प्रेमचंद का सूरा

प्रेमचंद का सूरा

प्रेमचंद के उपन्यासों को विचारधारा की जागरूकता की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, एक तो प्राक्-गोदान उपन्यास, और दूसरा गोदान। एक में गोदान के अतिरिक्त सारे उपन्यास आ जाते हैं, और दूसरे में केवल गोदान आता है। अवश्य इस गिनती में मैं मंगलसूत्र की नहीं ले रहा हूँ, क्योंकि एकाएक इस महान कलाकार का जीवन सूत्र टूट जाने के कारण इस उपन्यास का सूत्र भी टूट गया।

प्राक्-गोदान युग के उपन्यासों में तथा गोदान में कोई विचारधारागत मौलिक प्रभेद नहीं है। दोनों अवस्थाओं में वे जनवादी हैं, पर गोदान में जाकर ही उनकी यह जनवादिता निखरी हुई तथा जागरूक हो पाई है। प्रेमचंद ने उस समय की बहती विचारधारा के साथ आँखें लड़ाई, पर वे हर हालत में अपने वस्तुवादी लंगोट के सच्चे रहे, इसका नतीजा यह हुआ कि प्राक गोदान युग के उपन्यासों में भी वे सर्वोपरि जनवादी हैं। वे इन उपन्यासों में दृष्टगत रूप से भले ही कुछ और नज़र आ रहे हों, पर उनके इस युग के उपन्यासों के उपसंहार चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि वे क्या हैं? से इस संबंध में बहुत विस्तृत रूप से लिख चुका हूँ, इसलिए ब्योरे में नहीं जाऊँगा।

अब मैं सीधे रंगभूमि पर आता हूँ । प्राक्-गोदान युग का यह सबसे अच्छा उपन्यास है। रंगभूमि के संबंध में सबसे बड़ी बात यह है कि शुरू से आख़िर तक अत्यंत रोचक है। यह नवयुवकों और नवयुवतियों की प्रिय पुस्तक है। इसी का सबसे महत्त्वपूर्ण चरित्र सूरदास या सूरा है। सूरदास बनारस के पांडेपुर का रहने वाला एक अंधा है। वह सड़क पर भीख माँगता है, पर जैसा कि इन भिखमंगों की आदत होती है वह भीख के लोभ में धनियों की गाड़ियों के पीछे दौड़ता है। भिखमंगा होते हुए भी वह एक जमीन के टुकड़े का मालिक है।

इस जमीन को लेकर उपन्यास का ताना-बाना बुना गया है। जान सेवक एक पूँजीपति है, जो इस जमीन को खरीदकर उस पर अपना सिगरेट का कारखाना खोलना चाहता है। पर जान सेवक को यह नहीं मालूम कि सूरा इस जमीन का मालिक है, इस कारण वह जब सूरे से अचानक मिल जाता है, तो वह उससे एक भिखमंगे की तरह बर्ताव करता है। मिसेज सेवक तो सूरदास से बहुत बुरी तरह पेश आती है।

बाद को जब जान सेवक को मालूम हुआ कि सूरा ही जमीन का मालिक है, तो उसका रुख़ बदल गया। उसने सूरदास से जमीन बेचने के लिए कहा, पर वह राजी नहीं हुआ। उस जमीन से सूरदास को व्यक्तिगत रूप से कुछ फायदा नहीं था, पर इसमें गाँव भर के ढोर चरते थे। यदि सूरदास उसे बेच देता तो फिर गाँव के ये ढोर कहाँ जाते, इस मारे उसने उस जमीन को बेचने से इनकार कर दिया। फिर भीख से धीरे-धीरे उसके पास 500 के करीब रुपए इकट्ठे हो चुके थे। वह आशा करता था कि इन रुपयों से धर्मशाला तथा कुआँ बनवा सकेगा। वह भीख माँगता था, पर उसकी उच्चाकांक्षा यही थी कि वह गाँववालों का कुछ भला कर जाए।

सूरदास का अपना कोई नहीं था, पर उसने मिट्ठू नामक अपने अनाथ भतीजे को गोद-सा ले रखा था। उसके माँ-बाप दोनों प्लेग से मर चुके थे। इस छोटे लड़के में सूरे का सारा स्नेह केंद्रित हो गया था। सूरा भीख माँग कर लाता, फिर अपने हाथों से रोटी बनाकर उसे खिलाता। खुद तो रूखा-सूखा खा लेता, पर मिट्ठू के लिए गुड़ आदि जरूर खरीद लाता। सूरे के घर का जीवन उसके बाहर के जीवन अथवा बृहत्तर जीवन का प्रतीक था। उसके जीवन का मूलमंत्र था त्याग और आत्म बलिदान।

ऐसा निरीह व्यक्ति भी जिसने अपने पड़ोसियों के लिए सर्वस्व अर्पण कर रखा था शांतिपूर्वक जी नहीं पाया क्योंकि निरीह होने पर भी वह अन्याय के विरुद्ध लड़ने में पश्चातपद नहीं था । यों भी गाँववाले उसके साथ कोई रियायत नहीं करते थे। लड़के सूरदास का डंडा छीनकर भाग जाते थे। इस पर कभी ऐसा भी हो जाता कि किसी लड़के को चोट आ जाती, तो उस पर लड़के के माँ-बाप उसे भला-बुरा कहते थे। इस प्रकार वैयक्तिक तथा सामाजिक दोनों क्षेत्रों में सूरे का जीवन संघर्षपूर्ण था।

सूरदास के संघर्ष केवल एक व्यक्ति के संघर्ष नहीं हैं, एक ऐसा व्यक्ति जो किसी भी हालत में अपने कर्तव्य से नहीं चूकता, जो प्रत्येक अवस्था में दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता चाहे इस कारण उसे कितना भी दु:ख पहुँचे। उसके संघर्ष अंततोगत्वा जान सेवक की पूँजीवादी पद्धति के विरुद्ध संघर्ष भी हैं, पर ये संघर्ष गाँधीवादी ढंग के हैं। सूरदास को जब सुझाया जाता है कि उसकी जमीन पर कारखाना बनने से वहाँ की रौनक बढ़ेगी तो वह कहता है–“सरकार बहुत ठीक कहते हैं, मुहल्ले की रौनक बढ़ेगी। वहाँ ताड़ी-शराब का भी तो परचार बढ़ जाएगा, कसबियाँ भी तो आकर बस जाएँगी। परदेशी आदमी हमारी बहू-बेटियों को घूरेंगे। कितना अधरम होगा। देहात के किसान अपना काम छोड़ कर मजूरी के लालच से दौड़ेंगे, यहाँ बुरी-बुरी बातें सीखेंगे, और अपने बुरे आचरण को गाँवों में फैलाएँगे। देहातों की लड़कियाँ, बहुएँ मजूरी करने आएँगी, और यहाँ पैसे के लोभ से अपना धरम बिगाड़ेंगी यही रौनक शहरों में है। भगवान न करे यहाँ वह रौनक हो। सरकार, मुझे इस कुकरम और अधरम से बचाएँ, यह सारा पाप मेरे सिर पर पड़ेगा।”

सूरदास के ये सारे विचार व्यक्तिगत दायरे से निकालकर उसे सामाजिक संघर्ष के दायरे में ले जाकर खड़े कर देते हैं। इसी कारण वह एक पिलपिले परोपकारी जीव से एक सामाजिक योद्धा के रूप में हो जाता है। इसी उपादान के कारण ‘रंगभूमि’ उपन्यास एक मामूली रोमाँस न रहकर ऊँची सतह का साहित्य हो जाता है ।

सूरदास का एक पड़ोसी था भैरो। वह अपनी स्त्री सुभागी पर जब तब मारपीट करता था। वह मार के मारे गाँव वालों के पास आश्रय के लिए जाती थी, पर कोई उसे आश्रय नहीं देता था। सूरा जब तब उसे आश्रय देता था, इस पर उसके चरित्र के संबंध में भी बदनामी हुई। इसी के कारण भैरो उससे दुश्मनी मानने लगा, और एक दिन उसने उसके घर में आग लगा दी। उसने सूरे के सारे जीवन की कमाई की थैली भी मार दी। सुभागी को इस थैली का पता मिला, तो उसने वह थैली उड़ा दी, और सूरे को पहुँचा दिया। पर सूरा खुद इस थैली को भैरो के घर पहुँचा देता है। वह सुभागी को समझाता है–यह मेरी चीज़ नहीं है, भैरो की चीज़ है। इसी के लिए भैरो ने अपनी आत्मा बेची है। महँगा सौदा लिया है। मैं इसे कैसे ले लूँ।

पर सूरा की इस उदारता के कारण भैरो को सुभागी के संबंध में पता चल गया कि उसी ने घर से लेकर सूरे को थैली वापस दी थी। इस पर सूरे की तरफ से उदारता दिखाने के बावजूद परिवर्तित होने के बजाए वह और क्रोधावेश में आता है। उसने सुभागी को घर से निकाल दिया और जब सूरे ने सुभागी को आश्रय दिया तो सारे गाँव वालों ने उसे बदनाम किया। वे ही गाँव वाले जिनकी भलाई के लिए वह जमीन नहीं बेच रहा था। केवल इतना ही नहीं उस पर मुक़द्दमा चला, और उसे सजा हो गई। हाँ शहर के कुछ परोपकारी लोगों ने उसका जुर्माना अदा कर दिया और वह जेल से छूट गया।
सूरे के स्वागत के लिए भी आयोजन था, और इसके लिए तीन सौ रुपए एकत्र हुए थे। किसी कारण से स्वागत न हो सका, तो ये रुपए सूरे के हवाले कर दिए गए। इधर जब सूरा जेल में था, तो किसी ने भैरो के घर में आग लगा दी थी। जब सूरा छूटकर यह सुना और उसके हाथ ये तीन सौ रुपए लगे, तो उसने यह सारी रकम भैरो के हवाले कर दी। जब सूरा ने यहाँ तक किया, तो उसकी तरफ से भैरो का हृदय परिवर्तित हो गया। भैरो ने सूरे से माफ़ी माँगी, और उसने सुभागी को फिर से घर में ले लिया।

इस प्रकार सूरे की अथक चेष्टाओं से एक व्यक्ति का हृदय परिवर्तित हो जाता है, पर जैसा कि मैंने प्रेमचंद पर अपने विराट ग्रंथ ‘कथाकार प्रेमचंद’ में लिखा है यह विजय कहाँ तक नैतिक तथा कहाँ तक आकस्मिक है इसमें संदेह है। यदि मान लीजिए सूरे को वे तीन सौ रुपए न मिलते तो सब बातें वैसी रहते हुए भी सूरा कैसे भैरो के निकट अपनी ईमानदारी को प्रमाणित कर सकता? एक अत्यंत मनोवैज्ञानिक मुहूर्त में तीन सौ रुपयों के इस दान ने ही भैरो को बदला। सूरा की तरफ से ईमानदारी तो पहले से थी। भैरो कुछ रोब में भी आ गया, क्योंकि बड़े आदमियों ने उसका जुर्माना अदा किया था।

सूरदास के जीवन की टेकनीक भले ही भैरो के क्षेत्र में सफल मानी जाए, पर सामाजिक क्षेत्र में वह कतई सफल नहीं रही। सूरदास के नेतृत्व में गाँव वालों के सत्याग्रह करने पर भी जमीन सूरे के हाथ से निकल गई। पुलिस वाले पांडेपुर गाँव को खाली कराने आए, और उसमें झगड़ा हो गया। सूरदास घायल हो गया, और कई दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद मर गया।

संग्राम के बाद पांडेपुर गाँव की जो हालत हो गई उसका वर्णन प्रेमचंद ने यों किया है–“पांडेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे । उनके उपलों के जलने से चारों ओर धुआँ छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के खंडहर भयानक मालूम होते थे।…लोग यहाँ आकर घंटों खड़े रहते और सैनिकों को क्रोध तथा घृणा की दृष्टि से देखते। इन पिशाचों ने हमारा मानमर्दन किया, और अभी तक डटे हुए अब न जाने क्या करना चाहते हैं। बजरंगी, ठाकुरदीन, नायकराम, जगधर आदि-आदि अब भी अपना अधिकांश समय यहीं विचरने में व्यतित करते थे। घर की याद भूलते ही भूलते भूलती है। कोई अपनी भूली-भटकी चीजें खोजने आता। …बच्चों को तो अपने घरों के चिह्न देखने में ही मजा आता। एक पूछता, अच्छा बताओ हमारा घर कहाँ था? दूसरा कहता, वहाँ जहाँ कुत्ता लेटा हुआ है। तीसरा कहता, वहाँ तो बेचू का घर था, देखते नहीं यह अमरूद का पेड़ उसी के आँगन में था। दूकानदार आदि भी शाम-सबेरे यहाँ आते और घंटों सिर झुकाए बैठे रहते जैसे घरवाले मृतदेह के चारों ओर जमा हो जाते हैं। यह मेरा आँगन था, यह मेरा दालान था। यहीं बैठ कर तो मैं वही करता था ।” इत्यादि।

कहना न होगा कि यह कोई विजय का चित्र नहीं है। जो कुछ भी हो सैकड़ों घात-प्रतिघातों के अंदर से सूरे का जो चित्र निखरकर हमारे सामने आता है, वह हिंदी साहित्य में ही नहीं विश्व साहित्य में अनोखा है। सूरदास अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि का एक मूर्त रूप है। वह अपनी जान में किसी को नुकसान नहीं पहुँचाता, किसी से झूठ नहीं बोलता, किसी को परेशान देखकर खुद परेशान होता है। होना तो यह चाहिए था कि ऐसा व्यक्ति निरीहता से जीवन बीता पाता, पर होता बिल्कुल इसके विपरीत । अपने सिद्धांतों तथा प्रणों के कारण ही एक के बाद एक विपत्ति उस पर पड़ती है, और अंत में वह शहीद हो जाता है। पर क्या उसकी शहादत सार्थक है? क्या सूरदास सफल है?

उसकी सफलता का भ्रम अवश्य उत्पन्न होता है। यह भ्रम सभी समालोचकों के मन में उत्पन्न हुआ है। इसका क्या कारण है यह हम बाद को बताएँगे, पर फिर एक बात बता दें कि इस प्रकार की समालोचना से प्रेमचंद की कला का सही रूप से मर्मोद्घाटन नहीं हो सका। इस प्रकार की आलोचना की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इसमें आत्मबल को एक विशेष तरह के लोगों की बपौती मानकर चला जाता है जो बिल्कुल ही निकम्मी और बेहूदी धारणा है। क्या आत्मबल सूरदास ऐसे लोगों में ही है जो दबाव मूलक राजनीति में विश्वास करते हैं, क्या क्रांतिकारियों में आत्मबल नहीं होता? सब उत्कृष्ट नमूनों को लिया जाए क्या आत्मबल केवल गाँधी में ही है, लेनिन आदि में नहीं? कहीं विषय से बाहर न चले जाए इस कारण इंगित से इतना ही कह कर हम आगे बढ़ जाते हैं। हम तो केवल इतना ही दिखलाना चाहते हैं कि सूरदास ने न तो स्वराज्य की कुंजी ही दी है, और न उसे आत्मबल का ठेका ही प्राप्त है। समालोचना का उद्देश्य जबर्दस्ती अपने विचारों की जयदुंदुभि बजाना नहीं, बल्कि सामाजिक पृष्ठभूमि में रचना की कला का मर्मोद्घाटन करना है। मुझे दु:ख है उक्त प्रकार के समालोचकगण प्रेमचंद की कला को समझने में असमर्थ रहे। वे जब खुद ही उसे नहीं समझे तो दूसरों को क्या समझाते। मुझे तो ऐसा मालूम देता है कि इन महाशयों ने पुस्तक को अच्छी तरह पढ़ने का कष्ट नहीं किया।

अब हम इस विषय पर आते हैं कि कथानक के द्वारा सूरे की कुंजा की व्यर्थता सिद्ध होने पर भी क्या कारण है कि सब-के-सब पाठक तथा समालोचक भ्रम में पड़ गए। इसका कारण प्रेमचंद की अर्थात् रंगभूमि के प्रेमचंद की कला में ही अंतर्निहित है।

पहले ही मैं बता चुका हूँ कि रंगभूमिकार (गोदानकार नहीं) द्रष्टगत रूप से गाँधीवादी थे, पर उनकी कला दृश्यगतरूप से वस्तुवादी थी। यदि कोई प्रेमचंद के कथित गाँधीवाद युग के प्रभाव में लिखे हुए उपन्यासों अर्थात् प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प आदि को समझना चाहे तो उसे उन दिनों के प्रेमचंद की–उन दिनों के प्रेमचंद इसलिए कह रहा हूँ कि गोदान के युग में वे ऐसे नहीं रह गए थे–कला की इस (Zmiespalt) या द्विविधता को स्मरण रखना पड़ेगा। गाँधीवाद के प्रभाव में लेखनी धारण करने के कारण प्रेमचंद ने सूरदास ऐसे पात्रों के चरित्र पर जितना भी रंग भरते बना भर दिया। हरिभाऊजी के शब्दों में अधिक से अधिक धीरोदात्त बनाया, अपनी जान में उन्होंने इसमें कोई कोर-कसर नहीं रखी, पर वस्तुवाद का हाथ न छोड़ा। इसी दुधारा का नतीजा रंगभूमि आदि पुस्तकें हैं। इन उपन्यासों का ऊपरी रंग बिल्कुल गाँधीवादी है, पर जरा गहरे पानी में पैठ कर उनके उपसंहारों को पढ़िए, तो गाँधीवाद की पराजय ही दृष्टिगोचर होगी। इस प्रकार यह एक अजीब दुनिया हो गई।

हम नहीं कहते कि लेखक ने सज्ञान रूप से रंगभूमि में पांडेपुर वालों को बिखरते तथा पांडेपुर को उजड़ा हुआ दिखलाया है। नहीं ऐसा नहीं। पर हुआ यह कि अपने गाँधीवादी आदर्श के बावजूद उन्होंने अपने पैरों को वस्तुवादी जमीन पर कसकर जमा रहने दिया, पैरों को वहाँ से नहीं हटाया। इसी वस्तुवादी जमीन पर पैर जमा कर ही वे गाँधीवादी पंखों के सहारे उड़े। जो नतीजा है सो सामने है।

प्रेमचंद ने न रंगभूमि में, न प्रेमाश्रम में और न तो अन्य किसी इस प्रकार के उपन्यासों में गाँधीवादी टेकनीक की जीत दिखाई है। सूरदास के चरित्र में हम एक प्रेमचंद कल्पित एक गाँधीवादी चरित्र की उत्तुंग ऊँचाई साथ ही सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में उसकी व्यर्थता और असमर्थता देख सकते हैं। इन दोनों बातों को एक ही चरित्र में मूर्त करके दिखाना यह प्रेमचंद की कला का ही चमत्कार है, और उसका हम विश्लेषण कर चुके कि क्यों वह ऐसी हो सकी।


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