प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानी की खोज

प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानी की खोज

प्रेमचंद के साहित्य को लेकर यह सवाल उठाया जाता रहा है कि उनके उपन्यासों तथा कहानियों में कौन सी रचना ऐसी है जो काल के प्रवाह में मानव जाति को सबसे अधिक प्रिय और प्रभावित करने वाली होगी, कौन सी रचना हर काल के पाठक की चेतना और विवेक एवं उसकी संवेदना को प्रभावित कर सकेगी। यह बड़ा जटिल प्रश्न है तथा न सुलझने वाली जिज्ञासा है, लेकिन जब साहित्य का संबंध मनुष्य से तथा मनुष्य समाज से जुड़ता है तो यह प्रश्न निश्चय ही विचार और बहस का बन जाता है। प्रेमचंद का मत है कि साहित्य जीवन की आलोचना है, जिसमें जीवन का यथार्थ है और आदर्श भी, वह आदर्शोन्मुख यथार्थवादी है, और यही तुलसीदास का ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ है। प्रेमचंद की कसौटी भारत की प्राचीन कसौटी ही है। तुलसीदास ने कहा है कि विधाता ने जड़-चेतन दोनों को गुणावगुणों के साथ बनाया है, और साहित्यकार का धर्म है कि वह मनुष्य के विवेक को जाग्रत कर समाज से अवगुणों का उच्छेदन और गुणों का उन्नयन करें, बस इसमें हर साहित्यकार की विधि भिन्न-भिन्न होती है। कुछ साहित्यकार जीवन के यथार्थ में–अमंगल और अशिव के चित्रण में ही उसकी सार्थकता समझते हैं, लेकिन ऐसे एकांगी यथार्थवाद को प्रेमचंद ने नग्न यथार्थ कहकर उसे पूर्णतः अस्वीकार कर दिया। भारतीय चिंतन परंपरा में मनुष्य के जीवन की दुष्प्रवृतियों तथा दुर्भावनाओं का शमन तथा सद्प्रवृतियों की ओर गमन को ही साहित्य की सार्थकता मानी गई है और प्रेमचंद और उनका युगीन साहित्य-दर्शन इसी को लेकर चला है।

प्रेमचंद के इस ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ के दर्शन को जिसे वे ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ कहते हैं, उसके केंद्रीय भाव को जानना जरूरी है। प्रेमचंद ने अपने साहित्य-कर्म का उद्देश्य बताते हुए लिखा था कि अपने साहित्य से भारतीय आत्मा की रक्षा तथा स्वराज्य प्राप्त करना उनका लक्ष्य है। ये दोनों लक्ष्य केवल प्रेमचंद के ही नहीं थे, बल्कि उस समय का सभी प्रबुद्ध शिक्षित वर्ग इन्हीं लक्ष्यों के लिए ब्रिटिश दासता से मुक्ति का अपने-अपने तरीके से संघर्ष कर रहा था। इनमें अधिकांश अँग्रेजी शिक्षालयों से पढ़कर निकले थे और कुछ गुरुकुल आश्रमों से शिक्षित थे और स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, गाँधी, सुभाषचंद्र बोस, मोतीलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, स्वामी श्रद्धानंद आदि इन्ही लक्ष्यों से स्वराज्य की प्राप्ति और भारतीयता की रक्षा करना चाहते थे। गाँधी स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे और वे पाँच लाख लोगों का सामूहिक बलिदान चाहते थे, पर प्रेमचंद का रास्ता व्यक्ति-व्यक्ति को इसके लिए तैयार करना था। साहित्य राजनीति की तरह कोई सामूहिक आंदोलन नहीं करता, वह तो हर व्यक्ति को, जो उसका पाठक है, स्वतंत्र रूप से संस्कारित करता है, उनके मन में नई चेतना उत्पन्न करता है और उसमें भारत-बोध जाग्रत करके स्वराज्य के लिए कुछ करने के लिए उद्यत करता है। इसलिए साहित्य और राजनीति की भूमिकाएँ भिन्न-भिन्न हैं, इसीलिए प्रेमचंद ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के भाषण में कहा था कि साहित्य देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है, परंतु गाँधी अपनी धर्माश्रित राजनीति से भी भारतीय आत्मा की रक्षा और स्वराज्य के लिए ही अहिंसक संग्राम कर रहे थे और प्रेमचंद उसे अपने साहित्य से गतिशील बना रहे थे। गाँधी राजनीति में और प्रेमचंद साहित्य में ऐसे स्वराज्य के लिए समर्पित थे जो भारतीय चित्त और चेतना से भारतीय आत्मा की रक्षा कर सके। गाँधी इसीलिए रामराज्य के रूप में स्वराज्य को पाना चाहते थे और प्रेमचंद का लक्ष्य भी इससे भिन्न नहीं था। वे स्वाधीनता संग्राम के साहित्यिक नायक थे।

प्रेमचंद के सम्मुख पाठक था, मुख्यतः सामान्य जनता थी, शिक्षित, कुछ अर्धशिक्षित तथा साहित्य-प्रेमी, शहरी और ग्रामीण। यही जनता राष्ट्रीय आंदोलन की आधारशिला थी, यही गाँधी के आंदोलन की केंद्र थी और इसे ही साहित्य के माध्यम से भारतीय जीवनादर्शों के साथ देश की स्वतंत्रता के लिए सुसंस्कारी मनुष्य के रूप में तैयार करना था। गाँधी इसके लिए अपने स्वयंसेवकों को अहिंसक सत्याग्रही बनने की शपथ दिलाकर उन्हें अपने आंदोलन का हिस्सा बना रहे थे और प्रेमचंद अपने उपन्यासों तथा कहानियों से व्यक्ति-व्यक्ति के मन में देश और उसकी आत्मा की रक्षा का संस्कार दे रहे थे।

प्रेमचंद का साहित्य-आदर्श और उसके संदर्भ में उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी की खोज का एक मुख्य आधार माना जाना चाहिए, यद्यपि रचनाकार तथा पाठकों का एक मत होना आवश्यक नहीं है। प्रेमचंद मानते हैं कि लेखक के दृष्टिकोण से पाठक की सहमति हो जाना उसकी रचना की सफलता की कसौटी है। अतः यहाँ यह देखना जरूरी है कि प्रेमचंद की साहित्य और रचना-दृष्टि क्या थी और उससे उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी का चयन किस रूप में हो सकता है। प्रेमचंद का 1928-1936 के बीच जो साहित्य-चिंतन उनके लेखों तथा भूमिकाओं आदि में मिलता है, उसके आधार पर उनका साहित्य-शास्त्र के मूल तत्त्व समझे जा सकते हैं। प्रेमचंद के अनुसार साहित्य जीवन की आलोचना है, सच्चाइयों का दर्पण है, सत्य-असत्य के संघर्ष की शाश्वत यात्रा है, सभ्य जीवन का लक्षण है, मनुष्य के जीवन में सत्य, सुंदर, आनंद, बंधुत्व, मैत्री, प्रेम, त्याग, उत्सर्ग, समता, साहस, संतोष, सामंजस्य, विशालता और आदरणीय है, साहित्य उसी की मूर्ति है। कलाकार अपने साहित्य में आध्यात्मिक सामंजस्य तथा सामंजस्य सौंदर्य की सृष्टि करता है और वफादारी, सच्चाई, सहानुभूति, न्यायप्रियता, बंधुत्व, समता आदि भावों की पुष्टि करता है और समाज के सभी वर्गों–राजनीतिज्ञ आदि सभी की आत्मा जाग्रत करके उनके मनोभावों का परिष्कार करता है। अपने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के भाषण में, 10 अप्रैल, 1936 को, इसे ही स्पष्ट करते हुए कहा था, ‘साहित्य की बदौलत मन का संस्कार होता है, यही उसका मुख्य उद्देश्य है।’ प्रेमचंद मनुष्य की देवतुल्यता तथा मंगलता पर विश्वास करते हैं और लिखते हैं, ‘मनुष्य स्वभाव से देवतुल्य है। जमाने के छल-कपट और परिस्थितियों से वशीभूत होकर वह अपना देवत्व खो बैठता है। साहित्य इस देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करता है–उपदेशों, नसीहतों से नहीं, भावों को स्पंदित करके, मन के कोमल तारों को चोट लगाकर, प्रकृति के साथ सामंजस्य करके। हमारी सभ्यता साहित्य पर ही आधारित है। हम जो कुछ हैं, साहित्य के ही बनाए हुए हैं। विश्व की आत्मा के अंतर्गत भी राष्ट्र या देश की एक आत्मा होती है। इसी आत्मा की प्रतिध्वनि है साहित्य।’ (‘हंस’, अप्रैल, 1932)। वे ‘हंस’ के इसी अंक में लिखते हैं, ‘साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए। भावों का परिमार्जन भी उतना ही वांछनीय है। जब तक हमारे साहित्यसेवी इस आदर्श तक नहीं पहुँचेंगे तब तक हमारे साहित्य से मंगल की आशा नहीं की जा सकती, इसलिए वे चाहते हैं कि वे तपस्वी और आत्मज्ञानी हों।’ प्रेमचंद की यह मंगल-आकांक्षा तुलसीदास के ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ का उन्हें सहयात्री बना देती है और तुलसीदास के समय की विदेशी मुगलों की दासता एवं भारतीय आत्मा पर हुए क्रूरतम आघातों तथा जख्मों के समान अँग्रेजों के दमन-अत्याचार एवं भारतीय आत्मा को कुचलने के विरुद्ध वे अपने साहित्य से उसे जाग्रत करने, उसकी रक्षा करने और स्वराज्य की प्राप्ति के लिए तुलसी के ‘रामचरितमानस’ के समान ही अपने साहित्य की रचना कर रहे थे। तुलसीदास और प्रेमचंद दोनों ही भारत के अमंगल के नाश तथा मंगल की स्थापना का कार्य कर रहे थे।

इन प्रगतिशील लेखकों ने इसके लिए प्रेमचंद का लेख ‘नया जमाना : पुराना जमाना’, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में दिया भाषण, ‘महाजनी सभ्यता’ लेख एवं ‘मंगलसूत्र’ उपन्यास में व्यक्त विचारों का सहारा लिया है, अतः यह देखना जरूरी है कि ये वैज्ञानिक बुद्धि के लेखक उनमें व्यक्त विचारों को सर्वश्रेष्ठता का आधार कैसे बनाते हैं। प्रेमचंद का लेख ‘नया जमाना : पुराना जमाना’ फरवरी, 1919 में प्रकाशित हुआ था और वे इसमें ‘बनियों और व्यापारियों’ की पूँजीवादी सभ्यता की बुराई के साथ रूस में ‘बेजवानों’ को आवाज देने का समर्थन करते हुए भी इससे आश्वस्त नहीं है कि खूनी क्रांति से स्थापित जनतंत्र अपनी भौगौलिक परिधि से बाहर निकल कर निर्बलों और अनाथों की हिमायत करेगा और पूँजीपति ‘राष्ट्र’ की बनिस्बत ज्यादा इंसानियत और हमदर्दी का बर्ताव करेगा। बहुत संभव है कि इस जनतंत्र का अत्याचार पूँजीपतियों से कहीं अधिक घातक सिद्ध हो, क्योंकि इसमें भी ‘राजकीय अधिकार भावना’ और ‘राज्य-संचालन की वासना’ विद्यमान है। प्रेमचंद का तर्क था कि जब थोड़े से पूँजीपतियों की स्वार्थपरता दुनिया को उलट-पलट कर सकती है तो एक पूरे राष्ट्र की सम्मिलित स्वार्थपरता, जो जत्थेबंदी की ज्यादा ठोस सूरत है, क्या कुछ न कर दिखाएगी। यह ठीक है कि वह अपने देश में व्यक्तिगत प्रभुत्व को मिटाकर उसके बदले जनता के प्रभुत्व का झंडा लहरायेगी, मगर उसका आधार भी स्वार्थपरता है और जब तक यह रहेगी इनसानी भाईचारे की संस्कृति एक जौ-भर भी करीब न होगी।
प्रेमचंद का कहानी-संसार बड़ा व्यापक है, एक हजार के लगभग पात्र हैं जिनमें वर्ण, वर्ग, धर्म, क्षेत्र, भाषा, आयु आदि का भेद है। इन कहानियों में जीवन के, इतिहास के, शहरी-गाँवों के, स्त्री-पुरुषों-बालकों के, राजा-साधु के, अँग्रेज-हिंदुस्तानियों के और पशु-पक्षियों तक की कहानियाँ मिलेंगी और लेखक कहानी के कथ्यानुरूप जीवन की कठोर यथार्थ स्थितियों से टकराते हुए पात्रों में भावनाओं तथा व्यक्तित्व का उत्कर्ष तथा परिष्कार-संस्कार देता है और वे मनुष्य में छिपे देवत्व को जागृत कर देते हैं। प्रेमचंद ने साहित्य की जो अपनी कसौटी निश्चित की थी वह हमें उनकी पहली कहानी से ही दिखाई देती है। इसका अर्थ है कि उनकी रचनात्मकता का आरंभ और अंत एक ही धारा में प्रवाहित होता जाता है, यद्यपि कथा, पात्र, परिवेश आदि सभी बदलते हैं, पर सरोकार नहीं बदलता और वह उनके ही शब्दों में ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’, अर्थात जीवन में अमंगल में मंगल का दीपक प्रज्वलित होता है। यह प्रेमचंद का हृदय परिवर्तन नहीं, मन के भावों का उत्कर्ष है जो हर मनुष्य में सद्वृतियों के रूप में अचेतन मन में रहता है। उनकी कहानियाँ जीवन का दर्पण ही नहीं दीपक भी बनती हैं और यही उनके साहित्य का मूलाधार है। प्रेमचंद की 299 कहानियाँ उपलब्ध हैं और ये ‘प्रेमचंद : कहानी रचनावली’, 6 खंड (2010, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली) तथा ‘नया मानसरोवर’ (2018, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली) में कालक्रमानुसार दी गई हैं जो पहली बार किया गया है। उनकी पहली कहानी ‘सांसारिक प्रेम और देशप्रेम’ वर्ष 1908 में छपी थी और आखिरी कहानी ‘क्रिकेट मैच’ उनके देहांत के बाद प्रकाशित हुई, इस कारण से यह उनकी अंतिम कहानी थी। प्रेमचंद साहित्य-आलोचकों ने ‘कफन’ (हिंदी में अप्रैल 1936) को उनकी अंतिम कहानी माना है, लेकिन उसके बाद उनकी 9 कहानियाँ छपी हैं। इस कारण इन आलोचकों ने उसे अंतिम कहानी मानकर जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे भ्रामक और तर्क-तथ्यहीन हैं। प्रेमचंद का कहानी-काल लगभग 28 वर्ष का है और उसमें 299 कहानियों की रचना हुई, इस प्रकार प्रत्येक वर्ष की औसत संख्या लगभग 14 कहानियों की होती है। उनका कुल रचना-काल 33 वर्ष का है, लेकिन उनकी कहानी-रचना में अंत तक एक निरंतरता है और उनकी संवेदना के संसार तथा उसे कहानी के रूप में अभिव्यक्त करने के सरोकार को समझने में हमारा सबसे उपयोगी साधन है। उनकी 2-3 प्रतिशत कहानियों में यदि लेखक अदृश्य है और उसका कोई हस्तक्षेप नहीं है तो वह अपवाद ही माना जाएगा।

प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानी की खोज के लिए उनके इस कहानी-संसार से गुजरना होगा और उनकी कहानियों के पात्रों में जो मनुष्य का रूप है, वह उनकी कसौटी पर कितना सही उतरता है, यह देखना होगा। प्रेमचंद के पात्र सामान्य मनुष्य हैं, उनमें सभी प्रकार के मानवीय गुण-अवगुण हैं, शहरी-ग्रामीण दोनों हैं, स्त्री-पुरुष-बालक-पशु-पक्षी हैं, उनके सुख-दुःख, ईर्ष्या-द्वेष, मान-अपमान, स्वार्थ-त्याग, पाप-पुण्य, जय-पराजय, अहंकार-दयनीयता, पुरुषार्थ-कर्महीनता, देशप्रेम-राजभक्ति, धनी-निर्धन, प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा, सेवा-स्वार्थ, ऊँच-नीच, न्याय-अन्याय, अधिकारी-प्रजा, रूप-अरूपता, ज्ञानी-अज्ञानी आदि की परिस्थितियों के बीच वे अपने मनोभावों के द्वंद्व में जीते हैं और कई बार वे अपने आदर्शों में जीते हुए विपरीत दिशाओं में भी अपने मानुष भाव की रक्षा करते हैं। प्रेमचंद जीवन की हर परिस्थिति में अपने पात्रों को अपने भाव-विचार से क्रिया-प्रतिक्रिया करने का अवसर देते हैं तथा उन्हें विकट एवं संकटपूर्ण दशाओं को भी झेलने का अवसर देते हैं और वे उन सबके बीच विजयी होकर निकलते हैं। प्रेमचंद अपनी कहानियों में एक ऐसे भारतीय मनुष्य की खोज करते हैं जो स्वराज्य के लिए संघर्षरत हो और जो भारतीय आत्मा की रक्षा के साथ इस संकल्प की सिद्धि के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने को उद्यत हो। स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, गाँधी और प्रेमचंद सभी का यही लक्ष्य था। उस समय और अब भी ऐसे भारतीय व्यक्ति का होना संभव नहीं जिसमें लेखक के सभी अपेक्षित गुण मिल जाएँ, इसलिए प्रेमचंद अपनी कहानियों में अनेक पात्रों की सृष्टि करते हैं और हर पात्र में कोई न कोई अपेक्षित गुण का उद्भाव करके उनके संश्लिष्ट रूप से ऐसे भारतीय की संरचना करते हैं। एक व्यक्ति में जीवन के सभी संभाव्य आदर्श नहीं मिलते। एक व्यक्ति में एक अंश होता है, दूसरे में दूसरा और इस प्रकार सभी के सामूहिक रूप से एक सर्वमान्य मानवता का चित्र बनता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि मनुष्य तो देवताओं से भी श्रेष्ठ है और वही श्रेष्ठ जीव है, क्योंकि देवता मनुष्य नहीं बन सकता, जबकि मनुष्य देवता बन सकता है। प्रेमचंद का भी यही विश्वास है कि मनुष्य में एक देवत्व है जिसे जाग्रत करना होता है। प्रेमचंद के पात्र कैसे जीवन की दशाओं में व्यक्तिशः अपने संकटों से जूझते हैं, कैसे अपने जीवन में श्रेष्ठ भाव तथा उपलब्धि तक पहुँचते हैं और उनमें सर्वश्रेष्ठ क्या हो सकता है, इससे देखना-समझना, एक प्रकार से प्रेमचंद के सरोकारों को ही समझना होगा।

प्रेमचंद के कहानी-रचना के 28 वर्ष (1909 में ‘सोजेवतन’ पर सरकारी अंकुश के कारण एक भी कहानी नहीं मिलती) में हर वर्ष से एक ऐसी कहानी तलाश करनी होगी, जिससे स्वराज्य प्राप्ति तथा भारतीय आत्मा की रक्षा में सर्वश्रेष्ठ मनुष्य की कहानी को खोजा जा सके। यहाँ कहानियों के रचनाक्रम से इसकी परीक्षा की गई है–

1. 1908-1910 = इस कालखंड में 11 कहानियाँ प्रकाशित हुईं और वे सब उर्दू में छपीं। प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह उर्दू में ‘सोजेवतन’ 1908 में छपा था। इसमें 5 कहानियाँ हैं। ये देशप्रेम से संबंधित हैं, पर ‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न’ देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने की कहानी है। स्वराज्य के लिए यह बलिदानी भावना आवश्यक थी। इसकी कहानी ‘यही मेरी मातृभूमि है’ में भारत माता के प्रति अटूट प्रेम की अभिव्यक्ति है। यह भी प्रेमचंद ही नहीं युग की माँग थी। वर्ष 1909 में कोई कहानी प्रकाशित नहीं हुई। वर्ष 1910 में 6 कहानियाँ हैं। इसमें ‘रानी सारंधा’ कहानी मुगल बादशाह शाहजहाँ के समय की है। रानी सारंधा मुगलों के हाथ पड़ने से पहले, अपने जातीय स्वाभिमान तथा आत्म गौरव की रक्षा के लिए अपने पति चंपतराय के प्राण लेती है और बाद में खुद भी प्राण त्याग देती है। यह भारतीय स्त्री का अद्भुत साहस, आत्माभिमान तथा शौर्य का प्रतीक है, जिसकी उस समय हर भारतीय को जरूरत थी। इसी वर्ष ‘बड़े घर की बेटी’ कहानी भी छपी और इसमें प्रेमचंद घर को जोड़ने वाली स्त्री को बड़े घर की बेटी मानते हैं।

2. 1911-1920 = इस दशक में 80 कहानियाँ प्रकाशित हुईं, 67 उर्दू में तथा 13 हिंदी में। वर्ष 1911 में 8 कहानियाँ प्रकाशित हुईं और सभी में भिन्न भिन्न कथानक हैं, लेकिन कहानी ‘दोनों तरफ से’ कहानी में पंडित श्यामस्वरूप जमींदार है और उसकी पत्नी और बाद में वह स्वयं गाँव के अस्पृश्यों का घर में स्वागत-सेवा करते हैं और पंडित उनके लिए बिना ब्याज के रुपये देने का इंतजाम करता है। प्रेमचंद गाँधी से पहले ही, स्वामी विवेकानंद के प्रभाव से, अछूतोद्धार का कार्य शुरू करते हैं और एक जमींदार ऐसी मनुष्यता उत्पन्न करते हैं। वर्ष 1912 में 7 कहानियाँ हैं। इनमें ‘ममता’ कहानी में स्त्री की ममता व्यक्ति के क्रोध और प्रतिशोध को क्षमा में बदल देती है और ‘मनावन’ में पति-पत्नी के संबंधों का चित्रण है। वर्ष 1913 में 13 कहानियाँ हैं और इनमें विषयवस्तु तथा चरित्रों का वैविध्य है। ‘अमावस्या की रात्रि’ कहानी में मनुष्य के धर्म और कर्त्तव्य से आत्मा बलवान होती है। ‘शंखनाद’ में पुरुषार्थ का शंखनाद है और ‘नमक का दारोगा’ में ईमानदारी अंततः फलीभूत होती है और ‘बाँका जमींदार’ में किसान जमीन के मालिक हो जाते हैं और प्रेमचंद एक नये भारतीय की रचना करते हैं। वर्ष 1914 में 7 कहानियाँ हैं। ‘अनाथ लड़की’ में रोहिणी भारतीय स्त्री का आधुनिक रूप है, ‘खून सफेद’ में ईसाई धर्मांतरण का विरोध और हिंदू समाज की मूर्खता है और ‘परीक्षा’ कहानी में वे संवेदनशीलता, उदारता, परहितता, साहस आदि भारतीय आत्मा के गुणों की रक्षा करते हैं। वर्ष 1915 में 5 कहानियाँ हैं। इसमें ‘कर्मों का फल’ कहानी में परंपरागत विश्वास की कथा है कि कर्मों का दंड भोगना पड़ता है। लाला साईंदास स्वेच्छा से अपने कर्मों का दंड भोगता है। वर्ष 1916 में भी 7 कहानियाँ हैं। ‘दो भाई’ कहानी में वे कृष्ण और बलराम जैसा प्रेम चाहते हैं और ‘पंच परमेश्वर’ में ग्रामीण लोकतंत्र में पंचायत के महत्त्व को स्थापित करते हैं और हिंदू तथा मुस्लिम पंच दोनों ही न्याय का साथ देते हैं। वर्ष 1917 में 9 कहानियाँ हैं। ‘ईश्वरीय न्याय’ कहानी में मुंशी सत्यनारायण का अपने पाप-कर्म के भय से सच्चाई का रास्ता अपनाना है। ‘महातीर्थ’ में प्रेमचंद एक बुढ़िया दाई में निःस्वार्थ सेवा उत्पन्न करके उसके संस्कारों को महातीर्थ बना देते हैं और सेवाव्रती दाई तीर्थों से बड़ी हो जाती है। वर्ष 1918 में भी 9 कहानियाँ हैं। ‘सेवा-मार्ग’ कहानी भी सेवा को सर्वोपरि स्थापित करती है और इसकी नायिका तारा कुँवरि को प्रेम से ही सेवा का पारस मिलता है। ‘बोध’ कहानी में ईमानदारी का सुफल है और ‘सचाई का उपहार’ में सच्चाई का। वर्ष 1919 में केवल 5 कहानियाँ हैं। इसकी कहानी ‘बैंक का दीवाला’ में धन की दुश्मनी और परिश्रम एवं संतोषमय जीवन का समर्थन है। कुँवर साहब अपने को राम, भीष्म तथा राणा प्रताप से जोड़कर धन-संपत्ति तथा सुखभोग का त्याग कर देते हैं और लेखक उनके भावों का उत्कर्ष कर सद्भाव उत्पन्न करता है। ‘बूढ़ी काकी’ में हिंदू विधवा की परवशता, उपेक्षा, अपमान और भूख की त्रासदी में लाडली और रूपा में मनुष्यता का भाव जन्म लेता है और कहानी का रंग बदल जाता है। ‘मृत्यु के पीछे’ में पत्रकार ईश्वरचंद्र की सेवा, त्याग, संतोष एवं सत्यता उसकी पत्नी के विचारों को बदल देता है और इन्हीं में जीवन का आनंद मानने लगती है। इस प्रकार प्रेमचंद 1911-20 के दशक में अपनी कहानियों में मनुष्यता के लिए अपने पात्रों में भावना-विचारों को संस्कारित, परिष्कृत तथा ऊर्ध्वगामी बनाते हैं और अपने इच्छित भारतीय मनुष्य की रूपरचना करते हैं।

3. 1921-1930 = इस कालखंड में 136 कहानियाँ प्रकाशित हुईं, हिंदी में 116 तथा उर्दू में 20। यह दशक गाँधी के असहयोग आंदोलन से शुरू होता है, अतः प्रेमचंद 1921 में जो 10 कहानियाँ लिखते हैं, उनमें वे गाँधी के असहयोगी, देशभक्त, पश्चिम शासन-सत्ता विरोधी तथा स्वाधीनता, न्याय, संतोष तथा कर्मशील-सेवाव्रती, साहसी तथा परोपकारी चरित्रों की उद्भावना करते हैं और उनके भावों का परिष्कार करते हैं। ‘रूहेहयात’ में तो एक अनाथ, निर्धन लड़की अद्भुत शक्ति, कर्म तथा समाजहित का प्रतीक बनती है। वर्ष 1922 में 11 कहानियाँ हैं और उनमें संवेदनाओं का वैविध्य है। ‘सुहाग की साड़ी’ में पत्नी के अंधविश्वास को तोड़कर उसे मंगलकारी बनाते हैं और ‘पूर्व संस्कार’ में पुनर्जन्म के विश्वास से पात्र में दया और विवेक उत्पन्न करते हैं तथा ‘हार की जीत’ में भारतीय स्त्री का प्रेम मनुष्य को देवत्व तक पहुँचा देता है और ‘स्वत्व-रक्षा’ में घोड़ा भारतीयों में अपने स्वत्व की रक्षा का भारत-भाव उत्पन्न करता है। 1923 में 11 कहानियाँ हैं। इनमें हिंदू परिवारों की कहानियाँ अधिक हैं। ‘नैराश्य लीला’ में हिंदू विधवा की त्रासदी है, पर वह अपनी सत्ता और स्वतंत्रता का जीवन जीकर भारतीय स्त्री का उत्कर्ष करती है। ‘बैर का अंत’ में संयुक्त परिवार ही टूटते हैं, लेकिन आपसी रिश्तों की रक्षा भी है। वर्ष 1924 में 17 कहानियाँ हैं और नबी, भूत तथा बंदर तक पर कहानी है। इस्लाम और मुस्लिम जीवन पर चार कहानियाँ हैं, एक नबी पर जिसमें नीति और न्याय की विजय है, लेकिन ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में मुस्लिम जागीरदारियों की पतन गाथा है। ‘मुक्तिधन’ में गाय के प्रसंग से रहमान तथा दाऊदयाल दोनों में श्रेष्ठ मनुष्यता की कहानी है। ‘दीक्षा’ में शराब को त्याग कर सन्मार्ग पर आने के भावोत्सर्ग की कथा है। ‘सवा सेर गेहूँ’ में हिंदू धर्म के पूर्वजन्म के संस्कार के विश्वास पर चोट करके उससे मुक्त होने की चेतना उत्पन्न करते हैं। वर्ष 2015 में 13 कहानियाँ हैं। इनमें ‘सभ्यता का रहस्य’ कहानी शिक्षित-सभ्य तथा अशिक्षित-असभ्य के अंतर को स्पष्ट करती है। सभ्य वे होते हैं जो अपने अपराध छिपाते हैं और असभ्य इस चालाकी को नहीं जानते। ‘माता का हृदय’ कहानी में माधवी का हिंसक प्रतिशोध उसके महत्त्व से पराजित होता है और मनुष्य में देवत्व प्रकट होता है। वर्ष 1926 में 14 कहानियाँ हैं। इनमें कई कहानियाँ स्त्री विमर्श पर हैं तथा दो बार जीवन हैं। इसकी कहानी ‘मंत्र’ में लेखक पंडित लीलाधर का भावोन्नयन दलित बूढ़े की सेवा से होता है और उनका शुद्धि आंदोलन सेवाश्रम में बदल जाता है। देश में दलितों का धर्मांतरण शुद्धि से नहीं सेवा से ही रोका जा सकता है और भारतीय आत्मा की रक्षा के लिए यह आवश्यक है। वर्ष 1927 में 9 कहानियाँ हैं। प्रेमचंद ‘सुजान भगत’ कहानी में सुजान भगत किसान के रूप में एक ऐसे भारतीय की रचना करते हैं जो अपने पुत्र से अपमानित होकर अदम्य जिजीविषा, पुरुषार्थ, श्रमशीलता, दानशीलता, परोपकारिता, प्रतिष्ठा प्रियता तथा दृढ़-निश्चय से अपने स्वाभिमान की रक्षा करता है। प्रेमचंद को अपने उद्देश्य के लिए ऐसे ही भारतीयों की आवश्यकता थी। ‘एक्ट्रेस’ कहानी में भी अभिनेत्री शकुंतला का आत्म-परिष्कार होता है, उसकी सद्वृत्तियाँ जाग्रत होती है और वह स्वयं को छल-कपट से बचा लेती है। वर्ष 1928 में 21 कहानियाँ हैं जो किसी एक वर्ष में सर्वाधिक हैं। इसमें कहानी ‘दो सखियाँ’ फिर मानवीय भाव-विचारोत्सर्ग की कहानी है। इसका निष्कर्ष है कि स्त्री के रूप से बड़ी उसकी सेवा होती है। पद्मा स्वाधीन बनती है तो घर टूटता है और चंदा सेवाव्रती रहती है तो घर बना रहता है। अंत में पद्मा के भावों का परिष्कार होता है। इस वर्ष एक दूसरी ‘मंत्र’ कहानी प्रकाशित होती है और वह मनुष्यता की दृष्टि से अनुपम कहानी है। यह कहानी भारतीय तथा पश्चिमी सभ्यताओं में पले-बढ़े-संस्कारित हुए दो भिन्न वर्गीय चरित्रों-निर्धन-अशिक्षित-याचक बूढ़े भगत तथा अँग्रेजी शिक्षित-धनी-चिकित्सक पश्चिमी जीवन-शैली-परहितविहीन डॉक्टर चड्डा के बीच मनुष्यता और अमनुष्यता की कहानी है। बूढ़ा भगत अपने एकमात्र बचे सातवें पुत्र के डॉक्टर की उपेक्षा से मरने के बावजूद उसके सर्पदंश से मरते हुए एकमात्र बेटे को जीवनदान देता है और मनुष्यता का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। वर्ष 1929 में 13 कहानियाँ हैं और कई कहानियों में पात्रों के सोच तथा व्यवहार में परिवर्तन आता है। ‘प्रायश्चित’ कहानी का मदारीलाल सेवा से अपराधी से अच्छा मनुष्य बनता है। ‘प्रेम का उदय’ में कंजरी बंटी अंततः विलास त्याग कर सेवाव्रती, पुरुषार्थी तथा अच्छी पत्नी बनती है। ‘घासवाली’ में दलित मुलिया ठाकुर चौनसिंह की आशिकी को अपने सतीत्व बल से उसे एक अच्छा मनुष्य बना देती है और भारतीय पत्नी का एक अनुपम प्रतीक बनती है। विवेकानंद कहते हैं कि स्त्री की पवित्रता और सतीत्व हर पाशविक भाव को पराजित कर सकता है। (‘विवेकानंद साहित्य’, खंड : 3, पृष्ठ-42)। वर्ष 1930 में 16 कहानियाँ हैं। इनमें कुछ स्वराज्य पर, कुछ किसानों की त्रासदी पर और कुछ मानवीय रिश्तों पर हैं। ‘आहुति’ कहानी शिक्षितों की कहानी है, प्रेम और स्वराज्य के द्वंद्व की कहानी है। विशम्भर तथा आनंद सहपाठी हैं और आनंद रूपमणि से प्रेम करता है, परंतु रूपमणि विशम्भर के स्वराज्य प्रेम एवं गाँवों में जाग्रति लाने के कारण उसके प्रति समर्पित हो जाती है। कहानी में रूपमणि का उदात्तीकरण होता है।

इस प्रकार 1921-1930 में 136 सर्वाधिक कहानियाँ हैं। इनमें कोई एक संवेदना, एक भाव, एक विचार, एक धारा नहीं है और यदि है तो वह देशप्रेम एवं आत्मबोध का है। यह बीज-तत्त्व है जो जीवन के विविध रंगों में व्यक्त हुआ होता है और लेखक व्यक्ति, परिवार, पति-पत्नी तथा अन्य मानवीय संबंधों के द्वारा उन्हें जीवंत कहानी बनाता है। आलोचकों का यह कहना कि इस कालखंड में प्रेमचंद यथार्थवादी हो गए थे तथा आदर्श से मोहभंग हो गया था और उनका परिष्कार–उन्नयन-संस्कारित करने के भावोत्कर्ष के आदर्श का दशक के अंत तक परित्याग कर दिया था, पूर्णतः तर्क-तथ्यहीन है। इस दशक में 136 कहानियों में केवल तीन कहानियाँ यथार्थ जीवन पर आधारित हैं–‘पूस की रात’, ‘सवा सेर गेहूँ’ तथा ‘सद्गति’, अतः दो प्रतिशत कहानियाँ लेखक की मूल संवेदना को निर्धारित नहीं कर सकतीं और आलोचकों को विवेक से काम लेना चाहिए। प्रेमचंद इन कहानियों में देश, स्वराज्य, नगर, ग्राम, बालक, पशु, स्त्री, प्रेम तथा मानव मन की अन्य प्रवृत्तियों पर कहानियों की रचना करते हैं और अपने पात्रों के जीवन में ऊर्जा, गति, सद्भाव, सामंजस्य, समता, प्रेम, ममत्व, वात्सल्य, उत्सर्ग आदि भावों को जाग्रत करके एक अच्छा मनुष्य बनाते हैं जो स्वयं पात्र के लिए ही नहीं समाज और देश की मुक्ति एवं उसकी आत्मा की रक्षा के लिए सर्वोपरि है।

प्रेमचंद के जीवन का चौथा दशक आखिरी था। उन्होंने अपने इस जीवन-काल में 75 कहानियाँ लिखीं, 57 हिंदी में तथा 18 उर्दू में तथा ‘कफन’ के बाद 9 कहानियाँ तथा उनके देहांत के बाद 3 कहानियाँ प्रकाशित हुईं। वर्ष 1931 में 16 कहानियाँ छपीं और उनमें ‘उन्माद’ कहानी उनके आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का ही प्रतिफल है। यह मनहर तथा उसकी भारतीय पत्नी तथा इंग्लैंड की अँग्रेज पत्नी जेनी की कहानी है। मनहर पश्चिमी जीवन और अँग्रेज पत्नी के अनुभवों से पीड़ित होकर अपनी भारतीय पत्नी के पास लौट आता है और उसके प्रेम, सेवा, त्याग आदि के जीवन मूल्यों के महत्त्व को समझ जाता है। ‘स्वामिनी’ में भी भारतीय स्त्री अपनी सेवा, प्रेम, ममता, मर्यादा तथा उत्तरदायित्व से ही घर की स्वामिनी बनती है। वर्ष 1932 में 15 कहानियाँ हैं। इनमें ‘रोशनी’ कहानी अँग्रेज बने एक भारतीय अफसर को एक देहाती विधवा स्त्री अपनी सेवा और स्वाभिमान से उसकी मनोरचना एवं भाव-विचार में आमूलचूल परिवर्तन कर देती है और उसका अफसरी स्वभाव सेवाव्रती बन जाता है। इस वर्ष ‘ठाकुर का कुआँ’ जैसी यथार्थवादी कहानी भी प्रकाशित हुई, पर अधिकांश कहानियों में सद्भावों का प्रकाश एवं उन्नयन ही मिलता है और प्रेमचंद अपने साहित्य-दर्शन के साथ ही आगे बढ़ते हैं। प्रेमचंद ने ‘हंस’, अप्रैल 1935 में लिखा भी था कि ‘साहित्य में असुंदर (यथार्थ) का प्रवेश इसलिए होना चाहिए कि सुंदर को और भी सुंदर बनाया जा सके। अंधकार की अपेक्षा प्रकाश ही संसार के लिए ज्यादा कल्याणकारी सिद्ध हुआ है।’ वर्ष 1933 में 12 कहानियाँ हैं। इसमें दो कहानियाँ उल्लेखनीय हैं–‘रंगीले बाबू’ तथा ‘गुल्ली डंडा’। ‘रंगीले बाबू’ में एक नये प्रकार का चरित्र है। वह ईश्वरीय सत्ता को नहीं मानता और न उससे भयभीत हैं। वह दामाद और दूल्हा बने बेटे की मृत्यु पर भी ईश्वर से दया की भीख नहीं माँगता, भयंकरतम दुःख को झेलने का साहस रखता है और मृत्यु को भी जीवन की तरह जीते उसे ही सत्य मानता है। ‘गुल्ली डंडा’ में प्रेमचंद भारतीय तथा विदेशी खेलों की तुलना करते हैं और भारतीय खेलों को श्रेष्ठ मानते हैं और गुल्ली-डंडा को नया अर्थ देते हैं। इसमें इंजीनियर अफसर तथा दलित (चमार) गया में गुल्ली डंडा का खेल होता है और गया हारकर भी मनुष्यता, सद्व्यवहार तथा बड़ों को सम्मान देने में विजयी होता है और कथावाचक अफसर उसके इस व्यवहार से उसे अपने से बड़ा आदमी मानता है। इसमें भी मनुष्यता सबसे बड़ी कसौटी है और दलित गया उसका प्रतीक है। इस कहानी में इसी कारण गया मनुष्यता की उच्चता तक पहुँचता है और अफसर के विचार बदल देता है। इस वर्ष की कहानी ‘बालक’ एक नई नैतिकता को जन्म देती है, पर उससे भी मनुष्यता का ही उन्नयन होता है। वर्ष 1934 में 13 कहानियाँ हैं। इस काल की कहानी ‘नशा’ धन-प्रभुता के नशे से मुक्त होकर मनुष्य बनाती है। ‘रियासत का दीवान’ कहानी में मिस्टर मेहता राजा के दीवान हैं और उनके सभी उचित-अनुचित काम करते हैं, पर अंत में उनमें नीति और धर्म का भाव जाग्रत होता है और जमींदार की बेटी का अपहरण करना अस्वीकार करके स्वेच्छा से दंड भोगता है। उसकी आत्मा जाग्रत होती है और नैतिकता एवं आदर्श की जीत होती है। वर्ष 1935 में 10 कहानियाँ हैं। इसमें ‘कातिल की माँ’ नाम की कहानी है जो हिंसा पर अहिंसा की विजय है और माँ अपने बेटे से ज्यादा धर्म, नीति तथा अहिंसा को प्रेम करती है। ‘देवी’ कहानी की देहाती दलित मुलिया अपनी सेवा से देवी कहलाती है। ‘जीवन का शाप’ कहानी में धन और विलास को शाप कहा है और स्वयं प्रेमचंद इस कहानी पर लिखते हैं, ‘धन और विलास जुड़वाँ हैं और जीवन का शाप है। जीवन का सुख धन में नहीं, संतोष और निग्रह में है। उसका मैंने एक नये रूप में उपयोग किया है और यही मेरा उद्देश्य है। ‘इस वर्ष की विख्यात कहानी ‘कफन’ में भी संवेदना खत्म नहीं हुई और घीसू माधव भरपेट खाकर बची हुई पूरियाँ सामने खड़े भिखारी को दे देते हैं और प्रेमचंद लिखते हैं,’ और ‘देने’ के गौरव, आनंद और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया। ‘प्रेमचंद कफन के पैसों से शराब और खाना पीने-खाने वाले चरित्रों में भी मनुष्यता की एक किरण दिखा ही देते हैं।

वर्ष 1936 में, जो उनके जीवन का आखिरी वर्ष था, कुल 9 कहानियाँ मिलती हैं। इनमें 6 कहानियाँ उनके जीवन काल में तथा 3 उनके देहांत के बाद प्रकाशित हुईं। इन कहानियों का भी मुख्य स्वर प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद ही है, पात्रों के मन का संस्कार होता है और वे मानसिक दुर्बलताओं तथा जीवन के कष्टों से मुक्त होकर बेहतर जीवन की ओर अग्रसर होते हैं। इस वर्ष की पहली ‘मिस पद्मा’ लिव-इन-रिलेशनशिप पर है और इसकी नायिका पद्मा माँ बनने पर पछताती है। उसका प्रेमी धोखा देकर उसके बैंक से रुपये निकालकर इंग्लैंड अपनी छात्रा के साथ भाग गया और वह दया-प्रेम-घृणा से भर जाती है, परंतु प्रेमचंद कहानी का अंत अपने लक्ष्य के अनुरूप ही करते हैं। वे अंत में दिखाते हैं कि पद्मा बच्चे को गोद में लेकर खड़ी है और सड़क पर एक यूरोपियन लेडी और उसका पति एक बग्गी में अपने नवजात बच्चे को लेकर जा रहे हैं और वह सचल आँखों से इस खुशनसीब जोड़े को देख रही है। यह दृश्य उसका उदात्तीकरण कर देता है और परिवार के भारतीय आदर्श को स्थापित कर देता है। ‘होली की छुट्टी’ कहानी में कथावाचक अँग्रेज बिल जैक्सन को उसके परोपकार के कारण इनसान नहीं फरिश्ता मानता है। ‘दो बहनें’ कहानी में धन-विलास का बाग निशाचरों से घिरा है। प्रेमचंद के जीवन-काल में छपी अंतिम कहानी ‘रहस्य’ भी आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की ही कहानी है और यह तथ्य ध्यान में रहना चाहिए कि यह कहानी ‘हंस’, सितंबर, 1936 के अंक में उनके लेख ‘महाजनी सभ्यता’ के साथ ही छपी थी। इस कहानी का नायक विमलप्रकाश सेवाश्रम का संचालक है और मंजुला उसके आश्रम से जुड़ती है, लेकिन कुछ समय बाद चली जाती है। विमल को तीन साल बाद मंजुला मसूरी में मिलती है और विमल को सेवाव्रती बने रहकर देवत्व तक पहुँचने की प्रेरणा देती है। मंजुला के ये शब्द प्रेमचंद के पुराने साहित्य-दर्शन को ही सिद्ध करते हैं और ‘महाजनी सभ्यता’ की प्रगतिशील व्याख्या के प्रतिकूल सेवा को देवत्व का मार्ग बताते हैं, ‘आपको ईश्वर ने सेवा और त्याग के लिए ही रचा है। यही आपका क्षेत्र है।… मैं सब कुछ सह लूँगी, पर आपको देवत्व के ऊँचे आसन से नीचे न गिराऊँगी। आप ज्ञानी हैं, संसार के सुख कितने अनित्य हैं, आप खूब जानते हैं। इनके प्रलोभन में न आइये। आप मनुष्य हैं। आप में भी इच्छाएँ हैं, वासनाएँ हैं, लेकिन इच्छाओं पर विजय पाकर ही आपने यह ऊँचा पद पाया है। उसकी रक्षा कीजिए, अध्यात्म ही आपकी मदद कर सकता है। उसी साधना से आपका जीवन सात्विक होगा और मन पवित्र होगा।’ यहाँ यह बताना जरूरी है कि प्रेमचंद ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के भाषण में कहा था कि ‘सेवा में जो आध्यात्मिक आनंद है वही हमारा पुरस्कार है।’

प्रेमचंद की इस कहानी-यात्रा के विवेचन से कई निष्कर्ष निकलते हैं जिन पर हमारे आलोचक अपनी पार्टी प्रतिबद्धता तथा अज्ञानता एवं तीन-तेरह कहानियों तक सीमित रहने के कारण नहीं पहुँच पाये। इन आलोचकों ने प्रेमचंद को अपनी संकुचित नजर से देखा, लेकिन प्रेमचंद को उनकी निगाह से देखकर ही उनके साहित्य की आत्मा को देखा-समझा जा सकता है। प्रेमचंद जीवन में आद्योपांत अपने साहित्य-दर्शन से अटूट रूप में जुड़े रहे और उनका अपने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से कोई मोहभंग नहीं हुआ था और न वे खूनी क्रांति के समर्थक हो गए थे। उनकी कहानी-यात्रा में निरंतर भारतीय आदर्शों की, उन आदर्शों की जिनकी जरूरत एक ऐसे मनुष्य के निर्माण तथा उसकी मनोरचना में आवश्यक होती है जो देश के स्वराज्य के लिए संघर्षशील रहकर भारतीय आत्मा की रक्षा कर सके।

प्रेमचंद की 299 कहानियों में प्यारी कसौटी पर सबसे उत्तम कहानी ‘मंत्र’ है, जो मार्च, 1928 में प्रकाशित हुई थी। भारतीय संस्कृति तथा प्रेमचंद की दृष्टि में मनुष्य की जो सबसे बड़ी कसौटी है धन-यश से निर्लिप्त पूर्णतः निःस्वार्थ भाव से, अपने विरोधी के प्रति भी, उपकार एवं सेवा के लिए तत्पर होना। ‘मंत्र’ कहानी इस कसौटी का ज्वलंत प्रमाण है। कहानी में बूढ़ा भगत है जिसके छह बेटे मर चुके हैं और सातवाँ बीमार है और वह उसे दिखाने के लिए डॉ. चड्डा के औषधालय में लेकर आता है, पर डॉक्टर चड्डा का गोल्फ खेलने का समय हो गया है और कल सवेरे आने की कहते हुए गोल्फ-स्टिक लेकर मोटर में बैठकर चल देते हैं। बूढ़ा भगत अपनी पगड़ी उनकी चौखट पर रखकर दया-धर्म की दुहाई देता है, पर चड्डा अनसुनी करके चले जाते हैं। प्रेमचंद इसके बाद के दृश्य का तथा बूढ़े भगत की प्रतिक्रिया का वर्णन करते हुए लिखते हैं, ‘बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भाँति खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना निर्मम, इतना कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने जमाने के जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे।’ प्रेमचंद यहाँ डॉक्टर चड्डा तथा बूढ़े भगत के सभ्यतागत अंतर को स्पष्ट कर देते हैं, एक ओर पश्चिम शिक्षा-सभ्यता में आत्मकेंद्रित, स्वार्थी मनोवृत्ति है और उसे किसी दूसरे के दु:ख दर्द से कोई संबंध नहीं है और दूसरी ओर एक अशिक्षित, निर्धन तथा याचक बना बूढ़ा उस भारतीय सभ्यता का जीव है जो हर किसी के दु:ख दर्द में सदैव सेवा के लिए तत्पर रहता है। कहानी आगे बढ़ती है। बूढ़े भगत का बुढ़ापे का एकमात्र सहारा बेटा उसी रात को संसार से सिधार गया। अब कहानी का दूसरा पक्ष आता है। उसके कुछ साल बाद चड्डा का बेटा साँप के जहर से मरणासन्न अवस्था में है और रात को चौकीदार इसकी सूचना बूढ़े भगत को देता है। बूढ़े भगत की ‘चेतना’ तथा ‘उपचेतना’ का प्रेमचंद अंतर्द्वद्व दिखाते हैं, उसके मन का प्रतिकार तथा हिंसा भाव जाग्रत होता है, वह खुश होता और वह दस लाख मिलने पर भी न जाने की कहता है, परंतु उसका हृदय उस अभागे युवक की ओर था जो मर रहा था। ऐसा कभी न हुआ कि भगत ने सर्पदंश की सुनी हो और वह दौड़ा न गया हो। उसकी चेतना रोकती थी, पर उपचेतना खेलती थी। मन में प्रतिकार, दंभ और हिंसा थी, पर कर्म मन के अधीन न था। वह इसी उहापोह में नशे की सी हालत में भागता-भागता चड्डा के घर पहुँचता है और अपने मंत्रों से जहर उतार कर कैलाश को जीवित कर देता है और फिर वहाँ से गायब हो जाता है और वह एक चिलम तंबाकू का भी रवादार नहीं होता। डॉक्टर उसे पहचान लेता है और कहता है कि उससे क्षमा माँगूँगा और उसकी सज्जनता ने जो आदर्श दिखाया है वह जीवन पर्यंत याद रखूँगा। यह कहानी बस इतनी है, पर मनुष्यता की जो श्रेष्ठतम कसौटी है, उस पर यह खरी उतरती है।

प्रेमचंद भारतीय मनुष्य की स्वराज तथा स्वधर्म की रक्षा के महासमर के लिए रूपरचना करते हैं, क्योंकि यही भारतीय मनुष्य देश की स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए प्राणोत्सर्ग कर सकता है, परिवार को जोड़कर रख सकता है, दलितों का उन्नयन कर सकता है, संकट में मदद कर सकता है, पश्चिमी सभ्यता से भारतीय मूल्यों को बचा सकता है, पंच बनकर न्याय कर सकता है, अंधविश्वासों, धन-विलास के मोह का खंडन करके नैतिकपूर्ण जीवन जी सकता है, पत्नी-माता-बहन-सहेली आदि के संबंधों में मधुरता एवं सेवा-भाव ला सकता है, सांप्रदायिक सद्भाव उत्पन्न कर सकता है, गाँवों में जाग्रति ला सकता है, समता-बंधुत्व-एकता की चेतना पैदा कर सकता है, अन्याय-शोषण-दमन का विरोध कर सकता है, अपने पुरुषार्थ और बलिदान की ज्योति जला सकता है और समाज-सेवा के लिए अपनी निजता को विस्मृत कर समष्टि में लीन हो सकता है। प्रेमचंद की कहानियों के ऐसे सारे पात्र मन में छिपे-ढके-दबे सेवा-संस्कार से अपने-अपने प्रसंग में मनुष्यता की ‘रोशनी’ (कहानी) से प्रकाश फैला सकते हैं, लेकिन इन सभी में ‘मंत्र’ का बूढ़ा भगत अद्वितीय है। प्रेमचंद अपने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के भाषण में भी कहते हैं, ‘सेवा में जो आध्यात्मिक आनंद है, वही हमारा पुरस्कार है।’ वे अपने जीवनकाल में प्रकाशित अंतिम कहानी ‘रहस्य’ में भी सेवा को देवत्व से जोड़ते हैं। इसी भाषण में वे इस आनंद को आध्यात्मिक सुख, संतोष, तृप्ति भोजन आदि अनेक शब्दों से व्यक्त करते हैं और इस भारतीय आदर्श को जो सनातन है, ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ को सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ कसौटी के रूप में स्थापित करते हैं और उसे ‘मंत्र’ कहानी अपने संपूर्ण रूप में सिद्ध करती है। मनुष्य के मंगल में परोपकार-सेवा ही सबसे बड़ी संजीवनी है और जीवन हो या साहित्य, मुनष्य की सेवा-परोपकार की प्रवृत्ति ही मनुष्यता की, मानव सभ्यता की सर्वश्रेष्ठ कसौटी है और वही परीक्षा का मापदंड रहेगी। अतः प्रेमचंद की ‘मंत्र’ कहानी ही उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी है और वही मनुष्यता की सबसे बड़ी प्रेरणा का केंद्र बनी रहेगी।