‘प्रसाद’ का जीवन-दर्शन
- 1 February, 1952
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 February, 1952
‘प्रसाद’ का जीवन-दर्शन
श्रद्धावाद तथा अखंड आनंदवाद के प्रतिष्ठापक हिंदी के अमर साहित्यकार ‘प्रसाद’ हिंदी साहित्य में ही नहीं, भारतीय साहित्य में ही नहीं अपितु विश्व-साहित्य में युग-युग तक अपना विशिष्ट स्थान रखेंगे। इसमें संदेह नहीं। कविता, कहानी, नाटक आदि के क्षेत्र में ‘प्रसाद’ ने जिस चरम उत्कर्ष का साहित्य प्रणयन किया उससे वस्तुत: हिंदी साहित्य का भंडार समलंकृत एवं संपत्तिशाली बना, ‘प्रसाद’ जिस प्रकार अपने साहित्य में महान् स्रष्टा के रूप में दृष्टिगत होते हैं, ठीक उसी प्रकार उनका जीवन भी महान था। ‘प्रसाद’ के जीवन में ऐसी सैंकड़ों घटनाएँ भरी पड़ी हैं, जो उनके मंगलमय हृदयलोक की झाँकी प्रस्तुत करती हैं। आज जबकि सारा हिंदी संसार उनकी जयंती मना रहा है, आइये हम भी इस पुण्य-पुरुष की पावन जीवनधारा की झलक का परिदर्शन करें।
काशी में ‘महादेव’ का अभिवादन-सम्मान काशिराज के अतिरिक्त सुंघनी साहु के लिए ही केवल होता था। हिंदी-साहित्य के वरदपुत्र ‘प्रसाद’ का जन्म संवत् 1946 की माघ शुक्ल दशमी को इसी घराने में हुआ था। सुंघनी साहु अपनी दानशीलता के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। कहा जाता है कि जब वे गंगा स्नान कर लौटते, तो अपने पास के वस्त्र तथा पात्रादि भी दान में दे डालते थे। इनके यहाँ से कोई खाली हाथ लौटता नहीं सुना गया। गुणियों और याचकों का इनके यहाँ जमघट लगा रहता था। यह बात भी प्रसिद्ध है कि ‘प्रसाद’ के पितामह के यहाँ काशिराज के दरबार से होकर विद्वान तथा गुणीजन एक बार अवश्य आते थे। वस्तुत: काशी में दानशीलता तथा गुणीजनों के आदर के दो ही स्थान थे–एक काशीराज्य का राज दरबार और दूसरी सुंघनी साहु की कोठी। काशी की जनता महाराज बनारस का अभिवादन-स्वरूप ‘महादेव! महादेव!!’ द्वारा जिस प्रकार सम्मान करती थीं ठीक उसी प्रकार ‘प्रसाद’ के पितामह ‘सुंघनी साहु’ का भी अभिवादन होता था। ऐसे अभिजात्य वंश एवं कुल में उत्पन्न हुए थे हिंदी साहित्य के अमृतपुत्र ‘प्रसाद’!
बाल ‘प्रसाद’ की शिक्षा-दीक्षा स्कूल में अल्पकाल तक ही हुई, अधिकांश अध्ययन एवं पठन-पाठन घर पर ही हुआ। संस्कृत तथा अँग्रेजी के शिक्षक ‘प्रसाद’ को घर पर ही पढ़ाने आते थे। वेद और उपनिषद् का ‘प्रसाद’ ने विशेष अध्ययन किया। 15 वर्ष की अवस्था में अपनी सुर्ती की दुकान पर बैठे-बैठे ‘प्रसाद’ वहीं के रद्दी कागज पर कविता लिख रहे थे। दुकानदारी तथा व्यवसाय में उनका मन कम लगता था। घरवालों को बालक ‘प्रसाद’ का यह कार्य न रुचता पर ‘प्रसाद’ को तो हिंदी-साहित्य का निर्माण करना था और प्रवाहित करनी थी साहित्य की अमृतधारा। उस समय कौन जानता था कि रद्दी बही के फटे कागजों पर काव्य की रेखाएँ अंकित करने वाला युवक एक दिन साहित्य का महान स्रष्टा बनेगा? काशी के नारियल बाजार में स्थित सुंघनी साहु की सुर्ती की दुकान एक दिन साहित्यिक तीर्थ के रूप में समादृत होगी यह किसे मालूम था!
उस समय ‘प्रसाद’ के नाटक तथा कविता-कहानी दूर-दूर तक प्रख्यात हो चुके थे। हिंदू-विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा प्रेमी एक पाश्चात्य विद्वान आए। काशी आकर उन्होंने ‘प्रसाद’ के दर्शन की भी उत्कट अभिलाषा व्यक्त की। विश्वविद्यालय के छात्र के साथ वे ‘प्रसाद’ जी की नारियल बाजार वाली सुर्ती की दुकान पर आए। दुकान पर आकर उस अँग्रेज साहित्य प्रेमी ने ‘प्रसाद’ जी के दर्शन की बात कही। उस समय सात नहीं बजे थे। बताया गया कि थोड़ी देर बाद ही ‘प्रसाद’ जी आएँगे। ‘प्रसाद’ जी का नित्य का नियम था कि वे 7 बजे दुकान पर आते और प्राय: एक-डेढ़ घंटे तक सामने वाली दुकान के चबूतरे पर बैठते।
अँग्रेज महोदय को कुर्सी पर बैठाया गया। काशी का सत्कार पान उनके सम्मुख पेश किया गया। पर वे पान न खाते थे। प्रतीक्षा के क्षण बीते। सात बजे और उधर ‘प्रसाद’ जी आए। अँग्रेज महोदय सामने वाले चबूतरे पर गए। ‘प्रसाद’ पर वे इतने विमुग्ध थे कि उनका दर्शन कर वे गद्गद् हो उठे। बातचीत हुई। ‘प्रसाद’ जी ने अपने हाथ से उन्हें पान दिया और सबके आश्चर्य की बात तो यह रही कि उन्होंने ‘प्रसाद’ के पान का प्रसाद ग्रहण कर लिया। थोड़ी देर पूर्व पान अस्वीकार करने वाला अँग्रेज ‘प्रसाद’ जी के आग्रह को अस्वीकार न कर सका। ‘प्रसाद’ जी जब शाम को दुकान पर आते, तो वहाँ साहित्यिकों का जमघट लगता। निराला, रूपनारायण पांडेय, शिवपूजन सहाय, विनोद शंकर व्यास के अतिरिक्त बाहर से साहित्यिक आते रहते थे। साहित्य संबंधी विवादों का निर्णय होता और विभिन्न पक्षों पर विचार-विमर्श। नारियल बाजार में ‘प्रसाद’ जी की दुकान पर साहित्य की त्रिवेणी का संगम होता।
‘प्रसाद’ जी को संगीत से अत्यधिक प्रेम था और उनके निकट संबंधियों का कथन है कि वे प्राय: ब्रह्म मुहूर्त में उठकर संस्कृत के श्लोकों की संगीतमयी स्वर लहरी का सर्जन करते। साहित्य एवं संगीत का अन्योन्याश्रित तथा घनिष्ट संबंध उन्हें अच्छी तरह विदित था। इसलिए अपने पुत्र श्री रत्नशंकर को सितार, हारमोनियम तथा तबले की शिक्षा प्रदान कराई। पूजा तथा नित्य संध्या के नियम के वे बड़े पक्के थे। स्वयं नियमपूर्वक नित्य पूजन किया करते। शिव के वे परम उपासक थे, परिवार में इसका अभाव देखकर वे कभी-कभी रुष्ट हो जाया करते। वे कहते कि जो अपनी नित्य की संध्या-पूजा नहीं कर सकता वह मेरा श्राद्ध और स्मृति कैसे रखेगा?
‘प्रसाद’ जी को व्यायाम का भी बहुत शौक था। वे काफी दंड बैठकी लगाते थे और अच्छे-अच्छे अभ्यासियों के भी छक्के छुड़ा देते थे। ‘प्रसाद’ का स्वस्थ शरीर संयम, नियम एवं साधना का प्रतिरूप मालूम होता था। वे नित्य प्रात: काशी के बेनियाबाग में टहलने जाते। यहीं उनकी भेंट प्रेमचंद जी से भी होती थी और बाद में तो दोनों साहित्यकार नियमपूर्वक यहाँ शुद्ध वायु का सेवन करते। अफसोस आज प्रेमचंद और ‘प्रसाद’ दोनों हिंदी साहित्याकाश को शून्य कर चले गए।
‘प्रसाद’ जी ने संस्कृत एवं अँग्रेजी का विशेष अध्ययन घर पर ही किया था। पर उन्हें अँग्रेजी मुहावरों और प्रयोगों के संबंध में गहरा ज्ञान था। ‘प्रसाद’ के इस गुण पर प्रकाश डालने वाली एक घटना सुनिए। ‘प्रसाद’ की ‘विराम चिह्न’ कहानी अँग्रेजी में अनुवादित की गई। अँग्रेजी साहित्य के अच्छे ज्ञाता ने उसमें संशोधन भी कर दिया। तब वह ‘प्रसाद’ जी को दिखाई गई। ‘प्रसाद’ जी ने अपनी कहानी के अँग्रेजी अनुवाद को देख कर एक-दो स्थानों में प्रयोग तथा मुहावरों-संबंधी ऐसे बारीक संशोधन बताए, जिन्हें देख कर अनुवादक महोदय को दंग रह जाना पड़ा। ऐसा था ‘प्रसाद’ जी का अँग्रेजी साहित्य का सूक्ष्म ज्ञान!
‘प्रसाद’ जी को क्षय हो गया था। उस समय कामायनी समाप्त हो गई थी। ‘प्रसाद’ जी को इससे संतोष था। देवोत्थान की वह कालरात्रि थी। ‘प्रसाद’ जी को श्वास का कष्ट था। उनके निकट संबंधी ने, जो रात-दिन उनके पास ही रहते थे, इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि लगभग 3 बजे ‘प्रसाद’ जी को श्वास का कष्ट बहुत बढ़ गया था। चिकित्सक से उन्होंने ऐसी औषध देने के लिए कहा जिससे उनकी व्यथा दूर हो। पर चिकित्सक हार मान बैठे थे। श्वास चल रहा था। ‘प्रसाद’ जी बैठे हुए थे। उनके सम्मुख शंकर की प्रतिमा थी और नीचे की ओर थे खड़े उनके संबंधी। रात्रि के प्रगाढ़ सन्नाटे में इस महान साहित्यिक स्रष्टा का श्वास कष्ट भी बढ़ता ही गया। श्वास कष्ट के मारे वे एक बार शंकर की प्रतिमा की ओर देखते और दूसरी बार अपने संबंधी की ओर। यही क्रम काफी देर तक चला। श्वास कष्ट के होते हुए भी वे कुछ मंत्र पाठ करते रहे। कुछ देर बाद हंस उड़ गया। वह साहित्य देवता भौतिक संसार को छोड़ चल बसा। ‘प्रसाद’ जी अपने अंतिम समय में बैठे ही थे। बैठे ही बैठे उनके प्राण पखेरू उड़ गए और उन्होंने पैर फैला दिए। लोगों ने संभाला पर ‘प्रसाद’ की आत्मा महाप्रयाण कर चुकी थी। अंतिम समय में उनके सम्मुख थी शंकर की प्रतिमा। जीवन भर ‘प्रसाद’ जी शिव के कट्टर भक्त रहे। शिवत्व की साहित्य आयोजना उन्होंने की, काव्य और कहानी में शिवत्व की भावनाएँ अभिव्यक्त कीं और अंतिम क्षण में शिव का ध्यान रखते हुए ही महाप्रयाण किया। ‘प्रसाद’ जो जयशंकर ‘प्रसाद’ थे!
‘प्रसाद’ जी असत्य विज्ञापन और प्रचार से कोसों दूर रहते थे। साहित्यिक दलबंदी से उन्हें घृणा थी। वे जीवन में समरसता के साधक थे। वेदना और जीवन की वास्तविकता उनकी आँखों से कभी ओझल न हुई। एक बार ‘प्रसाद’ जी ने अपने निकट संबंधी से कहा–मैं यह सब कुछ नहीं कर रहा हूँ, यह मेरा पूर्वजन्म का संस्कार सब कुछ कर रहा है। मुझे परिवार वाले न समझेंगे तो न सही, एक दिन आएगा जब हिंदी संसार मेरा अपना परिवार होगा। वस्तुत: साहित्य स्रष्टा के ये कथन आज सत्य भविष्यवाणी के रूप में साकार हैं। ‘प्रसाद’ जी ने अपने संबंध में बहुत आग्रह करने पर भी कुछ नहीं लिखा। प्रेमचंद जी के आग्रह पर उन्होंने पद्य में ही कुछ पंक्तियाँ लिख भेजीं–
मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी
मुरझाकर गिर रही पंक्तियाँ देखो कितनी आज घनी
तब भी कहते हो–कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती
तुम सुन कर सुख पाओगे, देखोगे–यह गागर रीती
* * *
सुनकर क्या भला करोगे–मेरी भोली आत्मकथा?
अभी समय भी नहीं–थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।
इस प्रकार साहित्य के वरद पुत्र ‘प्रसाद’ ने साहित्य-साधना के कार्य को अधूरा छोड़ कर ही इस भौतिक संसार से प्रस्थान किया। फिर भी इतने अल्प समय में वह जो हिंदी साहित्य को दे गए हैं वह विश्व साहित्य की अमर निधि है, इसमें संदेह नहीं।
Image: Lakeshore
Image Source: WikiArt
Artist: Isaac Levitan
Image in Public Domain