्माण 2560 ईसा पूर्व मिस्र के शासक खुफु के चौथे वंशज द्वारा कराया गया था, जिसे पूरा होने में 23 वर्ष लगे। ये पिरामिड ऐसी जगह बने हैं जिन्हें इजराइल के पर्वतों से भी देखा जा सकता है और यह भी धारणा है कि ये चाँद की धरती से भी दिखते हैं। वर्षों से वैज्ञानिक इन पिरामिडों का रहस्य जानने की कोशिश में लगे हैं पर अभी तक कोई सफलता नहीं मिली।
परिसर घूमने के लिए अब हम स्वतंत्र थे। हमें मीटिंग प्वाइंट में 1 घंटे बाद मिलना था। वैसे तो पिरामिड पर चढ़ना अपराध है फिर भी कुछ लोग चढ़े जिन्हें वहाँ तैनात पुलिस ने उतरने को कहा। फोटो खिंचवा कर वे नीचे उतर आए। वहाँ ऊँट, घोड़े और ताँगे की सवारी भी थी। मैंने प्रमिला और विजयकांत जी के साथ ताँगे में बैठकर तीनों पिरामिड की परिक्रमा लगाते हुए पैनोरमा तक की सैर की। पैनोरमा से गीजा का व्यू बहुत खूबसूरत दिखता है। कुछ लोग मध्यम आकार के पिरामिड के अंदर भी गए जिसकी अलग से टिकट लेनी पड़ती है। लेकिन मेरे लिए उसमें जाना मुश्किल था, क्योंकि कमर झुकाकर उसमें जाना पड़ता है और 20 मिनट तक कमर झुकाकर ही सब देखना पड़ता है। अंदर सीढ़ियाँ हैं जिन पर चढ़कर ममी रखने का खाली ताबूत देखा जा सकता है। दूसरी तरफ से सीढ़ियाँ उतर कर बाहर निकलते हैं। इसकी दीवारों पर अरबी, हिब्रू भाषा में यहाँ की जानकारी दी गई है। अब ताबूत से ममियाँ इजिप्शियन संग्रहालय में पर्यटकों के दर्शनार्थ रखी गई हैं।
हम लॉर्ड ऑफ स्फिंक्स आए। सड़क थोड़ी ढलान वाली थी और यहाँ बहुत अधिक भीड़ थी। बुर्का पहने इजिप्शियन महिलाएँ बिलकुल भारतीय मुस्लिम औरतें लग रही थीं। विशाल रेगिस्तानी भूभाग में खंडित नाक वाली प्रतिमा के रूप में गीजा का महान स्फिंक्स स्थापित था व चूना पत्थर से निर्मित था। उसका शरीर शेर जैसा और सिर मनुष्य जैसा था। आसपास कई सीढ़ीनुमा लंबी-लंबी चट्टानें थीं। यह स्थान दुनिया की सबसे लंबी नदियों में शुमार नील नदी के पश्चिमी तट पर काहिरा से 12 किलोमीटर दूर मिस्र के मरुस्थल में स्थित है। स्फिंक्स एक मिथकीय दैत्य है जो पिरामिड के आसपास स्थित श्मशान से सभी शैतानी ताकतों को दूर भगा देता है। इसका चेहरा आमतौर पर सम्राट फिरौन खाफ्रे का प्रतिनिधित्व करता है। 73 मीटर लंबी और 20, 21 मीटर ऊँची यह प्रतिमा प्राचीन मिस्र का अद्भुत मूर्ति शिल्प है जो फारस खाफ्रे (2558-2532 ईसा पूर्व) के शासन काल में निर्मित की गई थी।
कितने ही आक्रमणों से गुजरा है मिस्र। सिकंदर महान ने यहाँ आक्रमण कर ग्रीक शासन लागू किया। यहाँ यूनानी संस्कृति का असर भी दिखाई देता है। फारसी, मुस्लिम, मंगोल तुर्की शासन भी रहा। अंत में ब्रिटिश आए जिनके शासन का अंत 28 फरवरी 1922 में हुआ। 18 जून 1953 में यह गणराज्य घोषित कर दिया गया। अब यहाँ सैन्य शासन है। इतने सारे विदेशी आक्रमणों की वजह से यहाँ मिली जुली संस्कृति है। हालाँकि अध्यात्म और धर्म में इन्होंने किसी भी अन्य संस्कृति को शामिल नहीं किया। ये सूर्य, चंद्र, नील नदी, पृथ्वी, पर्वत, आकाश, वायु की पूजा करते हैं। जैसे हमारे यहाँ पवित्र नदी गंगा है वैसे ही यहाँ नील नदी है।
सूर्य को रे ऐमन और होरस नामों से जाना जाता है। बाद में सूर्य पूजा एमर रे के नाम से की जाती रही। फिर पृथ्वी, प्रकृति और नील नदी को मिलाकर एक शक्ति ओसाइरस नामक देवता के रूप में पूजी जाने लगी। इसे जल देवता भी मानते हैं। ओसिइस रे देवता का पुत्र है जो जीवन मृत्यु का मूल्यांकन करता है यानी यम। इनकी पत्नी का नाम आईरिस था जो देवियों में प्रमुख देवी हैं और रे की सगी बहन हैं। मिस्र में सगे भाई-बहनों में विवाह होना बहुत शुभ माना जाता है। यहाँ राक्षसों और दैत्य की भी कल्पना की गई है। मुझे लगता है पूरे विश्व में धार्मिक कल्पनाएँ एक जैसी हैं। अब यहाँ इस्लाम धर्म भी प्रमुखता से अपनाया गया है। इस्लाम के प्रचलन के साथ 7वीं शताब्दी में जब बादशाहियत आई तो उन लोग के शवों को दफनाने के लिए शहरों से दूर रेगिस्तानी इलाके को चुना गया। अलग-अलग राजवंशों के दफनाने के अलग-अलग इलाके थे जिन्हें बाद में चहारदीवारी से एक कर दिया गया। इन्हीं श्मशानों से सभी शैतानी ताकतों को स्फिंक्स दूर भगा देता है। पहाड़ी की ढलान से लगे समतल मैदान में कुर्सियाँ लाइट एंड साउंड शो के लिए लगी थीं। हजार बारह सौ से कम क्या होंगी। यहाँ से स्फिंक्स की मूर्ति एकदम नजदीक नजर आती थी।
बस चढ़ाई पारकर चौड़ी सड़क पर आ गई। थोड़ी ही देर बाद धूसर इमारतों का सिलसिला शुरू हो गया। सड़कों पर लोगों की आवाजाही, भीड़ के चेहरे अजनबी नहीं लग रहे थे। हिंदुस्तानी छवि के थे।
सामने पपाइरस इंस्टिट्यूट जो कागज बनाने का स्थल है हमें डिमांस्ट्रेशन के द्वारा कागज बनाना दिखाया गया। पपाइरस एक प्रकार का पौधा है। लंबी डंडी में ऊपर की ओर बहुत सारी पतली डंडियाँ होती हैं जैसे सौंफ का गुच्छा। लंबी हरी डंडी को बेलन से बेलकर पतला कर मशीनों में सुखाया जाता है जिससे बहुत मजबूत कागज बनाया जाता है। जो आसानी से नहीं फटता। इस पर बहुत सुंदर चित्रकारी होती है। भूरे रंग का यह कागज भोजपत्र जैसा ही है।
नील की लहरों पर कुछ परिंदे विहार कर रहे थे। भूख की तेजी ने गर्म खाने को खूब स्वादिष्ट बना दिया था। खाने के बाद मैं देर तक रेस्त्राँ की खिड़की से नील की लहरों को देखती रही। निश्चय ही इसमें बाढ़ भी आती होगी। कोई बता रहा था कि यहाँ बाढ़ को शुभ माना जाता है। रेगिस्तान की वजह से बाढ़ का पहला दिन ’खुशी के आँसू वाली रात’ के नाम से मनाया जाता है।
मिस्रवासी बेहद विद्वान होते हैं। वे आर्किटेक्ट में कमाल का दखल रखते हैं। यह तो पिरामिड देख कर ही समझ गई थी मैं। गणित, रसायन शास्त्र, एस्ट्रोलॉजी और मौसम की जानकारी के विशेषज्ञ भी होते हैं। 365 दिन और 12 महीनों वाले कैलेंडर ने मिस्र में ही जन्म लिया। दुनिया की 6 सबसे पहली घड़ी भी यहीं बनी और यहीं वजन की सबसे पुरानी यूनिट एक्वा भी बनी। बस इजिप्शियन संग्रहालय के रास्ते पर थी। राजधानी होने के बावजूद काहिरा का स्थापत्य अधूरा-अधूरा सा था। भूरे रंग के अलावा दूसरा रंग दिखाई नहीं दे रहा था। सड़क की दोनों तरफ की इमारतें बिना प्लास्टर की थीं कि जैसे रिन्यूएशन का काम चल रहा हो। इमारतों में कोई आकर्षण नहीं था। ओल्ड काहिरा में तो कुछ इमारतें 641 ईसा पूर्व की थीं। विशाल किले, मस्जिद, मीनार, कॉप्टिक चर्च, सभा स्थल…जैसे अतीत की गलियों में भ्रमण करा रहे हों। संग्रहालय में फोटो खींचना मना है। अगर कैमरे की टिकट ली है तो फोटो खींच सकते हैं। इस भव्य संग्रहालय में 3 से 4 हजार वर्ष पुराने फराओ, सम्राटों और शासकों की विशाल मूर्तियाँ थीं। सिक्के, पपीरोज और ग्रीक रोमन राज्य काल के समय की दुर्लभ वस्तुएँ थीं। प्रवेश द्वार से सटे हॉल में एक विशाल नौका रखी थी। मिस्रवासियों का मानना था कि पाताल से नौका में बैठकर ओसाईरिस आएँगे और मृत व्यक्ति के जीवन का मूल्यांकन करेंगे, इसीलिए शवों के ताबूतों को जमीन में बहुत गहरे उतारा जाता था।
वहीं से कुछ सीढ़ियाँ उतर कर जैसे कि पाताल मार्ग हो, कुछ मूर्तियाँ रखी थीं। वहाँ बहुत रोशनी थी। पहली मंजिल पर मिस्र के महान फराओ सम्राटों के पिरामिडों और मकबरे से निकला खजाना और ममियाँ मौजूद थीं। उस जमाने के फर्नीचर, दैनिक उपयोग की चीजें भी प्रदर्शित की गई थीं। तूतनखामन जो मिस्र का बहुचर्चित सम्राट था उसकी ममी 3 स्वर्ण मुकुटों के पीछे थीं जो स्वर्ण के ताबूत में रखी थीं। 11 किलो वजन का स्वर्ण मुखौटा, सोने से बना कमरा, सोने का पलंग, कुर्सी, टेबल सब सोने के और उस पर लाजवाब पच्चीकारी। सोने के जूते, चप्पल, हाथी दाँत के अनेक आभूषण यहाँ तक कि शव पर चढ़ाए गए गुलाब के फूलों की सूख कर काली पड़ गई पंखुड़ियाँ और यह सब खजाना 4 हजार वर्ष पहले बने पिरामिडों से यहाँ स्थानांतरित किया गया था। लग रहा था जैसे समय यहाँ आकर ठहर गया है। इसके बाद ममी कक्ष था जिसकी टिकट अलग से लेनी पड़ी। वहाँ मिस्र के राजा-रानी, दास-दासी और जानवरों तक की ममी थी। राजपरिवार की 14 ममियाँ थीं जो वहाँ प्रदर्शित थीं। पारदर्शी ताबूतों में…बेहद लोमहर्षक…4 हजार साल पहले इन चलते-फिरते जीवित सेवकों को सम्राट-सम्राज्ञी के शवों के साथ इसलिए दफनाया गया था कि एक वक्त आएगा जब यह सब पुनः जीवित हो जाएँगे। उनके शवों को हर प्रकार की जड़ी-बूटियों का लेप लगाकर पूरे शरीर को सफेद पट्टियों से लपेट कर ममी बना कर सुरक्षित रखा गया था। कई ममी के तो नाक, बाल, नाखून तक ज्यों के त्यों थे। इन मृत शरीरों के बीच में सिहरन और अजीब सी विरक्ति से भर गई। ऐसा लग रहा था जैसे दम घुट रहा हो।
म्यूजियम के बाहर खुली हवा में साँस लेते हुए मुझे लगा जैसे मैं किसी टाइम कैप्सूल में बैठकर सदियों की चौखट लाँघ आई हूँ।
2 दिसंबर 2018
मिस्र अरब गणराज्य है। एक अंतर महाद्वीपीय देश। उत्तर में भूमध्य सागर, पूर्व में लाल सागर है। पूर्व में इजरायल, दक्षिण सूडान और पश्चिम में लीबिया है।
काहिरा के बाद हम मिस्र के दूसरे सबसे बड़े शहर अलेक्जेंड्रिया जा रहे हैं। यहाँ की जनसंख्या 41 लाख है। वैसे मिस्र अफ्रीका और मध्य पूर्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों में से एक है। पूरे मिस्र की अनुमानित जनसंख्या 7.90 करोड़ है। 2011 में मिस्र उस क्रांति का गवाह बना जिसके द्वारा मिस्र से हुस्न मुबारक नामक तानाशाह का 30 साल के शासन का खात्मा हुआ। इस तानाशाही का असर पर्यटन पर भी पड़ा, लेकिन अब पर्यटन की स्थितियाँ सुधर गई हैं।
अलेक्जेंड्रिया मिस्र का सबसे बड़ा समुद्री बंदरगाह है। इसे सिकंदरिया भी कहते हैं। एलेक्जेंडर ने 331 ईसा पूर्व इस शहर की स्थापना की थी। यहाँ का प्रकाश स्तंभ फेरोस दुनिया के सात अजूबों में से एक है। लगभग एक हजार साल तक यह मिस्र की राजधानी रहा। यहाँ प्राचीन दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय और कैटाकॉम्ब्स-ऑफ-कॉम-अल-शोकाफा कब्रिस्तान है जो जमीन के अंदर है। मिस्र के बहुत सारे रहस्यों पर से धीरे-धीरे पर्दा उठ रहा है और भी न जाने क्या क्या छुपा है यहाँ की धरती के गर्भ में।
मुझे पुस्तकालय अपनी ओर खींच रहा था। जन्मी ही पुस्तकों के लिए हूँ। पुस्तकों की हो कर जिंदा हूँ। पुस्तकालय मिस्र की नौ देवियों में से एक जो कला और सौंदर्य की देवी है मुसेस को समर्पित है। अहमद का शुक्रिया, हमें 15 मिनट का समय दिया पुस्तकालय के लिए जो टूर आईटीनरी में नहीं था।
खुली सड़क से अचानक बस सकरे रास्ते से गुजरने लगी। शायद कोई बाजार था। मौसम्बी और केले ठेले पर बिक रहे थे। संतरे भी मन मोह रहे थे। इच्छा हुई संतरे खरीदने की पर बस रोकने पर जुर्माना हो जाता। वह पूरा बाजारी इलाका जबलपुर का गुरंदी बाजार नजर आ रहा था। हल्की-हल्की बारिश भी हो रही थी। तंग कच्चा रास्ता पानी के चहबच्चों से भर गया था। बस एक खंडहर इमारत के परिसर में रुकी। स्थान का नाम कालाघूटा, ऐसा ही कुछ बताया था अहमद ने जो एलेक्जेंडर के घोड़े का समाधि स्थल था। घोड़ा गहरे कुएँ में गिर गया था जिसकी खोज के दौरान यह स्थान लोगों की नजर में आया। कुएँ में बहुत ही सँकरी सीढ़ियों से उतरकर हम यहाँ पहुँचे। उसके आसपास कई कोठरियाँ थीं जिनमें रोमन और इजिप्शियन की ममीज थीं। जो रोमन कैथोलिक थे वे ताबूत में शव रखकर दरवाजे के अंदर बंद कर देते थे और इजिप्शियन शव की ममी बनाकर रखते थे। दीवारों पर ममीज बनाने की प्रक्रिया चित्रों में अंकित थी। मूर्तियाँ, कार्विंग, फूलों की कार्विंग…मगर एक उदासी साथ ही रोमन्स की क्रूरता भी। वे खाने के लिए जिस क्रॉकरी का इस्तेमाल करते थे उसे तोड़ देते थे ताकि कोई दूसरा न तो उनका इस्तेमाल कर पाए और न ही बना पाए। कैसी स्वार्थी मानसिकता!
लौटे तो सब खामोश थे। जब मोंटाज महल आया तो सभी के चेहरे की रौनक लौट आई। महल बहुत विशाल बगीचे के बीच में स्थित है। लोहे का काले रंग का बड़ा सा गेट है। सड़क के उस पार भी बगीचा है लेकिन समतल नहीं। कहीं ऊँचा, कहीं नीचा। भूमध्य सागर की लहरें मानो हमारा इस्तकबाल कर रही थीं। देख रही हूँ 1892 में बने महल को जिसका निर्माण खेदिवे राजा अब्बास द्वितीय के शासनकाल में हुआ था। महल की खूबसूरती उसकी ऑफ व्हाइट और गहरे सलेटी रंग में पीली मेहराबों को समेटे निखर रही थी। शुरू में इसे शिकार लॉज के रूप में इस्तेमाल किया गया था। 1932 में राजा फौदआई द्वारा इसे ग्रीष्मकालीन महल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा। शाही उद्यान…खूबसूरती का सैलाब…शायद ही कोई रंग छूटा हो। जिस रंग के फूल न हो वहाँ। महल का डिजाइन फ्लोरेंटाइन और तुर्की वास्तुकला का था। इसमें दो टॉवर हैं। महल मेहराबदार गलियारों से युक्त है। जहाँ से समुद्र की लहरों का आनंद लिया जा सकता है। महल के अंदर फ्रेंच फर्नीचर, विभिन्न पौधों और कीमती प्राचीन वस्तुओं की सजावट थी। यहाँ अलहर मलिक गार्डंस भी हैं जहाँ संग्रहीत हैं मिस्र की ऐतिहासिक महत्त्व की वस्तुएँ।
सड़क पार कर हम लंबे-चौड़े बगीचे में गए। ऊँचाई पर खड़े होकर समुद्र मंथर नजर आया। लहरें मानो हमें ऊँचाई पर देख वहीं की वहीं ठहर गई थीं। बगीचे के आसपास की सड़क पर घूमते हुए कई अनदेखे दरख्त हमें भी अजनबी बन निहार रहे थे। घने-घने सतर दरख़्तों की पत्तियाँ कुछ कहती सी लगीं। फूलों भरी डालियों में हवा की सिहरन थी।
पूर्वी बंदरगाह के मुहाने की ओर जाते हुए सड़क के दोनों ओर घने जंगल, सब्जियों और अनाज के खेतों के आसपास ऊँट बड़े आकर्षक लग रहे थे। यहीं है कैटबे किला जो 1477 में सुल्तान अल अशरफ सायफ अलदिन किट खाड़ी के आदेश पर निर्मित हुआ। बंदरगाह के मुहाने पर होने के कारण यह मिस्र का रक्षक नजर आता है। किलेबंदी करता। यह किला किसी समय शाही परिवार के लिए एक रेस्ट हाउस के रूप में था। 1952 की मिस्र क्रांति के बाद यह एक समुद्री संग्रहालय में बदल गया।
महाराजा रेस्तराँ में लंच के बाद पाम्पिज पिलर देखने का कार्यक्रम था। यह एक रोमन विजय स्तंभ है जो शाही राजधानी के बाहर स्थित है। 30 मीटर ऊँचा यह स्तंभ अलेक्जेंड्रिया विद्रोह पर रोमन सम्राट की जीत की याद में 297 ईस्वी में बनाया गया था। कल अस्वान फ्लाइट से जाना है और यह रिसोर्ट 7:30 बजे छोड़ देना है। रात को ही पैकिंग कर ली थी। फ्लाइट सुबह 7:00 बजे की थी जो 8:15 बजे अस्वान लैंड करेगी, हम 5:00 बजे सुबह एयरपोर्ट पहुँच गए। रात की रोशनी में रिसोर्ट से एयरपोर्ट तक का रास्ता सम्मोहित कर रहा था। अस्वान में एयर कंडीशंड कोच हमारे इंतजार में खड़ी थी। कैसा स्वप्न सा लग रहा था सब कुछ। हवा की गति और लम्हों के गुजर जाने में जैसे होड़ सी लगी थी।
अस्वान नील नदी के किनारे बसा मिस्र का खूबसूरत शहर है। हालाँकि रेगिस्तानी खूबसूरती में यहाँ की इमारतें भूरा रंग लिए उदास-उदास सी लग रही थी जैसे धरती की कोख से अभी नमूदार हुई हों। नील हजारों वर्षों से मिस्र की जीवनदायिनी पवित्र नदी है। उसके किनारों पर चट्टानें, पत्थर और खदान हैं जो फारस को स्मारक बनाने के लिए सामग्री प्रदान करते हैं। यहाँ का बॉटनिकल गार्डन पहले किचनर गार्डन कहलाता था। सूडान अभियान के बाद 1898 में इसे लॉर्ड किचनर को उपहार में दिया था। बाद में यह बॉटनिकल गार्डन कहलाया।
पवित्र आईसिस का मंदिर फिले मंदिर के रूप में जाना जाता है। अपनी उत्कृष्ट कलाकृतियों और वास्तुकला के कारण यह विक्टोरियन चित्रकारों का पसंदीदा स्थल है। फिले मंदिर क्योंकि हमें बोट से जाना था उसके पहले रास्ते में हाई डैम पड़ता है। उसे पहले देखने का प्रस्ताव अहमद ने रखा। यह मिस्र का सबसे ऊँचा बाँध है। इसे बनाने के लिए कई आदिवासी गाँव पानी में डुबो दिए गए थे। इसका निर्माण 1960 में शुरू हुआ और इसे पूरा होने में 11 साल लग गए। यह राष्ट्रपति नासर की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। जो सोवियत संघ की तकनीक पर आधारित है। इसकी इमारत में 42.7 मिलियन घन मीटर पत्थर लगे। लंबाई 3.6 किलोमीटर है। नासर झील पर यह बाँध है। यहाँ से पूरे देश को बिजली सप्लाई होती है। नासर झील दुनिया की सबसे बड़ी कृत्रिम झील है। बेहद विस्तृत भूभाग में फैली झील का बहता नीला पानी बेहद आकर्षक लग रहा था। किनारों पर गाढ़ी भूरी मिट्टी की ऊँचाई इसे तट में बाँध रही थी। बस ने हमें नील के किनारे ला छोड़ा जहाँ से एक शिकारेनुमा छोटी बोट हमें नील दर्शन कराएगी। बोट खूबसूरत तरीके से सजाई गई थी। गोलाई में बैठने की सीटें और पूरी बोट पर गलीचा बिछा था। म्यूजिक भी बज रहा था। जिसे सुनकर हमारे साथी थिरक उठे। नील की लहरों पर चलती नौका में खूब नृत्य किया हम सबने। हम मिस्र के पश्चिमी तट से गुजर रहे थे। दाहिनी तरफ टूम थे जो नोबल व्यक्तियों के थे जिन्हें दीवार में बने झरोखों से देखा जा सकता है। टूम काफी लंबे-चौड़े टीले की शक्ल में थे, जिनमें दरवाजे भी थे। बटिडम गार्डन हरा-भरा खिले फूलों की छटा बिखेरता सुंदर उद्यान था। दाहिनी तरफ तट पर होटल कैटरेक्ट था जो मिस्र का सबसे महँगा होटल था। उसके रखरखाव और बनावट से ही उसकी कीमत आँकी जा सकती है।
इस होटल में एक कमरा अँग्रेज लेखिका अगाथा क्रिस्टी के नाम से है। उसने उस कमरे में कुछ समय गुजारा था और अपना मशहूर उपन्यास ‘द मॉडल ऑफ रोजर एक्वायर्ड’ के कुछ अध्याय यहाँ लिखे थे।
लौटते हुए अहमद ने समझा दिया था कि नौका गेट के आसपास सामान बेचने वाले आपको घेर लेंगे लेकिन आप उनसे सामान नहीं खरीदना। एक तो वक्त की कमी है। दूसरे लक्जर का बाजार काफी रीजनेबल है और वैरायटी वाला है लेकिन हमारे साथ आए कुछ सदस्यों ने वहाँ शॉपिंग के इरादे से चीजों के भाव करना शुरू कर दिए। अहमद ने उन्हें रोका तो अहमद और दुकानदारों के बीच कहासुनी हो गई। लिहाजा जिसका डर था वही हुआ। अहमद को पुलिस वैन में बैठकर पुलिस थाने जाना पड़ा। हम सब सहमे से बस में बैठे थे और बस धीरे-धीरे चल रही थी। बस के ड्राइवर को हमारी भाषा नहीं आती थी इसलिए कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है। थोड़ी देर में हम परफ्यूम फैक्ट्री आ गए। तब तक अहमद भी आ चुका था। वह फैक्ट्री की सीढ़ियों पर उदास बैठा था। उसकी आँखें हमारे सामने हुए अपमान से लाल थीं।
इच्छा तो हुई कि पूछूँ पुलिस थाने में क्या हुआ पर मैं खामोशी से अंदर चली गई। अंदर पहली मंजिल पर एक बड़े हॉल में विशेषज्ञों ने कई तरह के फूलों पत्तियों से परफ्यूम बनाने की विधियाँ बताईं। वेलकम ड्रिंक में पुदीने की काली चाय पेश की गई। एक जड़ी बूटियों का जूस भी था, काला झागदार जैसे हरड़ को कूटकर बनाया हो कुछ इस तरह का।
बस में बैठते ही अहमद ने माफी माँगी और बहुत अफसोस के साथ कहा कि अब हमें अनफिनिश्ड ओबिलिस्क देखने जाना कैंसिल करना पड़ेगा क्योंकि क्रूज पर जाने का वक्त हो गया है। क्रूज निर्धारित समय पर तट पर रुकता है और मुसाफिरों को लेकर दूसरे क्रूज के लिए तट छोड़ देता है यानी कि नील के बीचों बीच चला जाता है।
अनफिनिश्ड ओबेलिस्क रोमन सम्राट द्वारा 357 ईसा पूर्व बनवाया गया था जो बन नहीं पाया और आज भी अधूरा है। यह सूर्य देवता का प्रतीक है। ग्रेनाइट से बनी विशाल बेलनाकार अद्वितीय इमारत है। जिसके चारों ओर मीनारें हैं और विशाल मूर्तियाँ हैं। सब कुछ भूरे रंग का। इसे न देखने का अफसोस तो हुआ पर क्या कर सकते थे। चिर प्रतीक्षित नाइल क्रूज में प्रवेश करते ही भव्यता का एहसास हुआ। क्रूज पाँच सितारा तो था ही। विशाल लाउंज, खूबसूरत रिसेप्शन, काँच लगी रेलिंगदार बालकनियाँ। कमरे भी खूब बड़े-बड़े। दो मंजिल तक कमरे। तीसरी मंजिल पर डेक। यहाँ हमें 3 दिन रहना है और सेल करते हुए अस्वान, इडफू और लक्सर शहरों तक जाना है।
सुकून ने आ घेरा। डाइनिंग रूम में ढेर सारी वैरायटी वाला लंच हमारा इंतजार कर रहा था। लाउंज में अहमद ने कल का कार्यक्रम बताया। कल सुबह गाँव घूमने जाएँगे लेकिन वह ऑप्शनल है। गाँव हमें छोटी बोट से जाना होगा जिसकी टिकट 640 पाउंड है और हॉट बैलून जो लक्सर में मिलेगा उसकी टिकट 120 रुपये अतिरिक्त है। बहरहाल हम गाँव घूमने को तैयार थे लेकिन हॉट बैलून के लिए इक्का-दुक्का ही तैयार हुए। इसलिए वह कैंसिल हो गया।
मुझे और अंजना को हनीमून रूम मिला था यानी एक ही बेड वाला। बेड पर तौलिये, नैपकिन दिल और गुलाब की शक्ल में रखे थे। कमरे की खिड़की के पास दो कुर्सियाँ, बीच में टेबल। खिड़की का पर्दा हटाते ही जगमगाता अस्वान शहर और नील के तट से लगी सड़क पर चहल-पहल दिखाई दी। क्रूज सुबह 10:00 बजे रवाना होगा। कमरे में व्यवस्थित होते ही हम दोनों डेक पर आ गए। आसमान की बेमिसाल खूबसूरती सितारों और हँसिया जैसे चाँद सहित नील में उतर आई थी। डेक पर स्विमिंग पूल था। और लंबी-लंबी आराम कुर्सियाँ। ठंडी हवाओं के बावजूद इस माहौल में हम खुद को भूल गए। आराम कुर्सी पर लेट कर गाना गाने लगे। किसी ने आकर कहा डिनर का समय हो गया। तब हमें अहसास हुआ कि पाँच लोग ही रह गए थे और रात घिर आई थी नील का पानी काला नजर आ रहा था। इस पर सितारों का डेरा मायाजाल सा।
सुबह ब्रेकफास्ट के बाद हमलोग नूबरन गाँव जाने के लिए लगातार तीन क्रूज को पार कर नौका में आ बैठे। नौका देख मुझे कश्मीर के शिकारे याद आ गए। वैसी ही साज-सज्जा। रंग-बिरंगे गलीचे, नकली फूलों की सजावट बीचों बीच लंबी मेज पर। नौका नील की लहरों पर मंथर गति से चल रही थी। अहमद ने बताया ‘हम जिस नूबरन गाँव जा रहे हैं वह विस्थापित आदिवासियों का है। इनके गाँव असवान हाई डैम के निर्माण के समय डुबा दिए गए थे।’ मीलों फैले हरे भरे खेतों के बीच से गुजरते हुए नौका एक रेतीले तट से आ लगी। हमें लगा गाँव आ गया पर वहाँ हमें फोटो खींचने के लिए उतारा गया था। सभी लोग रेतीले तट पर इधर-उधर मस्ती में डूब गए। रेत बहुत मुलायम थी। सहारा रेगिस्तान का सिलसिला यहीं से शुरू होता है। पाँव में चिपकी रेत को धोकर ही नौका में आना था। नौका फिर चल पड़ी। धूप तेज थी नूबरन गाँव में आते ही मैंने अपना छाता खोल लिया जिसे मैं धूप और बारिश से बचाव के लिए अपने साथ रखती हूँ। सड़क गिट्टियों वाली थी लेकिन पगडंडियों पर गिट्टी नहीं थी। छोटे-छोटे सफेद, हरे, पीले रंगों से पुते घर जिन पर सब्जियों की बेलें छाई थीं। छोटा सा बाजार भी था। मसालों और जड़ी-बूटियों का। दाल चीनी, केसर की खुशबू बाजार की हवाओं में थी। बाजार को पार कर सामने स्कूल।
लंच का समय हो चुका था। डाइनिंग रूम बहुत बड़ा था और अलग-अलग मेजों पर टूर वालों की कंपनी की तख्ती भी रखी थी। इजिप्ट में हमारा टूर अनलिमिटेड नाम से था। हम 24 सदस्यों के लिए 8 कुर्सियों वाली तीन मेजें थीं। पानी देने का यहाँ रिवाज ही नहीं है और क्रूज में बाहर से खरीदा पानी जो 10 इजिप्शियन पाउंड में मिलता था लाने की मनाही थी। लिहाजा क्रूज में ही दोगुने दाम में पानी खरीदना पड़ा।
चाहे चाय लो, कॉफी लो या गर्म पानी रेट वही 30 इजिप्शियन पाउंड। खाना बहुत स्वादिष्ट और वैरायटी वाला था। शाम को डेक पर ही हम सब के लिए चाय की व्यवस्था थी। काली चाय और कुकीज।
अगली सुबह 4 बजे ही नींद खुली हमें फ्रेश होकर चाय, बिस्किट लेकर 6 बजे लाउंज में इकट्ठा होना था। कॉमओम्बो मंदिर जो इडफू शहर में है जाने के लिए। तब तक हमारा क्रूज इडफू पहुँच जाएगा।
अभी-अभी पौ फटी थी। सुरमई अँधेरे में मैं ठंड को भूलकर एक के बाद एक चार क्रूज पार करके हम सड़क पर आ गए। जहाँ गाइड को मिलाकर 9 ताँगे हमारी प्रतीक्षा में थे। प्रत्येक ताँगे में तीन सवारी। ताँगा ऊँचा था। मुझसे चढ़ते नहीं बना तो ताँगे वाले ने अपनी हथेलियाँ फैला दीं कि मैं उन पर पाँव रखकर ताँगे पर चढ़ूँ। गुलाम वंश की रजिया सुल्तान ऐसे ही याकूब की हथेलियों पर पाँव रख घोड़े पर चढ़ती थी। बहरहाल मैं अपनी कोशिश से ही ताँगे पर चढ़ी।
मंदिर का नाम अहमद ने कॉमओम्बो बताया था। ताँगा स्टैंड बाकायदा लकड़ियों को बाँध कर फूस के छप्पर वाला था। प्रवेश टिकट लेकर अंदर प्रवेश करते ही भव्य मंदिर सामने था। भूरे रंग का विशाल गेट। दोनों तरफ दीवारों पर अंकित मंदिर की जानकारी जो मानव आकृति में थी। जैसे हमारे यहाँ गाँव में माँड़ने बनाए जाते हैं। देवबेक और हारोसिस टोलमेमिक देवताओं को समर्पित इस मंदिर का बारीक नक्काशी दार स्थापत्य टोलमेमिक युग की प्रतिकृति है। इस परिसर के आस-पास गन्ने के खेत हैं जिसकी सिंचाई नाइल बैक वाटर से होती है। मंदिर के सामने वाली दीवार देवबेक हेथोर और खोंस देवताओं की मूर्तियों से युक्त है। 52 खंभों की लाइनों का एक हाइरोगलीफिक है और ऊपरी भाग में सम्राट डेमिनियन की मूर्ति है जिसे मिस्र का मुकुट कहते हैं। वापसी उसी 45 नंबर के ताँगे से…धूप खिल आई थी और सड़क भी अब वीरान नहीं थी।
काफी वक्त था हमारे पास क्योंकि क्रूज नील के बीचों बीच सेल कर रहा था और 6 बजे शाम को किनारे लगेगा। तब हम इडफू मंदिर देखने जाएँगे। काहिरा में कवि सम्मेलन नहीं हो पाया था इसलिए 11 बजे से 2 बजे तक के समय को कवि सम्मेलन के लिए निर्धारित कर लाउंज में बैनर लगा। हम सब कुर्सियों सोफों पर बैठ गए। अन्य देशों से आए पर्यटक भी श्रोताओं के रूप में आ बैठे। अंजना श्रीवास्तव के कुशल संचालन में बहुत शानदार आयोजन चल रहा था। खुशी इस बात की थी कि अन्य देशों से आए पर्यटक बहुत अधिक दिलचस्पी ले रहे थे जबकि उन्हें हिंदी नहीं आती थी। सच है कविताओं को भाषा के बंधन में बाँधना नामुमकिन है। वह सीधे कवि की कलम से निकल बेआवाज पाठकों तक पहुँचती है।
जब पाँच कवि कविता सुनाने को बचे तो क्रूज कर्मचारी ने कहा कि अभी तक क्रूज नील की ऊपरी सतह पर सेल कर रहा था। अब वह 6 मीटर निचली सतह पर सेल करेगा। इस सतह बदले नजारे को डेक पर जाकर अवश्य देखें। जल सफर इतना खूबसूरत होगा सोचा न था। डेक रेलिंग से टिके पर्यटकों की भीड़ मानो सब कुछ समो लेना चाहती थी आँखों में। अद्भुत नजारा था सामने। एक पुलनुमा गेट था जिसमें से होकर उसको जाना था। क्रूज ऊँचा था और गेट नीचा। धीरे धीरे क्रूज नील में समाने लगा। नील की निचली सतह इस गेट से आरंभ होती है। नदी के ऊँचे-नीचे भाव को मैं पहली बार महसूस कर रही थी, देख रही थी प्रकृति कितने अजूबों से भरी है। शायद ही हम कभी उसकी थाह पा सकें। जिस वक्त क्रूज स्थिर खड़ा निचली सतह में आ रहा था…क्रूज के आसपास नौकाओं में अच्छा खासा बाजार लग गया था। इडफू के कपड़ा, कालीन, बेडशीट, तौलिये आदि के दुकानदार छोटी-छोटी नौकाओं में अपना सामान भरे बेच रहे थे। वह सैंपल पीस डेक पर उछालते और खरीदारों द्वारा पसंद आने पर वे फिर निशाना लगाते। यहाँ तक कि मूल्य चुकाने के लिए उन्होंने तौलिया डेक पर उछाला जिसमें रुपये रख कर उनकी ओर फेंकना था। गजब का निशाना। इस तरह का अनोखा बाजार हमें असवान से लक्सर तक मिला। जब क्रूज नील की निचली सतह पर व्यवस्थित हो चलने लगा तब लाउंज में बाकी के कवियों की कविताएँ भी आयोजित की गई।
क्रूज में कुछ इस तरह की आवभगत जैसे हम उनके शाही मेहमान हों। कवि गोष्ठी खत्म होने के कगार पर थी कि लंच का बुलावा। दस-दस मिनट के अंतराल के बाद ‘चलिए मैडम लंच के लिए’। बुलावा देने वाला यह भी बता रहा था कि 4 से 5 बजे तक आपकी चाय डेक पर सर्व की जाएगी।
कैसी-कैसी धारणाएँ बना लेते हैं लोग। जब भारत से चले थे तो कई ने डराया था, रुपया पासपोर्ट सँभाल कर रखना, चोर उचक्के बहुत हैं वहाँ। किसी से उलझना नहीं, गरीब देश है, आक्रामक भी है।
लेकिन अभी तक की यात्रा बेहद सद्भावनापूर्ण सुकून भरी रही। मिस्र वासी भी भोले-भाले प्रेमिल स्वभाव के लगे। हो सकता है यह मेरी अपनी सोच हो।
यहाँ की स्त्रियों के बारे में भी जान कर मेरी स्त्री विषयक सोच दृढ़ हुई है। इजिप्शियन स्त्री को पुरुष जैसे ही अधिकार प्राप्त हैं। वे अपने नाम से जमीन खरीद सकती हैं। कमाती हैं। टैक्स भी भरती हैं। उनमें से कई डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, पुजारिन, पायलट जैसे उच्च पदों पर हैं। स्त्री-पुरुष दोनों मेकअप करते हैं। उनके अलग-अलग ब्यूटी पार्लर हैं। प्राचीन मिस्र में स्त्रियाँ सिर पर बाल नहीं रखती थीं और विग पहनती थीं। किंतु यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो चुकी है। नील की वादियाँ जैसे खुली हथेलियाँ। जिन पर कुदरत की खूबसूरती जगमग करती लगती है। एक हथेली कुदरती सौंदर्य से मालामाल है तो दूसरी बंद मुट्ठी की तरह। धीरे-धीरे मुट्ठी खोल कर जाना जा सकता सदियों पुराना इतिहास…ममी के रूप में जीता जागता युग। मिस्रवासी मृत्यु को नहीं भूलते इसीलिए उनका धर्म राजधर्म है। प्राचीन धर्म मूर्तिपूजक और बहु देवतावाद धर्म था। अल्प समय के लिए एकेश्वरवाद की अवधारणा भी रही। ईसाई धर्म और बाद में इस्लाम राजधर्म बनने के बाद ईसाइयों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। पशु बलि भी धर्म में शामिल थी। सूअर और बैल की बलि देवताओं को अर्पित की जाती थी।
मिस्र की पौराणिक कथाओं एडफो को जनजातियों के देवता के रूप में माना जाता है। यह शिकारियों को भी संरक्षित करता है और इसे फाल्कन यानी शरीर पक्षी का और शेर इनसान का रूप में स्थापित किया गया है। यह प्रकाश का प्रतीक है और अँधेरे से लड़ता है। मंदिर रेगिस्तान के विस्तृत भूभाग को गहरे भूरे रंग और ठोस स्थापत्य का है। मंदिर की दीवारों पर एडफू एक पंख वाली सौर डिस्क के रूप में मौजूद है। पंखों वाला घोड़ा भी दीवार पर अंकित है। ऊँचे-ऊँचे गलियारे और आसमान की ओर देखने वाली स्थिति हो ऐसी मूर्तियाँ इस मंदिर को भव्यता प्रदान कर रही थीं। दूर तक गलियारे में चलते हुए अंतिम छोर पर क्रोकोडाइल टेंपल है जहाँ बड़े-बड़े मगरमच्छों की मूर्तियाँ हैं।
काहिरा में आखिरी रात थी। कल हम अपने देश लौट जाएँगे। रसोइया यहीं छूट जाएगा। यही है जिंदगी का सच।
काहिरा से कुवैत जाते हुए क्योंकि रात का समय था फिर भी रंग बिरंगी रोशनी जहाज की खिड़की से दिख रही थी। दीपावली का भ्रम पैदा करते दुबई, आबूधाबी, रियाध, कर्मन, कांधार, निजवा देश थे जिनकी मद्धम रोशनी ने मन लुभा लिया था। खंभात की खाड़ी का पानी काली चादर सा बिछा था।
धीरे-धीरे छूट रहा है इजिप्ट जिसने इतने दिनों प्यार मोहब्बत से हमें अपने देश का मेहमान बनाया। छूट रहे हैं भारत की कई जगहों से आए हमारे प्रिय साथी। ढेरों यादों का बेशकीमती खजाना ले मैं उतरी हूँ छत्रपति शिवाजी टर्मिनस। अपने देश की खुशबू के साथ इजिप्ट की खुशबू भी जो मैं साथ लाई हूँ लिपट रही है सँग-सँग।
Image : Caravan in the oasis. Egypt
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Artist : Ivan Aivazovsky
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