पूर्वोत्तर भारत : भाषा, साहित्य और हिंदी

Oleanders and Books by Vincent van Gogh

पूर्वोत्तर भारत : भाषा, साहित्य और हिंदी

पूर्वोत्तर भारत के अंतर्गत असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय और मिजोरम ये सात राज्य गिने जाते हैं, पर कुछ वर्ष पहले सिक्किम को भी ‘नार्थ-इस्ट काउंसिल’ में सम्मिलित किये जाने से राज्यों की संख्या अब आठ हो गयी है। पूर्वोत्तर भारत का क्षेत्रफल 2,62,123 वर्ग कि.मी. है, जबकि ब्रह्मपुत्र, बराक और इंफाल घाटी के अतिरिक्त शेष भू-भाग पहाड़ी और जंगल-आच्छादित है। इस अंचल की अधिकांश जनजातियाँ पहाड़ों में बसी हैं। थोड़ी आबादी असम के मैदानी भाग में भी है। भारत में जनजातियों की आबादी 8 प्रतिशत है, जबकि इस अंचल में जनजातियों की आबादी लगभग एक तिहाई है।

पूर्वोत्तर भारत में तिब्बती-चीनी परिवार, आग्नेय परिवार और भारतीय आर्यभाषा परिवार–इन तीन भाषा-परिवारों की सैकड़ों भाषाएँ प्रचलित हैं। इनमें, संख्यात्मक दृष्टि से तिब्बती-चीनी भाषा-परिवार के तिब्बती-बर्मी उपपरिवार की भाषाओं का आधिक्य है। मात्र आधुनिक साहित्यिक भावबोध के विकास की दृष्टि से इनके तीन वर्ग किये जा सकते हैं–विकसित भाषाएँ (मणिपुर, बोड़ो), विकासशील भाषाएँ (गारो, त्रिपुरी, कार्बी, न्यीसी, आदी, लुशेइ, आओ, अंगामी, लोथा, सेमा) और अविकसित (अथवा अन्य) भाषाएँ। तीसरे वर्ग की भाषाओं की संख्या अधिक है।

तिब्बती-चीनी परिवार के तिब्बती-बर्मी उपपरिवार की असम-बर्मी शाखा के पाँच और तिब्बती-हिमालयी शाखा के दो समूहों की एवं थाई-चीनी उपपरिवार की उत्तरी थाई शाखा की, अर्थात् कुल आठ समूह की भाषाएँ इस अंचल मे प्रचलित हैं। यथा–

(1) भोट समूह (हिमालयी या पूर्वी तिब्बती)–लेप्चा और मोन्पा।

(2) पूर्वोत्तरसीमांत समूह-अक् (ह्योसो), न्यीसी (डफला), आबोर, मीरी, आदी (पादम), मिश्मी, आपातानी, गालोङ आदि।

(3) बोड़ो समूह–बोड़ो, गारो, त्रिपुरी, दिमासा, राभा, देओरी, लालुङ्, कार्बी (मिकिर), कछारी, कोच, जमातिया, रियाङ् आदि।

(4) नागा समूह–आओ, लोथा, साङ्तम, यीमचङर, माकबारे, जैमी, तिरखिर, अङामी,सेमा, बाङानी, ताङसा, तोङमेड़, लियाङमेइ, चाक्री, खेजा, पोचुरी, खियाङ्गण, माओ, काबुइ, कोन्यक, चोखेसाङ्, जेजिफयाड्. ताङ्खुल, फोम, चाड्. आदि।

(5) कुकी चीन समूह–कुकी, थादो, पाइते, मणिपुरी, विष्णुप्रिया, लुशेइ, लखेर बाइफे, हमार आदि।

(6) बर्मी समूह–मघ।

(7) काचिन समूह–सिङ्फो।

(8) उत्तरी थाई समूह–खामती, आहोम आदि।

इसमें भोट समूह की भाषा लेप्चा अथवा रोङ् सिक्किम की भाषा है। पूर्वोत्तरीसीमांत समूह की भाषाएँ मुख्यत: अरुणाचल प्रदेश में, बोड़ो समूह की भाषाएँ मुख्यत: मणिपुर एवं असम के दक्षिणी-पूर्वी सीमांत में प्रचलित हैं। बर्मी समूह की भाषा बोलने वालों की संख्या चार-पाँच सौ से अधिक नहीं होनी चाहिए। इस समूह की भाषाएँ बर्मा में प्रचलित हैं। सिङ्फो, खामती और आहोम की चर्चा आगे की जायेगी।

अरुणाचल प्रदेश में लगभग 26 बड़ी और 100 के आसपास कम संख्यावाली जनगोष्ठियाँ हैं (अरुणप्रभा-2, पृ. 3)। सबकी भाषाएँ अलग-अलग हैं। इस आधार पर यहाँ 26 प्रमुख भाषाएँ मानी जायेंगी। इनकी अपनी लिपियाँ नहीं हैं। सभी भाषाओं में पारंपरीण मौखिक साहित्य (लोकगीत, लोककथा आदि) प्राप्त होते हैं। यहाँ के कतिपय शिक्षित लोग अपने विचारों को असमी या अन्य भाषा में अभिव्यक्त करते रहे हैं। इधर प्राय: दो-ढाई दशकों से इसमें किंचित् बदलाव दिखायी पड़ रहा है। अब कुछ लोग हिंदी के माध्यम से भी अपने विचारों-भावों को वाणी दे रहे हैं। यहाँ की संपर्क भाषा और स्कूली स्तर तक शिक्षा की माध्यम भाषा हिंदी है। सन् 1994 ई. से ‘अरुण नागरी’ नामक पत्रिका हिंदी एवं अरुणाचली भाषाओं की समन्वयक बनती रही है। वार्षिक पत्रिका ‘अरुणप्रभा’ का महत्त्व अधिक है। वस्तुत: अरुणाचल प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहाँ हिंदी सर्वाधिक स्वीकार्य है। इसे आँकड़ों से भले ही पुष्ट नहीं किया जा सके, पर यह अनुभव-सिद्ध है। हिंदी प्रदेशों से आनेवाला कोई भी व्यक्ति इसका अनुभव कर सकता है (अरुणप्रभा-2, संपादकीय)। यहाँ की बौद्धमतानुयायी गोष्ठियों में खम्बा, मेम्बा, मोन्पा, शरदुकपेन गोष्ठियों के लोग महायानी एवं सिङ्फो, ताङ्सा आदि हीनयानी बौद्ध हैं। सब के अपने-अपने मौखिक साहित्य हैं।

बोड़ो समूह की भाषाएँ मुख्यत: असम के मैदानी भाग, गारो पहाड़ और त्रिपुरा में चलती हैं। इनमें सर्वमुख्य बोड़ो भाषा है। इस समूह की भाषाओं की अपनी लिपियाँ नहीं रहीं। बोड़ो के लिए पहले असमी लिपि चलती थी, पर सन् 1975 ई. से इसके लिए देवनागरी लिपि मान्य हुई। कार्बी के लिए भी देवनागरी लिपि स्वीकृत हुई है। इस समूह की सभी भाषाओं में मौखिक साहित्य उपलब्ध है। उनका एक छोटा हिस्सा रोमन, बंगला, असमी और देवनागरी लिपि में संकलित तो हुआ है, पर अब भी उसका अधिकांश लोककंठ में ही बसा है। आवश्यकता है सब को संकलित कर लेने की। बोड़ो भाषा-साहित्य की उन्नति में ‘बोड़ो साहित्य सभा’ की महती भूमिका रही है। इसकी देखा-देखी समूह की अन्य भाषाओं–गारो, राभा और कार्बी जनगोष्ठियों ने भी क्रमश: ‘गारो साहित्य-सभा’, ‘राभा साहित्य-सभा’ और ‘कार्बी साहित्य-सभा’ की स्थापनाएँ की हैं। कार्बी में ‘साबिन आलुन’ नामक रामकथात्मक लोकगाथा (रामायण) प्रचलित है जिसे प्रस्तुत लेखक ने हिंदी और अँग्रेजी में अनुदित भी किया है।

बोड़ो भाषा-साहित्य के विकास की दृष्टि से सन् 1906 ई. में गुरुदेव कालीचरण ब्रह्म द्वारा ब्रह्म-धर्म-आंदोलन का आरंभ किया जाना, सन् 1910 ई. में बोड़ो जनजाति महासभा की स्थापना, सन् 1920 ई. में ‘बिवार’ (फूल) और सन् 1938 ई. में ‘ओलङवर’ नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन, सन् 1952 ई. में बोड़ो साहित्य सभा की स्थापना, सन् 1963 ई. में स्कूली शिक्षा-माध्यम के रूप में बोड़ो भाषा की स्वीकृत, सन् 1975 ई. में बोड़ो के लिए देवनागरी लिपि की सवीकृति, सन् 1985 ई. में असम सरकार द्वारा (दो जिलों के लिए) बोड़ो की सहराजभाषा के रूप में मान्यता, सन् 1996 ई. से बोड़ो भाषा-साहित्य में स्नातकोत्तर शिक्षा की व्यवस्था, सन् 2003 ई. में भारत सरकार द्वारा संविधान की आठवीं सूची में बोड़ो भाषा को सम्मिलित करने का निर्णय आदि महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं। बोड़ो भाषा में पहली पुस्तक ‘बोरोनी पिसा ओ आयेन’ (बोड़ो बच्चे और संबद्ध कानून) सन् 1915 में प्रकाशित हुई थी। बोड़ो भाषा में नवीन सृजन का कार्य भी तभी से आरंभ हुआ। सन् 1963 ई. से इसका पुनर्जागरण काल माना जाता है। इसी वर्ष बोड़ो शिक्षा-माध्यम के रूप में स्वीकृत हुई थी। आज अनेक कवि, नाटककार, कथाकार, प्रबंधकार आदि बोड़ो साहित्य में सृजन कार्य कर रहे हैं। इसकी काव्य विधा उर्वर है, पर प्रबंध और आलोचना का क्षेत्र अधिक पिछड़ा हुआ है। इन विधाओं को विकास के शिखर तक पहुँचने में अभी पर्याप्त समय लगेगा।

बोड़ो के पश्चात् इस समूह की भाषाओं में गारो, कार्बी और त्रिपुरी ने अपेक्षया अच्छी प्रगति की है। इन भाषाओं में भी नवीन सृजन हो रहे हैं। त्रिपुरा की मुख्य भाषा रही त्रिपुरी ही, पर 1947 ई. में एवं उसके बाद भी शरणार्थियों के आगमन के कारण बंगला का उस पर इतना अधिक दबाव हुआ कि त्रिपुरा की अस्मिता ही संकटग्रस्त हो गयी। हिंदी के प्रचार-कार्य की दृष्टि से त्रिपुरा का अतीत भले ही सुखद रहा हो, पर वर्तमान घायल, अत: दुखद रहा है–सन् 1965 ई. में वहाँ हिंदी-प्रचारकों और हिंदी-शिक्षकों को खदेर-खदेर कर पीटा गया, वहाँ से भगाया गया। इसके बावजूद हिंदी वहाँ भी मंद-मंथर गति से प्रगति-पथ पर अग्रसर है।

नागा समूह की भाषाएँ मुख्यत: नागालैंड में बोली जाती हैं जिनमें 26 भाषाएँ, कुछ के अनुसार 22 भाषाएँ प्रमुख हैं। उन सबमें आओ, लोथा, अंगामी और सेमा प्रमुख हैं। शिक्षा-माध्यम और साहित्य-सृजन में उन्हें महत्त्व मिला है। सभी भाषाओं में मौखिक साहित्य प्राप्त हैं, पर लोगों के धर्मांतरित हो जाने के कारण वे उपेक्षित या नष्ट होते जा रहे हैं। उनके स्वरूप में भी परिवर्तन होता जा रहा है। सभी भाषाओं पर अँग्रेजी का दबदबा है। इस समूह की भाषाएँ रोमन लिपि में लिखी जाती हैं। नागा लोगों में पारस्परिक संपर्क की भाषा ‘नागामिज’ कही जाती है। ‘नागामिज’ एक खिचड़ी भाषा (Pidgin) है। वह असमी, बंगला, हिंदी और नागा समूह की भाषाओं के मिलित रूप से बनी है। कोहिमा के आकाशवाणी केंद्र से नागामिज में समाचार भी प्रसारित होते हैं। नागालैंड में ‘असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति‘ द्वारा हिंदी का प्रचार-कार्य शुरू किया गया था सन् 1951-52 ई. में ही, पर उसकी प्रगति अति धीमी रही। कतिपय विरोधी लोग हिंदी को हिंदुओं की भाषा के रूप में प्रचारित कर बाधक भी बनते रहे हैं। सन् 1970 ई. में डिमापुर में हिंदी-प्रशिक्षण संस्थान स्थापित हुआ। संप्रति नागालैंड में एक हजार से अधिक प्रशिक्षित हिंदी शिक्षक विद्यालयों में कार्यरत हैं जिनमें बीस प्रतिशत गौरनगाभाषी हैं। श्री बी.बी. कुमार के मार्गदर्शन में नागालैंड भाषा परिषद द्वारा विभिन्न नागाभाषाओं के कोश, शब्दावलियाँ आदि शिक्षा हेतु डेढ़ सौ के आस-पास बड़ी उपयोगी पुस्तकें प्रकाशित की गयी हैं। हिंदी के प्रचारकों और शिक्षकों में श्री के. फयाखामों लोथा, श्री लुन्हें कुकी, श्री लुलेन जामीर, श्री एम.पी. तमजम आओ, श्री टी. मोआ कमजक, सुश्री जकिएनी, किनजकिए अंगामी, श्री हेजोता सेमा आदि ने शिक्षा-ग्रंथों के निर्माण में भी अच्छी पहल की है। सन् 1998 ई. से आठवीं कक्षा के लिए बोर्ड परीक्षा में हिंदी विषय अनिवार्यत: सम्मिलित किये जाने से हिंदी के विकास की राह अधिक स्पष्ट हुई है। नागासमूह की भाषाओं और हिंदी के मध्य समन्वयक के रूप में श्री बी.बी. कुमार के कार्य सदा अभिनंदनीय रहेंगे।

काचिन समूह के शिङ्फो भाषा-भाषी खामती कबीलों के पास ही बसे हैं। सिङ्फो भाषा का आबोर भाषा के साथ किचिंत् साम्य है। इसमें भी मौखिक साहित्य प्राप्त है। कुकी-चीन समूह की भाषाओं में मणिपुरी (मीतैलोन) और लूशेई प्रमुख हैं। मणिपुर राज्य में शिक्षा, शासन और संपर्क की भाषा मणिपुरी ही है। यह भाषा है अयोगात्मक, पर बंगला, असमी और हिंदी के प्रभाव से इसमें योगात्मकता आदि के गुण भी संप्रति लक्षित होते हैं। मणिपुरी वाक्य-रचना में यद्यपि हिंदी, बंगला आदि के कई सामान्य तत्त्व पाये जाते हैं, पर मणिपुर में हिंदी अब भी मायाङ्लो (बाहरी भाषा, बाजार-भाषा) ही है। मणिपुरी की अपनी लिपि ‘मैतेमयेक’ रही है, पर अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में राजाज्ञा से उसका प्रयोग अतिसीमित हो गया। उसकी जगह बंगला लिपि ने ले ली। सन् 1940 ई. के पश्चात् ‘रिवाइवलिस्ट मूवमेंट’ के कारण पुन: उसे अपनाने पर बल दिया जाने लगा। सन् 1993 ई. में ‘मैतेमयेक’ के प्रचार-प्रसार के लिए उसे पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया जिससे उसके प्रयोग में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है।

मणिपुरी साहित्य काफी समृद्ध है। इसका प्राचीन काल पहली शताब्दी से सन् 1730 ई. तक मध्यकाल सन् 1731 ई. से सन् 1890 ई. तक और आधुनिक काल सन् 1819 ई. से आज तक माना जाता है। आधुनिक काल में मणिपुरी साहित्य को नवीन कल्प करने की दृष्टि से सन् 1891 ई. की मणिपुरी क्रांति, अँग्रेजी की चलन, मणिपुर में हुए राजनैतिक परिवर्तन, आवागमन की बढ़ती सुविधा, प्रकाशन व्यवसाय आदि ने महती भूमिका निभायी है। इस अवधि में मणिपुरी साहित्य में गुणात्मक परिवर्तन तो हुए ही हैं, हिंदी और बंगला से आदान-प्रदान बढ़ने के कारण नये क्षितिज भी उद्घाटित हुए हैं।

मणिपुर में हिंदी के ब्रजावली रूप का साहित्य अठारहवीं शताब्दी से ही प्रणीत होने लगा था। राजर्षि भाग्यचंद्र महाराज (सन् 1757-1798 ई.), बिंबावती, महाराज लावण्यचंद्र, मारजीत, चंद्रकीर्ति, चूड़ाचाँद, बोधचंद्र आदि ने ब्रजावली में गीत लिखे हैं। मणिपुर में हिंदी का प्रचार कार्य गुरुमयूम बंकबिहारी शर्मा ने सन् 1927-1928 ई. में ही शुरू किया था। सन् 1952 ई. से तीसरी से आठवीं कक्षा तक हिंदी-शिक्षण अनिवार्य किया गया। सन् 1953 ई. में ‘मणिपुर हिंदी-परिषद्’ की स्थापना हुई। सन् 1951 ई. में पंडितराज अतोम्बापू शर्मा ने हिंदी में पहली मौलिक पुस्तक ‘मणिपुर का सनातन धर्म’ का लेखन-प्रकाशन किया। संप्रति मौलिक सृजन एवं अनुवाद करने वालों में अरिबम राधामोहन शर्मा, नीलवीर शास्त्री, हिजम विजय सिंह, एल. नारायण शर्मा, के. आइमा शर्मा, राधागोविंद, एल. कालाचाँद सिंह, एच. गोकुलानंद शर्मा, इबोहल सिंह कांजम, एच. सुबदनी देवी, एफ. गोकुलानंद शर्मा, हीरालाल गुप्त आदि के नाम प्रसिद्ध हैं। प्रो. जगमल सिंह एवं प्रो. देवराज हिंदी और मणिपुरी में सांस्कृतिक संबंधों के समन्वयक और सेतु के रूप में याद किये जायेंगे।

कुकी-चीन समूह की दूसरी प्रमुख भाषा ‘लुशोई’ है। यह लुशाई पहाड़ के वासियों की भाषा है। वे अपने को लुशाई और भाषा को ‘लुशेई’ कहते हैं। यह भाषा साहित्य-संपन्न नहीं है। यह रोमन लिपि में लिखि जाती है। कुकी-चीन की अन्य भाषाओं की तरह ही इसमें भी मुख्य क्रिया का अभाव है एवं उसका कार्य क्रियार्थक संज्ञाओं, अव्ययों, कृदंतों आदि से चलाया जाता है।

तिब्बती-चीनी भाषा-परिवार की दूसरी शाखा है थाई-चीनी उपपरिवार। पूर्वोत्तर भारत में इस उपपरिवार की प्रचलित भाषाओं में खामती और आहोम प्रमुख हैं। ‘आहोम’ शब्द भाषा और उसके प्रयोक्ता दोनों अर्थों का वाहक है। आहोम जन सुकाफा के नेतृत्व में सन् 1228 ई. में पाटकोई पर्वत के दर्रे को पार कर ब्रह्मपुत्र उपत्यका में आये। वर्षों तक भटकने पश्चात् सन् 1253 ई. में चराइदेह (शराइदेव) नामक नगर बसाया एवं वहीं तथा उसके आस-पास बस गये। माना जाता है कि राज्य का ‘असम’ नाम ‘आहोम’ शब्द से ही विकसित है। आहोमों ने धीरे-धीरे पूरे असम को अपने शासन के अधीन कर लिया। असम में आहोमों का शासन लगातार छह सौ वर्षों तक रहा। उनकी अपनी भाषा के साथ लिपि भी थी। वे अपनी गतिविधियों को ‘बुरंजी’ नामक अभिलेख में लेखबद्ध करते थे। ‘बुरंजी’ का शाब्दिक अर्थ है–‘अविदित तथ्यों का भण्डार’, ‘मूर्खों के लिए ज्ञान कोश’। संप्रति यह इतिहास वाचक शब्द है। सत्रहवीं शताब्दी तक आहोमों ने हिंदू धर्म और जीवन-पद्धति अंगीकृत कर ली। वे सब असमी भाषी बन गये। परिणामत: आहोम भाषा और लिपि उपेक्षा का शिकार बनी एवं धीरे-धीरे उसकी सत्ता समाप्त हो गयी। संप्रति आहोम भाषा और लिपि के जानकार मुश्किल से ही पाये जाते हैं।

आहोमों के अतिरिक्त पाटकोई पर्वतमाला के दर्रे से ब्रह्मपुत्र उपत्यका में आनेवाले कबीलों में फाकियाल, नारा, एतानिया, तुरुंग, खामजांग और खामती के नाम आते हैं। इनमें खामती जन प्रमुख हैं। ये लोग पहले जोरहाट के निकट बसे थे, पर बाद में वहाँ से कुछ लोग नारायणपुर और उसके आसपास एवं कुछ लोग अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिला के चौथम में जा बसे इनकी आबादी संप्रति कुछ हजार तक सीमित है। खामती की अपनी लिपि है। ये बौद्ध धर्मी हैं। खामती भाषा में बौद्ध धर्म विषयक पुस्तकें मिलती हैं जो खामती विहारों-नारायणपुर और चौथम में संरक्षित हैं। इसमें रामायण (लिक् चाओ लामाड्.) की रचना भी हुई है। आधुनिक साहित्य का सृजन इस भाषा में प्राय: नहीं हो रहा है।

तिब्बती-बर्मी भाषा-परिवार के पश्चात् पूर्वोत्तर भारत में आग्नेय भाषा-परिवार के (दो उपपरिवारों- ‘आग्नेयद्वीपीय’ और ‘आग्नेय-एशियाई’ में) आग्नेय-एशियाई शाखा की केवल खासी-निकोबारी भाषा प्रचलित है। खासी मेघालय के खासी पहाड़ के वासियों की एवं उसकी एक उपशाखा ‘जैंतिया’ जयंतिया पहाड़ के वासियों की भाषा है। मेघालय में बोली जानेवाली खासी और जैंतिया, इसी उपशाखा की अन्य भाषाओं (मुंडा, मोनख्मेर, निकोबारी) के संपर्क में नहीं रहने एवं तिब्बती-बर्मी भाषा-परिवार की भाषाओं से घिरी होने (एवं भारतीय आर्यभाषा मुख्यत: असमी के दबाव) के कारण इनका जो विकास हुआ, वह उनसे बहुत कुछ भिन्न रूप में हुआ है।

खासी भाषियों का केंद्रीय नगर शिल्ड़ अविभक्त असम का एक सौ वर्षों से भी अधिक समय तक राजधानी रहा। परिणामत: यहाँ असमी और बंगलाभाषियों के साथ हिंदी और नेपाली भाषी भी आये और बसे। इससे खासी भाषा अप्रभावित नहीं रही। पुन: खासी लोगों का धर्म-परिवर्तन के कारण भी दूरगामी परिणाम हुआ। परिणामत: खासी भाषा का मौखिक साहित्य भी किंचित् उपेक्षित या परिवर्तित होता गया है। खासी के लिए रोमन लिपि स्वीकृत है। खासी में सृजन कार्य पहले से चल रहा था, पर विश्वविद्यालय की स्थापना एवं खासी भाषा-साहित्य की स्नातकोत्तर शिक्षा की व्यवस्था होने से इसकी बहुमुखी प्रगति के मार्ग खुल चुके हैं। मेघालय में हिंदी प्रचार का कार्य ‘असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ की ओर से सन् 1948 ई. से ही शुरू किया गया था, पर अनेक बाधाओं के कारण उसमें अपेक्षित प्रगति नहीं हो सकी। सिनेमा, श्रमिक और व्यवसायी वर्ग के कारण नगर और कस्बों में संप्रति हिंदी संपर्क भाषा के रूप में अपनी पहचान बना सकी है। शिल्ड़ से कभी साप्ताहिक ‘जागरण’ और ‘आज का संसार’ जैसी पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होती थी, पर यह अब अतीत की बात है।

तीसरा भाषा-परिवार है–भारतीय आर्यभाषा परिवार। इस परिवार की असमी, बंगला और हिंदी का प्रचलन इस अंचल में है। इनमें सर्वप्रमुख असमी भाषा है। असमी का मूल उत्स यद्यपि भारतीय आर्यभाषाओं के प्राच्य वर्ग में मागधी प्राकृत-अपभ्रंश है, वह मागधी प्राकृत-अपभ्रंश-प्रसूत भाषाओं (मगही, मैथिली, उड़िया, बंगला और असमी) में उसके पूर्वी रूप से विकसित है, तथापि इसका वर्तमान रूप आग्नेय-एशियाई (खासी), तिब्बती-बर्मी भाषाओं और थाई (आहोम) से पर्याप्त प्रभावित है। यह असम की भाषा तो है ही, पूर्वोत्तर भारत के प्राय: सभी राज्यों में समझी जानेवाली (एक सीमा तक बोली जाने वाली भी) और चलने वाली भाषा है। असम के एक वर्ग के लोगों की यह मातृभाषा ही नहीं, असम की संपर्क भाषा, असम में शिक्षा और शासन की राजभाषा भी है। इसकी अपनी लिपि है। आधुनिक भारतीय अन्य आर्यभाषाओं की तरह ही इसका आरंभ भी दसवीं शताब्दी तक हो चुका था। इसका साहित्य बड़ा समृद्ध और स्पृहणीय है।

असमी साहित्येतिहास तीन कालों में विभाजित किया जाता है–आदिकाल सन् 950-1300 ई., मध्यकाल सन् 1300-1830 ई. और आधुनिक काल सन् 1830 ई. से आजतक। मध्य और आधुनिक काल के पुन: कई उपविभाग किये जाते हैं। असमी में लिखित साहित्य की वास्तविक धारा अबाध रूप में मध्यकाल से ही चली। आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में ‘रामायण’ की रचना सर्वप्रथम माधव कंदलि ने सन् 1400 ई. के लगभग असमी में ही की है। असम में नव्यवैष्णव मत के प्रवर्तक श्रीमंत शंकरदेव और उनके सर्वप्रमुख शिष्य माधवदेव की रचनाओं की अद्वितीयता अब भी कायम है। गद्य-लेखन का आरंभ भी शंकरदेव के अंकिया नाटकों से ही हो चुका था। मध्यकाल में प्रणीत साहित्येतर कृतियों में ‘बुरंजी’ (इतिहास)-लेखन महती उपलब्धि है। आधुनिक काल में असमी भाषा-साहित्य अँग्रेजी एवं बंगला से अधिक प्रभावित हुई। प्रभावित हुई सभी विधाएँ पर सर्वाधिक ऋणि है कविता। स्वातंत्र्योत्तर समय में विपुल साहित्य सृजन हुआ। उसमें धार्मिक-अध्यात्मिक चेतना के प्रति आग्रहहीनता, नैतिक स्वाधीनता, सामाजिक चेतना के प्रति स्वस्थ आलोचना आदि का आग्रह अधिक मुखरित है। पिछली शताब्दी के आठवें दशक के अंतिम दो वर्षों से एक नया परिवर्तन प्रत्यक्ष होने लगा है। बांगलादेशी घुसपैठियों की समस्या असम की धार्मिक-सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषिक ताने-बाने को समाप्त करने, अस्मिता को खत्म कर देने पर उतारू है। अस्तु, इन सब के सुरक्षार्थ असमी साहित्यकारों का एकजुट होकर साहित्य में इसे मुखरित करना आकस्मिक या अकारण नहीं है। सुरक्षा एवं अपनी पहचान स्थिर रखने के लिए साहित्य को हथियार बनाना गलत नहीं, किंतु इसमें पर्याप्त सावधानी बरतने की आवश्यकता है। संप्रति गद्य-पद्य की प्रत्येक विधा परिवर्तित मानव मूल्यों के अनुरूप नवीन प्रयोगों को बढ़ावा दे रही है जो प्रगति का द्योतक है।

बंगला मूलत: बंगाल की भाषा है। पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में शताब्दियों से बसे बंगलाभाषियों की संख्या भी कम नहीं है। बंगला भाषा-साहित्य पर्याप्त समृद्ध है। असमी के पश्चात् बंगला ही इस अंचल की महत्त्वपूर्ण भाषा है।

पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में हिंदी प्राय: सर्वत्र प्रचलित है, पर असम में इसकी जड़ अपेक्षया गहराई तक पैठी है। असम के अनेक गाँवों, कस्बों एवं नगरों में शताब्दियों से हिंदीभाषी बसे हुए हैं। श्रीमंत शंकरदेव-महापुरुष माधवदेव की ब्रजावली तद्युगीन हिंदी के सर्वभारतीय रूप से मिलती-जुलती है। सन् 1794 ई. में श्रीकांत सूर्यविप्र ने आहोम नरेश कमलेश्वर सिंह के महामंत्री (बुढ़ागाहाञि) पूर्णानंद के आदेश से गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ का असमी में छंदोबद्ध अनुवाद किया था। सन् 1832 ई. में यज्ञराम खारघरीया फुकन ने असमीभाषियों को हिंदी सिखाने के लिए ‘बृहत् अभियान’ की रचना शुरू की, पर उनके आकस्मिक निधन हो जाने से वह कार्य अधूरा रह गया। भुवनचंद्र गगै ने बकता ग्राम में स्थापित ‘स्वदेशी पॉलिटेकनिक इन्सटीच्यूट’ में सन् 1924 ई. से हिंदी-शिक्षण की व्यवस्था की थी। उसकी मान्यता काशी हिंदू विश्वविद्यालय से थी। ये सारे तथ्य हिंदी से असम के जुड़ाव के सूचक हैं। बाद में महात्मा गाँधी जी की प्रेरणा एवं बाबा राघवदास के प्रयत्न से हिंदी का विधिवत् प्रचार-कार्य सन् 1934 ई. से शुरू हुआ। असमी की पहली पत्रिका ‘अरुणोदय’ के कतिपय अंकों में भी हिंदी कविता छपती थी। सन् 1943 ई. में कमलनारायण देव और चक्रेश्वर चट्टाचार्य के संपादकत्व में पुनर्प्रकाशित–‘जयंती’ पत्रिका के प्रत्येक अंक में हिंदी का एक आलेख भी मुद्रित होता था। यह क्रम सन् 1946 ई. तक चला। आधुनिक युग में असमी और हिंदी के समन्वय में प्रथम प्रतीक कमलनारायण देव का नाम सदा सर्वोपरि रहेगा।

असम में हिंदी पत्रकारिता सन् 1939 ई. से प्रारंभ हुई। गुवाहाटी, डिब्रुगढ़, तिनसुकिया, शिलचर और तेजपुर से प्रकाशित होनेवाली दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक (और वार्षिक) हिंदी पत्रिकाओं में पैंतीस से भी अधिक नाम जुटते हैं। इनमें अधिकांश अल्पजीवी रहीं, ‘अकेला’ (तिनसुकिया), ‘पूर्वज्योति’ (गुवाहाटी), ‘बालार्क’ (शिलचर) और ‘राष्ट्रसेवक’ अब भी प्रकाशित हो रहे हैं। कई दैनिक समाचार-पत्र भी प्रकाशित हो रहे हैं। असम में हिंदी-पत्रकारिता के क्षेत्र में विश्वनाथ गुप्ता, नबाव सिंह रघुवंशी, छगनलाल जैन और अशोक वर्मा प्रथम पांक्तेय हैं। हिंदी के प्रारंभिक ध्येयनिष्ठ-प्रचारकों में कृष्णनाथ शर्मा, रजनीकांत चक्रवर्ती, नवीनचंद्र कलिता, हेमचंद्र भट्टाचार्य आदि के नाम महत्त्वपूर्ण हैं।

असम में हिंदी में मौलिक साहित्य-सुजन के साथ ही असमी से हिंदी में अनुवाद भी हुए हैं एवं हो रहे हैं। इस दृष्टि से कमलनारायण देव, चक्रेश्वर भट्टाचार्य, रजनीकांत चक्रवर्ती, चित्र महंत, सोनेश्वर दास, सुमति तालुकदार, कमलचंद्र बायन, नवारुण वर्मा, तरुण आजाद डेका, बापचंद्र महंत, केशदा महंत, छगनलाल जैन, चिरंजीव लाल जैन, राही कौंडिन्य, रमेन्द्र शर्मा, भूपेन्द्रनाथ रायचौधुरी, धर्मचंद काला आदि के नाम सहज ही ध्यानन में आते हैं। असमीभाषी हिंदी लेखकों में बापचंद्र महंत और केशदा महंत जैसे आलोचक, तरुण आजाद डेका जैसा नाटककार, चित्र महंत जैसा साहित्येतिहासकार, सोनेश्वर दास जैसा कोशवार, चक्रेश्वर भट्टाचार्य जैसा अनुवादक एवं कई निबंधकार और कवि भी हिंदी को मिले हैं। असमवासी हिंदभाषियों में छगनलाल जैसा असमी-हिंदी का प्रथम कोशकार, कथाकार और पत्रकार, चिरंजीवलाल जैन जैसा कवि एवं नवारुण वर्मा जैसा कवि, निबंधकार और अनुवादक अधिक महत्त्वपूर्ण नाम हैं। कमलनारायण देव के पश्चात् हिंदी और असमी के मध्य सेतु स्थापित करने वालों में असमी वैष्णवभक्ति साहित्य के प्रतिष्ठित आलोचक, (असमी के प्रोफेसर भव प्रसाद चलिहा के शब्दों में ‘असम के प्रकृत बंधु’) एवं असमी से हिंदी में अनुवादक कृष्णनारायण प्रसाद ‘मागध’ एवं कवि निबंधकार और अनुवादक के रूप प्रख्यात नवारुण वर्मा सांस्कृतिक समन्वय के प्रतीक माने जायेंगे। असम में आरंभ से सन् 1977 ई. तक हिंदी की प्रगति और गतिविधि का लेखा-जोखा प्रस्तुत लेखक ने सन् 1979 ई. में प्रकाशित पुस्तक ‘असम प्रांतीय हिंदी-साहित्य’ में उपस्थित किया है। विशेष जानकारी हेतु वही पठनीय है।

उपरि चर्चित भाषाओं के अतिरिक्त भारतीय आर्यभाषाओं की मातृस्थानीय संस्कृत का थोड़ा चलन असम और मणिपुर में है। सामी भाषा-परिवार की अरबी धार्मिक ग्रंथ ‘कुरान’ की भाषा होने के कारण मुसलमानों में उसका पठन-पाठन प्रचलित है।

समग्रत: कहा जाना चाहिए कि पूर्वोत्तर भारत में आर्य भाषा परिवार की असमी, बंगला, हिंदी और संस्कृत; आग्नेय भाषा परिवार की खासी और जैंतिया; तिब्बती-चीनी भाषा-परिवार के तिब्बती-बर्मी उपपरिवार की सैकड़ों भाषाएँ प्रचलित हैं। इस स्थूल लेखा-जोखा के बावजूद डॉक्टर राममनोहर लोहिया के शब्दों में (‘विन्ध्याचल’ की जगह हिमालय को स्वीकारते हुए) यही कहना सार्थक है कि अब भी हमारे सम्मुख अपरिचय का ‘हिमालय’ खड़ा है। इस स्थिति में भी इन सभी भाषाओं के साथ सौहार्द स्थापित कर हिंदी प्रगति-पथ पर सतत् अग्रसर है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार हिंदी में लिखा हुआ साहित्य ही नहीं, वरन् प्रत्येक भारतीय भाषा का साहित्य जो अनूदित होकर हिंदी में आ रहा है, उसे भी हिंदी की परिधि में आना चाहिए। तभी वह सही अर्थों में ‘भारती’ (भारतीय साहित्य) की अवधारणा के अनुरूप हो सकेंगी। अद्यावधि भारतीय साहित्य की अवधारणा बहुसंख्यक लोगों द्वारा प्रयुक्त कुछ प्रमुख भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य तक ही सीमित है। इसमें बदलाव की आवश्यकता है। कमसंख्यक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा अथवा लिपि विहीन भाषा अथवा लिखित परंपरा से रहित भाषा को ‘भाषा’ मानने और कहने में प्राय: संकोच किया जाता है। पूर्वोत्तर भारत में प्रचलित अधिकांश भाषाओं के प्रति हममें से अधिकांश का नजरिया ऐसा ही रहा है। आवश्यकता है इस दृष्टिकोण को परिवर्तित करने की। कहना नहीं होगा कि इस अंचल की भाषाओं में प्राप्त मौखिक साहित्य के संकलन-अध्ययन-अनुशीलन एवं अनुवाद आदि के पावन कार्य में जुटे अनेक अनाम कर्मयोगी हिंदी को ‘भारती’ बनाने के लिए सतत् श्रमशील हैं।

अनेक बार हिंदीतर भाषी आरोप लगाते हैं कि हिंदी, हिंदीतर भाषाओं पर थोपी जाती है एवं उनके विकास में बाधक बनती है। वस्तुत: यह या ऐसे अन्य आरोप सर्वथा मिथ्या हैं। उत्तर में कहा तो बहुत कुछ जा सकता है, पर मुझे इस संबंध में हनुमान् का एक कथन ध्यान में आता है। राम ने एक बार हनुमान् से पूछा था–तुम कौन हो? हनुमान् ने उत्तर में कहा था–देह की दृष्टि से मैं आपका दास हूँ, जीव की दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ, पर तत्त्व की दृष्टि से जो आप हैं, वही मैं भी हूँ, यह मेरा निश्चित मत है–

‘देहद्रष्टया तु दासोऽस्मि, जीवद्रष्ट्या त्वदंशक:
वस्तुतस्तु त्वमेवामिति, में निश्चिता मति।’

– तात्पर्य यह कि हिंदी (यहाँ पूर्वोत्तर भारत की) हिंदीतर भाषाओं की सेविका या सहयोगिनी है। हिंदी उनका ही अंश है, अर्थात् इस अंचल की हिंदीतर भाषाएँ परस्पर जितनी भिन्न-भिन्न हैं, वैसी ही उनकी भिन्नता हिंदी से भी है और तात्विक दृष्टि से अन्य भाषाओं की तरह ही हिंदी का भी स्वतंत्र भाषात्व है। सारत: कहा जायेगा कि हिंदी सभी हिंदीतर भाषाओं की सहयोगिनी है, विरोधिनी नहीं।

पूर्वोत्तर भारत के सभी राज्यों की परिरस्थितियों में कतिपय समानता होने के बावजूद सबकी समस्याएँ अलग-अलग और विभिन्नरूपा हैं। भाषाएँ तो अलग-अलग हैं ही। ऐसी स्थिति में विभिन्न राज्यों में हिंदी-प्रचार की गति आदि में अंतर होना अस्वाभाविक नहीं है। पते की बात यह भी है कि हिंदी को खतरा अपनों (तथाकथित हिंदी वालों) से अधिक है। अपने लोग स्वनामधन्य महारथी हों या शासन में उच्च पदासीन लोग, वे चाहे देश की राजधानी दिल्ली में हों या हिंदीक्षेत्र में कहीं अन्यत्र सबकी अपनी-अपनी डफली और अपने-अपने राग हैं। उन्हें सरोकार नहीं कि त्रिपुरा में हिंदी-प्रचारक और शिक्षक खदेर-खदेर कर पीटे गये, अथवा देवनागरी लिपि के समर्थक बोड़ो साहित्य-सभा के अध्यक्ष को गोली मार दी गयी (उनके पूर्व रामचरण ब्रह्म भी मार दिये गये थे), अथवा आये दिन मणिपुर में बात-बात पर हिंदी प्रतिबंधित कर दी जाती है। हिंदीतर भाषी इन राज्यों की मुख्य आबादी की प्रमुख समस्याओं एवं उनके आचार-विचार-संस्कार-उच्चार आदि से प्राय: अपरिचित लोगों की अनावश्यक बयानवाजी एवं शासक वर्ग की गलत नीतियों का परिणाम इधर हिंदी-प्रचारकों, हिंदी-शिक्षकों आदि को भोगना पड़ता है। इन बाधाओं और विकट स्थितियों का सामना करते हुए हिंदी-प्रचारक संस्थाओं से जुड़े लोग, हिंदी-शिक्षक आदि बड़ी निष्ठा से अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित हैं, तभी गीतकार नीरज के शब्दों में मानो हिंदी ही घोषणा कर रही है–

‘सीना है फौलाद का अपना, फूलों जैसा दिल है,
तन में विन्ध्याचल का बल है, मन में ताजमहल है।’


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