मुझे याद है (छठी कड़ी)

मुझे याद है (छठी कड़ी)

विवाह

मुझे याद है उस भोर की, जिसमें पहले पहल मेरे विवाह की बात चली थी।

जाड़े के दिन थे। हम लोग अलाव को घेर कर बैठे थे, जिसे हमारी बोली में घूर कहा जाता है। गुलाबी धूप उग आई थी, तब भी गुलाबी जाड़ा हम महसूस कर रहे थे। उसी समय गाँव के एक वयोवृद्ध सज्जन आए, अलाव के निकट बैठ गए। कुछ इधर-उधर की बात चलाई। फिर मेरे मामा जी से बोले–रामवृक्ष की शादी तो अब होनी चाहिए। और, लगे हाथों एक लड़की की चर्चा भी छेड़ दी। “बड़ी अच्छी लड़की है, गाँव के उस आदमी की लड़की ऐसी!” इसके बाद और क्या बातें हुईं, मैं सिलसिले से अनुसरण नहीं कर सका, क्योंकि मैं तो अब गाँव की उस लड़की के रंगरूप की स्मृति में उभ-चुभ कर रहा था!

वह लड़की गोरी है, सुंदरी है, सुशील है। उस दिन वह कसीदा सीखने मेरी ममेरी बहन के पास आई थी, उस दिन उसे पोखरे में स्नान करते देखा था, उस दिन आम के बगीचे में वह आम चुन रही थी, उस दिन मकई के खेत के मचान पर उसे देखा था, जब उसके आँचल फर्र-फर्र उड़ रहे थे। हाँ, ऐसी लड़की मेरे लिए अवश्य ही योग्य पत्नी हो सकती है।

उन दिनों मैं पंद्रह-सोलह साल से ज्यादा का नहीं था। यों मैं बहुत संयम से रहता, कस्बे के स्कूल में जाकर भी मैं बिगड़ नहीं सका था, लड़कियों से अपने को दूर-ही-दूर रखता था, तो भी लड़कियों के प्रति मेरे मन में एक आकर्षण अवश्य पैदा हो चुका था। मेरे ऐसे भी दोस्त थे, जो उस उम्र में भी पूरे भौंरे बन चुके थे, जो मुझे भी उस फुलवाड़ी में घसीटना चाहते थे, फूलों की सुगंधि की चर्चा कर के मुझे उत्तेजित करने की भी कोशिश करते थे, किंतु, उन्हीं के शब्दों में, मैं झेंपू था, जो सचमुच सही बात थी! लेकिन यदि कोई लड़की ‘अपनी’ हो जाए, और वह लड़की, गाँव की उस लड़की की तरह, सुंदर हो, सुशील हो, तो भला मुझे क्या उज्र हो सकता था?

मामा जी से कुछ बातें हुईं, बात टल गई। मामा जी चाहते थे, मैं पढ़ूँ। पढ़ने में और पति बनने में परस्पर विरोध है, यह उनकी धारणा थी। कुछ प्रत्यक्ष उदाहरण भी थे। मैंने अपने नए स्कूल में शिक्षकों के मुँह से ब्रह्मचर्य की महिमा सुनी थी,–भीष्म, हनुमान, दयानंद, विवेकानंद आदि के चरित सामने आ चुके थे। अत: जब बात टली, तो मुझे बुरा नहीं लगा। और, जब उस अपरिचिता लड़की के गाँव के लोगों ने मेरे घर, बेनीपुर, जाकर इसकी चर्चा की, तो मेरे बाबा ने उन्हें ऐसा झाड़ा, कि मान लिया गया, अब वह लड़की मेरी पत्नी हो नहीं सकती! मैं भी उसे भूल गया।

पर, संयोग देखिए। लगभग एक वर्ष के बाद मैं बंशीपचड़ा से स्कूल जा रहा था, बेनीपुर के ही रास्ते। ज़रा मौसी का आशीर्वाद पा लूँ, बाबा के दर्शन कर लूँ। मामा जी ने एक बहुत अच्छा घोड़ा खरीदा था, उस पर से कई बार गिर कर मैं सवार बन चुका था। घोड़े को उड़ाते जब मैं बेनीपुर के निकट पहुँचा, मेरा मुल्तानी घोड़ा दोनों कानों को सटा कर हिनहिना उठा। देखा, दूर पर एक घोड़ा आ रहा है। मैंने चाबुक फटकारा और एक ही सर्राटे में अपने गाँव में जा पहुँचा।

पिछले घोड़े पर मेरे भावी ससुर थे। पीछे सुना, जब उन्होंने मुझसे अपनी बेटी की शादी की चर्चा चलाई थी, उनकी माँ और पत्नी ने ज़ोरदार विरोध किया था–टूअर लड़के से, जिसके पिता-माता चल बसे हों, लड़की का ब्याह करना उचित नहीं, उनकी निश्चित राय थी। अत: नए लड़के की तलाश होने लगी; अंत में एक लड़का मिला, जिसे उनके गाँव के लोगों ने पसंद कर लिया था। किंतु, जब मेरे ससुर जी स्वयं ‘सगुन’ देने को पहुँचे, उन्हें न घर पसंद हुआ, न वर। उस लड़के का गाँव मेरे गाँव के पड़ोस में ही था। अत: वहाँ से वह सीधे चले थे मेरे गाँव–अपनी आँखों मुझे और मेरे घर को देखने।

उनके आने की खबर मुझे नहीं थी। किंतु, लोगों ने समझा, जैसे मैं ही अपने ससुर जी को लेता आया हूँ। मेरे ससुर जी का बड़ा ही दिव्य व्यक्तित्व था। गोरे भभूके, पाँच हाथ के जवान, स्वस्थ, सुंदर। विशुद्ध आर्यत्व के प्रमाण में आँखों में नीलापन, बालों में भूरापन, नुकीली नाक! उन्होंने आकर मेरे बाबा को जीत लिया; उनके दामाद के रूप में मेरा सगुन चढ़ गया। ब्रह्मचर्य की कल्पना काफूर हो गई, मेरी आँखों में फिर वह अपरिचिता लड़की, ननिहाल की उस परिचिता लड़की के रूप में, घूमने लगी!

विवाह! अपने विवाह की याद कितनी मधुर लगती है अब तक! बरात सजी, मैं दूल्हा बना, ससुराल पहुँचा, परछावन हुआ, चुमावन हुआ। फिर, विवाह-मंडप में पहुँचा, मेरी बग़ल में एक लड़की को लाकर बिठलाया गया, चद्दर में लिपटी, सिमटी-सकुची। वह कैसी होगी? जब उसका हाथ मेरे हाथ पर रखा गया, देखा पतली-पतली अँगुलियाँ हैं, पतली-पतली, गोरी-गोरी। जब भाँवरे देने के समय वह खड़ी हुई, पाया, मुझसे कुछ छोटी हैं, छरहरी हैं; जब लावा छितराने के समय उससे अँकवार में भरा, सारा शरीर झनझना उठा था! किंतु शरम की बात कहाँ तक कहूँ? वही लड़की जब मेरे गाँव में आई और कोहबर में जब मेरे साथ उसे सुलाया गया, तो मैं पसीने-पसीने हो रहा। अरे, पति-पत्नी का जो शाश्वत संबंध है, मैं तो उसका क ख ग भी नहीं जानता!

किसी तरह हाँ-हूँ के बीच रात कटी! दूसरे ही दिन मैं ननिहाल चला गया। वहाँ जब उन मित्रों से कोहबर की चर्चा की, वे लोग हँसते-हँसते लोट-पोट होने लगे और मेरी अज्ञानता पर शायद तरस खा कर, पूरे ब्योरे के साथ, मुझे मौखिक शिक्षा दी गई और बताया गया, बाकी बात प्रयोग से जान जाओगे!

बहुत दिन हुए, बरट्रेंड रसेल की एक पुस्तक विवाह-संबंध पर पढ़ी थी। उसमें उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि रतिशास्त्र की शिक्षा बच्चों को देनी चाहिए; क्योंकि जीवन के इस अति आवश्यक अंग के बारे में अज्ञान रहने ही के कारण पति-पत्नी का संबंध सुखकर नहीं हो पाता, संबंध-विच्छेद तक होता है। जब तक शिक्षालयों में इसका प्रबंध नहीं है, माता-पिता इस काम को करें। क्योंकि बच्चे कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी तरह, इसका ज्ञान पाते ही हैं और चूँकि अधिकतर बुरी जगह, बुरे ढंग से पाते हैं, इसलिए उनका जीवन बर्बाद हो जाता है। रसेल की यह राय तर्क-सम्मत तो है, किंतु, स्वयं उनकी पाँच-पाँच शादियाँ दलील को काटती हैं। इधर अज्ञान के कारण उस दिन मैं भले ही शरम में गड़ा जा रहा होऊँ, किंतु मेरा दांपत्य जीवन ऐसा रहा है कि सभी तरसते हैं। शायद उस अज्ञान ने भी हमें एक-दूसरे के प्रति और भी आकर्षित किया, हम अनन्य बन गए, एक हो गए; आज तक एक हैं।

कैसा था उन दिनों का विवाह! कैसा था उन दिनों का दांपत्य जीवन! वर-कन्या की रुचि-अरुचि की कोई बात नहीं, दोनों के पिता ने जहाँ, जिससे जोड़ दिया, जुड़ गए दोनों। प्राय: छोटी ही उम्र में शादी–इसलिए, कुछ ही दिनों में, कुछ उठापटक के बाद भी, दोनों में समन्वय भी स्थापित हो जाता। फिर किसी तरह, हँसी-खुशी ज़िंदगी काट लेते–ज़िंदगी जो उन दिनों इतनी उलझी हुई नहीं थी। अपने बाबा और दादी को देखता था–मेरी दादी बिल्कुल सूधी गऊ थीं, भोली-भाली, छह-पाँच से बिल्कुल अलग–दस तक भी गिन पाती होंगी, इसमें भी मुझे संदेह है। किंतु मेरे बाबा उन्हें कितना मानते!

पति-पत्नी का संबंध बाहर-बाहर अजीब अलगाव का, किंतु भीतर-भीतर कितनी निकटता का होता! नया पतिदेव दिन में अपनी पत्नी की ओर झाँकने की भी हिम्मत नहीं करता। रात में, जब सब सो जाते, चुप-चोरी अपनी पत्नी के पास जाता और मुँह अँधेरे ही घर से निकल भागता। जब कई बच्चे हो जाते, सास-ससुर चल बसते, तब दिन में वे मिल पाते। तो भी देखते, कोई दूसरा उन्हें देख तो नहीं रहा है।

मैंने शुरू से ही इन नियमों को ढीला करना शुरू किया। मेरा दरवाज़ा घर से कुछ दूर था, इसीलिए ज्यों ही दरवाज़े पर लोग सोने का उपक्रम करते, मैं घर चला आता। मौसी इसमें मुझे प्रोत्साहित करतीं, उन्हें साँप-बिच्छू, भूत-प्रेत का भय होता। घर पहुँचते ही, वह मुझे मेरी कोठरी में सुला देतीं और बाहर से किवाड़ लगा देतीं। मेरे आँगन में बहुत-सी स्त्रियाँ थीं। बहुत रात तक मजलिस जुटती–मेरी रानी को घर के सारे कामकाज करने होते, बड़ी-बूढ़ियों के पार दाबने होते। जब सब स्त्रियाँ अपने घरों में पहुँच जातीं, तब वह सकुचाती हुई आतीं, किवाड़ खोलतीं, भीतर से बंद करतीं, और अंधकार में ही टटोलती पलंग के पास आ जातीं। प्रकाश में पति से मिलना–राम, राम! मौसी मुझे घर में रख कर चिराग़ गुल कर के ही किवाड़ लगाती न? तब तक मैं उस घोर अंधकार में, पुराने नायकों की तरह, अपनी प्रियतमा के लिए घोर प्रतीक्षा करता होता। मन ही मन कुड़बुड़ाता–इन औरतों को नींद नहीं आती है क्या? रानी ही क्यों न तुरंत सारे काम-काज सँभाल लेतीं और चली आतीं? यह पैर दाबने का खटराग वैसा? खैर, वह आतीं, तो मैं ऐसा काछ देता कि मैं गंभीर निद्रा में हूँ। सोचता, वह मुझे जगाएँगी ही। किंतु, यह क्या, अँधेरे में हाथ से टो-टा कर वह बग़ल में या पाताने में सो रहतीं। अब क्या करूँ? एक लंबी साँस लेकर करवट बदलता और इस तरह उनके बदन पर हाथ या पैर पटक देता कि जैसे मुझे कुछ ज्ञात न हो कि वह कब आईं। किंतु, असल तो मतलब होता, उन्हें बताने से कि मेरी नींद टूट चुकी है, अब तो कुछ बोलो! इतने पर वह टस-से-मस नहीं होतीं, तो हार कर, मुझे ही उनकी खुशामद करनी होती।

इस लुकाचोरी के विवाहित जीवन में भी एक रोमांस था। विवाह के पहले तो रोमांस की गुंजायश नहीं होती, अत: उन दिनों, उसकी पूर्ति इस रूप से की जाती थी।

धीरे-धीरे अपनी कोठरी में हम चिराग़ भी जलाने लगे, लेकिन उसे इस ठिकाने से रखते कि बाहर के लोग नहीं जान सकें। मैंने पाया, मेरी रानी जी कुछ भी पढ़ी-लिखी नहीं हैं–अत:, उन्हें पढ़ाने के लिए भी बेचैन हुआ। किंतु, जब किसी तरह यह खबर हुई कि मैं रात में चिराग़ जलाकर अपनी बीवी को पढ़ाता हूँ, तब तो एक कोलाहल-सा मच गया। उधर कोलाहल, इधर मेरी मास्टरी कुछ ऐसी तेज़ हुई कि रानी ने पढ़ना छोड़ दिया। जब वह मैके गईं, तो क-ट-प सीख आईं और उसी ज्ञान के बल पर मुझसे उन दिनों भी संपर्क रख सकीं, जब मैं बार-बार जेलों में जाने लगा!

प्रारंभ से ही अपनी पत्नी में मैंने कुछ विशेष बातें पाईं। मेरी शादी होते ही प्राय: यह चर्चा चलती ही रहती कि मैं अब पढ़ नहीं सकूँगा, कुछ दिन में छोड़छाड़ कर बैठ जाऊँगा। ये बातें उन्हें तीखी लगतीं। जब मैं स्कूल से छुट्टी में आता, वह पूछ लेतीं, मेरी छुट्टी कब समाप्त होती है और जो अवधि मैं बता देता, उसके बाद क्या मजाल कि मैं घर पर रह जाऊँ! न मुझ से बोलतीं, और एक ही पलंग पर सोती हुई भी मुझ से दूर ही रहतीं!

यों ही, जब मैं स्कूल चलने को होता, तो वह मुझे कुछ-न-कुछ पैसे जरूर दे देतीं। वह अपने मैके की बड़ी दुलारी लड़की थीं। शादी के बाद उन्हें काफी पैसे दिए गए थे; जब कभी मैके से आदमी आता, कुछ पैसे लिए आता। इन पैसों को सँजो कर रखतीं और जब मैं चलने को होता, उनमें से कुछ दे देतीं–कुछ खास चीज़ पसंद पड़े, तो खाइए-पीजिएगा।

यही नहीं, यदि कभी स्कूल से लौटते समय कुछ शौक की चीजें–साबुन, तेल,–ले आता, तो वह कभी उनका प्रयोग नहीं करतीं! मेरे ही लिए उन्हें सँजो कर रखतीं। यही नहीं, मैं साफ-सुथरा रहूँ, इसकी भी चिंता करतीं–आप बाहर रहते हैं, इस तरह रहने से लोग क्या कहेंगे? मैं तो भीतर रहती हूँ, किसको देखना है मुझे?

“मुझे तो देखना है!”

वह एक देहाती कहावत कह देतीं, यदि पिया अच्छे होंगे, तो गूदर पर भी रीझे रहेंगे। और, मैंने पाया, उनको इसका गर्व है कि मैं सिवा उनके किसी औरत पर दृष्टि नहीं डालता। पत्नी को अपने पति के पत्निव्रत पर उतना ही घमंड होता है, जितना पति को अपनी पत्नी के पतिव्रत पर–बल्कि उससे भी अधिक, काश, पुरुष इस सत्य को सदा ध्यान में रखता! फिर पारिवारिक जीवन कितना शांतिमय और सुखकर होता!

विवाह के तीसरे वर्ष ही मेरे जीवन में एक तूफान आया। मेरे जीवन में क्या, देश के जीवन में ही। गाँधी जी का असहयोग प्रारंभ हुआ, मैं पढ़ना-लिखना छोड़ कर उसमें पड़ गया। इसके बाद पूरे पच्चीस वर्षों तक मैं उसी तूफान के चक्कर में रहा। बार-बार जेल जाता रहा, जीवन सदा संकटमय रहा, घर की आर्थिक स्थिति दिन-दिन बिगड़ती गई। इन पच्चीस वर्षों को उन्होंने किस तरह काटा, उनका चेहरा उसका गवाह है! खास कर, एक बार जब मैं जेल में ही था, हमारा एक बच्चा चल बसा। बहुत ही प्यारा बच्चा था, सात साल का। जब मैं जेल से लौटा, पाया, रानी बूढ़ी हो चली हैं।

पिछली बार जब मैं जेल में था, वार्ड में जमादार साहब बुलाने आए, आपकी माँ आई हैं, गेट पर भेंट करने चलिए। मैं चकित, मेरी माँ कहाँ से आईं? वह तो कब न चल बसी थीं। फिर सोचा, नजरबंदी के समय भेंट में जो कठोर बंधन हैं, उनके कारण, शायद मौसी ही माँ कहकर भेंट करने आई हैं। किंतु गेट पर जाकर देखा, वहाँ तो सिर्फ रानी बैठी हुई हैं! तब मैं बात ताड़ गया, हँसकर कहा–जमादार साहब, मेरी माँ नहीं, मेरे बबुआ जी की माँ! एक ठहाका! जमादार साहब का सिर जो नीचा हुआ, ऊपर नहीं उठा!

अभी उस दिन रानी कह रही थीं, एक रिक्शेवाले ने, जब वह उन्हें डेरे पर ला रहा था, उनसे पूछ दिया था–क्या आप बेनीपुरी जी की माँ हैं! रानी यह किस्सा कह कर खूब हँसीं!

इन सारे विनोदों के भीतर जो करुणा छिपी है, उसकी कल्पना मुझे प्राय: ही द्रवित करती रही है। मेरी देशभक्ति का जितना ज़हर था, उसे रानी ने अकेले पी लिया, मुझे तो सिर्फ अमृत-ही-अमृत मिला! कभी-कभी वह व्यंग से कहा करती हैं, मेरी ऐसी औरत मिली कि वह लीडरी! कोई चोटी और चट्टीवाली मिली होती, तब मालूम होता!

आज तो चट्टी और चोटी वाली औरतों की ही चलती है, क्योंकि स्वराज्य हो चुका है न? किंतु उन संघर्ष के दिनों में तो वे पुरुष धन्य थे, जिन्हें रानी ऐसी पत्नी मिली थी, जो बिना शिकवा-शिकायत के, चुपचाप आँसू पीती हुई, घर-गिरस्ती सँभाल रखे, बच्चों की देखभाल करे, नाते-रिश्ते निभाए। मुझे याद है, एक बार रानी को सिर्फ एक साड़ी पर एक साल काटना पड़ा था!

जब-जब रानी की ओर ध्यान जाता है, इच्छा होती है, उनका गुणगान करता ही रहूँ। ‘कैदी की पत्नी’ में उनकी एक तस्वीर भी खींचने की कोशिश की, किंतु बन न पाई। उस दिन जयप्रकाश जी मेरे गाँव गए थे। मेरे नए घर को देख कर बोले, सुना था, आप मकान बना रहे हैं, यह तो महल बना दिया। और, जब तक मैं कुछ जवाब दूँ, कह उठे–यह सब रानी जी के सौभाग्य का फल है!

हाँ, मेरी रानी आज जरूर सौभाग्यशालिनी हैं। तीन बेटों और एक बेटी की गौरवमयी माता, और तीन पौत्रों की महिमामयी मातामही! घर-बाहर भरा-पूरा, किंतु इन्हें पाने के लिए उन्हें कितनी तपस्या करनी पड़ी है, उसका साक्षी मुझसे बढ़ कर दूसरा कौन है?


Original Image: Waiting for newlyweds from the wedding in the Novgorod province
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Artist: Andrei Ryabushkin
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