रवि बाबू की कला का लोकवादी स्वरूप

रवि बाबू की कला का लोकवादी स्वरूप

कीर्तिशेष कवींद्र रवींद्र से किसी ने पूछा–

“हे कवि, जीवन-संध्या समीप है, तुम्हारे बाल पक गए; क्या तुम्हें अपने एकांत चिंतन में पारलौकिक संदेश सुनाई पड़ता है?”

कविवर ने उत्तर दिया–

“संध्या का समय है और मैं कान लगाए हूँ; क्योंकि विलंब से सही, शायद कोई गाँव से कोई पुकार बैठे।”

“भटकते हुए नवयुवक हृदयों के पारस्परिक मिलन की मैं प्रतीज्ञा करता हूँ और मैं यह देखता हूँ कि दो जोड़े उत्सुक नेत्र इस आशा में हैं कि संगीत द्वारा उन्हें मुखरित किया जाए और वे यह चाहते हैं कि उनके लिए कुछ कहा जाए। यदि मैं जीवन के एक किनारे बैठ कर मौत और आकबत की चिंता में लग जाऊँ तो उनके रागात्मक गीतों को कौन गूँथेगा?”

काव्य-कला के संबंध में रवि बाबू के ये विचार ही उनकी लोकपक्ष समन्वित रचनाओं के मूल स्रोत हैं। यहाँ यह स्पष्ट है कि कवि का जीवन से घनिष्ट संबंध है। किंतु यह जीवन मानव है अथवा मानवेतर? भटकते हुए परस्पर एक दूसरे से मिल जाने वाले वे युवा-हृदय, संगीत द्वारा मौन व्रत भंग की आकाँक्षा रखने वाले वे दो जोड़े उत्सुक नेत्र–जिनके मनोरंजनार्थ गीतों की कड़ियों पर कड़ियाँ जोड़ते रहने के निमित्त कविवर जरावस्था में भी मौत और आकबत की फिजूल चिंता करना नहीं चाहते–इसी जगत् के हैं अथवा किसी अतीन्द्रिय जगत् के? संभवत: इसका सही उत्तर हमारी हिंदी के वे मनचले कवि नहीं दे सकेंगे, जो कविवर के प्राच्य और प्रतीच्य रहस्यवाद के मिश्रण का पान करके, आपे में मस्त हो-सभी सुध-बुध भूल ‘अनंत में लीन’ होने के लिए उतावले हो रहे थे। शून्य से विचरण करने वाले हमेरे इन कवियों की अनंतोन्मुखी कल्पना को जब इस परिमित जगत् पर पंख पसारने के लिए स्थान नहीं मिला तब इन्हें ‘नूतन सृष्टि निर्माण’ की आवश्यकता पड़ गई थी। हिंदी काव्य गगन के ‘इन नूतन सृष्टि निर्माताओं’ का कर्तव्य केवल कलाबाजियों अथवा चमत्कार पूर्ण उक्तियों के द्वारा पाठकों का मनोरंजन अथवा उनके हृदय में कुतूहल-मात्र उत्पन्न कर देना मात्र रह गया था। यदि उनके इस कार्य का अनौचित्य सिद्ध करने कोई चलता तो तट उनकी तरफ से यही आवाज आती थी कि “बस, बोलो मत; कला का अस्तित्व केवल कला के लिए है।”

रवि बाबू के अनुसार कला का प्रकृत-रूप क्या है, यह समझने की चेष्टा उन्होंने नहीं की। कवींद्र के अनुसार दृश्य जगत् (सत् चित् जगत्) के आनंदपूर्ण स्वरूपों में अन्नत शक्ति (ब्रह्म) का दर्शन होता है। यह आन्नदपूर्ण दृश्य जगत् अपने रूप-व्यापारों में अपनी अभिव्यक्ति के लिए उस मानव हृदय के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कर लेता है जो परम पुरुष (ब्रह्म) को अपनी कृतियों में व्यक्त करने के लिए अनवरत अनंत अभिलाषा रखने वाला है। ये कृतियाँ ही कला हैं, काव्य हैं। हमारे हिंदी-साहित्य-मनीषी स्वर्गीय आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल ने भी काव्य के स्वरूप पर विचार करते हुए लिखा है “कविता वह साधन है जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह हो सकता है।” यहाँ, सृष्टि मानव-हृदय के साथ रागात्मक संबंध स्थापित करती है कि मानव-हृदय उसके साथ, यह कोई उतना विवादास्पद विषय नहीं है। कारण, रागात्मक संबंध दोनों का एक दूसरे के साथ स्थापित होना सिद्ध है।

रवि बाबू से आनंदपूर्ण दृश्य जगत् के ताथ रागात्मक-संबंध स्थापन की बात सुनकर हमारी हिंदी के कुछ कवियों को ऐसा प्रतीत होने लगा कि यह रागात्मक संबंध सुखात्मक ही होगा दु:खात्मक नहीं। काव्य, अपनी कृतियों में ब्रह्म की अभिव्यक्ति का अभिलाषी उसी मानव-हृदय के साथ आनंदपूर्ण दृष्य जगत् का रागात्मक सामंजस्य संभव है जो उसी की भाँति आनंदपूर्ण हो, सुखी हो और दुनिया की झंझटों से दूर आपे में मस्त विचरने वाला हो अथवा ‘प्रसाद’ जी के शब्दों में “जिस तक दु:ख की न पुकार गई हो।” यदि हमे कहें तो यह कह सकते हैं कि इनके अनुसार मानव-जीवन में लोकमंगल की साधनावस्था या प्रयत्न पक्ष में नहीं, प्रत्युत सिद्धावस्था या आनंद पक्ष की स्थिति में ही ब्रह्म का साक्षात्कार संभव है और इसी अवस्था को प्राप्त मानव-हृदय के साथ उपर्युक्त रागात्मक सामंजस्य विधान भी संभव है। संभवत: यह अवस्था स्वयं सिद्ध होगी । आनंद स्वयं स्थित होगा ! इसकी प्राप्ति के लिए किसी कष्ट का सामना नहीं करता होगा और न किसी प्रकार के श्रम या प्रयत्न की आवश्कता होगी ! तात्पर्य यह कि वही मानव-हृदय कलाकार है और वही इस विचार से कवि कहलाने का भी अधिकारी है जिसके जीवन में आनंद-ही-आनंद हो, क्लेश का नाम न हो और इसी आनंदमय स्थिति में आनंदपूर्ण दृश्य जगत् के साथ जिसके हृदय का रागात्मक संबंध स्थापित हुआ हो? परंतु वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी का कोई भी कवि चाहे वह अपने को सीधे रवि बाबू से प्रेरणा प्राप्त करने वाला ही क्यों न कहता हो, इस कसौटी पर खड़ा नहीं उतर सकेगा । कोई ऐसा न होगा जिसका हृदय संवेदनशील न हो, जिस तक दु:ख की पुकार न गई हो, जिसका जीवन निरा सुखमय हो। इस जगत् और जीवन में यह संभव भी नहीं। कारण, आनंद क्लेश से निर्लिप्त रहता नहीं, जीवन में सुख के साथ दु:ख मिला रहता ही है। स्वयं रवि बाबू का कवि-हृदय सुख-दु:ख की धाराओं से तृप्त होता रहा है। उनकी वाणी है–

“अहे अंतरतम
मिटेछे कि तब सकल तियाष आसि अंतरे मम।
दु:ख सुखेर लक्षधाराय
पात्र भरिया दियोछि तोमाय
निठुर पीड़ने निडाड़ि बक्ष दलित द्राक्षासम।”
हिंदी रूपांतर– “अहे अंतरतम
मिट गई क्या तुम्हारी सभी प्यास आकर मेरे अंतर में।
दु:ख-सुख की लाखों धाराओं से
प्याले भर कर दिए तुम्हें
निष्ठुर पीड़ा से अपनी छाती निचोड़ कर, कुचले अंगूर की तरह
दुनियाँ के दूसरे कवियों से भी वे साफ-साफ कहते हैं–
“दुर्दिनेर अश्रु जलधारा
मस्तके पड़िवे झरि तारि माँझे याव अभिसारे
तोर काछे, जीवन सर्वस्वधन अर्पियाछे यावे
जन्म-जन्म धरि।”

हिंदी रूपांतर (श्री बेनीपुरी जी के शब्द में )–

“दुदिन के आसुओं की जलधारा
मस्तक पर झड़ पड़ेंगे, उसी के बीच तुम्हें अभिसार में जाना होगा
उसके सामने, जस पर जिंदगी के सभी सुख-आनंद
अर्पित किए गए हैं जन्म-जन्म से।”

इतना ही नहीं वे जीवनपथ को कष्टकाकीर्ण मानते हैं और कहते हैं ‘जीवन-कष्टक पथे’ अग्रसर होना होगा–

“सुखे-दु:खे धैर्य धरि, विरले मूछिया अश्रु आँखि
प्रति दिवसेर कर्म्मे प्रतिदिन निरलस याकि”

हिंदी रूपांतर (श्री बेनीपुरी द्वारा)-

“सुख-दु:ख में धीरज धर कर, आँखों के आँसू चुपके पोंछकर
हर दिन के काम में, हर दिन मुस्तैद रह कर

जिंदगी के इस कटीले रास्ते को तय करने के बाद ही जीवन-यात्रा सफल होगी, आनंद का साक्षात्कार होगा, जयलाभ होगा, सिद्धावस्था की प्राप्ति होगी–

“तार परे दीर्घ पथ शेषे
जीवन यात्रा अवसाने, क्लांत पदे रक्त सिक्त वेशे
उत्तरिव एक दिन श्रांतिहरा शांतिर उद्धेशे
दु:ख हीन निकेतने । प्रसन्न वदने मंद हे से
परावे महिमा लक्ष्मी भक्त कंठे वरमाल्यखानि,
कर पद्म परशने शांत हवे सर्व्व दु:ख ग्लानि
सर्व अमंगल।”

हिंदी रूपांतर (श्री बेनीपुरी द्वारा)

“उसके बाद लंबी राह तय कर
जीवन-यात्रा के अंत में, थके पाँव और खीन सने भेष में
एक दिन उतरूँगा थकावट हरने वाली शांति की खोज में
उसी घर में जहाँ दु:ख नहीं । प्रसन्न मुख से मधुर हँसी में
पहनावेगी वह महिमा लक्ष्मी अपने भक्त के कंठ में वरमाला
उसके कर कमल के स्पर्श से ही शांत हो जाएँगे सभी दु:ख, सभी ग्लानियाँ
सभी अमंगल।”

अतएव कविवर के अनुसार जीवन में आनंद-प्रयत्न सापेक्ष ही है; वयं सिद्ध अथवा किसी कल्पना-लोक से टपक पड़ने वाला नहीं।

रवि बाबू के अनुसार कलात्मक अभिव्यक्ति अथवा काव्य-रचना के लिए पहले कलाकार या कवि को योग्यता प्राप्त करनी होगी। मनुष्य जब अपने को इस योग्य बना लेगा कि लोगों को यह संदेश दे सके–“Hear to me, I have known the supreme person” (सुनो परम पुरुष (ब्रह्म) मुझ से अज्ञात नहीं रह गया है)–तब कहो जाकर कवि अथवा कलाकार के पद पर वह आसीन हो सकेगा। इस योग्यता प्राप्ति के हेतु वृहदारण्यकोपनिषद् में दर्शन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन के क्रम का मुक्ति-विधान है। निदिध्यासन उस अनुभूति का नाम है जो धर्म के रूप में मानव-जीवन का पथ प्रदर्शन करती है। यही अनुभूति काव्य अथवा कला का सर्वस्व है। कवींद्र का भी कथन है–“मनुष्य को जब पूर्ण अनुभूति प्राप्त हो जाती है, उसे जब अपने में अमरता का अनुभव होता है, तब वह अपनी इस अमरता को मानव-जीवन के विविध क्षेत्रों में संचरित करता है।” परंतु इस दृष्टिकोण से यह न समझना चाहिए कि कलाकार अथवा कवि को योग्यता प्राप्ति के लिए मानव-जीवन में व्यवहार क्षेत्र से परे व्यक्तिगत एकांत साधना अपेक्षित है और इस साधना के उपरांत ही उस सिद्धावस्था की प्राप्ति संभव है जिसमें मनुष्य को ब्रह्म का साक्षात्कार और कलाकार या कवि को योग्यता की प्राप्ति होती है। परंतु आत्म-मंगल-विधान के द्वारा लोक मंगल-विधान के व्यष्टिवादी सिद्धांत को आज की दुनिया मानने को तैयार नहीं। इस सिद्धांत से पूँजीवादियों को पहले स्वयं पूँजी इकट्ठा करो तब दूसरे को भी धन संग्रह मात्र में निष्णात कर सकोगे अथवा पहले घर में चिराग चला कर तब मसजिद में जलाओ आदि के नारों की बलदंगी की पुष्टि मिलती है। अतएव लोग मंगल विधान का यह लंबा, बीहड़, दुरूह और चक्करदार मार्ग भ्रामक घोषित हो चुका है! इसीलिए यह सिद्धांत, बहुत पूर्व, परित्यक्त भी हुआ। ‘लोक संग्रह में वापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि’ गीतोक्त विचार-धारा के अनुकूल समाजवाद के विकास का अवसर मिला एवं अपनी अभ्यद्रयोन्मुख प्रगति के लिए हमने ऋग्वेद के इन अंतिम मंत्रों को हृदयंगम किया–

संगच्छध्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्।
समानो मंत्र समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम्।
समानं मंत्रमभिमंत्रये वा समानेन वो हविषा जुहोमि।।
समानी व आकूती: समाना हृदययानि व:।
समानमस्तु वो मनो मत्रावा सुसहासति।।
यथा व: सुसहासति।।

(अर्थात्–‘एक साथ चलो, एक स्वर में आवाज उठाओ, एक साथ समान बुद्धि से समझो, बूझो, एक संघटित समिति के रूप में एक समान विचार स्थिर करो, अपने मन और चित्त में एक समानता रखो, इस यज्ञ मंडप में मैं सब लोगों का एक साथ आह्वान करता हूँ, समान हविष (याज्ञिक प्रसाद, उपहार) से मैं सब की अर्चना-पूजा करता हूँ। अपना अभिप्राय, अपने अंत:करण और अपना मन एक समान रखो जिससे तुम्हारे संघटन को बल मिलेगा, संघ-शक्ति की दृढ़ता होगी।)’

अब फिर हम अपने अभ्युदय के इन मूल मंत्रों को भूल कर अपना बचा-खुचा गौरव नष्ट करने को उद्यत नहीं हो सकते। इन्हीं के साहरे हमें आगे बढ़ना है। आज जब हम अपने देश के भाग्य को दूसरे देशों के भाग्य के साथ संबद्ध देखते हैं, सामूहिक हिताहित की दृष्टि से दुनिया को देखते-सुनते, समझते आगे बढ़ रहे हैं और सर्वत्र समाजवादी विचार-धारा बहुत-कुछ प्रवाहित हो चली है तब भी जो किसी कवि के ‘व्यक्तिवादी दर्शन और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के कारण ही उसे नवीन मस्तिष्क के उपयुक्त सिद्ध करते हैं उनकी समय की गतिविधि की पहचान के संबंध में क्या कहा जाए?

वस्तुत: साधक, कवि या कलाकार की योग्यता अथवा मनुष्य की सिद्धावस्था की प्राप्ति के लिए, उपनिषद् के दर्शन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन के क्रम में अभी ऊपर जिस साधन का निर्देश दिया गया है वह निरा बुद्धिगम्य नहीं है। उसके लिए आँखें मूँदकर ज्ञानादि इंद्रियों में उष्णता लाने की आवश्यकता नहीं है। आँखें खोलकर जगत् को ‘सियाराममय’ देखने से एवं उसमें अपनी रागात्मिका वृत्ति को रमाने से साधारण जन को सिद्धावस्था की तथा कलाकार की योग्यता की सहज प्राप्ति संभव है। सामान्य जन की, अपने व्यक्तिगत हिताहित की भावना से परे की यही दृष्टि काव्यगत आलंबन के साधारणीकरण का मूलाधार है। इस सिद्धावस्था को भी लोकमान्य तिलक ने हमें इस प्रकार समझाया–“सब प्राणियों के विषय में काया-वाचा-मन से सदैव साम्य बुद्धि रख कर अपने सब कर्मों को करते रहना ही सिद्धावस्था है।”

अस्तु हमारी मनोवृत्ति का लोकमंगल-विधायिनी होना स्वाभाविक है अतएव काव्य-साहित्य के अंतर्गत ‘लोकाभिराम रणरंगधीर, कारुण्य रूप’ श्री रामचंद्र जी के लोक-मंगल विधायक प्रयत्नों में हमें रस का परिपाक, कला का दर्शन एवं आनंद का साक्षात्कार होता है। इसीलिए ‘रवींद्र’ भी अपने प्रयत्नों से प्रगतिशील जगत से पृथक होना नहीं चाहते, मुक्ति नहीं चाहते प्रत्युत उससे लिपटे रहना चाहते हैं। वे मटमैले चीथड़ों में लिपटे किसानों और मजदूरों के श्रम में, उनके स्वरूप में प्रभु का दर्शन करते हैं। यहाँ वे एकांत साधकों से मतभेद प्रकट करते हैं। एकांत-साधना-विषयक शुष्क ज्ञानोपार्जन की, हमारे आज के समाज में, कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। हमारे कवियों को भी संसार से अलग राग अलापने की आवश्यकता नहीं है। रविबाबू के कवि-हृदय की पुकार है–

“संसारे सबाइ यवे सारा क्षण शत कर्मरत,
तुइ शुधू छिन्न वाधा पला तक बालके रमतो
मध्याहने माठेर माँझे एकाकी विषण्ण तरुछाये
दूर वनगंध वह मंदगति क्लांत तसवाये
सारा दिन बाजाइलि बाँशि। ओरे तुइ उठ आजि।
आगुन लेगेछे कोथा। कार शंख उठियाछे बाजि,
जागाते जगत-जने। कोथा हते ध्वनि छे क्रंदने
शून्यतल। कोन अंधकारा माँझे जर्जर बंधने
अनाथिनी मांगिछे सहाय। स्फीतकाय अपमान
अक्षमेर वक्ष हते रक्त शुषि करिते छे पान
लक्ष मुख दिया। वेदनार करिते छे परिहास
स्वार्थोद्धत अविचार। संकुचित भीत क्रीत दास
लुकाइछे छद्मवेशे। ओइये दाँड़ाये नत शिर
मूक सब, म्लान मुखे लेखा शुधू शत शताब्दीर
“वेदनार करुण काहिनी, स्कंधे यत चाये भार
वहि चले मंद गति यतक्षण थाके प्राण तार,
तार परे संतानेरे दिये पाप वंश वंश धरि,
नाहि भर्त्से अदृष्टेरे, नाहि जाने अभिमान
शुधू दूटि अन्न खूटि, कोनो मते कष्ट क्लिष्ट प्राण,
रेखे देय वाँचाइया। से अन्न मेखन केह काड़े,
से प्राण आघात देय गर्व्वांध निष्ठुर अत्याचारे
नाहि जाने कार द्वारे दाँड़ाइवे विचारे-विचारे आशे,
दरि डेर भगवाने वारेक डाकिया दीर्घ श्वासे
मरे से नीरवे एइ सब मूढ़ ग्लान मूक मुखे
दिते हवे भाषा, एइ सब भ्रांत शुष्क भग्नवुके
ध्वनिया तुलिते हवे आशा।”

(श्री बेनीपुरी जी की भाषा में हिंदी रूपांतर)

संसार के सब आदमी जब क्षण-क्षण सैकड़ों कामों में लीन हैं
सिर्फ तू ही बाधा बंधनहीन भगोड़े लड़के की तह
दोपहर को अकेला उदास वृक्ष की छाया में
दूर से गहरी गंध लेकर मंदगति से बहती थकी गर्म हवा
सारा दिन वंशी बजाते रहते हो। अरे तू आज उठ।
कहाँ वह आग लगी है? किसका शंख बज उठा है
संसार की जनता को जगाने के लिए। कहाँ से उठकर यह रोने की आवाज
आसमान में गूँज रही है? किस काल कोठरी से जंजीरों से ज़कड़ी
अनाथिनी मदद की पुकार कर रही है? मोटा अपमान
कमजोर को छाती का न चूस कर पी रहा है
लाखों मुँह से। वेदना का उपहास कर रहा है
स्वार्थ में उद्यत बना अविचार। सहमा हुआ, डरा हुआ, खरीदा हुआ गुलाम
खामोश होकर छिपा फिरता है। ये जो खड़े हैं सिर झुकाए
चुपचाप, उनके मलिन मुखपर लिखी है सैकड़ों सदियों की
दर्द की करुण कहानी; उनके कंधों पर कुचलने वाला बोझा है
जिसे ढोते वह धीरे-धीरे चलते हैं जब तक उनमें प्राण है,
उसके बाद अपनी संतानों पर पुश्त-दर-पुश्त के लिए उसे डाल जाते हैं
वे तकदीर की शिकायत नहीं करते, न देवताओं की निंदा करते हैं,
मनुष्य को भी दोष नहीं देते, न अभिमान जानते हैं
सिर्फ दो अन्न चबाकर किसी तरह जो अपने कष्ट साध्य प्राण को
बचा रखते हैं। वह अन्न भी जब कोई छीन लेता है,
उस प्राण पर भी जब कोई गर्वांध निष्ठुर आघात करता है
तो वह नहीं जानता किसके द्वार पर वह इंसाफ की उमीद में जाए
दरिद्र के भगवान को एकबार पुकार कर ऊँची साँस ले,
वह चुपचाप मरता है। इन्हीं सब जाहिलों, मुसीबतजदों और बेजबाँ लोगों के
मुँह में भाषा देनी होगी । इन्हीं सब डरे, सूखे, टूटे दिलों में
आशा का बिगुल फूँकना होगा ।”

रवि बाबू की कला के लोकवादी रूप को समझने के लिए यदि हम उनके विचार का यह अर्थ ग्रहण करते हैं कि इस गोचर जगत के आनंदपूर्ण विविध रूप व्यापारों में ही ब्रह्म की स्थिति है और उसी की अभिव्यक्ति का साधन कला अथवा काव्य है और उनकी उक्ति के अंतर्गत आए हुए ‘सहजीवी’ के प्रति स्नेह, संवेदना और आत्मोत्सर्ग पर कुछ भी ध्यान नहीं देते हैं तब भी यह भ्रम नहीं रह जाता है कि कवींद्र के अनुसार शोक, क्रोध, भय और घृणा मूलक विविध रूप व्यापारों की अभिव्यक्ति का साधन कला अथवा काव्य होगा या नहीं। कारण उनके आनंदपूर्ण दृश्य जगत के स्वरूप को समझने के लिए यदि हम भारतीय आचार्यों और कवियों की परिपाटी को ग्रहण करते हैं तो कहीं किसी प्रकार के भ्रम की गुंजाइश रह ही नहीं जाती है। आचार्यों ने गोचर जगत के विविध रूप व्यापारों से उत्पन्न भावोद्रेक को सदा-सर्वदा लोकोत्तरानंद दाता माना है और उसे ‘रस’ नाम दिया है। स्वर्गीय आचार्य शुक्ल जी ने लोक-मंगल के प्रयत्नपक्षीय शोक, क्रोध, भय और घणा मूलक रूप व्यापारों के अभिव्यंजक काव्यों में कला का अधिक मनोरम दर्शन किया है। अँग्रेजी कवि ‘शेली’ ने भी उसी गान को मधुरतम माना है जो अत्यंत शोक जनक बातों का मूर्त प्रत्यक्षी करण कर सके (sweetest songs are those that tell of saddest things)। लोग-कल्याणार्थ प्रयत्नों के दु:खात्मक पक्षीय भावों की अनुभूति में भी एक प्रकार का आनंद है! यों भी इस सचराचर मूर्त विश्व में दुख में भी एक तरह का आनंद है और सुख में भी–

अपने दुख-सुख से पुलकित
यह मूर्त विश्वा सचराचर
चिति का विराट वपु मगेल
यह सत्य सतत चिर सुंदर।

(‘प्रसाद,’ कामायनी)

रवि बाबू को आनंदपूर्ण दृश्य-जगत के इसी भारतीय परंपरानुकूल रसात्मक स्वरूप में उनके लोकवादी रूप का दर्शन होता है। आनंदपूर्ण व्यक्त जगत का यही स्वरूप उनकी लोकपक्ष समन्वित रचनाओं का आधार है। इसी प्रकार की रमणीय रचनाओं में उनकी रहस्यवादी भावना का वास्तविक स्वरूप भी दिखाई पड़ जाता है। कीर्तिशेष आचार्य शुक्ल जी ने लिखा है “एक ही कवि कभी वादग्रस्त होकर अपने को लोक से परे प्रकट करने का शब्द प्रयत्न करता है; कभी भाव की स्वच्छ भूमि पर विचरण करता है। यह बात श्री रवींद्र नाथ ठाकुर के संबंध में ठीक समझनी चाहिए। उनकी रहस्यवाद की वे ही कविताएँ रमणीय हैं जो लोकपक्ष समन्वित हैं।” अपनी लोकवादी मनोवृत्ति के अनुकूल कवींद्र इसी प्रत्यक्ष जगत के साथ कला के घनिष्ठ संबंध की बात करते हैं। उनका कथन है “यदि हम इस प्रश्न का उत्तर दे सकें कि कला क्या है, तो हमें यह सहज ही ज्ञात हो जाएगा कि यह जगत, जिसके साथ कला का इतना घनिष्ठ संबंध है क्या है ।” दुखात्मक भावों के आलंबनों में लोकवादी रवि बाबू को जीवन की जिस वास्तविकता का दर्शन होता है उसे उन्होंने ‘कला क्या है’ (what is art) शीर्षक निबंध में कला का विषय माना है। वे लिखते हैं–“जब कभी किसी नियम, व्यवस्था, या विधान द्वारा संसार के एक हिस्से के निवासी के साथ, उनके दूसरे कोने में, अमानुषी आचरण होने लगता है अथवा मनुस्मृति के जाति-पाँति के नियमों का अन्यायपूर्ण, अपमानजनक और उत्पीड़क प्रयोग किसी मानव विशेष के साथ होने लगता है तब ये बर्बर-व्यवहार अपने पूरे असली रूप में, कला के विषय होते हैं।” कविवर की इसी विचार-भूमि में प्रवासी तथा दीन-हीन भारतीयों के प्रति उनकी संवेदना, हरिजनों के प्रति उनकी सहानुभूति एवं उनके देश-प्रेम के काव्यमयी; कलामयी धारा प्रवाहित है। इसी भावना से सिंचित उनके हृदय से प्रार्थना की यह ध्वनि सुनाई पड़ती हैं।

“चित्त येथा भय शून्य, उच ये था सिर
ज्ञान येथा युक्त, येथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगन तले दिवस शर्व्वरी
वसुधारे राखे चार खंड शुद्रकरि
येथा वाह्य हृदयेर उत्समुख हते
उछृवसिया उठे, येथा निर्वारित स्रोते
देशे-देशे दिशि-दिशि कर्मधारा धाय
अजस्र सहस्रविध-चरितार्थ ताप
येथा तुच्छ आचारेर-मरु बालू राशि
विचारेर स्रोत पथ फेले नाइ ग्रासि
पौरुषेर करेति शतधा, नित्य येथा
तुमि सर्व्व कर्मचिंता आनंदेर नेता
निज हस्ते निर्दय आघात करि पित:
भारतेरे सेइ स्वर्गे करो जागरित।”
… … …
ए दुर्भाग्य देशहते हे मंगलमय
दूर करो दाओ तुमि सर्व तुच्छ भय,
लोक भय, राज भय, मृत्यु भय आर।
दीन प्राण दुर्बलेर ए पाषाण-भार,
एइचिर पेषण यंत्रणा, धूलि तले
एइ नित्य अवनति दंडे पले पले
एइ आत्म अवमान, अंतरे वारिते
एइ दास त्वेर रज्जु, त्रस्तनत शिर
सहसेर पद प्रांत तले बारंबार–
“मनुष्य-मर्य्यादा गर्व्व चिर परिहार,
ए वृहत् लज्जा राशि चरण-आघाते
चूर्ण करि दूर करो, मंगल प्रभाते
मस्तक तुलिते दाओ अनंत आकाशे
उदार आलोक माझे उन्मुक्त वातासे।”

श्री बेनीपुरी जी के शब्दों में हिंदी रूप–

“जहाँ मन निडर हो, जहाँ सिर ऊँचा हो;
जहाँ ज्ञान मुक्त हो;
जहाँ घर की दीवारें अपनी अँगनाई में, दिन-रात
पृथ्वी को छोटे-छोटे टुकड़ों में नहीं बाँध रखें;
जहाँ वाणी हृदय के झरने से निकलकर तरंगित हो उठे;
जहाँ बेरोक सोते में कर्म की धारा देश-देश, दिशा-दिशा में बाड़े–
लगातार, हजारों तरह की सफलताओं की ओर
जहाँ तुच्छ रीति रश्म का रेगिस्तान–
निगल न जाए विचार के स्रोत पथ को
न सौ टुकड़े करे मर्दानगी को;
जहाँ तुम हो; हमेशा, ऐ सभी कामों, चिंतनों और आनंदों के नेता,
अपने हाथ से निर्दयता से पीट-पीटकर, हे पिता
भारत को उसी स्वर्ग में जाग्रत करो।”
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“इस आभागे देश से हे मंगलमय,
तुम दूर तरो सभी तुच्छ भयों को
लोकभय को, राजभय को और मृत्युभय को भी
छोटे दिलवाले कमजोरों पर रखे इस पत्थर की चट्टान को
हमेशा पिसते जाने की इस तकलीफ को;
धूल की ओर ले जाने वाली इसी अवनति को
क्षण-क्षण पल-पल की इस बेगैरती को;
भीतर-बाहर की इस गुलामी की जंजीर को
डरे सहमें हजारों के चरणों पर बारबार सिर झुकाए
मानव की मर्यादा और शान को सदा के लिए छोड़े हुए
इस बड़ी लज्जा को पैरों के आघात से
चूर-चूर कर दूर कर दो।
मंगल-प्रभात में हमारे मस्तक ऊँचा करने दो, अनंत आकाश में,
जगमग प्रकाश में, खुली हवा में।”

मानव-जीवन के समस्त भौतिक व्यापार ब्रह्म-लीला के प्रतिरूप रहस्यवाद के अंतर्गत माने गए हैं।
रवि बाबू का कथन है–

“धार्मिक गीत हमारे प्रेमगीत हैं। और हमारे घरेलू व्यापार जैसे पुत्रोत्पत्ति अथवा पुत्री का श्वसुरागम से मैके आना और पुन: श्वसुरालय जाना, हमारे साहित्य में ब्रह्मलीला के एक अंश रूप ग्रंथित हैं।”

कुछ ऐसी ही उक्तियों को हिंदी के कुछ मनचले कवि उमरखय्याम की मधुशाला की मादकता से उत्पन्न प्रवृत्तियों के पोषण का सहारा समझते हैं। पर ये लोग यह भूल जाते हैं कि मानव-जीवन के सत्य, शिव और सुंदर रूपों में कवींद्र ने ब्रह्म की स्थिति की कल्पना की है। गीता का संदेश भी है–

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं, श्री मद्जिंतमेव वा।
तत्तदेवावगच्छत्वं मम तेजोंऽश संभवम्।। (10:41)

(अर्थात्-हे अर्जुन! यह जानो कि जो कुछ विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त एवं कांतियुक्त और शक्तियुक्त है वह मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न हुआ है।)

यह स्मरण रखना चाहिए कि विलियम ब्लेक (William Blake) सरीखे अँग्रेजी कवियों के सांप्रदायिक रहस्यवाद की तरह भारतीय रहस्यवाद की ओर से सदाचार-हीन जीवन की भी प्रेरणा नहीं मिली है। कबीर कहते हैं–

“सीलवंत सब में बड़ा सूर्य रतन को खानि।
तीन लोक की संपदा रहो सील में आनि।।”

यों तो आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल जी के शब्दों में, “खुदा का कौन-सा ऐसा काम है जिसमें शैतान न कूदे, कल्पना में ईश्वरीय सार-सत्ता के समान ही शैतानी सार सत्ता का आना-जाना रहता ही है ।” पर रवि बाबू ने यहाँ पर शैतान के उछल-कूद के लिए मौका न देकर भारतीय प्रवृत्ति का परिचय दिया है। जब वे कहते हैं, “नारी के शील में, उसकी पवित्रता में हमें उसका (ब्रह्म का) अनुभव होता है। मनुष्य की सचाई में हम उसे जान पाते हैं।” तब विलायती रहस्यवाद से प्रभावित वे नहीं दिखाई पड़ते। मानव-जीवन में बाल-स्वरूप अत्यंत पवित्र माना गया है। इसीलिए ब्रह्म को ‘नित्यशिशु-इटर्नल चाइल्ड’ कहा गया है। तुलसी और सूर ‘इटर्नल चाइल्ड’ की लीलाओं पर अपने प्राणों के प्रत्येक स्पंदन को उत्सर्ग कर बैठे हैं। इस प्रकार यहाँ तो, कवींद्र के रहस्यवाद को ब्रह्म के सगुण-रूप से प्रेरणा मिलती है। भारतीय तीर्थ-स्थलों, मंदिरों और मूर्तियों को उन्होंने मनुष्य के ब्रह्मज्ञान का आदर्श स्वीकार किया है। उनका विश्वास है–“भारत में हमारे तीर्थ-स्थल वहीं हैं जहाँ सरिता और सागर के मिलन में, पार्वतीय शिखर के शाश्वत हिमखंड में, निर्जन समुद्रतट में, अनंत शक्ति की कुछ ऐसी अभिव्यक्ति है जो हमारे हृदय के लिए महान् संदेश स्वरूप है और वहीं पर मूर्तियों तथा मंदिरों में, शिलालेखों में, मनुष्य ने ये शब्द लिख छोड़े हैं, ‘सुनो ब्रह्म मुझ से अज्ञात नहीं है।” कविवर को यहीं कलाकार का दर्शन होता है। जहाँ यह संदेश मिलेगा वहीं कवि का दर्शन होगा। यह संदेश देने का अधिकारी मानव-हृदय कवि है, कलाकार है। वही तीर्थ-स्थान का विधायक है। वही इस पावन तीर्थ-स्थल की मूर्तियों और मंदिरों का शिल्पी है। ‘कामायनी’ में प्रसाद जी ने कुछ ऐसे ही तीर्थ का निर्देश किया है, जहाँ पहुँचने के लिए ‘आनंद’ प्रकरण में, मानव जगत् अग्रसर है। वैष्णव साधक और कवियों ने जगत् के प्राणियों के उद्धार एवं परमानंद प्राप्ति के लिए ब्रह्म के अंतस्साक्षात्कार का यही मार्ग बताया है। श्री रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत का भक्ति-मार्ग जागतिक जीवों का अंशी रूप उस चिदचिद्विशिष्ट ब्रह के समीप पहुँचाता है जो इनका स्रष्टा है, जिसके ये अंश हैं और जिसकी सामीप्य प्राप्ति इनका लक्ष्य है और इसी लक्ष्य-सिद्धि में अंश-रूप जीवों का चरम सुख एवं कल्याण निहित है। इस मार्ग में ब्रह्म की क्रमश: अंशावतार, पूर्णावतार और सूक्ष्म रूपों का दर्शन करता हुआ साधक उनके अंतर्यामी रूप को हृदयंगम करके पूर्ण आनंद को प्राप्त करता है। अत: वैष्णव साधक और कवि अनंत-सुख की प्राप्ति का साधन ब्रह्म की सगुण सत्ता के प्रति भक्ति उपर्युक्त क्रम में, मूर्तिपूजा आदि रूपों में स्वीकार करते हैं। परंतु छायावादी रवि सर्वप्रथम निर्गुण रूप और ‘निरगुन-पद’ से प्रेरणा ग्रहण करते हैं।

हम रवि बाबू की ‘गीतांजलि’ के वादग्रस्त रहस्य-भावना संबंधी पदों की बात नहीं चलाते और न हम उनकी उस विचारधारा की बात कहते हैं जहाँ कवींद्र के अनुसार “मानव जीवन के दो पक्ष हैं ।” एक पक्ष जिसका अंत है वहाँ हम बराबर अपने को खतम करते जा रहे हैं और दूसरा पक्ष वह है जहाँ हमारी आकांक्षाएँ, हमारे उपभोग और हमारे त्याग अनंत हैं। मानव-जीवन के इस अनंत पक्ष की अभिव्यक्ति अमरता के प्रतीकों में ही होती है। यह पक्ष पूर्णता का अभिलाषी है। अतएव संसार के खोखलापन और वैषम्य को यह ग्रहण नहीं करता। इसकी स्थिति के लिए एक स्वर्गलोक की सृष्टि करनी पड़ती है जिसका निर्माण पार्थिव और नश्वर पदार्थों से न होकर अमर-शाश्वत और अपार्थिव उपकरणों से हुआ करता है। हमें तो उन लोगों की स्थिति पर तरस आती है जो अपनी भुवन-भावनी जनित दुष्प्रवृत्तियों के पोषण का अवलंब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते रवि बाबू की कुछ ऐसी उक्तियों का पल्ला पकड़ कर धोखा खाते हैं जैसे–“तथ्यों की घटाटोप दुनिया से परे अनंत सौंदर्य के जगत् में परम पुरुष, ब्रह्म का दर्शन होता है और इस परम पुरुष के पास कवि में स्थित पुरुष का संदेश-वाहक कला है।” रवि बाबू की इस पंक्ति में व्यक्त भाव की ध्वनि को न समझ कर यदि कुछ लोग इस वाक्य के अभिधयार्थ के अनुकूल सचमुच, एक अलग अनंत लोक का निर्माण डॉक्टर ब्रेडले की भाँति करना प्रारंभ कर दें और मधुशाला-गान, प्रकृति-गान, सजनी-गान आदि स्वच्छंद प्रगीतों में जीवात्मा के संदेश को परमात्मा के पास पहुँचाने लगे तो इसमें रवि बाबू का क्या दोष? उपर्युक्त कथन का स्पष्ट भाव तो यह है कि इसी दुनिया में सभ्यता के ऐतिहासिक आवरणों को हटाकर अनंत सौंदर्य का साक्षात्कार किया जा सकता है। यही अनंत सौंदर्य मानव-हृदय अथवा कवि-हृदय के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कर लेता है एवं कला का विषय होता है, काव्यगत भाव का आलंबन बनता है। ठोस जगत् से दूर किसी कल्पना लोक में कविवर का हृदय उड़ान मारना नहीं चाहता। उनका स्पष्ट कथन है–

“ए वार फिराओ मोरे, लये माओ संसारेर तीरे
हे कल्पने, रंगमयी ! दुलायो ना समीरे-समीरे
तरंगे-तरंगे आर । भुलाये ना मोहिनी मायाय।”
हिंदी रूप–“मुझे लौटा ले चलो, ठोस संसार के किनारे,
ओ रंगमयी कल्पने! मुझे मत उड़ाती फिरो हवा, हवा में
और तरंग-तरंग पर। अपनी मोहिनी माया में मत भुलाओ;”

रवि बाबू ने कला को इसी उपर्युक्त रूप में ग्रहण किया है; कोरी उपयोगिता के विविध क्षेत्रों में इसका दर्शन वे नहीं करते। उनकी धारणा है “कोरी उपयोगिता की अवस्था तो अंधकारपूर्ण उष्णता की स्थिति की भाँति है। जब कोरी उपयोगिता की अंधकारमय अवस्था गुजर जाती है और इसकी परिणति स्वच्छ धवल ऊष्मा में होती है तभी इसकी अभिव्यक्ति होती है।” यही अभिव्यक्ति कला है किंतु रवि बाबू के अनुयायी कलावादी भी इतना तो मानेंगे ही कि उपयोगिता के अंतर्गत धवल ऊष्मा का संचार कला का ही कार्य है। इसीलिए रवि बाबू की कला को मंगल-रूप उस अनंत सौंदर्य से प्रेरणा मिलती है, जो घटना-चक्र की संसृति से परे है। रवि बाबू की कला के प्रकृत रूप के संबंध में हमें कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए। उनकी जो कला सब जाहिलों मुसीबतजदों, और बेजबाँ लोगों के मुँह में भाषा देती है, उनकी जो कला सब डरे, सूखे, टूटे दिलों में आशा का बिगुल फूँकती हैं उसकी उपयोगिता के संबंध में किसको संदेह होगा? रवि बाबू की कला को आवाज़ है–

“कवि तवे उठे एसो यदि याके प्राण
तवे ताइ लह साथे, तबे ताइ करो आजि दान।
बड़ों दु:ख, बड़ो व्यथा, सम्मुखे ते कष्टेर संसार
बड़ोइ दरिद्र, शून्य, बड़ो क्षुद्र वद्ध अंधकार।
अन्नचाइ, प्राण चाइ, आलोचाइ, चाइ मुक्त वायु,
चाइ बल, चाइ स्वास्थ्य, आनंद उज्ज्वल परमायु
साहस विस्तृत वक्ष पट। ए दैन्य माझारे, कवि
एक बार निये ऐसो स्वर्ग हते विश्वासेर छवि।।”

हिंदी भाषांतर :–

“कवि उठ, सामने आ, यदि तुझमें प्राण है,
तो उन्हें साथी बना, उन्हें खुले हाथ से दान दे।
बड़ा दु:ख है, बड़ी व्यथा है, सामने कष्टों का संसार है,
वे बड़े दु:खी हैं, उनके पास कुछ नहीं, वे क्षुद्र हैं, अंधकार में बँधे हैं,
उन्हें अन्न चाहिए, प्राण चाहिए, रोशनी चाहिए, खुली हवा चाहिए,
उन्हें ताकत चाहिए, तंदुरुस्ती चाहिए, आनंद से उज्ज्वल लंबी आयु चाहिए।
साहस से फैली छाती चाहिए। इस गरीबी में, ओ कवि,
एक बार स्वर्ग से तू विश्वास की छवि लाकर भर दे।”

रवि बाबू ने साधना और सिद्धि दोनों के गीत गाए हैं। उनकी कुछ रचनाएँ सिद्धांतवादी रहस्य-भावना के चक्कर में भी पड़ी है। उनके इन सिद्धिगीतों और रचनाओं को हिंदी के कुछ कवियों ने ‘कला कला के लिए है’ के राग में बैठा कर गाना आरंभ कर दिया। बस, इसी से हिंदी-काव्य-साहित्य पर रवि बाबू के प्रभाव को लेकर काफी हो हल्ला मच गया। किंतु इस शोरगुल से हानि न होकर लाभ ही हुआ। काव्य और कला की बारीकियों की छानबीन हुई। उसका आदर्श जीवन और जगत् के मेल में स्थिर हुआ–लोकवादी बना। हमारा हिंदी काव्य-साहित्य उसी आदर्श के अनुरूप अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ा।


Original Image: The mystic Ahmad Ghazali talking to a disciple
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