मुझे याद है (पाँचवी कड़ी)
- 1 July, 1953
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- 1 July, 1953
मुझे याद है (पाँचवी कड़ी)
नई दिशा
उस दिन मेरी ममेरी बहन की बिदागरी थी। आँगन में, दरवाज़े पर धूम मची हुई थी। जिनके घर में बेटियाँ ही बेटियाँ हों, उनके घर में बेटियों के आदर-सम्मान का क्या कहना ? बहन के लिए साड़ियाँ, ज़ेवर, उनके साथ जाने के लिए मिठाइयाँ आदि का प्रचुर प्रबंध था। हम लोग बड़ी उत्सुकता से इंतजार कर रहे थे, अपने बहनोई का, जिनके बारे में सुन तो रखा था, किंतु मैंने देखा नहीं था।
घोर प्रतीक्षा के बाद हम लोग उस रास्ते की ओर बढ़े जिस ओर से वह आने वाले थे। धुँधलका हो चला तो हमने घोड़ों की टाप सुनी। और कई, घोड़े हमारे सामने आ गए। उनमें से एक घोड़े के सवार ने हमसे पूछा–बंशीपचड़ा का रास्ता कौन है ?
रोब में हमने बता दिया, सीधे जाइए ! हिम्मत नहीं हुई कि अपना परिचय देते। हाँ, हमारे साथ एक सज्जन थे, वह ज़रूर कुड़बुड़ाए–अरबी-फारसी छाँटता है ! बात यह है कि हम लोग अपनी ग्रामीण बोली में ही बातें करने और सुनने के आदी थे, यह पक्की हिंदी हमलोगों के लिए अरबी फारसी ऐसी विदेशी लगती थी उन दिनों !
जिन्होंने हमसे रास्ता पूछा था, वही मेरे बहनोई थे। घर पर जाकर देखा, बड़े खूबसूरत–गोरा रंग, छरहरा बदन, रोबदार चेहरा, भूरी-भूरी पतली मूँछें ! पक्की हिंदी में ही बातें करते। जब उनसे मेरा परिचय कराया गया, उन्होंने मेरी पढ़ाई-लिखाई के बारे में दरयाफ़्त किया। जब सुना, मैं उर्दू-फारसी पढ़ रहा हूँ, यह सलाह दी, अब वह ज़माना गया, अँग्रेज़ी पढ़िए, चलिए, मेरे साथ ही पढ़िएगा !
और सचमुच, उसी दिन मेरा जीवन एक नई दिशा की ओर मुड़ गया।
मैं उनके साथ पढ़ने को भेजा गया। उर्दू फारसी छूट गई, अँग्रेजी की वर्णमाला सामने आई। रामायण छूटी, वे दस-पाँच पुस्तकें छूटीं जिनके दायरे में ही मैं दिन-रात चक्कर काटता था। अब हिंदी की नई-नई पुस्तकें देखने को मिलने लगीं, नए-नए विषयों की ! जब ननिहाल में था, एक बार एक सज्जन ने एक अखबार दिखलाया था, वह पीले कागज का एक लंबा-चौड़ा ढढ्ढर ! अब नए-नए अखबार देखने लगा, नई-नई पत्रिकाएँ देखीं। तब पत्रिकाओं की संख्या कम थी, किंतु जो निकलती थीं, बड़ी सुंदर और साफ़ दीखती थीं। पत्रिकाओं ने मुझे और भी मोह लिया !
उन दिनों जर्मनी की पहली लड़ाई चल ही रही थी। विचित्र-विचित्र खबरें सुनाई पड़तीं। हवाई जहाज (जेपलिन) का नाम सुना, पनडुब्बी जहाज (एमडन) के कारनामे सुने, उस तोप (हबीटजर) की बात भी सुनी, जो पचास-पचास मील तक गोले फेंकती है। यह सब विज्ञान की करामात है, यह नया नाम एक नये संदेश के रूप में आया ! बड़ी ही संजीदगी के साथ कहा जाता, यदि हमारे देश को उन्नति करनी है, तो हमें विज्ञान की ओर सब से अधिक ध्यान देना होगा।
देशभक्ति नाम की एक नई देवी भी सामने आईं । फ्रांस, जर्मनी, ईंग्लैंड, रूस, सभी लड़ रहे हैं अपने देश की रक्षा के लिए, उसकी शान की रक्षा के लिए। देश के लिए जान देना परम कर्त्तव्य है। देश के साथ स्वतंत्रता की बात नत्थी हुई। गुलामी सबेसे बड़ा अभिशाप है। आजादी के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानियाँ भी छोटी हैं !
कानोकान यह भी सुनने लगा, हमारा देश गुलाम है। अँग्रेजों ने कहा है, लड़ाई में हमारी मदद कर दो, जब हम जीत जाएँगे, तुम्हें स्वतंत्र कर देंगे। एक ओर कहा जाता, लड़ाई में भर्ती होना देश की सेवा है। किंतु दूसरी ओर, गुपचुप कहा जाता है, नहीं, यह सब धोका है। देश में नौजवानों का एक दल है, जो इस भ्रम में नहीं पड़ा है और वह तैयारी कर रहा है कि अँग्रेजों को मार भगाएँ ! वह दल कहाँ है, की नहीं बताता, लेकिन सभी चौकन्ने रहते कि एक दिन उस दल द्वारा कोई बड़ा कांड अवश्य किया जाएगा!
मेरा छोटा-सा दिमाग अजीब ढंग से आंदोलित रहने लगा। पुराना पूजापाठ दूर हुआ, नई भक्ति जगी। मैं अनुभव करता, जैसे मेरा कायाकल्प हो रहा है।
पत्र-पत्रिकाओं में लेख पढ़ता, कविताएँ पढ़ता, कहानियाँ पढ़ता। नई-नई पुस्तकें पढ़ता। मैं समझता था, दुनिया में वे ही दो-चार कवि या लेखक हो गए हैं, जिनकी रचनाएँ मैं उस दूर दिहात में पढ़ा करता था। अब नए-नए कवियों और लेखकों के नाम सामने आने लगे ! अरे, इस युग में भी कवि और लेखक होते हैं ! मिड्ल स्कूल में ही हमारे एक अध्यापक थे, जब सुना, वह भी कविता कर लेते हैं, तब तो महान आश्चर्य हुआ ! और, जब एक दिन सुना, हमारे स्कूल के सेक्रेटरी के लेख अखबारों में छपते हैं, तब तो कहना ही क्या ?
क्या मैं कवि नहीं हो सकता ? क्या मैं लेख नहीं लिख सकता ? कल्पना में डैने लगे, मैं उड़ने के लिए डैनों को फटफटाने लगा; किंतु तब तक पर कहाँ आए थे ?
मामा जी के दरवाजे पर पंडितों द्वारा कथाएँ तो सुनी थीं, वे बड़े अच्छे ढंग से कहते, हँसाते-रुलाते। किंतु, यहाँ कथा के बदले व्याख्यान सुनने को मिले। व्याख्यान, वक्तृता, लेक्चर–इनकी धूम थी। सेक्रेटरी साहब बहुत अच्छा व्याख्यान देते, कुछ शिक्षक भी बोलते, कुछ लड़के भी। जब वे मंच पर खड़े होते, उनकी शान देखने लायक होती, जब तालियों की गड़गड़ाहट में वे बैठते, ईर्ष्या होती, मैं भी ऐसा बोल पाता !
रहन-सहन में भी नवीनताएँ पाईं । यों तों कोट-कमीज़ का नाम देहातों में भी फैल चुका था, किंतु उनके नएँ कट क्या होते हैं, इसका कहाँ पता था ? कपड़ों की, जूतों की, बालों की नई-नई सजावटें, जो फैशन के नाम से प्रसिद्ध हो रही थीं। खाने-पीने में भी नई-नई बातें। हमारे एक शिक्षक चाय पीते थी; मैं एक दिन बड़ी उत्सुकता से इस पेय को देखने गया था ! उन्हीं को पहले-पहल सफाचट मूँछ मुड़ाए देखा था, जो उन दिनों कर्जन फैशन कहलाता था। गाँवों में सिर्फ नचनियों को मूँछ मुँड़ाये देखता था; उस दिन अपने शिक्षक पर कितनी घृणा हुई थी !
किंतु, जिस चीज़ ने मुझे सबसे अधिक चकित और विचलित किया, वह यह कि मर्द-मर्द में यौन-संबंध हो। एक शिक्षक थे, जो खूबसूरत लड़के खोजा करते ! कई ऐसे लड़के भी थे, जो बच्चों को बरगला कर सत्यानाश करते थे !
बचपन में जो धार्मक प्रवृत्ति मुझ में जगी थी, वह ढाल की तरह मेरी रक्षा करने लगी। फिर चुपके-चुपके देशभक्ति की भावना भी मेरे हृदय में घर कर चुकी थी। इन दोनों भावनाओं ने मुझे फैशन, और दूसरी बुराइयों से सदा दूर रखा। किसी को विश्वास होगा, यदि मैं कहूँ कि आज की तरह छोटे-बड़े बाल एक गुरुजन के आग्रह पर मैंने 27 साल की उम्र में कटवाना शुरू किया। नहीं तो, या तो बाल एक-साँ बढ़े, या मुँड़े !
सिगरेट की भी छूट देखी ! शिक्षक पीते, लड़के पीते । किंतु, मेरे जीवन के साथ सिगरेट की एक करुण कथा है।
घर से जाने के थोड़े ही दिनों बाद, एक दिन मैंने अपने बहनोई के एक चचेरे भाई के साथ सिगरेट पी। यह बात उनके कानों तक किसी तरह पहुँच गई। भाई की तो अच्छी मरम्मत की, मुझे इस चेतावनी के साथ ही छोड़ दिया कि अब ऐसी बात सुनने को मिली, तो वापस घर भेज दूँगा।
इसके बाद ही एक दुर्घटना हो गई–मेरे अभाग्य ने मुझे अब तक नहीं छोड़ा था। मेरे बहनोई की अचानक मृत्यु हो गई ! मेरे दिल पर बड़ी चोट लगी। उनकी स्मृति को सदा ताज़ा बनाए रखने के लिए मैंने मन ही मन प्रतिज्ञा की, अब कभी तंबाकू का किसी रूप में इस्तेमाल नहीं करूँगा। इस नियम को मैंने पच्चीस वर्षों तक निबाहा। जब पिछली बार, जेल में नज़रबंदी की लंबी मुद्दत काट रहा था, तो एक वैसे ही प्यार मित्र के आग्रह पर मैंने सिगरेट पीना शुरू किया और शायद इसे फिर पच्चीस वर्षों तक ढोना पड़ेगा !
बहनोई की मृत्यु के बाद मेरा जीवन फिर चंचल हुआ। कई स्कूलों में दौड़ना पड़ा। अंत में अपने जिले के सदरमुक़ाम में आकर सिलसिले से पढ़ाई शुरू की।
यहाँ मेरे विचारों में कुछ परिपक्वता आई। साहित्य की ओर मेरी प्रवृत्ति अधिक झुकी। उन दिनों हिंदी साहित्य सम्मेलन की परीक्षाओं की धूम थी। प्रथमा और मध्यमा की परीक्षा दी, मैं विशारद बना। मैं स्कूल की नीची कक्षा में था, कितने ही बड़े-बूढ़े और ग्रेजुयेट भी मेरे साथ परीक्षा में बैठे थे। उन्हें अपने बीच मुझे देख कर कुतूहल हुआ था, तो भी साहित्य के पर्चे में उन्होंने मुझसे सहायता लेने में संकोच नहीं किया था।
देशभक्ति की भावना भी दृढ़ होती गई। इसी शहर में खुदीराम बोस ने, भारत के इतिहास में पहली बार, बम पटका था, जिससे धोखे में दो मेमे मारी गई थीं। खुदीराम के मुक़द्दमें में जिस वकील साहब ने काम किया था, उनका डेरा मेरे स्कूल की बग़ल में ही था। हम उन्हें किस श्रद्धा से देखते थे ! हमारे डेरे में एक सिपाही जी आते थे, वह कहते थे, फाँसी के पहले खुदीराम जिस कोठरी में रहते थे, उसके पहरेदारों में वह भी थे। मैं खोद-खोद कर उनसे पूछा करता था !
एक दिन कुछ बंगाली नौजवान एक होस्टल में पकड़े गए थे, उन दिनों उन्हें ‘अनारकिस्ट’ कहा जाता था। जिस दिन वे कचहरी ले जाए गए, मैं उन्हें देखने कचहरी गया था।
नए-नए नेताओं के भी नाम सुने–उन दिनों बाल, लाल, पाल की धूम थी। बाल=बाल गंगाधर तिलक; लाल=लाला लाजपत राय; पाल=विपिनचंद्र पाल ! फिर गाँधी जी की धूम आई ! दक्षिण अफ्रीका के उनके कर्तृत्वों ने हमें विशेष रूप से मोहित किया था और जब उन्हीं गाँधी जी को एक दिन स्टेशन पर चंपारण जाते हुए देखा था। अहा ! वह दृश्य आज भी नहीं भूल सका हूँ !
धीरे-धीरे मैं वक्ता बना और कवि भी ! किंतु, इसकी चर्चा अभी पीछे के लिए सुरक्षित रहे।
एक आदर्श विद्यार्थी का जीवन बिताने की भी धुन समाई। सिगरेट छोड़ दी थी, पान खाना भी छोड़ दिया। शहर की मिठाइयाँ भी नहीं खाता। प्राय: नंगे पैर ही आता-जाता। बालों की सजावट तो कभी की ही नहीं। सरसों का तेल ही मेरे लिए सबसे अच्छा तेल था। पहनावे में घुटनों के थोड़े ही नीचे पहुँचने वाली धोती और आधी कमीज़। टोपी मैंने जीवन में बहुत ही कम पहनी है। खाने-पीने में भी बड़ी सादगी। भोर में कच्चे चने या चूड़ा चबा लिए, दिन में भात-दाल ठूँस लिया, शाम को चबेना उड़ाया और रात में फिर वही भात-दाल। दूध, दही, घी की क्या परवाह ? मैं जिस प्राइवेट होस्टल में रहता था, शौकीन लड़कों की कमी नहीं थी। मैं उनके औज-मौज पर जलता और मन ही मन कहता, उड़ा लो बाप-दादे की कमाई; परीक्षा के समय मालूम होगा न ? मैं सदा परीक्षाओं में प्रथम आता, इसका मुझे कम घमंड नहीं था !
अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए मैं सदा उद्योगशील रहता। थोड़ी ही अँग्रेज़ी जान पाया था, तो भी ‘माडर्न रिव्यू’; जो रहा-सहा ज्ञान उर्दू का था, उसी के बल पर ‘ज़माना’; और इधर थोड़ी बंगला सीख ली थी, सो ‘भारतवर्ष’ खोज-ढूँढ़ कर पढ़ने की चेष्टा करता। हिंदी की पुस्तकों का तो कीड़ा ही था, अँग्रेज़ी और बंगला की पुस्तकें भी मेरी गलहार बनने लगीं। पाठ्य-पुस्तकें बहुत ही कम पढ़ता; तो भी मेघाशक्ति कुछ इतनी तीव्र थी कि उस क्षेत्र में भी कोई मेरी परिछाईं नहीं छू पाता !इन सब बातों का यह अनिवार्य परिणाम था कि मैं कुछ विद्यार्थियों का नेता भी बन गया था !
Original Image: The marriage procession of Dara Shikoh Google Art Project
Image Source: Wikimedia Commons
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