पिया भइले डूमरी के ये फूलवा

पिया भइले डूमरी के ये फूलवा

प्रिय शिवनारायाण जी, जिंदगी का मेरा यह साठवां साल है। सोचता हूँ डायरी के पन्ने आपके पाठकों से साझा करूँ। शुरुआत फेसबुक में दर्ज टीप-यादों से कर रहा हूँ। यह समय-समय पर दर्ज टीप ही ज्यादा है! आप पढ़ कर देख लें, शायद रोचक लगे। डायरी के इन पन्नों में यों तो मेरा अपना समय दर्ज हुआ है, पर मेरा समय केवल मेरा कैसे हो सकता है। इसी भाव ने मुझे प्रेरित किया कि इन पन्नों को आपकी पत्रिका के पाठकों से साझा करूँ। तो लीजिए, इन पन्नों का मजा आप सब भी लीजिए!

आपका–शैलेंद्र

01.06.2015
आरती जी के सौजन्य से आज गूलर की सब्जी का स्वाद मिला। इसके फूल की कथा तो आपको मालूम ही है। खैर, जब सब्जी को स्वाद ले-लेकर साथ खा रहा था, तभी शारदा सिन्हा का वह गाना भी मन में गूँजने लगा और मन थोड़ा उदास हो चला। रोजी-रोटी की तलाश में न जाने कहाँ-कहाँ भटकना पड़ता है मनई को और उधर किसी को लगातार इंतजार…कि पिया भइले डूमरी के ये फूलवा…! (गूलर को डूमरी भी कहते हैं)

28.05.15
किताबों के प्रसार को लेकर कोई प्रकाशक ही ईमानदारी से बता सकता है। वह किसी किताब की कितनी प्रतियाँ छापता है और कितने संस्करण या आवृति, यह वही बता सकता है। किताबों का धंधा चंगा है जो, तभी प्रकाशकों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। हम किताबों की बिक्री को लेकर नाहक चिंतित रहते हैं। दरअसल, ये लोग (सारे नहीं) रचनाकारों को रायल्टी (वाजिब की बात तो छोड़ ही दीजिए) देने की जहमत उठाना ही नहीं चाहते। ऊपर से अफसर लेखक-लेखिकाओं ने पैसे के बल पर किताबें छपाकर इनकी आदत खराब कर दी हैं।

कविता इन दिनों मानो गरीब की लुगाई हो गई है, कोई उसे भौजाई मान उससे दिल्लगी करने लगता है तो कोई उसे हरजाई मान साहित्यांगन से खदेड़ने में जुट जाता है। पर वह न तो रोन-बिलखने को तैयार है, न मैदान छोड़ने को!

27.05.15
अपने सांस्कृतिक-जागरूक शहर कोलकाता के टीवी चैनलों पर लगातार एक खास तरह का तेल तो बेचा जा ही रहा था, अब इधर सात दिन में तीन बार पलंग तोड़ने वाला कैप्सूल भी बेचा जा रह है। ज्योतिष, तंत्र-मंत्र, सारी बाधाओं से मुक्ति दिलाने वाला बेसलेट तो सालों से बेचा जा रहा है। नवजागरण की धरती अब धन्य होने लगी है।

20.05.15
कल युवा कवि नित्यानंद गायेन मिलने आए। इस उत्साही कवि की कविताएँ पत्रिकाओं में लगातार आ रही है। सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हैं। स्पष्टवादी-बेखौफ। जो गलत लगता है, बेलाग कह देते हैं। लिख कर भी। चापलूसी इन्हें पसंद नहीं। घुमक्कड़ी और मेल-जोल में यकीन रखते हैं। साहित्य में पैठ रही चिंताजनक प्रवृतियों से दुखी। कोई संपादक अपनी ही पत्रिका में अपनी रचनाएँ दे, यह गायेन को अच्छा नहीं लगता। किसी पुस्तक का संपादन करने वाला खुद अपनी कहानी-कविता उसमें क्यों दे। शुद्ध साहित्य एक छलावा है। कोई रचनाकार समाज-राजनीति निरपेक्ष कैसे रह सकता है। कुछ वरिष्ठ चेले-चपाटी बनाने में ज्यादा यकीन रखते हैं। गिरोहबाजी, लेन-देन की गलत परंपरा इस कवि को जमता नहीं। संपादकों-प्रकाशकों के स्तर में आ रही गिरावट की शिकायत है इन्हें। कुल मिलाकर बेचैन नौजवान। तभी नौकरियाँ बदलते जा रहे हैं। कई वरिष्ठों का साथ भी इस बजह से छोड़ते रहे हैं। कल जब उनके आने की सूचना मिली तो हमें उम्मीद थी कि लिचियों के गुच्छे भी साथ लाएँगे कवि, पर लाए रसगुल्ला। अच्छा लगा मिल कर, बातें कर।

10.05.15
इस बार इलाहाबाद जाना हुआ तो वरिष्ठ कथाकार नीलकांत से मिलना संभव हो पाया। इस संभव का हो पाना युवा कवि और ‘अनहद’ के संपादक संतोष चतुर्वेदी के सौजन्य से हुआ। उन्होंने समय निकाला और कचहरी, सिविल लाइंस से झूंसी तक आने-जाने का खर्चा भी उठाया। खैर, सालों बाद नीलकांत जी अपने फक्कड़ अंदाज में ही मिले। गुड़ की भेली और पानी से ही काम चला। अकेले ही थे, सो चाय की फरमाइश टालनी पड़ी। रसरंजन की ख्याति के मुताबिक भी कुछ नहीं था। अपन न पीते हैं न पिलाते। सो दूसरे दोस्तों की तरह इंतजाम की बात दिमाग में आया ही नहीं। सुना है कि एक ख्यात कवि नए कवि से ब्लर्ब लिखने के एवज में यह भेंट खुशी-खुशी स्वीकार लेते हैं। एक साहित्यकार मित्र ने चुटकी ली कि शैलेंद्र यह तुमने ठीक नहीं किया। उन्हें भीतर से नागवार जरूर गुजरा होगा। पर मुझे ऐसा लगा नहीं। वे बहुत खुश हुए। नीलकांत जो इन दिनों जिस देवनगर के निवासी हैं, वहाँ तो उन देवों का पहुँचना भी दुभर है, जिनके पास दुपहिया या चार पहिया पुष्पक विमान न हो। बस वाले ने लीलापुर रोड़ वाले बस ठहराव से पहले ही उतार दिया था, नारायणपुर इलाके में स्थित उनके आवास तक पहुँचाने के लिए उनके एक परिचित नौजवान हाजिर थे। वह न आते तो मुख्य सड़क से उनके आवास तक की कोई दो किलोमीटर की दूरी तय करने में आध-पौन घंटे से कम समय और पौन-आधा किलो पसीने की आहूति भी तय थी। लौटने के वक्त भीषण गर्मी ने अपना जलवा दिखाया भी। हालाँकि एक सज्जन ने अपने दुपहिए से थोड़ी दूर छोड़ने की मेहरबानी भी की थी। संतोष जी के आग्रह पर लिफ्ट दे दी थी। सालों पहले कर्नलगंज वाले मकान में मैंने उन्हें लकड़ी से मुहब्बत करते देखा था, यानी फर्नीचर बनाने के क्रम में। इस बार एक हौद में मछली पालते हुए पाया। पता चला कि जरूरत की सब्जियाँ भी उगा लेते हैं मकान वाले अहाते में। आम, नींबू, पपीता, केले के पेड़-पौधे तो मौजूद हैं ही।

नीलकांत जी कभी ‘हाथ’ नाम की पत्रिका भी निकालते थे, शायद 1982-83 में। अपनी एक कहानी छापी थी, उसकी तलाश की गरज थी। उनसे फोन पर इस बाबत पूछा था, उसकी फोटोकॉपी माँगी थी। पर मकान बदलने के क्रम में वे बहुत कुछ सहेज नहीं पाए। अपनी पत्रिका की फाइल भी नहीं। तो ऐसे हैं नीलकांत जी। थोड़े अव्यवस्थित। उनके चाहने वाले, उन्हें प्यार से थोड़ा अराजक भी कहते हैं। पर वैचारिक तौर पर कतई नहीं। गालिब के शेर उनकी जुबान पर रहती है। समाज में घट रही वारदातों पर पैनी नजर। जो ठीक समझते हैं, बोलते-लिख मारते हैं। अभी-अभी पुरस्कारों की राजनीति कई लोगों को पानी पिलाई है। कहानियों ने ही नाम दिया, पर अब गाहे-बगाहे ही लिखते हैं। लौटने के वक्त मोड़ से गुम हो जाने तक हमें जाते देखते रहे। मुड़कर मैंने भी देखा था। विदाई के वक्त मैंने उनसे एक कहानी माँग ली थी, वादा तो किया है। शायद निभाएँ भी।

04.05.15
कागजी तौर पर यानी स्कूली प्रमाणपत्र के मुताबिक आज मैं 58 का हो गया। जनसत्ता में औपचारिक तौर पर आज आखिरी दिन है। संभव है कि हफ्ते दस दिन बाद एक-दो साल का एक्सटेंशन मिल जाए। पर नियमतः आज अवकाश। आप जानते हैं कि ‘जनसत्ता’ का अपना एक जबरदस्त क्रेज रहा है। 1983 में जब शुरू हुआ था तो देश के विभिन्न हिस्से से काबिल और नामी पत्रकारों ने इससे जुड़ने में भारी उत्साह दिखाया था। अपन साल भर दैनिक जागरण के इलाहाबाद संस्करण में काम करने के बाद उसे छोड़ फ्रीलंसिंग करने लगा था। ‘शान-ए-सहारा’, ‘श्रीवर्षा’, ‘शिखर वार्ता’ के लिए बतौर प्रतिनिधि समाचार कथाएँ लिखा करता था। पर बात बन नहीं रही थी। काम चलाने भर का पैसा आ नहीं पा रहा था। इसी बीच ‘जनसत्ता’ के निकलने की सूचना मिली तो आवेदन भेज दिया। 1983 में दिल्ली के एक्सप्रेस बिल्डिंग में लिखित परीक्षा हुई। चार सौ से अधिक पत्रकारों ने परीक्षा दी। लिखित परीक्षा में अपन भी सफल रहे। शायद महीने भर में ही साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। बर्गीज जी, प्रभाष जी और कोई एक और सज्जन थे इंटरव्यू लेने वाले। उपसंपादक के रूप में मेरा चयन नहीं हो सका, पर इलाहाबाद से बतौर स्ट्रींगर समाचार भेजने का न्यौता मिला। कई समाचार कथाएँ लिखीं और छपती रहीं। पैसे की बाबत मैं चिट्ठियाँ भेजता रहा। छह महीने के बाद मेरा धैर्य जवाब दे गया। मैंने प्रभाष जी को एक पत्र लिख कर अपनी खस्तहाली से वाकिफ कराया और संवाद भेजने से मना कर दिया। नौकरी की तलाश में दिल्ली भी गया। ‘सांध्य टाइम्स’, ‘चौथी दुनिया’, ‘हिंदुस्तान’, ‘खुश्बू’, ‘जनसत्ता’ आदि में कुछेक समाचार कथाएँ, लेख, समीक्षाएँ लिखता रहा। ‘दिनमान’, ‘रविवार’ में भी कुछेक समाचार कथाएँ लिखी थीं। ‘सर्वोत्तम’ से भी कुछेक अनुवाद का काम मिल रहा था। अपनी दीदी के गाजियाबाद के आशियाने से सिर छुपाने की जगह मिल गई थी सो स्ट्रगल कर रहा था। उन्हीं दिनों 10 दरियागंज यानी ‘दिनमान’, ‘सारिका’ के दफ्तर का चक्कर भी लगाता, साहिबाबाद के इंडस्ट्रीय इलाके में विभूतिनारायन राय की पत्रिका ‘वर्तमान’ में भी वक्त जाया करता था। ‘चौथी दुनिया’ का भी चक्कर लगाया करता था। कुछेक रपटें छपीं और मानदेय भी मिले पर कहीं नौकरी नहीं। इसी बीच राजकिशोर जी ने कोलकाता से हिंदी ‘परिवर्तन’ शुरू किया था। कुछ समाचार कथाएँ छापी उन्होंने और एक दिन उपसंपादक पद पर नियुक्ति के लिए बुला भी लिया। यह पत्रिका पौने दो साल बाद बंद हो गई। उस वक्त कोलकाता से हिंदी के दो अखबार निकलते थे, जिनमें से एक को अशोक सेक्सरिया ‘मलमार्ग’ कहते थे, दूसरे को ‘धर्म‘-कर्म और सेठ चर्चा वाला अखबार’ बताते थे। हम कभी नहीं गए नौकरी के लिए इन अखबारो में। संयोग से इसी बीच गुवाहाटी से ‘पूर्वांचल प्रहरी’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो अपना भी चुनाव हो गया। यहाँ से ‘सेंटिनल’ में भी गया। नौजवान संपादक मुकेश कुमार का मित्रवत व्यवहार रहा। जब वे यहाँ से गए तो अच्छा नहीं लगा। गुवाहाटी में उन दिनों अल्फा का जोर था और वहाँ से पारिवारिक कारणों से भी निकलना चाहता था। इसी दौरान कोलकाता से ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘जनसत्ता’ के शुरू होने की सूचना मिलती रही। खबर पक्की मिली तो आवेदन कर दिया। एक बार कई धुरंधरों के साथ लिखित परीक्षा देनी पड़ी और आखिर में प्रभाष जी ने 29 लोगों का चुनाव किया, जिनमें एक मैं भी था। हम पाँच जनों को पाँच इंक्रीमेंट के साथ नियुक्ति मिली थी। बहुत उत्साह और परिश्रम से अखबार शुरू हुआ। अपनी धाक जमाई। कोलकाता के अखबारों को पन्ने और कवरेज बढ़ाने पर बाध्य किया। इसी बीच अपन मुख्य उपसंपादक बना दिए गए। बाद में श्याम आचार्य जी के अवकाश के बाद शंभूनाथ शुक्ल जी यहाँ स्थानीय संपादक बन कर आए। कड़क और तेज-तर्रार। पर मुझ पर मेहरबान। काम के कारण मुझ पर भरोसा श्याम जी ने रखा। हमारे सहयोगी मित्रों का भी सहयोग बराबर रहा। दो साल बाद शुक्ल जी गए तो अचानक थानवी जी ने अपन पर भरोसा जताया। कास्ट कंट्रोल, कम साथियों और कम पन्ने और दूसरे अखबारों से ज्यादा दाम के बावजूद जागरूक पाठक हमसे जुड़े रहे। अपने ‘जनसत्ता’ ने अखबार बेचने के लिए गिफ्ट या लाटरी वाला कभी कोई अभियान नहीं चलाया। साहित्य, संस्कृति, राजनीति की समझ, सरोकार को हमेशा तरजीह दी। सीमित साधनों के बीच भी। इसी प्यारे अखबार से आज अपन अवकाश ग्रहण कर रहा हूँ।

27.04.2015
मत झेलिए उन्हें! प्यारे दोस्तों आभासी दुनिया का यह एक खुला मंच है। संवाद का, सूचना का और सृजन-संस्कार का भी। बहुत से लेखक, कवि, संस्कृत कर्मी और दूसरे क्षेत्रों के जानकार भी इससे जुड़े हैं। आपको जिस चीज से ऊब है उसे नजरंदाज कर जाइए। जिसे पसंद करते हैं, उसे पढ़िए, उस पर बोलिए। बहुत से लोग आप जितना सामर्थ्यवान नहीं हो सकते, प्रतिभावान नहीं हो सकते। उन्हें मत झेलिए। मन पर और झुंझलाहट पर भी काबू रखिए। कम अक्लों को भी कुछ लिखने-बोलने दीजिए। हो सकता है आप जैसे क्रांतिकारियों-प्रकांड विद्वानों के आभासी सान्निध्य से, उन्हें प्रतिभा-रोशनी मिलने लगे!…

19.04.2015
कोलकाता के खबरिया चैनल और तमाम अखबारों में समाचार चीख-चीख कर कह रहे हैं कि बगैर केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनातगी के पश्चिम बंगाल में चुनाव शांति और निष्पक्षता से कराना मुमकिन नहीं है। कल के निगम चुनाव में मीडिया तक को धमकाया गया, धक्का दिया गया, गालियों के फूल बरसाए गए। हिंसा और फर्जी मतदान के अनगिनत वाकए हुए। अब 25 अप्रैल को 91 नगरपालिकाओं के चुनाव होने हैं। केंद्र-राज्य सरकारें चुनाव आयोग को पर्याप्त सुरक्षा बल जरूर उपलब्ध कराए, वरना शांति के मतदान नामुमकिन है। विपक्ष ही नहीं राजनीतिक प्रेक्षकों की भी यही राय है। चुनाव आयोग का मुख्यालय यहाँ के हालात पर गौर करते हुए अपनी सक्रिय भूमिका तय करे। पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र की रक्षा के लिए यह बेहद जरूरी है।…

सीताराम येचुरी माकपा के नए महासचिव चुने गए हैं। हिंदी अच्छी तरह बोल लेते हैं। उम्मीद करें कि हिंदी अंचलों में वामदलों को सक्रिय करने में अपनी जरूरी भूमिका अदा करेंगे। पश्चिम बंगाल में, यहाँ बड़ी संख्या में हिंदी भाषी रहते हैं, उनके सुख-दुख और मान-सम्मान पर भी पार्टी गौर करेगी, यह उम्मीद भी पैदा कराने की कोशिश करेंगे। यहाँ की राजनीति, सरकारी नौकरियों, सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में इनकी लगातार उपेक्षा होती रही है। पड़ोस के राज्यों में इसकी प्रतिकूल असर पड़ता रहा है। कम से कम वाम दलों से क्षेत्र-भाषा-जाति की संकीर्णता से ऊपर की उठने की उम्मीद तो की ही जानी चाहिए।

07.04.2015
अपने कवि आलोकधन्वा ने न जाने कहाँ से यह विश्वास पाया कि कविता संग्रह का नाम रख दिया–‘दुनिया रोज बदलती है’, पर यह दुनिया तो लगातार बिगड़ती जा रही है। मार-काट हथियारों के बढ़ते जखीरे, कट्टरपंथ को जहाँ-तहाँ बढ़ावा देने की साजिशें, आतंकवाद की शिकार बनते जा रहे हैं निर्दोष लोग, दुनिया को बाजार बनाने की कोशिश में मशीनों को इनसानों से ज्यादा तरजीह, काम की जगह बेरोजगारी बढ़ाने वाली नीति को बढ़ावा, और अपने यहाँ विकास की जगह लोगों के बीच नफरत फैलाने के गुप्त एजेंडों को लागू करने की ध्वंसकारी हरकतें…दुनिया को तो बदलते हुए बेहतरी की राह पर चलना चाहिए न, पर मंजर तो डरा रहे हैं। बदलने की जगह कौन बिगाड़ने पर तुला है इस दुनिया को, ऐसे तत्वों को पहचानना, उनसे सतर्क रहना, उनके खिलाफ खड़ा होना एक नागरिक दायित्व है। शायद तभी कवि के कहन, भरोसे को ताकत मिले।

एक शख्स इधर कुछ दिनों से कवियों पर बहुत मेहरबान है, यह तो कहानीकारों की घोर उपेक्षा है, सुना है आलोचकों को तेल बेचने के काम में लगा दिया है। इस शरीफ आदमी का नाम मालूम हो तो मुझे बताइए कृपया। मैं उनसे विनती करना चाहता हूँ–यह सितम ढाना और पक्षपात छोड़ दें।

एक बार बंबई गया था जी, नरीमन प्वाइंट में शरद जोशी मिले थे, सुदीप जी भी। इस नाचीज को कोई राजकपूर नहीं मिल सके। हिंदी सिनेमा को एक दिलजला मिलने से रह गया। एक और ‘तीसरी कसम’ बनने से रह गई, शायद एक ‘प्यासा’ भी…।

04.04.2015
किशोरावस्था में यह गाना गुनगुनाया करता था–मैं कहीं कवि न बन जाऊँ, तेरे प्यार में कविता…और इसका असर यह हुआ कि प्रेम-विरह की तुकबंदिया भी शुरू कर दी। ‘कादंबिनी’ के नवोदितों के लिए तय स्तंभ में कई बार भेजी, पर छपी नहीं। उन दिनों उसके संपादक थे राजेंद्र अवस्थी। 75-76 की बात है। तब उनका संपादकीय भी चाव से पढ़ता था। जेपी आंदोलन से जुड़े कुछ मित्रों ने और ‘दिनमान’ का पाठक बनने के बाद बलियाँ में एसएफआई के साथियों ने प्रेम-विरह से बाहर निकाला। पर कविता से प्रेम कहाँ छूटता। शोषण-व्यवस्था पर हमला करती हुई पहली कविता वहीं के ‘कुटज’ नामक साप्ताहिक में छपी। कविता छपी तो कंपोजिटर, मशीनमैन, मुनीम जी को भी खुशी हुई। हमारे तबके अग्रजनुमा मित्र हरिवंश जी ने समोसे, मिठाई और चाय के साथ जश्न मनाया। तब यह कहाँ पता था कि कवि बनना इतना आसान नहीं। यह भी कहाँ मालूम था कि कविताई कि लिए गिरोहबंदी भी जरूरी है। आलोचकों-संपादकों को भी पटाना पड़ता है। पैसे देकर किताबें छपानी पड़ती है। पुरस्कार के जुगाड़ करने पड़ते हैं। जो हो, कविता के प्रेम ने मामूली ही सही, कवि बना दिया।

29.03.2015
आज चिड़ियों की चीं-चीं, चह-चह के साथ नींद खुली, कागा जी के काँव-काँव के साथ परदेशी कोयल की कू-हू-कू की प्यारी पुकार भी कानों में पड़ी। कोयल की आवाज न जाने क्यों दिल में कसक पैदा कर जाती है, आम पके नहीं, महुए चुए नहीं, ऐसा तो हो नहीं सकता। पर उन पेड़ों के खाली होते ही कहीं गुम हो जाते हैं ये निर्मोही, फिर तरसिए उनकी दुलार भरी आवाज को। कोलकाता के उपनगरों में अब भी बहुत सारे पेड़ खड़े हैं, अपने हरेपन के साथ-साथ ठंडी-ठंडी हवा से दिल को बहलाते रहे हैं। पर इधर लोगों में फ्लैट का भूत सवार होता जा रहा है। घर प्रमोटरों के हाथ बिक रहे हैं तो घरों के पेड़-पौधे कट-उजड़ जा रहे हैं। डर लगता है, इस तरह तो पखेरुओं का सान्निध्य ही खत्म हो जाएगा। ठंडी-स्वच्छ हवा के लिए तो हम तरस कर रह जाएँगे…

28.03.2015
एक आत्मीय के फोन से नींद खुली है। सुबह-सुबह उनकी आवाज सुन कर अच्छा लगा। आज रामनवमी है, सो परंपरागत ढंग से उनकी पूजा हो रही है बहुत से घरों में। यह लोगों का अपना मामला है। सासू जी और माताश्री बच्चियों-बहुओं को पूजा-पाठ सीखा रही हैं। राम जी की कृपा से सुग्रीव बाली जी याद आ रहे हैं, विभीषण भी, सबरी याद आ रही है तो सूर्पनखा भी। रावण भी और अपहृत सीता भी, वह धोबी भी और लव-कुश भी। तीन-तीन पत्निया रखने वाले राजा दशरथ भी। प्रेम निवेदन पर नाक काट लेने वाला लक्ष्मण भी। बाबा तुलसीदास की साहित्य साधना भी। हाय राम आपने सीता की अग्नि परीक्षा क्यों ली, गर्भवती सीता को जंगलों में क्यों भेज दिया, आदर्श पुरुष के भ्राता तुमने एक स्त्री के नाक क्यों काट लिया। हनुमान जी आग बूझा लेते, एक सुंदर नगर को जला क्यों दिया, विभीषण तुमने भाई से दगा क्यों किया। हाय केकई तुम मंथरा के बहकावे में क्यों आ गई।… तो दोस्तों अपने राम जी भी मनुष्य की तरह भूलें करते रहें और रामायण के दूसरे पात्र भी। धरती माँ तुम्हें भी नहीं फटना था, बिटिया को न्याय की लड़ाई के लिए प्रेरित करना था। किसी के कहने पर पुरुषोत्तम को प्राण-प्रिय पर यह सितम न करना था…

03.03.2015
बहुत दिनों बाद डाक से आज दो पत्रिकाएँ मिलीं–खड़गपुर से निकल रही नई पत्रिका ‘पनसाखा’ और ‘वागर्थ’। आज दफ्तर नहीं जाना हुआ सो पत्रिकाएँ उलटता पलटता रहा। ‘वागर्थ’ में प्रेमचंद की कहानी है–‘बालक’। लाजवाब है यह कहानी। प्रेमचंद के जानकार कमलकिशोर गोयनका की टिप्पणीनुमा आलेख-प्रेमचंद की कहानी बालक और नई यौन नैतिकता के साथ पेश की गई है यह कहानी। एक विधवा जिसकी तीन शादियाँ हो चुकी हैं विधवा आश्रम वालों के प्रयास से और आखिर में उसे वहाँ भी जगह नहीं मिलती तो वह बस्ती में अकेले रहने पर मजबूर हो जाती है। उसी देवी से गंगू ब्याह कर लेता है। मालिक की बदनामी न हो सो कथावाचक मालिक से छुट्टी ले लेता है। शादी करता है उस विधवा से। समाज के ताने को धता बताते हुए। खोमचा लगा कर जीवन यापन करता है। इसी बीच छह माह बाद उसकी पत्नी, प्रेमिका, देवी अचानक कहीं चली जाती है बिन बताए। दरअसल उसके पेट में नन्हा जीव पल रहा था, उसी वजह से वह लखनऊ चली जाती है। जनाना अस्पताल में, उसकी एक सहेली से जब पता चलता है तो वह वहाँ से अपनी देवी और बच्चे का लेकर आता है। कथावाचक को यह दलील देकर चकित कर देता है कि मैंने एक बोया हुआ खेत लिया, तो क्या उसकी फसल को इसलिए छोड़ दूँगा कि उसे किसी दूसरे ने बोया था।

याद कीजिए यह 1936 से पहले लिखी कहानी है। यह चमत्कार प्रेमचंद ही कर सकते थे। यह कहानी आप जरूर पढ़िए, अगर नहीं पढ़ी हो तो, पढ़ी हो तो एक बार फिर पढ़िए।

02.03.2013
कई बार विद्वजनों से सुनने को मिल जाता है कि कूड़ा लिखने से बेहतर है कि लिखना ही छोड़ दें। कई बार यह कि अमुक जी को जितना अच्छा लिखना था लिख चुके, अब तो खुद को दोहराए चले जा रहे हैं। खुद एक-दो अच्छी कविता या कहानी या उपन्यास या आलेख या रम्य रचना नहीं लिख पाने वाले सज्जनों की यह नसीहत कहाँ तक उचित है, आप जरा विचारिए। मेरा तो मानना है कि लेखन में निरंतरता जरूरी है। यह सिलसिला जारी रहे, इसी क्रम में कभी कमजोर, कभी अच्छी तो कभी क्लासिक रचना का जन्म हो सकता है। वैसे, कई बार श्रेष्ठ करार दी गई रचना और महानतम करार दिए गए रचनाकार को समय का झाड़ू बुहार कर किसी घुरे तक जरूर पहुँचा देता है। सो समय से संवाद करते हुए स्वाभाविक लेखन जारी रखना ही बेहतर लगता है मुझे।

07.10.2014
हवा, पानी, अग्नि, भूमि, आकाश सबने बुला लिया अपने पास। खुद में विलीन कर लिया अपने बीके बाबू को। किडनी के खराब हो जाने से डायलिसिस के सहारे हम सब का साथ निभा रहे थे। पिछले साल ही ब्रजकिशोर श्रीवास्तव से परिचय हुआ था शादी के सिलसिले में। उनकी मीठी बोली और अच्छे व्यवहार ने रिश्ते के डोर में बंधने का आमंत्रण दिया था। उनके सुपुत्र रिकेश को अपनी भावुक-संवेदनशील प्यारी बिटिया के लिए चुन लिया। संबंधी का रिश्ता बना उनसे। उनकी बीमारी के कारण शादी का दिन भी आगे किया गया। शादी बाद पता चला कि हफ्ते में दो दिन के डायलिसिस के बाद भी कोई न कोई परेशानी पेश आ रही है। उनसे हफ्ते-दो-हफ्ते बाद मुलाकात होती रही। वादा तो यह था कि कुछ महीने बाद रिटायर करने के पश्चात हमारी जमकर बैठकबाजी होगी, पर बीमारी ने हमसे यह अवसर छीन लिया। दो हफ्ते से वे कमला राय अस्पताल के आइसीसीयू में कभी ऑक्सीजन मास्क तो कभी वेंटिलेटर के सहारे निर्मोही मौत से सामना करते रहे। पिछले रविवार को डायलसिस के दौरान उनकी छटपटाहट ने दिल को दहला कर रख दिया था। मुँह पर पट्टी, कई जगह पतली नालियाँ, अपनी पीड़ा, अपनी बात नहीं कर पाने की विवशता पहली बार खुली नजरों से देख रहा था। हम दुआ करते रह गए और वे न जाने कितने दर्द, कितनी विवश्ता से दो-चार होते रहे। डॉक्टर आश्वासन देते रहे। समधन रेणु जी, सुबह से शाम तक अच्छी खबर के इंतजार में वहाँ मौजूद रहीं। दवाइया, खून के इंतजाम में सुपुत्र भी। बहुएँ, अनुज समेत सभी परिवारजन देखने पहुँचते रहे। हर जुबान की यही शिकायत-एक बेहरीन इनसान के साथ ऐसा तो न होना था। बीके बाबू चित्रगुप्त सभा के जरिए समाज सेवा की छोटी-मोटी गतिविधियों में भी शामिल रहे। इस इनसान को रविवार की सुबह 10:50 बजे सांसों ने अलविदा कह दिया। सांसों ने शायद कहा हो- चलो भाई बहुत तकलीफें झेल ली…और हमारे बीके बाबू चल पड़े। पंच तत्वों ने उनका स्वागत जरूर किया होगा। भरे हुए दिल से हार्दिक श्रद्धांजलि बीके बाबू…

21.10.14
चिट्ठिया हो तो…सुप्रभात दोस्तो, कल पुराने कागजात उलट-पलट रहा था तो कई चिट्ठियाँ हाथ लगीं। कई चेहरे याद आए–भैरव प्रसाद गुप्त, कमलेश्वर, शेखर जोशी, भगवत रावत, विजेंद्र, रमाकांत शर्मा, हरीशचंद्र पांडेय, परमानंद श्रीवास्तव, विश्वनाथ तिवारी, सुदीप, रमेश उपाध्याय, दयानंद पांडेय, राजकिशोर, रत्नेश कुमार, अनिरुद्ध सिन्हा, जहीर कुरैशी, अनिल सिन्हा, रतन वर्मा आदि-आदि। एक पत्र मदन कश्यप जी का यहाँ मोहवश पेश कर रहा हूँ। 11 अगस्त, 2003 को पटना से लिखी गई थी यह चिट्ठी–

प्रिय भाई, उस दिन कोलकाता में थोड़ी देर के लिए ही सही हमारी अच्छी मुलाकात हुई। और सबसे अच्छी बात यह थी कि मैं आपकी कविताओं के साथ लौटा। मुझे प्रसन्नता हुई कि हिंदी कविता की सरल-संघर्षशील दुनिया से अलग, एक नकली चकाचैंध में ले जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद, आप जैसे कवि हैं जो कविता और जीवन के रिश्ते को बचाए हुए है तथा इस प्रतिकूल समय में भी सीधी-सरल भाषा में अपने समय के सच को व्यक्त करने में यकीन रखते हैं। यह देख कर बहुत ही अच्छा लगा आप अपनी कविता में नागार्जुन की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए लगातार प्रयत्नशील हैं। जबकि, आज के कवि नाम तो नागार्जुन-मुक्तिबोध का लेते हैं, मगर अपना आदर्श अज्ञेय और अशोक वाजपेयी को बनाते हैं।

आप जैसे मित्रों की कविताएँ पढ़ने से ही उम्मीद बनती है कि तमाम तरह की कलाबाजियों के बीच भी कविता में एक स्वर ऐसा जरूर रहेगा, जिसमें हिंदी समाज की धड़कने सुनाई देतीं रहेंगी। मेरा अभिवादन और शुभकामनाएँ स्वीकर कीजिए। भवदानुरत मदन कश्यप।


Original Image: November
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Artist: Guy Rose
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