पागलखाना

पागलखाना

(रेडियो रूपक)

स्थान–पागलखाना

पात्र–पागलखाने का मैनेजर, एक पागल, एक प्रोफेसर और एक लड़की मनसा।

मैनेजर–अपने ‘मजबूत बनो’! ‘मजबूत बनो’!! चिल्लाने वाले हजरत देख लिए। अब ये दूसरे दीवालिए सटोड़िये महाशय हैं। इनसे मिलिए! ये रात-दिन कंकड़-पत्थर जमा करके गिनते ही रहते हैं। इनका एकमात्र खब्त है पैसा कमाओ! पैसा जमा करो! धनवान बनो!! इनकी आदमी की परिभाषा है, जिसके पास पचास हजार कम से कम नगद हों।

मनसा–यह भी आज के युग का एक सर्वसाधारण अभिशाप है। आर्थिक कष्ट से जहाँ मेरे कलाकार मित्र का बच्चा दवादारू और दूध के अभाव में मर गया, वहाँ कई एकाकी प्राणियों को इतना अधिक धन वेतन या जायदाद या अन्य रूपों में मिलता है कि वे जान नहीं पाते कि उस धन का क्या करें?

प्रोफेसर–धन पर इतना क्यों अटकना? वह पहला पागल ‘मजबूत बनो, मजबूत बनो’ कह कर तन पर ही जोर देता था। ज्यादा जोर देने से, बहुत अधिक तानने से मन का ताना-बाना ही टूट गया। अब यह लक्ष्मी के शिकार कोई व्यक्ति जान पड़ते हैं। यह तन के बदले धन पर जोर देते हैं।

मनसा–पैसा अगर जमा हो जाता है और आगे काम में नहीं आता, तो वह एक रोग के ही समान है जैसे मवाद शरीर में जमा हो जाए। द्रव्य का अर्थ ही है साधना, वह अपने आप में साध्य थोड़े ही है।

प्रोफेसर–साधन की गड़बड़ी का नाम ही मानसिक असंतुलन है। क्यों मैंनेजर साहब, इस पागल के पास क्या बहुत पैसा जमा था जो सहसा डूब गया।

मैनेजर–इनके इतिहास का हमें भी विशेष पता नहीं, परंतु जो कुछ जाना था वह बाद में बताऊँगा। इस वक्त तो यह कागज की चिंदियाँ जमा करते और इन्हें नोटों की तरह गिनते रहते हैं। इनकी आदत आँकड़ों में बोलते रहने की हैं। आप देखेंगे ही। चलिए हम आ गए।

(दरवाजा खुलने तथा बहुत से कागज गिरने की आवाज।)
मैनेजर–नमस्कार धनराज जी। आप हमारे मित्र प्रोफेसर मनमथनाथ पंडित आए हैं इनसे मिलिए।

पागल–(संदेह से देखते हुए) यह जेब में क्या छिपा रखा है इन्होंने? हथकड़ी है? पिस्तौल है? तिजोरी का ताला तोड़ने की हथौड़ी है? क्या है? चेक-बुक है? नहीं, नहीं। रोजनामचा है? बही-खाता है? बोलो बाबू साहब, आपके पास कित्ता पैसा है? बैंक में है? सोणें में है, हुंडी में है या प्रॉपर्टी में है। जमीन, जायदाद, मकान, मोटर कितनी हैं? (एकदम डरकर) बाप रे बाप। मैंने सुना है कि देश पर आक्रमण होने वाला है जी। मैंने तो मुंशी जी को आज ही–आज ही ‘केब्ल’ कर दिया है कि सब सण की गाँठें खरीद लो, डॉलर के देने-पावने की बात है। बुडापेस्ट की बैंक गिर गई तो–फ्जूजी यामा है मगर उससे क्या होता है। अपना माल लासा भेज दो, सेफ रहेगा बर्फ में, बिल्कुल सेफ। और मैंने सुना है कि आजकल ऐसी बिजली की घंटी बनी है कि मील भर के भीतर चोर हो, तो बराबर बजकर वह हमें जगा दे। शिकारी कुत्ते अच्छे ग्रे-हाडंड चार रखे थे, मगर इन्हें भी जहर खिला दिया सालों ने। वह आ गए, वह आ गए डाकू, लुटेरे, घरभेदू, सेंधिए, शरीफ चोर, उचक्के, पाकिटमार, गिरह कट…

मनसा–जान पड़ता है, यह किसी प्रकार के भय से आक्रांत है! धनराज जी, आपने उस सेठ की कथा सुनी है जो अपनी पत्नी के साथ जा रहा था। राह में सोना पड़ा मिला तो उस पर पैर से उसने मिट्टी ढाँक दी। पत्नी ने पूछा वह क्या था। कुछ नहीं, मैला था–कह कर सेठ आगे चला। उसने बाद में बतलाया कि वह सोना था और उसे डर था कि उसकी पत्नी उससे लालच में पड़ जाती।

पागल–All that glitters is not gold हिरण्यगर्भ, Bullion exchange सोने की सौ ईटें मेरे पास थीं, मगर बंबई में जहाज जो बारूद का उड़ा न, और सारी गोदी को धक्का पहुँचा, वे भी उड़ गईं। और उस कंगले के हाथ लग गईं। सोने का निरा मुलम्मा है, मुलम्मा। Polish है निरी, सोना तो मिट्टी है, उससे ज्यादा कीमती है वह कुदाल जो उसे खोदती है।

प्रोफेसर–धनराज जी, आप बातें तो बहुत तर्कयुक्त कर रहे हैं, आपको यहाँ और पागलों के साथ निरर्थक रखा जान पड़ता है। अगर आपको भगवान के यहीं साक्षात् दर्शन हो, जायँ तो आप क्या कहेंगे?

पागल–मैं उनको बेच के अपना interest–व्याज जमा कर लूँगा।

प्रोफेसर–नहीं, मेरा मतलब, आप उनसे क्या वरदान माँगेंगे?

पागल–मैं वरदान-फरदान नहीं माँगता। आज नकद कल उधार। तुरंत दान महा कल्यान। कौन इन वरदान देने वालों का भरोसा करे। लक्ष्मी जी की भी कोई Bank होगी। वे ठहरीं चंचला। कभी फेल हो जाएँ तो क्या करें? बेल्जियम का फ्रैंक है। अंतर्राष्ट्रीय ‘मानिटरी फंड’ के हिसाब से 176 फ्रैंक का एक पाउंड और अमरीका के चार डॉलर। पीरू में सोने की खाने हैं मगर वहाँ का सिक्का ‘साल’ सिर्फ 26 एक पाउंड के बराबर है। और मेक्सिको का पेसो 19 बराबर 1 पौंड के। डॉक्टर, तुम डॉक्टर हो न बाबू साहब? मेरा वजन कितने पौंड हैं? मैं तुम्हारे निहोरे करता हूँ। मैं रो दूँगा।
(हँसता है फिर रोता है)

मैनेजर–अब वह फिर कंकड़ जमा करके लाएगा। बड़ी मेहनत से उसने यह गोल-गोल पत्थर के टुकड़े कहीं से इकट्ठे किए हैं। और वे कागज के टुकड़े! फिर तो जल्दी-जल्दी गिनने लगेगा।

प्रोफेसर–धनराज जी। आप किसी का खून कर उसके पैसे छीन लेना ठीक समझते हैं?

पागल–नहीं, नहीं, नहीं! पाप लगेगा। हमारा धर्म अहिंसा का है। हाँ, वैसे खून के बदले में उसे बेच कर सोना मिलता हो, तो एक-एक बूँद निकाला भी जा सकता है, मगर जरा आहिस्ता-आहिस्ता। उसे–जिसका खून निकाला जा रहा है, पता न चले। पैडिंग लगाकर, स्याहीसोख का उपयोग करके। (उत्तेजित होकर) मगर खून की बात आपने क्यों चलाई? मैंने क्या किसी का खून किया है? किसी को लूटा? किसी की चोरी की? मैंने तो सीधे-सच्चे, व्यापार, सट्टे-फाटके से रुपया कमाया था। दो-चार-दस लाख पूँजी थी। सो आपकी भी आँख में गड़ने लगी। यह ईमान-धरम का, गाढ़ी व्यापार की कमाई का पैसा है बाबू साहब, समझे! अखबार वाले झूठ बोलते हैं कि सेठ धनराज का दीवाला निकल गया। दीवाला उन अखबार वालों के दिमाग का निकल गया है, मगर उसके दिमाग में भरा ही क्या था–भूसा और गोबर…

प्रोफेसर–गोबर तो बहुत बड़ा धन है, सेठ जी। एक-एक उपले को जलाना 5 रुपए की नोट को जलाने के बाराबर है यानी 1000 उपले बराबर मोहनमाला के हुए।

धनराज–मोहनमाला–माला–ग्वेटा माला का क्वेटजेल। चार सिक्का भी बराबर एक पौंड के, बोलिविया का बॉली विमानो सिक्का 169 बराबर एक पौंड के। चिली का पेसो सिक्का 126 बराबर एक पौंड के। कोलंबिया के 7 केसो बराबर एक पौंड के। कोस्टारिका के 22 कोलन बराबर 1 पौंड के।

मनसा–आपकी स्मृति बड़ी अच्छी है धनराज जी। आपको यह सब कोष्टक बराबर याद रहे। बात क्या है।

पागल–मैं अपना व्यापार दुनिया के चारों कोनों में फैलाना चाहता हूँ। मेरी मिलों की चिम्नियों का धुआँ दुष्ट दिशाओं से बहता हुआ आकर इसी संगम के पवित्र स्थल पर मिले। स्वर्ग में मैं क्यों जाऊँ? मेरे सब स्वर्ग-सुख यही हैं। बस, एक चेक फाड़ दूँ, तो एकदम आलीशान ऑटोमेटिक महल सामने ठंडे पानी के हौज, फव्वारे, बाथ, झरने, जल प्रपात, नदियाँ, समुद्र जो चाहें, सो लहरा उठें। पैसे से हर चीज खरीदी जा सकती मिस्टर!

धर्म, ईमान, सतीत्त्व, देवता, सत्य! क्या समझते हो। इसी से कहता हूँ धनवान बनो! धनवान बनो!!

मैनेजर–यों पागल बनने के लिए आखिर मैं?

प्रोफेसर–वह शब्द इनके सामने न कहो।

पागल–क्या कहा, पागल? मैं पागल या तुम पागल–तुम्हारा सारा कुनबा, बाप, दादा, नाना, परदादा पागल। कौन पागल नहीं होता दुनिया में? बचपन एक पागलपन है। खिलौनों से मन नहीं भरा, तोड़ा। दूसरा उठा लिया। पागल बच्चे। जवानी एक दूसरा पागलपन है जब सारी दुनिया सुंदरियों से भरी लगती है तब हौस और हविस की सीमा नहीं है। उल्लास और उन्माद का पारावार लहराता है। और वह पागलपन उतरा नहीं कि बेटे को बुढ़ापा याद आ जाता है, जब रामनाम ओढ़ कर यह भगतराज स्वर्ग के पीछे पागल बने घूमते हैं, मुक्ति के लिए ललचाते, निर्वाण के लिए लट्टू होते हैं। ऐ सुननेवालो, मैं कहता हूँ धनवान बनो! धनवान बनो!! तब क्या कोई सुननेवाला ऐसा नहीं जिसके कान बच्चे न हों, जवान न हों, बूढ़े न हों। पागल हैं। मैं ही अकेला सयाना हूँ, समझे।
(अट्टहास)

मनसा–हाँ तो धनराज जी, आपसे हम शर्ते तय करने के लिए आए थे। कितना परसेंट मुनाफा हमें भी देंगे। किस चीज का व्यापार आप करते हैं?

पागल–(स्वर बदलकर) ऐसा कहो, मुझ जैसी आप भी एक और सयानी मिली हैं। सुनिए श्रीमती जी या कुमारी जी, जो कुछ भी आप हैं। व्यापारी तो सीधे प्रिय देवी जी कह कर पत्र लिखेगा। हम जिस चीज का व्यापार करते हैं वह कुछ नाजुक काँच से हलकी और जल्दी टूट जाने वाली बहुत सुकोमल, गौ-सेमर के फूलों के पराग से भी महीन और स्वर्णलता के यानी तंतुवाय के जाल से भी अधिक उलझी हुई, मगर बहुत ही क़ीमती जैसे यूरेनियम से भी ज्यादा क़ीमती और ‘ऐटम सीक्रेट’ से ज्यादा गुप्त। ऐसी चीज़ का व्यापार करते हैं, हाँ! आपसे क्या कहूँ, कहते झेंप लगती है कि हम ईमानदारी का व्यापार करते हैं।

प्रोफेसर–नहीं, वह आपसे पूछ रही थीं कि आप किस चीज का व्यापार करते हैं?

पागल–मैं–मैं–मैं? मैं दिल खरीदता हूँ और बेचता हूँ यानी कि मैं जिंदा आदमियों का व्यापार करता हूँ। यह व्यापार सबसे कम पूँजी का और सबसे ज्यादा फायदे का है। अब बात यह है कि आधुनिक व्यापार का सबसे बड़ा ‘गुर’ या ‘ट्रेड सीक्रेट’ यह है कि अच्छे और बुरे का भेद इस तरह मिटा दिया जाए कि पता भी न चले। आप नकली सोने को असली सोने से अलग पहचान सकते हैं। वैसे ही असली धात के आदमी में बहुत-सी मिलावट आज की व्यापारी संसारनीति ने मिला दी है। आपके लिए अच्छे और बुरे आदमी की पहचान असंभव बना दी है। मेरे दोस्तों ने ही मुझे व्यापार में धोखा दिया। मीठा बोलने वाले बहुत मृदु-भाषी पता नहीं था ऐसे निकलेंगे–हृदययेतु हलाहल! जिह्वा में शहद, दिल में जहर और इसी से मैं अपना सूत्र सब को रटा रहा हूँ–धनवान बनो। धनवान बनो!! येन केन प्रकारेण धनवान बनो!! यह देखने की जरूरत नहीं है कि आप किस प्रकार से धनवान बन रहे हैं, मगर एकबार बनो जरूर। यहाँ पुण्य-पाप की बणिक छान-बीन की गुंजाइश नहीं है। यहाँ नीति-अनीति के ढकोसले की चर्चा की फुर्सत कहाँ। यहाँ सब जायज है, सब वैध है, केवल पहले धनवान बनो! धनवान बनो!!

प्रोफेसर–मगर धनराज जी, कुबेर, मिडास, फोर्ड, रौकफेलर, निजाम कोई भी तो अधिक धन संग्रह से सुखी नहीं हुआ।

पागल–सुख की क्या बात करते हैं? जमीन के अंदर रुपए गाड़ कर रखने वाले कंजूस को अधपेट मैले-कुचैले वस्त्र पहन कर रहने में ही सुख मिलता है। उल्टे उस आदमी का भी सुख क्या कहिए कि जिसके पास 5 दिन के उपवास के बाद एक अठन्नी थी और वह भी एक अंधे के आग्रह पर, उस अंधे द्वारा राजा कर्ण-सा उदार कहे जाने पर उसे खिलाने में खर्च कर दी और पुल पर आकर पानी में ऊँचे से कूद कर आत्महत्या कर ली। अंधा कहता ही रहा–इतने अच्छे और उदार दानी लोग दुनिया में होने पर भी पता नहीं क्यों लोग नाहक जान गँवाते हैं? वह भी सुखी हुआ होगा। डायोजिनस को टब में बैठे रहने का सुख था, तो आज के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार वाले को रात नींद नहीं आती कि कहीं अंतर्राष्ट्रीय नकशा न बदल जाए।

मनसा–इसलिए संतोषं परमं सुखं।

प्रोफेसर–समस्या ऐसे हल नहीं होगी। संतोष की परिभाषा क्या होगी? किसी बुढ़िया ने जाड़े में ठिठुरते हुए वस्त्र के अभाव में झंडे के बड़े कपड़े को चुराकर अपना तन ढाँका। झंडा-प्रेमी को इस घटना से संतोष होगा? मानवी तृप्ति इतनी सहज नहीं है। वह सब भौतिक तृप्तियों के बाद भी कहीं न कहीं अतृप्ति की कँकरी बनी कसकती रहती है। इसे क्या किया जाए?

मैनेजर–इसीलिए बुद्ध ने सब दु:खों का मूल तृष्णा कहा है।

प्रोफेसर–तृष्णा अपनी स्वयं की मरीचिका का भी निर्माण कर लेती है। अब धनराज इसी कंकड़-पत्थर की ढेरी में चुन-चुन कर बनाए हुए रेनबसेरे से ही खुश हैं। इनके जहाज स्वप्न लोक में आज अफ्रीका जा रहे हैं, कल आस्ट्रेलिया, और हवाई जहाज तो चिंबोंराजों, कैटा पैक्सो को पार कर उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के कुलावे जोड़ने में लगे हैं। इस वक्त तो यहाँ इनका ही सिक्का चल रहा है। चाहे वह मिट्टी की ही टिकिया का क्यों न हो।

पागल–चेकोस्लोवाकिया के 201 कोरूम बराबर 1 पौंड के। डेनमार्क का 20 कोर्न बराबर 1 पौंड के। इथियोपम के 1 डॉलर बराबर 1 पौंड के। आइसलैंड के 26 क्रोना बराबर 1 पौंड के। निदरलैड्स के 10 जिल्डर बराबर 1 पौंड के। पनामा के चार बल्बोवा बराबर 1 पौंड के। ईरान के 129 रियाल बराबर 1 पौंड के। इक्यूआरडोर के पव्वन सुकरे बराबर 1 पौंड के…और खुद 1 पौंड बराबर सिर्फ, निरे = केवल = मात्र, अकेले 1 पौंड के!–सब मेरे नौकर हो गए, सब मेरे दास। सब बैंक मैंने खरीद ली। अब कहाँ से निकालोगे। दीवाला! बोलो? मैं अकेला मालिक हूँ सब अंतर्राष्ट्रीय द्रव्य कोष का, सब सिक्कों का, सब चलनों का, सब करेंसियों का! मैं कहूँ तो वे चलें, मैं मर गया तो वे सब मिट्टी हैं। सब नौकर हो गए हैं जो! खड़े क्या हो? वे पन्ने बटोर कर लाइए। वे हीरे अपने ही तो हैं। वे सब रत्न मेरे और केवल मेरे हैं। और मैं–मैं–मैं–

मैनेजर–‘मैं’ अहंकार की वायु से भरा एक गुब्बारा है।

प्रोफेसर–ऐसा मत कहो। मैं विषयांतर करता हूँ–धनराज जी, आप पाउंड की बहुत बात करते हैं। हम साहित्यिक एक अँग्रेज कवि एजरा पौंड को जानते हैं जिसकी हालत भी अब बहुत कुछ आपकी-सी हुई, वह कहता है–Rich men have all servants and no friends, Poor men have all friends but no servants. यानी धनवानों को तो सब नौकर ही होते हैं, मित्र कोई नहीं होता। गरीबों के सब मित्र होते हैं मगर नौकर कोई नहीं होता।

पागल–अरे, अरे! मुझे कैसे जेल में लाकर बंद कर दिया है। यहाँ पिस्सू, मच्छर, खटमल सब मुझे चूस रहे हैं।

प्रोफेसर–खटमल आदमी से बेहतर हैं धनराज जी!

मैनेजर–सो कैसे?

प्रोफेसर–डी. एच. लॉरेंस की कविता है–‘खटमल आदमियों से बेहतर हैं। वे केवल अपना पेट भर रक्त चूसते हैं। वे मेरा रक्त बैंकों में तो नहीं जमा करते।’

मैनेजर–आपने बैंक की बात फिर कर दी। अब धनराज जी से दो घंटे बात करना मुश्किल है। चलें। (दरवाजा बंद करता है) हाँ, तो मैं इनकी कहानी सुना रहा था आपको। इनके बहुत से शेयर अटके हुए थे। दर गिर गई। सट्टा भी बहुत करते थे यह। बंबई के प्रसिद्ध व्यापारी साधुओं के पीछे बहुत लगते थे। तब इन्हें दर्शनशास्त्र का बहुत चस्का लगा था मगर बिजनेस के चक्कर में इनकी यह हालत हुई है। बेचारे के कोई संतान नहीं थी। इससे भी यह दुखी था तिस पर यह पैसे डूबने का ‘शॉक’ (सदमा)। इससे तो इसकी कमर ही टूट गई। और आज यह ऐसे पागलखाने में हैं।

प्रोफेसर–पर मैं इन्हें पागल कैसे कहूँ? लगता है यही शायद सबसे सही रास्ते पर सही-सही बातें कर रहे हैं और हम सब पागल हैं। अपने छोटे-छोटे छत्तों में शहद जुटाने के प्रयत्नों में लगे हुए हैं। मोम को ही बड़ा कवच मानते हैं, पता नहीं वह कब पिघल जाए और संग्रह करना स्वयमेव एक पागलपन नहीं तो और क्या है?


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प्रभाकर माचवे द्वारा भी