निशीथ
- 1 July, 1953
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- 1 July, 1953
निशीथ
मैं काली रात का सबसे काला धब्बा हूँ और चाँदनी रात का सबसे उज्ज्वल प्रकाश-स्तंभ। मैं वह केंद्र-बिंदु हूँ, जिससे काल की परिधि चारों दिशा में फैलती है। जब कभी पूर्णिमा का चंद्रमा मुझ तक पहुँचता है, वह सबसे सुंदर हो उठता है। मैं वह शिखर हूँ, जिस पर चढ़कर चंद्रमा सारे संसार पर अपनी अमृत वर्षा करता है और अमावस्या अपना अंजन विश्व पर विखेरती है।
जब सारा विश्व निद्रा देवी की गोद में शयन करता है, मैं जागकर सबका पहरा देता हूँ। गीता की परिभाषा में मैं सबसे बड़ा योगी हूँ; क्योंकि जब सारा संसार सोता है, मैं जागता हूँ। यदि वह भोगी है, तो मैं सबसे बड़ा योगी ! मुझे भोगी, योगी और रोगी सभी चाहते हैं। भोगी अपने परम विलास, योगी अपनी परम समाधि और रोगी परम शांति प्राप्त करता है।
तुलसीदास की परिभाषा के अनुसार मैं सबसे बड़ा संत हूँ। दिन सबके सब दोषों को प्रगट करता फिरता है, मैं सभी के दोषों को छिपाता हूँ–“गुन प्रगटत अवगुनहिं दुरावा !” इसलिए मेरा नाम ‘निर्दोषा’ होना चाहिए था, पर दोष-दशियों ने मेरा नाम ‘दोषा’ रख दिया है। दिन जबकि विश्व में विषमता लाता है, मैं समता स्थापित करता हूँ। कालिदास ने मेरी समता के गुणगान किए हैं, उन्होंने मेरे गुणों को पहचाना था। उन्होंने कहा था–
“सर्वमेव तमसा समीकृतम्”
समता का उपासक मुझसे बड़ा कोई मिल ही नहीं सकता। मैं सबकों स्वतंत्रता, स्वच्छंदता प्रदान करता हूँ, जबकि दिन सबको बंधन में डालता है। मैं विरोधियों में भी बंधु-भाव स्थापित करता हूँ, जबकि दिन बंधुओं को भी लड़वा देता है। इस प्रकार मैं आधुनिक युग के तीन मूल मंत्र–समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का सबसे बड़ा प्रचारक और समर्थक हूँ।
शास्त्र व्यर्थ ही कभी ईश्वर और कभी गंगा आदि नदियों को पापियों को गति देने वाली कहकर उनके गुणगान करते हैं। असल में मैं ही उनको गति प्रदान करता हूँ। मुझसे बड़ा प्रगतिशील कौन होगा?
कविगण व्यर्थ ही समुद्र, गिरिगुहा और पर्वत-शिखर की गंभीरता, गुह्यता और उच्चता की प्रशंसा करते हैं। कौन है मुझसे अधिक धीर, गंभीर और सर्वोच्च? जल के अंदर भी उतनी निस्तब्धता और शांति नहीं है, जितनी मेरे अंतराल में मौजूद है।
कवियों की प्रतिमा, योगियों की एकाग्रता, भोगियों की शांति और रोगियों की विभ्रांति का एकमात्र जनक मैं ही हूँ। मेरा ही अंजन लगाकर वे निशा में स्वैर विहार कर सब कौतुक देखते हैं :
यथा सुअंजन आंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखहि शैलवन भूतल भूरि निधान।।
सूर्य का परम प्रकाश भी जिनकी आँखों को प्रकाश नहीं दे सकता, उनको मैं अपनी ज्योति से प्रकाशित करता हूँ। विश्वास न हो तो ऊलूक, जार और चोर से पूछ लीजिये। पाप-ताप से पीड़ित सब मेरी ही शरण आते हैं। मैं सबको शरण देता हूँ। कौन है मेरे समान शरणागत-वत्सल ? जिनको कोई शरण नहीं दे सकता, उनको मैं शरण देता हूँ।
मैं विश्व का सजग प्रहरी हूँ। निद्रा तो मेरी सुषुप्त संगिनी है और रात्रि जाग्रत संगिनी। रात्रि और निद्रा दो ही मेरी संगिनियाँ हैं।
काल अवश्य मेरा क्रियात्मक साथी है, जिसका हाथ पकड़कर मैं सारे संसार में घूमता हूँ। मेरे मित्र हैं वे तारे, जो मेरा शृंगार करते हैं; वे रजनी-गंधा के पुष्प, जो अपनी मधुर सुवास से मेरे आँचल को भर देते हैं और वीणा, जो मुझे मधुर स्वरों से भर देती है।
वायु और मेघ भी कभी-कभी मेरा साथ दे देते हैं; पर मैं उनका विश्वास नहीं कर सकता। वे ‘चेतुआमीत’ कब कहाँ उड़ जावें, कुछ ठिकाना नहीं। मेघ मेरा शत्रु और मित्र दोनों है। जब गरज-गरजकर मेरी शांति भंग कर देता है, तब मेरा शत्रु है; किंतु जब रिमझिम बरसकर मुझे स्नेहार्द्र करता है, तब उससे बढ़कर मेरा मित्र कोई नहीं। मंद-मंद जलधारा जगजुर्रनुसागरम्। उसकी संगिनी सौदामिनी तो मेरी विरोधी ही समझिए–उसका और मेरा कभी मेल नहीं खा सकता। वह मेरे काले वस्त्र को व्यर्थ ही फाड़ने का प्रयत्न करती है। मेरे दूसरे शत्रु घंटा घड़ियाल हैं, जो मेरी निस्तब्धता को व्यर्थ ही नष्ट करते हैं और तीसरे शत्रु हैं, बिजली के लाल-नीले बल्ब, जो मुझे व्यर्थ ही कष्ट देते हैं। रेल की सीटी तो मानों मेरी छाती को चीर डालती है और ये मेघनाद के नवीन अवतार (लाउड-स्पीकर) तो मेरे हृदय में घाव कर देते हैं।
चंद्रमा को क्या कहूँ–शत्रु या मित्र, कुछ समझ में नहीं आता। वह अपने रजतकरों से मेरे कृष्ण परिधान को फाड़ने में अपनी कला दिखलाता है। पर कभी अपनी सौम्य चाँदनी से मेरे सौंदर्य को बढ़ाता है। लोग ‘चार दिन की चाँदनी’ को इतना प्यार करते हैं। अपनी चिर संगिनी विश्रामदायिनी अमावस्या को क्यों घृणा करते हैं, यह समझ में नहीं आता।
तुलसीदास ने मेरे विरोधी मध्याह्न की इतनी तारीफ कर उसे सिर पर चढ़ा दिया है–‘मध्य दिवस अति शीत न घामा। पावन काल लोक विश्रामा।।’ कह कर मेरे गुणों का उस पर आरोप कर दिया है। मेरे प्रशंसक तो भागवतकार और सूरदास थे, जो कि मेरे ही समान-धर्मा थे। उनके आराध्य गोपालकृष्ण को मैंने ही जन्म दिया था और मैंने ही यमुना के पार लगाया था–
निशीथे तम उद्भूते जाय माने जनार्दने।
आविरासीद्यथा प्राच्यां दिशींदुरिव पुष्कल।।
मेरी कीमत तो हिंदी कवि बिहारी, मतिराम और देव ने समझी थी; तुलसी ने दशरथ के मुख से याचना की थी कि मैं अपने पैर पसार दूँ, जिससे सूर्योदय ही न हो–न प्रात:काल होगा और न राम वन जावेंगे ।
अभिसारिकाओं को तो मैं ही पथ-प्रदर्शन कराता हूँ। पद्माकर ने ठीक ही कहा है–
कारी निशि कारी घटा कचरत कारे नाग।
कारै कान्हर पै चली अजब लगन की लाग।।
जब मैं उनका पथ-प्रदर्शन कर रहा था, तब कालीदास को क्या आवश्यकता थी मेरी संगिनी रात्रि की सौत सौदामिनी से पुकारकर कहने की कि उज्जयिनी पर चमक-चमककर अभिसारिकाओं का पथ-प्रदर्शन करती जाओ। मेरी समता की प्रशंसा कर के भी उन्होंने विषमता बढ़ाने वाली सौदामिनी से सहायता माँग ही ली। बड़ी विचित्र खोपड़ी के होते हैं ये कवि लोग !
Original Image: Night
Image Source: WikiArt
Artist: Mikalojus Konstantinas Ciurlionis
Image in Public Domain
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