नारी ‘भरम’ रही है!

नारी ‘भरम’ रही है!

जैसे साहित्य विचार-सौंदर्य का सार है; संस्कृति पारस्परिक व्यवहार-सौंदर्य का, संगीत ध्वनि-सौंदर्य का तथा चित्रकला रंग और दृष्टि-सौंदर्य का सार है वैसे ही पुरुष या नारी सृष्टि-सौंदर्य का अंतिम सत्य है। पुरुष और नारी को दो सर्वथा भिन्न जीव मान लेना बड़ा कठिन है। वस्तुत: वे एक ही जाति के हैं और उन्हें साथ-साथ काम करने के लिए ही प्रकृति ने गढ़ा है जिससे उसके जीवों की चिरंतनता बनी रहे। इसके अतिरिक्त कोई भी दूसरा उपाय ही नहीं जिससे जीव अपना विकास कर सके और अनंत काल तक जीवित रहे। चाहे हम कितना ही प्रयत्न क्यों न करें कि पुरुष और नारी के व्यक्तित्वों का विकास सर्वथा समान तथा समानांतर दिशा में हो पर प्रकृति और जीव के हित के लिए पुरुष और नारी को परस्पर घुल-मिल जाना ही होगा। हम अपने को धोका दे सकते हैं, अपने चारों ओर आडंबर का जाल फैला सकते हैं, पर प्रकृति को धोका नहीं दे सकते। वह पुरुष और नारी से कहीं अधिक शक्तिशाली है। उसके नियम अटल और अजेय हैं।

राजनैतिक, नैतिक या सामाजिक क्षेत्र में पुरुष और नारी की समानता का प्रश्न, उनके प्राकृतिक संबंध के विषय में अज्ञान का ही परिणाम है। यदि इस संबंध को हम स्पष्ट रूप से समझ लंर तो एक ही मानव-जीवन के इन दो तत्त्वों के बीच विभेद तथा विरोध का कहीं स्थान ही नहीं रह जाए। शरीर-विज्ञान तथा जीव-विज्ञान के दृष्टिकोण से इन दोनों जीवों का अध्ययन करने पर यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि प्रकृति ने इन दोनों को एक साथ रखा है तथा उन्हें परस्पर एक दूसरे के लिए ही बनाया है। आकृति के लिहाज से पुरुष वही नहीं है जो नारी है और न नारी वही है जो पुरुष। मानसिक प्रक्रिया के लिहाज से नारी वही नहीं है जो पुरुष और न पुरुष वही है जो नारी। वैसे तो निश्चय ही कुछ आधारभूत चीजें ऐसी हैं जो प्रत्येक दूध पिलाने वाले जीव में मिलेंगी। फिर भी शारीरिक आकृति तथा मानसिक प्रक्रिया में इतनी अधिक भिन्नता होते हुए भी पुरुष और नारी में इतना ऐक्य है कि इसकी कल्पना भी कठिन हो जाती है कि इनका निर्माण समांतर क्षेत्रों में काम करने के लिए हुआ है। आदिम युग में झंझा, तूफान, तुषार-पात, वृष्टि तथा लू के रूप में प्रकृति द्वारा किए गए अत्याचार से मनुष्य को संघर्ष करना पड़ा, वन्य पशुओं के आक्रमण से भी उसे लड़ना पड़ा; पर अपने जीवन की सुरक्षा के लिए पुरुष को नारी से कभी भी नहीं लड़ना पड़ा। इसके विपरीत पुरुष को नारी के समक्ष अपना पूर्ण आत्मसमर्पण करना पड़ा और उसे नारी से अपना तादात्म्य संबंध स्थापित करना पड़ा जिससे जीवन संघर्ष में वे दोनों एक साथ प्रवृत्त होकर जीवन का विकास कर सकें। उनके बीच कभी कोई राजनीतिक या सामाजिक संधि नहीं हुई। यह तो मानव की सहज प्रवृत्ति थी–उसकी आदि मनोभावना और चेतनता ही थीं जिन्होंने एक शाश्वत, सुसंबद्ध तथा अविच्छिन्न जीवन व्यतीत करने के लिए पुरुष को नारी की ओर तथा नारी को पुरुष की ओर अनादि काल से ही आकृष्ट कर दिया। आज का यह नारा कि नारी शोषित तथा दलित वर्ग है–वह पुरुष से जीवन के हर क्षेत्र में समानता के लिए संघर्ष कर रही है–तथा उसे उन अस्त्रों की खोज करनी चाहिए जिनसे वह आगे बढ़ गई पुरुष जाति को परास्त कर सके–सर्वथा अप्राकृतिक तथा भ्रमोत्पादक है।

प्रकृति में पुरुष और नारी का जो स्थान है उसे दृष्टि में रखते हुए समाज में पुरुष और नारी का स्थान निर्धारित करने की चेष्टा विचारक युगों से करते आ रहे हैं। प्रकृति ने न नारी को अबला बनाया है न पुरुष को सबल! दोनों ही सबल भी हैं और निर्बल भी। पुरुष शारीरिक बल में सशक्त है, नारी भावुकता में। पुरुष उछलता-कूदता है, उसका स्वर भारी है, अपनी सबल उँगलियों से किसी गुत्थी को तोड़-ताड़ कर भी सुलझा लेता है, दाढ़ी-मूँछों के कारण उसका चेहरा अपेक्षाकृत कम सुंदर और चिकना लगता है पर वह बड़ी ही मर्मभेदी दृष्टि से देखता है और साधारणत: उसकी प्रवृत्ति ही आक्रामक तथा क्रियाशील है। दूसरी ओर नारी इन सब गुणों में पुरुष के विपरीत पड़ती है। बलखाती हुई पतली कमर की नारी मंद गति से चलती है और उसके पद-निक्षेप में भी एक सुमधुर संगीत निहित रहता है; उसकी बोली सुरीली और मीठी होती है; उसकी कोमल, पतली और लंबी उँगलियाँ बड़े ही कलात्मक ढंग से चलती हुई किसी उच्च कोटि की कला का निर्माण कर देती हैं; उसके गुलाबी गाल और मद-भरे होठ न जाने कितने आकर्षक हैं और उसकी बाँकी चितवन हृदय में शीतलता पैदा करती है। जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण ही करुणा का है जहाँ सबका स्वागत है और वह सबको आत्म-सात कर लेती है। उसे दूसरों पर पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देने पर पूर्ण विश्वास है। इसलिए हम नहीं कह सकते कि पुरुष और नारी में कौन अधिक सबल है। दोनों ही समान भाव से सबल भी हैं और निर्बल भी। शक्ति के प्रदर्शन में पुरुष बढ़कर है, भावुकता तथा करुणा में नारी। युद्ध के महानतम योद्धा और बड़े-बड़े संतों ने भी जहाँ नारी के समक्ष अपनी हार स्वीकार की है; वहाँ सुंदरतम नारी ने भी एक घोर कर्मठ साधारण पुरुष के समक्ष अपना सर्वस्व समर्पित किया है! इतिहास इस बात का साक्षी है कि पुरुष और नारी दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में समान भाव से सशक्त हैं और अपने प्राकृतिक कल्याण के लिए वे एक दूसरे के पूरक बनते हैं तथा एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। कितना भी सशक्त पुरुष क्यों न हो वह नारी के कोमल बाहु-पाश में बँधने के लिए सदा उत्कंठित रहता है। नारी कितनी भी कोमलांगी तथा सुंदर क्यों न हो वह पुरुष द्वारा अपनी सुरक्षा के लिए बेचैन रहती है। यह प्रकृति का नियम है–पुरुष और नारी मिलकर ही पूर्ण हैं।

पुरुष और नारी का परस्पर एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक आकर्षण ही ‘प्रेम’ है। यह एक ऐसा विषय है जिसने विश्व-साहित्य के एक बहुत बड़े भाग पर अपना आधिपत्य जमा रखा है। साहित्य से ‘प्रेम’ निकाल दीजिए, उसमें कुछ नहीं रह जाएगा। भूख के बाद यही हमारी सबसे बड़ी मनोभावना है जिसे कोई भी विचारक अपनी आँखों से ओझल नहीं कर सकता। इस ‘प्रेम’ को लोगों ने अनेक रूपों में देखा है तथा अनेक प्रकार से उसे अभिव्यक्त किया है। उसे ईश्वर तक की संज्ञा दी गई है तथा मानव-मस्तिष्क जो सबसे बड़ा आध्यात्मिक प्रतीक ढूँढ़ सकता था वह प्रतीक भी उसे दिया गया है। प्रेम को पाशविक तथा रक्त-रंजित भी कहा गया है! इन दोनों छोरों के बीच भी न जाने प्रेम के कितने रूप हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में काफी प्रभाव-पूर्ण हैं। संपूर्ण वैदिक तथा हिंदू-काल में, विचारों की विविधता के बावजूद, नारी अर्धांगिनी ही मानी गई है जिसे ‘शिव-पार्वती’ के प्रतीक से समझाया गया है। पत्नी के पार्श्व में बैठे बिना कोई भी यज्ञ पूर्ण नहीं हो पाता था। शासन के लिए भी राजा को रानी के साथ ही सिंहासनारूढ़ होना पड़ता था। उस समय विषमता का प्रश्न कहाँ था? भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही कर्मों के लिए पुरुष और नारी मिलकर ही संपूर्ण हो पाते थे। यूरोप के प्राचीनतम युगों ने ‘सौंदर्य और पशु’ की पौराणिक कथाओं के द्वारा नारी की सत्ता का प्रतिनिधित्व किया। वीरता-पूर्ण भावुकता के लिए प्रसिद्ध मध्य-युगों ने नारी के ऊपर पुरुष की तथा पुरुष के ऊपर नारी की सत्ता दो विभिन्न प्रकारों से मानी; फिर भी उन दोनों में बहुत अधिक साम्य भी उन्होंने माना था। पुरुष और नारी में प्रकृति द्वारा किए गए इस विभेद का अर्थ केवल क्रियाशीलता तथा भावुकता का सुमधुर संयोग ही है। एक के प्रति दूसरे की इस आसक्ति का अंत सुखांत और दुखांत दोनों ही हो सकता है–वह हमें हँसा भी सकता है, रुला भी सकता है; फिर भी यह मधुर है, वरदान है और उदात्त भी!

वैज्ञानिक युग में आने पर हम पाते हैं कि विज्ञान या विश्लेषण-दर्शन ने प्रेम के टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं और यह जानने की चेष्टा की है कि प्रेम क्या है और कैसे चलता है? इस विश्लेषण में यद्यपि विज्ञान ने प्रेम के काव्यात्मक तथा भावुक रूप को खो दिया है फिर भी निश्चय ही उसने रहस्य तथा शक्ति के रूप में बहुत कुछ प्राप्त कर लिया। इस दर्शन ने प्रेम की क्रियाशीलता की व्याख्या की, जिसे अभी तक हमने या तो जाना ही नहीं था या जाना भी था तो गलत! फ्रायड ने हमारी वासना की मनोवृत्ति को हमारे जीवन की क्रियाशीलता में सबसे बड़ा स्थान दिया है। शॉपेनहावर ने कहा कि इस वासना की भावना में मृत्यु के बाद तक जीने की इच्छा निहित है, जिसे प्रकृति ने पुरुष और नारी दोनों को ही जीव की शाश्वतता अक्षुण्ण रखने के लिए दिया है। इस दार्शनिक के अनुसार पुरुष और नारी वस्तुत: एक दूसरे के पूरक हैं और यही कारण है कि एक दूसरे को इतना चाहते हैं। वह पूछता है कि प्रेमी क्यों अपनी प्रेमिका के आगे किसी दूसरे को नहीं चाहता और उसके लिए सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहता है? क्योंकि यह उसकी अमर आत्मा है जो प्रेमिका को चाहती है। उसका नश्वर शरीर ही संसार की अन्य वस्तुएँ चाहता है। वैज्ञानिक समीक्षा के बाद शॉपेनहावर इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि प्रेम भविष्य में पैदा होने वाले शिशु का स्पष्ट स्वर ही है। पुरुष और नारी के भाग्य बदले नहीं जा सकते। बर्नर्ड शॉ की भी यही धारणा है। उसके अनुसार अपनी चिरंतनता बनाए रखने के लिए प्रकृति की जो योजना है वही पुरुष और नारी का प्रेम है। शॉपेनहावर तथा शॉ में अंतर केवल इतना ही है कि पहले की मान्यता यह है कि पुरुष और नारी दोनों ही प्रकृति की प्रेरणा से इस काम में संलग्न होते हैं; पर दूसरे के अनुसार नारी ही पुरुष के लिए बेचैन रहती है। यही शैवों का भी सिद्धांत है। वास्तविकता यह है कि पुरुष और नारी दोनों ही एक दूसरे को ढूँढ़ते रहते हैं। इससे संबद्ध और भी अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर इसी सिद्धांत के भीतर निहित है। ऐसा क्यों है कि पुरुष किसी नारी-विशेष को प्यार करता है, दूसरे को नहीं; और नारी किसी पुरुष-विशेष को प्यार करती है, दूसरे को नहीं? ऐसा क्यों है कि पुरुष एक से संतुष्ट नहीं रहता–वह अनेक को प्यार करना चाहता है; और नारी साधारणत: एक को ही प्यार करती है, अनेक को नहीं? ऐसा क्यों है कि नारी में सहानुभूति, कोमलता, धैर्य तथा सहनशीलता आदि दैवी गुण बहुत अधिक मात्रा में पाए जाते हैं? उत्तर यही है कि काम-वासना की पूर्ति के बाद पुरुष स्वतंत्र हो जाता है। भावी पीढ़ी की सृष्टि का बीज वह बो देता है तथा एक वर्ष में वह सैकड़ों पीढ़ियों की उत्पत्ति का बीज बो सकने में समर्थ है। परंतु केवल सृजन ही सब कुछ नहीं; पालन-पोषण भी अत्यावश्यक है। भावी शिशु का पालन कौन करेगा? प्रकृति ने नारी की सृष्टि इसी महान उद्देश्य से की है। नारी को उसने वह वरदान दिया है कि जिससे उसे दूध पैदा हो सके। उसे मातृत्व की भावना से अनुरंजित कर रखा है जिससे वह अपनी जान देकर भी अपनी संतान का पालन-पोषण बड़ी ही सावधानी से कर पाती है। पुरुष और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं। परस्पर की स्पर्धा के लिए उनका निर्माण नहीं हुआ है बल्कि परस्पर की पूर्णता के लिए।

पुरुष और नारी के इस प्राकृतिक संबंध को यदि हम एक बार समझ लें तो हमारी सारी समस्याएँ स्वयं ही हल हो जाएँ। चाहे आप जो भी करें, आपके विचार चाहे जो कुछ भी हों, नारी को अपने गर्भ में बालक को ढोना ही होगा और उसका पालन-पोषण करना ही होगा। यही नारी की पूर्णता है, यही उसकी सार्थकता है। इस शिशु-पालन का अर्थ है गृह-निर्माण। प्रकृति के साम्राज्य में गृह का वही महत्त्व है जो जगत का। गृह का विनाश सारे जगत का विनाश है। गत जनवरी में दिल्ली में गाँधीवाद के दृष्टिकोण तथा उसकी प्रक्रिया पर जो व्याख्यान-माला आयोजित हुई थी उसमें प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान मैसिगनन् ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि मजदूर-वर्ग के सामाजिकरण का अर्थ है नारी का सामाजिकरण। क्या नारी सामाजिकरण की वस्तु है? नारी कारखाने में गई नहीं कि खोई। परिवार उजड़ जाएँगे। नारी को कारखाने में भेज देने के बाद वास्तविक पारिवारिक जीवन का सुख हमारे लिए असंभव है। यदि आप नारी को कारखाने में रखते हैं तो आप जगत का विनाश कर रहे हैं।

इसलिए हमें यह बात सदा याद रखनी होगी कि जिस प्रकार पुरुष के लिए कुछ काम प्रकृति द्वारा अलग कर दिए गए हैं, उसी प्रकार नारी के लिए भी कुछ काम अलग कर दिए गए हैं। विभाजन के सिद्धांत का आज के परिवर्तनशील जीवन की गुत्थियों के साथ समन्वय स्थापित करते हुए, उसे कैसे व्यवहार में लाया जाए, यही हमारे सामने आज कठिन प्रश्न है। सारी कठिनाई इसीलिए आज पैदा हो गई है कि पुरुष ने अपना आदर्श छोड़ दिया है–वह वास्तविकता को भूल गया है। वह अपना एक अलग, किंतु गलत राग अलाप रहा है और वह उसी में प्रसन्न है। नारी भी दुश्शिक्षा तथा कृत्रिमता की चकाचौंध में आकर पथ-भ्रष्ट हो गई है। यही कारण है कि वह पुरुष के साथ समानता की आवाज उठा रही है और पुरुष की बराबरी करने के लिए तैयार हो रही है। और यही कारण है कि झूठे पुरुषत्व की भावना से भरा हुआ पुरुष नारी के समक्ष सिर झुका देता है। निश्चय ही नारी का दमन और शोषण नहीं होना चाहिए पर उसे भ्रम में भी नहीं रखना चाहिए। पुरुष के अर्ध-भाग के रूप में नारी का स्थान अचल है। इसे अस्वीकार करने का अर्थ जीवन के सौंदर्य के सत्य को ही अस्वीकार करना है।

आज के हमारे समाज में जहाँ ईर्ष्या, अज्ञान, दर्प और छल का इतना बोलबाला हो गया है, जहाँ स्पर्धा ही जीवन की रीढ़ बन बैठी है, जब आर्थिक संकट सबसे अधिक भयंकर हो गया है, जहाँ संस्कृति का अर्थ बाह्याडंबर हो गया है, नारी को निश्चय ही कला तथा विज्ञान में, पुरुष की बराबरी करनी होगी, उसे पुरुष का ही पेशा अपनाना पड़ेगा; पर ध्यान रहे, यह सब कुछ तभी तक, जब तक युग की असाधारणता उसकी माँग करती है–इसे नारी-जीवन का मूल-तत्व नहीं बनाया जा सकता। जिस प्रकार असाधारण घटनाओं के समय बाहर भागने के असाधारण रास्ते होते हैं उसी प्रकार केवल असाधारण परिस्थितियों की माँग पर ही नारी पुरुष के समान धनोपार्जन तथा युग-संघर्ष की तैयारी करे। यह तैयारी नारी-जाति को इस पथ-भ्रष्ट युग में पतन के गर्त में गिरने से तो बचाएगी ही, वह उसका दमन भी नहीं होने देगी तथा नारी प्रतिष्ठा के साथ अपने वास्तविक धर्म को भी पूरा कर सकेगी। पर समाज की विषम-योजना के कारण नारी के मन में जो भय पैदा हो गया है, बिना सोचे-समझे आज जो नारे लग रहे हैं तथा हमारी दुश्शिक्षा ने नारी की आँख में जो चकाचौंध पैदा कर दी है, उसने नारी को पथ-भ्रष्ट तो किया ही है, उसके दिल और दिमाग में एक अजीब गलत लालसा भी भर दी है। उसे दूर हो जाना चाहिए। नारी पुरुष के साथ स्पर्धा के लिए नहीं निर्मित हुई है बल्कि उसकी पूर्णता के लिए बनी है। पुरुष और नारी मिलकर ही संपूर्ण हैं।


Image: Ragamala Creation Date ca. 1725
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