पंजाबी लोकगीत

पंजाबी लोकगीत

कुछ लोगों की यह धारणा है कि कविता के आनंद का अनुभव मात्र शिक्षित वर्ग ही कर सकता है, पर वास्तव में देखा जाए तो उनकी यह धारणा भ्रमपूर्ण है। यदि शिक्षित वर्ग नाना प्रकार के छंदोबद्ध गीतों द्वारा अपना मनोरंजन करता है, तो ग्रामीण व्यक्ति भी अपने छिटपुट गीतों द्वारा अपना मनोरंजन करते हैं। भले ही उनके गीतों में नाना प्रकार के छंद न हों, शब्दाडंबर न हो, अलंकारों की भरमार न हो, पर जो स्वाभाविकता, मर्म-स्पर्शिता और हृदय पर प्रभाव डालने की शक्ति उनके गीतों में होती है वह शिक्षित वर्ग की कविता में बहुत कम देखने को मिलती है।

किसी पुस्तक में पढ़ा था कि लोकगीतों का अध्ययन करते समय प्रांत विशेष का समस्त हर्ष-विषाद, मान-अपमान सुख-दुख, धार्मिक विश्वास, रीति-रिवाज आदि सब हमारी आँखों में फिर जाते हैं। और इस बात की सत्यता मुझे तब मालूम हुई जब मैंने स्वयं कुछ पंजाबी लोकगीत कुछ महिलाओं के मुँह से सुने।

लोक गीतों में हमारा धर्म, हमारी संस्कृति, हमारे पर्व, हमारे त्यौहार आदि सभी कुछ झाँकते रहते हैं। हमारे रीति-रिवाज, अंधविश्वास, रूढ़ियाँ, नृत्य-कला आदि ही लोकगीतों के आधार कहे जा सकते हैं। किसी भी प्रांत का शायद ही कोई लोकगीत ऐसा होगा जो उपरोक्त में से किसी एक पर आधारित न हो।

ग्राम गीत किसी एक कवि या व्यक्ति की संपत्ति और आवाज नहीं वरन् सारे समाज की व सारे प्रांत की संपत्ति व आवाज है। और आज जबकि साहित्य में भी इनकी ओर ध्यान दिया जाने लगा है–ये साहित्य की संपत्ति व आवाज भी कहे जा सकते हैं।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी लोकगीत का साहित्यिक मूल्य आँकना बड़ा कठिन काम है। और उससे भी कठिन काम है यह पता लगाना कि उसका ऐतिहासिक महत्त्व क्या है। पर हमारे त्यौहार, पर्व, रीति-रिवाज आदि का जब तक अस्तित्व रहेगा–लोकगीतों का महत्त्व तब तक कम नहीं हो सकता। हमारे लोकगीत हमारे धर्म, पर्वों, त्यौहारों आदि के प्राण हैं। यद्यपि लोकगीतों के विषय में कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि ये कब बने, किसने इन्हें लिखा, परंतु इसके बावजूद ये लोकगीत हमें हमारे पूर्वजों, प्राचीन संस्कृति और अतीत के गौरव की याद दिला देते हैं।

हाँ, तो मैं पंजाबी लोकगीतों की बात कह रही थी। पंजाबी लोकगीतों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है–(1) संस्कार गीत (2) ऋतु गीत (3) क्रिया गीत (4) जाति गीत।

हमारे यहाँ सोलह प्रकार के संस्कार होते हैं, जिनमें पुत्रजन्म, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह और द्विरागमन विशेष रूप से मनाए जाते हैं। पुत्र जन्म के अवसर पर जो गीत गाए जाते हैं उन्हें पंजाबी में ‘हील्लर’ कहते हैं। इन गीतों की प्रथा काफी पहले से चली आ रही है। इन गीतों में जो हर्षोल्लास एवं आनंद की भावना रहती है वह वर्णनातीत है। नीचे का एक गीत देखिए जिसमें एक छोटी बहिन अपने बड़े भाई के घर पुत्र जन्म के अवसर पर बधाई देने जा रही है–

“बड्डे वीर घर होल्लर जन्मेया
नी मैं चल्ली बधाइयाँ देत।
गड्डी दया गड़वालेया जी मेरी गड्डी नू हौले हौले तोर
दुखन कन्ना दियाँ वालियाँ जी मेरे मत्थे पवे झकझोर।”
भाभी–डावो चंदन चौंकियाँ जी लाला ननद खड़ी बुयो वार
बड़े चिरादे वाद लाडो मेरी आई दरयाओं पार
बिच्चोहार चंगरेया गैनयाँ जी लाला सो मेरी ननदी न दे
ननद–हार हवेलाँ अपने घर रखीं नी भावी
लैंनियाँ फुलझड़ियाँ।
भाभी–फुलझड़ियाँ साहूकाराँ दे होण बीबी
साढ़े ना फुलझड़ियाँ।
रुठडी ननदी लैं औ गई जी लाला
नँघ गई दरया।
नगें नगें पैरी बीबी दा बीर गया जी
अपनी भैणा नूँ ल्याया मना
थाल भरया सुच्चे मोतियाँ दा जी लाला ऊपर फुलझड़ियाँ।
हार हबेला नहीं पाँदी ननद मेरी पहनेगी फुलझड़ियाँ।
लै दे के ननदी घर चल्ली जी अपने वीरे नू दे जोईं सीस
ननद–पोती पड़ोती मेरा वीर जीवे जी मेरी भावी दा अदल सुहाग

भावार्थ–

बड़े भाई के घर पुत्र जन्मा है
मैं बधाई देने जा रही हूँ।
गाड़ी वाले तू मेरी गाड़ी को धीरे-धीरे चला
मेरे बालियों वाले कान दुखते हैं, माथे में धमक पहुँचती है।
(बहन अपने भाई के घर पहुँच जाती है। वह द्वार पर खड़ी है। यह समाचार उसकी भाभी को मिलता है। अत: वह अपने पति से कहती है–)
चंदन की चौकी बिछाओ लाला जी ननद दरवाजे के बाहर खड़ी है।
बहुत समय के बाद मेरी लाड़ो दरिया के पार से आई है।
(और फिर भाभी का अनुरोध, ननद बैठ जाती है। कुशल-झेम पूछने के पश्चात पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में वह अपनी ननद को उपहार दे रही है–)
गहनो में से हार चुना है लाला जी, वह मेरी ननद को दीजिए।
(पर यहाँ ननद अड़ जाती है। वह जानती है कि भाभी के पास फुलझड़ियाँ–एक विशेष प्रकार का गहना है। अत: वह कहती है–)
हार वार अपने घर रखो भाभी
मैं तो फुलझड़ियाँ लूँगी।
भाभी–फुलझड़ियाँ साहूकारों के यहाँ होगी बीबी,
हमारे यहाँ फुलझड़ियाँ नहीं है।
(भाभी का स्पष्ट उत्तर सुनकर ननद के स्वाभिमान को ठेस लगती है। वह वैसे ही उठकर चल देती है। और तब भाभी को पाश्चाताप होता है। वह अपने पति से कहती है–)
रूठी हुरु ननद तो वह गई लाला जी
नदी पार गई।
और फिर–
नंगे पाव बहन का भाई गया
और अपनी बहन को मना लाया।
सच्चे मोतियों का थाल भरा है लाला, ऊपर फुलझड़ियाँ हैं
मेरी ननद हार नहीं पहनती, वह फुलझड़ियाँ पहनेगी।
ले देकर ननद अपने घर चली है, अपने भाई को अशीष दे जाना।
ननद–पौत्र प्रपौत्रों तक मेरा भाई जीवे, मेरी भाभी का अटल सुहाग।

पुत्र जन्म के इन गीतों में आनंद के उल्लास का विशद वर्णन होना स्वाभाविक ही है। होल्लर के अंतर्गत आने वाले गीतों में जच्चा के हृदय को विभोर कर देने वाली पंक्तियाँ तो है ही, वृद्ध जनों को हँसा देने का सामर्थ्य भी है। इन गीतों में गर्भावस्था का साँगोपांग वर्णन भी मिलता है।

मुंडन और यज्ञोपवीत संस्कारों के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों को ‘मुंडन’ एवं ‘जनेऊ के गीत’ कहते हैं। मुंडन के गीतों में ‘माता दी भेंट’ अर्थात ‘कुल देवी का चढ़ावा’ गीत मुख्य है। स्त्रियों के कोमल कंठों से प्रसूत ये मंगल गीत अनायास ही श्रोताओं के हृदय में अपना प्रभाव स्थापित कर देते हैं। ‘जनेऊ’ के गीतों में यज्ञोपवीत के अवसर पर किए जाने वाले अनेक प्रकार के विधि-विधानों का वर्णन पाया जाता है। इन गीतों से पंजाब की प्राचीन सभ्यता एवं विधि-विधानों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

पंजाब में विवाह संस्कार काफी धूमधाम से होता है। इस अवसर पर होने वाला कोई भी कार्य ऐसा नहीं होता जो बिना गीतों के सम्पन्न हो जाए। विवाह से एक महीना पूर्व ही स्त्रियाँ मंगल गीत गाना प्रारंभ कर देती हैं। विवाह के छोटे से छोटे कार्य पर भी स्त्रियों के समवेत स्वर से गाए हुए गीत काफी सुंदर होते हैं। उनके शब्द-शब्द में हृदय का उल्लास बिखर पड़ता है।

कन्या के विवाह पर गाए जाने वाले गीतों को पंजाबी में ‘सुहाग’ एवं लड़के के विवाह पर गाए जाने वाले मांगलिक गीतों को ‘घोड़ियाँ’ कहाँ जाता है। सुहाग के अंतर्गत आने वाले गीतों में अधिकतर कन्या की अपने माता, पिता एवं अन्य संबंधियों के प्रति विनय भरी प्रार्थना निहित रहती है, जिनमें वह कहती है–मेरा विवाह दूर मत करना, मेरा वर सुंदर और योग्य ढूँढ़ना, मुझे भूल मत जाना आदि।
इन गीतों में मधुरता के साथ-साथ करुणा भरी रहती है जो अनायास ही हृदय को अपनी ओर खींच लेती है।

विवाह के पश्चात कन्या की विदाई के समय जो गीत गाए जाते हैं, वे ‘बधावा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन गीतों में जो करुणा है, वह अन्यत्र शायद ही मिले। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो इन गीतों को सुनकर सिसक न पड़े।

विदाई के समय पारिवारिक व्यक्तियों से गले मिलती हुई नव विवाहिता कन्या, करुण स्वर में विदाई का राग गाती हुई शहनाई और नेत्रों में अश्रु भरे हुए खड़ा जन समुदाय इन गीतों को और भी अधिक करुण बना देता है। निम्नांकित मर्मस्पर्शी गीत देखिए जिसमें कन्या के लिए उसके पिता की गली पर्वत बन गई है–

गालियाँ ता तेरीयाँ बावल पर्वत होइयाँ
अंगन होया परदेस रे।
सुन वा मेरे क हर मन चाव रे
क दिल दरयाव रे।
माँ रोदी दी अगियाँ भिज गई
बाप रोवे दरयाव रे
सुन बाप मेरे क हर मन चाव रे
क दिल दरयाव रे
वीर रोवे सारा जग रोवे
मेरी भावो दे मन चाव रे
सुन बाप मेरे क हर मन चाव रे
क दिल दरयाव रे
सठ सहेली बावल दर खड़ी
मैनूँ नहीं मिलन दा चाव रे
सुन बाप मेरे क हर मन चाव रे
क दिल दरयाव रे

भावार्थ–

गलियाँ तो तुम्हारी बाबुल, पर्वत हो गई है
आँगन परदेस हो गया है
सुन बाप मेरे कि हर एक के मन में चाव है
कि दिल दरिया है
माँ के रोने से आँगिया भींग गई
सुन बाप मेरे कि हर एक के मन में चाव है
कि दिल दरिया है
माँ के रोने से आँगिया भींग गई
बाप के रोने से दरिया भर गया
सुन बाप मेरे कि हर एक के मन में चाव है
कि दिल दरिया है
भाई रोवे तो सारा जग रोवे
मेरी भाभी के मन में चाव है
सुन बाप मेरे कि हर एक के मन में चाव है
कि दिल दरिया है
साठ सहेलियाँ बाबुल द्वार पर खड़ी हैं
मुझे मिलने का चाव नहीं है
सुन बाप मेरे कि हर एक के दिल में चाव है
कि दिल दरिया है

और इसके बाद डोली में बैठकर जाती हुई अपनी कन्या को देखकर जब स्त्रियाँ करुण क्रंदन कर गा उठती हैं–

ले चल्ले बावला ले चल्ले वे
मैनू आज दी रैन कटा, बावल तेरा पुन्न होवे
पुन्न होवे परताप होदे
मैनूँ आज दी रैन कटा, बावल तेरा पुन्न होरे
सोहला ते बरसाँ रख लई
रखियो न जावे रैन, धिए घर जा अपने
ले चल्ले बावला ले चल्ले वे
मैनूँ अज दी रैन कटा बावल तेरा पुन्न होवे

भावार्थ–

ले चले बाबुल ले चले ओ
मुझे आज की रात कटा दो, बाबुल तुम्हारा पुण्य हो
सोलह वर्ष तक तो रख ली
अब रात भर भी नहीं रखी जाती, बेटी अपने घर जावो
ले चले बाबुल, ले चले ओ
मुझे आज की रात कटा दो, बाबुल तुम्हारा पुण्य हो

दूसरे प्रकार के लोकगीत वे हैं जो मौसमी गीत के नाम से विख्यात हैं। पंजाबी में प्रत्येक ऋतु के अलग-अलग अनेक गीत हैं जो उन ऋतुओं में गाए जाते हैं। सावन के महीने का ‘तीज’ का त्योहार पंजाब में ‘तीयाँ’ के नाम से विख्यात है। इस अवसर पर पंजाब के प्रत्येक ग्राम व शहर में लगातार पंद्रह दिनों तक मेला लगता है। इस मेले में मात्र स्त्रियाँ ही जाती हैं और अपनी इच्छानुसार नाचती-गाती हैं। स्थान-स्थान पर झूले पड़ जाते हैं जिससे अपनी इच्छानुसार कुछ स्त्रियाँ झूलों पर और कुछ अपनी अलग-अलग मंडली बना कर गाती हैं। उस समय स्त्रियों के विभिन्न गीतों से वातावरण में एक अजीब प्रकार की मस्ती छा जाती है। अधिकांश मंडलियों में संगीत के साथ-साथ नृत्य भी होता है और तब नूपुरों की झंकार के साथ सम्मिलित सावन के गीत हृदय को मुग्ध कर देते हैं।

ये गीत प्राय: विरह प्रधान होते हैं। वैसे संयोग प्रधान गीत भी होते हैं पर जो मर्म-स्पर्शिता विरह-प्रधान गीतों में पाई जाती है वह संयोग प्रधान गीतों में नहीं।

नीचे का एक गीत देखिए जिसमें एक स्त्री बादल से अपने पिता के देश में बरसने के लिए कहती है–

बरसीं तॉ बरसी मीहाँ मेरे बावल दे देस,
हारे वी बरसीं सौहरे क्यारिएँ।
बरसिया ता बरसिया बीबी तेरे बाबल दे देस
होरे वी बरसिया बीबी सौहरे क्यरिएँ।

भावार्थ–

बरसना, बरसना हे मेघ मेरे पिता के देश में
और ससुराल की क्यारियों पर भी बरसना
मैं बरस आया हूँ, बरस आया हूँ, हे कुलवधू, तेरे पिता के देश
और बरस आया हूँ, हे कुलवधु तेरे ससुराल की क्यारियों पर भी

इन ऋतु गीतों के अतिरिक्त बारह मासा प्रमुख है जो प्रत्येक ऋतु में गाया जाता है। बारह मासे में वर्ष भर के सुख दु:ख का बहुत सुंदर वर्णन किया जाता है।

पंजाब में भिन्न-भिन्न जातियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार के गीत गाती हैं। जैसे गुजर लोग ‘गुर्जरी’ व पहाड़ी लोग ‘झंझटी’ विशेष रूप से गाते हैं। इसके अलावा जाट लोग भी अपनी लंबी-लंबी तान वाले गीत गाते हैं जिन्हें यदि पंजाबी के पक्के गाने कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।
निम्न गीत पहाड़ियों की ‘झंझोटी’ है जो काफी सुंदर है–

मेरे माही दा हो भल्ला वे मजाजिया
पटुआ गुँद लैन दे
कोठे उते मैं खड़ी, कोई खड़ी सकाँवा केस
इधर-उधर मैं देख्या, कोई नजर न आया देश
मेरे माही दा हो भल्ला वे मजाजिया
पटुआ गुँद लैन दे
नदी किनारे मैं खड़ी, कोई पापी रूढ़या आए
साल मेरी दा पुत्तर लगदा, दिल नाल लैया ए लाय
मेरे माही दा हो भल्ला वे मजाजिया
पटुआ गुँद लैन दे
नदी किनारे बगला बैठा, चुन चुन मच्छियाँ खाय
बगले दे मैं स्नोटी भारी, तड़फ तड़फ मर जाय
मेरे माही दा हो भल्ला वे मजाजिया
पटुआ गुँद लैन दे।

भावार्थ–

मेरे माही का भला हो मजाजिया
सेहरा गूँथ लेने दो
कोठे ऊपर मैं खड़ी हूँ, खड़ी केश सुखा रही हूँ
मैंने इधर-उधर देखा, कोई देश नजर नहीं आया
मेरे माही का भला हो मजाजिया
सेहरा गूँथ लेने दो
नदी किनारे मैं खड़ी हूँ, कोई पापी बहता आ रहा है
मेरी सास का पुत्र लगता है, मैंने हृदय से लगा लिया
मेरे माही का भला हो मजाजिया
सेहरा गूँथ लेने दो
नदी किनारे बगुला बैठा, मछलियाँ चुन चुन कर खा रहा है
बगुले को मैंने घड़ी मारी वह तड़फ तड़फ कर मर गया
मेरे माही का भला हो मजाजिया
सेहरा गूँथ लेने दो।

इन गीतों के अलावा बहुत से ऐसे मुक्तक गीत भी हैं जिन्हें हम किसी भी श्रेणी में नहीं रख सकते। वे स्वतंत्र रूप से गाए जाते हैं। वैसे तो पंजाबी लोकगीतों में सभी रसों की अभिव्यक्ति हुई है परंतु प्रधानता करुण की है। जो गीतों के नारी समाज के निकट अधिक पल्लवित होने के कारण स्वाभाविक भी है।

निम्नांकित एक गीत को देखिए जिसमें कोई स्त्री पति के वियोग जन्य कष्टों की आशंका से पति से परदेश न जाने का अनुरोध करती है–

दम्मा देया लोभिया, परदेश न जाई
कत्तागीं मैं निकड़ा, घर बैठ के खाई
भावार्थ–पसों के लोभी, तुम परदेश मत जाना
मैं सूत कातूँगी, तुम घर बैठ कर खाना

इनके अलावा पंजाबी लोकगीतों में ‘टप्पे’ भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। इन ‘टप्पों’ में शृंगार के अन्य भेदों-प्रभेदों के साथ ही साथ नायक-नायिका के हाव भावों का भी काफी विशद वर्णन मिलता है। शिष्ट हास्य भी पाया जाता है जो हृदय को विभोर कर देता है। इनमें विरह वर्णन प्रमुख है। दो दलों में विभक्त होकर जब स्त्रियाँ ‘टप्पे’ गाती हैं तो अजीब समाँ बँध जाता है और श्रोता मुग्ध हो उठते हैं।

सभी लोकगीतों की तरह पंजाबी लोकगीतों का अध्ययन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से इनका जितना भी मूल्य आँका जाए, थोड़ा होगा। इन लोकगीतों में ऐसे अनेक नए शब्द और मुहावरे भरे पड़े हैं जिनके अपनाने से हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि होगी।


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