रूपी
- 1 January, 1954
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- 1 January, 1954
रूपी
(1)
वह इसके लिए पैदा नहीं हुई थी। कई बार इस दलदल से निकलने की उसने कोशिश भी की। मधुपुरी सवा सौ वर्ष पुरानी विलासनगरी है, उसके पहले वही लोग यहाँ के घने जंगलों में अपने पशुओं को चराते थे, जो अब भी उसकी सीमा के बाहर अपने छोटे-छोटे गाँवों में रहते हैं। सभी बातों में यह लोग बहुत पिछड़े हुए हैं, लेकिन पिछड़े होने का मतलब बुरा होना नहीं है। मधुपुरी के बसने के पहले यह अव्वल नंबर के ईमानदार थे और दूसरों की अपेक्षा अब भी हैं। व्यभिचार इनके यहाँ नहीं था, हाँ, एक पुरानी परिपाटी इनके यहाँ चल रही थी, जो दूसरी जगहों में सहस्राब्दियों पहले उठ चुकी है। अतिथि-सेवा इनमें परम धर्म मानी जाती थी, और अतिथि का सत्कार केवल खान-पान से ही नहीं, बल्कि स्त्री को भी सुलभ करके वह करते थे। लेकिन, जब उन्हें मालूम हुआ, कि ये बाहर से आने वाले अतिथि ऐसी सेवा का दुरुपयोग करते हैं, तो वह उससे हट गए। गरीबी कहाँ नहीं है, लेकिन इनमें खाते-पीते लोगों की संख्या बहुत कम थी। रूप-रंग में यहाँ की तरुणियाँ ज्यादा अच्छी होती हैं, यह भी इनके लिए घाटे का सौदा हुआ। मधुपुरी ने यहाँ बसा कर यहाँ की तरुणियों के जीवन के साथ खेलवाड़ करना शुरू किया।
उसकी माँ जब तरुणी थी, तो मधुपुरी के मेला-उत्सव में अपनी सहेलियों के साथ आती। फिर किसी तरह एक देशी सैनिक के साथ उसका भाग्य जुट गया। दोनों पति-पत्नी के तौर पर रहते। उन्हें एक कन्या पैदा हुई, रूप-रंग में माँ से अधिक सुंदरी थी। उसने बचपन से ही नागरिक जीवन को देखा, उसका नाम रूपी रखा गया। बाप अपनी कन्या के बारे में कितने ही मनसूबे रखता था। लेकिन, अनेक बापों की तरह उसका भी मनसूबा धरा रह गया, जबकि चार वर्ष की बच्ची को छोड़ कर वह चल बसा। माँ तरुणी थी। परिस्थितियों ने चाहे जो भी उससे कराया हो, लेकिन वह स्वभावत: बुरी नहीं थी। दुनिया उसके लिए सूनी हो जाती है, जब तरुण स्त्री असहाय छोड़ दी जाती है। अपने सैनिक पति की नगरी में भी शायद कोई रखने वाला उसे मिल जाता, लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ, या उसे स्वच्छंद पहाड़ी जीवन प्रिय लगा। वह फिर मधुपुरी चली आई और एक दुबले-पतले पहाड़ी चौकीदार से उसका नाता जुट गया। पति दो भाई थे। अभी भी इस अंचल में पांडव-विवाह की प्रथा है, जिसे लोग बाहर वालों के सामने छिपाने की कोशिश करते हैं। वह छोटे पति को देवर कहा करती, और अब बड़े के मर जाने पर उसे जेठ का नाम देती है।
करैला और नीमचढ़ा–गाँव के जीवन को नागरिक जीवन में परिवर्तित करने पर यह कहावत लागू नहीं होती, यह ठीक है; किंतु पहाड़ी ग्राम के सीधे-सादे जीवन पर नागरिक जीवन जब हावी हो जाता है, तो वह अति को पहुँचा देता है। गाँव में रहते समय चाहे कुछ स्वच्छंदता बरती जाए, लेकिन वहाँ समाज का कानून सिर पर रहता है, जाति-बिरादरी वालों की राय की परवाह करनी पड़ती है। उनका समाज इसे बुरा नहीं मानता, यदि कोई स्त्री अपने एक पुरुष को छोड़कर दूसरे से ब्याह कर ले, उसे केवल ब्याह का खर्च लौटाना पड़ता है। लेकिन, सिपाही की स्त्री मधुपुरी जैसी विलासपुरी में आकर रहने लगी, तो उस पर वहाँ के आकर्षण और प्रलोभन अपना असर करने लगे। चौकीदार की तनखाह ही कितनी होती है, फिर उसकी तीन-चार और संतानें भी हो गईं। सात-सात, आठ-आठ आदमी का खर्च चलना मुश्किल था, यद्यपि घर भर मेहनत करने के लिए तैयार था। वह पास के जंगलों से लकड़ियाँ काट कर बेंचते। बंगले में साग-सब्जी उगाने लायक काफी जमीन थी, लेकिन पानी का अभाव था, इसलिए उसका कोई उपयोग नहीं लिया जा सकता था। मधुपुरी में दूध की भी बड़ी माँग है, और सारी कड़ाइयों के रहने पर भी उसमें पानी पड़ना रोका नहीं जा सकता। किन्हीं-किन्हीं चौकीदारों ने गायें पाल रखी हैं, कुछ बकरियाँ भी पाल लेते हैं, क्योंकि कसाई बकरी का अच्छा दाम दे देते हैं। लेकिन चौकीदार ने कभी अपने यहाँ कोई जानवर नहीं पाला। शायद नगरी के एक छोर पर जंगल के बीच होने के कारण यहाँ बघेरे का डर बना रहता है, इसलिए उसने पशुपालन पसंद नहीं किया, अथवा उतना पैसा नहीं जुट सका, कि जानवर खरीदे। हाँ, नगर के छोर पर तथा बाहर के गाँवों के पास होने से एक सुभीता उसे यह जरूर था, कि गाँव की बनी सस्ती शराब को लाकर दूने दाम पर यहाँ के लोगों को पिलाए। उस समय अभी आसपास के गाँव अंग्रेजी-भारत में नहीं, बल्कि रियासत में थे, इसलिए इस पिछड़े इलाके में शराब बनाने में कोई बाधा नहीं थी। बाधा अब भी नहीं है, क्योंकि यदि कानून कड़ाई करना चाहता है, तो गाँव के गाँव को ले जाकर जेल में बंद करना पड़ेगा, और गाँधीजी के असहयोग आंदोलन का नजारा सामने आएगा, हजारों-हजार कैदियों का भरण-पोषण करना सरकार के लिए सिर-दर्द का कारण होगा। लेकिन, मधुपुरी के एक बंगले में ऐसा करना आसान नहीं था। कभी-कभी पुलिस भी छापा मारती। लेकिन, चौकीदार काफी होशियार था, पुलिस के कितने ही जवानों के लिए उसने सस्ती शराब की सदावर्त खोल रखी थी!
संक्षेप में परिवार की जीविका के यही साधन थे।
(2)
‘वुभुक्षित: किं न करोति पापं’ की बात इस परिवार के ऊपर घटने लगी, जबकि बच्चे सयाने होकर अधिक खाने और कपड़े की माँग करने लगे। अपनी सामाजिक प्रथा के अनुसार बड़ी लड़की को किसी अपने जात-भाई को विवाह कर कुछ रुपया मिल सकता था, लेकिन, वह रुपया बहुत कम होता, जो एक-दो महीने में खतम हो जाता। माँ को नगर की हवा लग चुकी थी! उसके दोनों पति विलासपुरी के निवासी होने के कारण कितनी ही बातों को जानते थे। आखिर ब्याह के लिए पैसा लेना भी लड़की को बेंचना था। एक बार के बेंचने में कम और रोज-रोज के बेंचने में ज्यादा पैसा तथा स्थाई आमदनी होने लगे, तो इससे बढ़कर क्या बात हो सकती थी? लड़की चौकीदार या उसके भाई की नहीं थी। यदि होती भी तो कुछ दूसरा ख्याल करते, इसकी कम संभावना थी। शायद तरुणाई में पैर रखने पर शराब पीने के लिए कुटिया में पहुँचने वाले लोगों से लड़की की छेड़-छाड़ होने लगी थी। उसकी माँ मधुबाला थी, शायद उसने भी लड़की के लिए रास्ता साफ किया था। लेकिन, इस बंगले में जिस तरह निर्द्वंद्व शराब के ग्राहक मिल सकते थे, वैसे रूप के ग्राहक नहीं मिल सकते थे। कभी-कभी से कितनी आमदनी होती? माँ ने सलाह ही नहीं दी, बल्कि वह एक दिन अपनी लड़की को लेकर देश के एक नगर में पहुँच गई। वेश्यावृत्ति आज की नागरिक सभ्यता का एक अभिन्न अंग है, और नगरों के अस्तित्व में आने के साथ ही वह अस्तित्व में आई भी। उसके कई प्रकार हैं। कुछ वेश्याएँ नाच-गाने का पेशा भी करती हैं, कुछ को ऐसी किसी कला से प्रयोजन नहीं, वह खुद केवल अपने शरीर को बेंचती खुले आम बाजार में बैठती हैं। एक तीसरी तरह की वेश्यावृत्ति को भी स्थान है, जिसमें पेशेवर और गैर-पेशेवर दोनों प्रकार की शरीर बेचनेवाली स्त्रियाँ सामूहिक रूप से वेश्यावृत्ति करती हैं, जिसे चकला कहते हैं। यदि माँ चकले से बिल्कुल अपरिचित होती, तो एकाएक लड़की के साथ वहाँ पहुँच जाना उसके लिए संभव नहीं था।
उसका नाम अच्छा-सा किसी और ही ख्याल से रखा गया था, लेकिन उसके आज के जीवन में उस नाम को दोहराना अच्छा नहीं है। रूप से आजीविका करने के कारण हम उसे रूपाजीवा या रूपी कहते हैं। पहलेपहल चकले का जीवन शुरू करने में उसको बहुत बेचैनी हुई, पर माँ ने पहले ही से इस पथ के लिए तैयारी कराई थी। वह ठंडे पहाड़ की रहनेवाली थी, और देश के नगर चार-पाँच महीने से अधिक उसके अनुकूल नहीं हो सकते थे। पहला जाड़ा किसी तरह उसने चकले में बिताया। चकले की दलाल स्त्री उसके घर पर प्रबंध करती। यह सब वह मुफ्त थोड़े ही कर सकती थी? इसलिए रूपी को अपने बेंचने की कीमत का कितना ही भाग उसे दे देना पड़ता था। तो भी उसने पहले जाड़ों में अपने लिए कुछ कपड़े और जेवर बनवाए, माँ और भाइयों के लिए भी कुछ खरीदा और सौ रुपया नगद लेकर मधुपुरी लौट आई।
अब गर्मियों और बरसात में मधुपुरी और जाड़ा तथा वसंत में देश के किसी नगर में वह जाया करती। वह न शिक्षित थी और न शिक्षित समाज में पली थी, इसलिए उच्च आदर्श क्या है इसकी भनक भी उसके कान में नहीं पड़ी थी। लेकिन, अपने व्यवहार से कीचड़ में गिरी होने पर भी वह स्वार्थ में डूबी नहीं थी। वह समझती थी, कि अपने भूखे परिवार की सहायता करना मेरा कर्त्तव्य है। कर्त्तव्य भी उसकी समझ से बाहर का शब्द था, सीधी बात यह थी, कि भूखे पेट चिथड़े लपेटे अपने परिवार को देखकर उसका दिल तिलमिला जाता, और उसका ही उपचार वह इस प्रकार सहायता पहुँचाकर कर रही थी।
(3)
मौसम बीतते वर्ष बीत रहे थे। उसने 14-15 वर्ष की उमर से इस जीवन को स्वीकार किया था। उस समय से अब उसकी बुद्धि भी ज्यादा विकसित हो चुकी थी। पहले घुटनों चलते बालक की तरह अपनी माँ की अँगुली पकड़ कर चलना ही भर वह जानती थी। अब वह कुछ खुद सोचने लगी थी। उसके परिवार की स्थिति इस सहायता से सुधर नहीं रही थी। मांस और शराब घर में कुछ और खाई-पी जाती, कुछ दिनों में पैसे खर्च हो जाने तथा ग्राहकों के दुर्लभ हो जाने पर फिर भूखे पेट रहने लगते। चिथड़े कभी थोड़े दिनों के लिए उतर जाते और कबाड़िए की दूकान से कोई सूती या ऊनी कोट आ जाता, लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह फिर बिक जाते और कोने में फेंके चिथड़े फिर शरीर पर पड़ जाते। रूपी चीथड़े लपेट कर नहीं चल सकती थी, तब उसे ग्राहक कहाँ से मिलते? उसके शरीर को मांसल रखना भी आवश्यक था, इसलिए परिवार भले ही भूखा रहे, लेकिन उसे भूखा नहीं रखा जाता।
वेश्यावृत्ति को सभी धर्मों ने पाप बतलाया है, और इसके लिए नर्क में कठोर यातनाओं का चित्र खींचा है, लेकिन हजारों वर्षों से नर्क की धमकी दी जा रही है, तो भी वेश्यावृत्ति कम होने की जगह बढ़ती ही गई। उधार के दंड का यहाँ कोई सवाल नहीं, क्योंकि धीरे-धीरे प्रकृति भी इसे बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हुई, और उसने इसी जन्म में आँखों के सामने घोर दंड देना शुरू किया, और रतिज रोग (सूज़ाक और गर्मी) ने दुनिया में अपना फैलाव शुरू किया। कौन देश है, जहाँ थैली का बोलबाला हो, और यह दोनों उसके अभिन्न सहचर आ मौजूद न हों! पुरियों और विलासपुरियों में तो इनका और भी जबर्दस्त प्रभाव है। ठंडे पहाड़ों को देखकर अंग्रेजों ने जहाँ जहाँ गोरों की छावनियाँ बनाईं, वहाँ दस-दस मील चारों तरफ लोग इनके मारे त्राहि-त्राहि करने लगे। अगर इनके प्रभाव की मात्रा को जानना हो तो किसी गाँव में कितने निस्संतान परिवार हैं, इसे पूछ लीजिए। सूज़ाक आदमी को निस्संतान बनाता है। शिमला के पास ऐसे कितने ही गाँव मिलेंगे, जिनके आधे घर निस्संतान होकर उजड़ गए। पेनिसिलिन उसकी अमोघ दवा है, लेकिन एक बार अच्छा हो करके भी तो मुक्ति नहीं मिल सकती, यदि समाज में उसका बहुत फैलाव हो और ऐसे स्त्री-पुरुषों का संसर्ग हो। गर्मी या आतशक उससे भी भयंकर है, क्योंकि यह निस्संतान तो नहीं करती, लेकिन कोढ़ को पैदा कर देती है। रूपा अपने इस जीवन में इन भयानक रोगों से कैसे बच सकती थी? तीन साल भी बीतने नहीं पाए कि वह आतशक का शिकार हुई। जब बनिए ने हाट लगा दी, तो वह किसी ग्राहक के हाथ में अपने सौदे को बेंचने से इंकार कैसे कर सकता है? आज से डेढ़ हजार वर्ष पहले शूद्रक ने अपने ‘मृच्छकटिक’ नाटक में लिखा था–
वाप्यां स्नाति विचक्षणो द्विजवर: मूर्खोपि वर्णाधम:,
फुल्लां नाम्यति वायसोपि विहगो या नामिता वर्हिणा।
ब्रह्मक्षत्रविश: तरन्ति च यया नावा तथैवेतरे,
सा वापीव लतेव नौरिव जनं वेश्यासि सर्वं भज॥
इस प्रकार बावड़ी, लता और नौका की तरह वेश्या को किसी के साथ भेदभाव न करके उसकी सेवा करने के लिए उसी काल की तरह आज भी तैयार रहना पड़ता है। रूपी की बीमारी बहुत भयंकर थी, घाव हो गए थे, उसे चलना-फिरना मुश्किल हो गया था। उसे मधुपुरी के अस्पताल में ले गए। दवाई होने लगी, लेकिन सात रुपए रोज वहाँ देना उसके लिए बहुत दिनों तक संभव नहीं था। घाव अभी पूरी तरह अच्छा नहीं हुआ था, तभी वह वहाँ से चली आई। सौतेले बाप का गाँव अब भी मौजूद था, वहाँ कुछ खेत भी थे, और एक टूटा-फूटा घर भी। वह वहाँ भेज दी गई। उसे मालूम होने लगा, कि यह जीवन भारी संकट का है। उसे हाल की बीमारी में मृत्यु के मुँह साफ-साफ दिखाई पड़ते थे। शायद वह यह न जानती थी, कि कुष्ट में परिणत होकर उसका जीवन उस मृत्यु से भी कहीं अधिक भयंकर होता। जब तक रोग छिपा रहे, तभी तक ग्राहक आ सकते थे, जब उन्हें साफ मालूम हो, तो कौन अपने गले में अपने हाथ से फाँसी लगाना चाहेगा? यदि उसे अपनी हाट उठा देनी पड़ी, तो फिर क्या वह दाने-दाने के लिए मुहताज नहीं होगी? उसने ऋषिकेश और दूसरी जगहों पर सैकड़ों की तादाद में कोढ़ी स्त्रियों को नहीं देखा था, नहीं तो जानती कि उनमें से अधिकांश रूप की हाट लगाने के कारण ही इस मौत से भी बदतर जिंदगी को भोगते कड़ी धूप में रास्ते के किनारे बैठी भीख माँग रही हैं।
जो भी हो, खतरे का उसे पता लग गया। बीमारी न होती, तब भी उसे यह ख्याल तो आता ही था, कि रूप आजीवन साथ नहीं रहता, यौवन बादल की छाया की तरह इतना जल्दी निकल जाता है, कि पता नहीं लगता। उसे इस बात की फिकर पड़ी, कि किस तरह इस जीवन से निकला जाए। स्वस्थ हो जाने पर फिर उसे आधा समय देश के शहरों के चकलों में और आधा समय अपनी माँ की कुटिया में उसी जीवन को बिताना पड़ेगा। लेकिन, जिस तरह चकले का रास्ता पा जाना उसके लिए आसान था, उसी तरह उससे निकलने का रास्ता आसान नहीं था। पहले उसके चेहरे पर मुस्कुराहट खेला करती थी, अब वह साफ दिखलावटी मालूम होती थी–वह कभी-कभी आती और वह भी कृत्रिम मालूम होती। रूपी रूपाजीवा थी जरूर, लेकिन वह निर्लज्जा नहीं थी। शास्त्र में ‘सलज्जा गणिका नष्टा’ कहा गया है। इसका कुछ प्रभाव उसके व्यवसाय पर भी पड़ सकता था। वह सचमुच सुंदरी थी, जिसमें यौवन ने मिलकर बहुत आकर्षण पैदा कर दिया था।
(4)
अँधेरे में उसने बहुत हाथ-पैर मारा। जो भी ग्राहक उसके पास आते, सभी अपना अनन्य प्रेम दिखलाते हुए उस पर अपने को न्योछावर करते। लेकिन, उसने सैकड़ों मुखों से यही बात सुनते-सुनते अब पुरुषों के प्रति विश्वास खो दिया था। बीमारी एक नहीं दो मर्तबे आई और फिर उसने दवाई लेने से इंकार कर दिया। अब वह यौन-रोग को निराबाध रूप से वितरित कर रही थी, लेकिन तो भी गुड़ के ऊपर टूटने वाली मक्खियों की तरह पुरुषों की कमी नहीं थी। कुछ उसके स्थाई ग्राहक बन गए थे, और कुछ कभी-कभी आते थे। चकले नगर के अँधेरे कोने में होते हैं, और वहाँ बहुत भय भी रहता है, इसलिए ग्राहकों को लुक-छिपकर ही पहुँचना पड़ता है। पर, मधुपुरी में रहने के समय उसका दरबार खुला-सा चलता। पुलिस बहुत दूर नहीं रहती थी, कानून भी बाधक था, लेकिन जिस तरह उसकी कुटिया में सस्ती शराब बराबर बिकती रहती, उसी तरह सस्ता रूप भी। मधुपुरी में बड़े-बड़े लोग ही अपनी स्त्रियों के साथ आते हैं। छोटे-मोटे काम करने वाले, चाहे पहाड़ी हों या देशी, सभी अकेले आते हैं। रूपी ने अपनी कीमत बढ़ा-चढ़ा कर नहीं रखी थी, इसलिए भी ग्राहकों की कमी नहीं होती थी। पिछले छ:-सात सालों में उसे कितनी ही बार कई महीनों के लिए अपने गाँव में जाकर रहना पड़ा, जिसका मतलब यही था, कि बीमारी ने उसे व्यवसाय के लायक नहीं रखा था।
रूपी अब 25 से ऊपर की हो गई थी। इधर पाकिस्तान बनने के बाद पंजाब से भागे कितने ही साधारण लोग मधुपुरी में भी रोजगार के पीछे या सैर करने के लिए आते थे। जिनमें से कुछ उसके स्थाई ग्राहक ही नहीं बन गए, बल्कि ब्याह का प्रलोभन भी देने लगे। स्त्रियों की जहाँ कमी हो, वहाँ उनका मूल्य बढ़ जाता है। एक तरुण दर्जी उसके यहाँ बराबर आने-जाने लगा। उसने जब पहले ब्याह का प्रस्ताव किया, तो रूपी ने इंकार तो नहीं किया, किंतु वह विश्वास नहीं कर सकी। अब वह ज्यादा उतावली हो उठी थी। बीमारी और उससे भी ज्यादा जवानी के हाथ से निकलने का भय उसको हमेशा सताया करता था। उस साल की गर्मियों में दर्जी बराबर उसके यहाँ आता रहा और जाड़ों में नीचे के नगर में जाने के लिए तैयार हो गया।
रूपी फिर उन्हीं नगरों में से एक में गई, जिनके चकलों में वह फेरा लगा चुकी थी। दर्जी ने बड़ी खातिर से रखा। उसके घरवाले कुछ मामूली-सा विरोध करते रहे, लेकिन वह जानते थे, कि अपनी जाति की कन्या को पाने की हमारे पास हैसियत नहीं है, इसलिए उन्होंने भी अपनी मूक सहमति दे दी। रूपी की माँ से जब कोई पूछता, तो वह बड़े तपाक के साथ कहती–ससुराल गई है।
जाड़ों को बिता कर गर्मियों में वह फिर मधुपुरी लौट आई। दर्जी इस साल नहीं आया, क्योंकि उसकी दूकान नीचे अच्छी चलने लगी और मधुपुरी में जरूरत से अधिक दर्जी आकर बैठ गए थे। रूपी को देखने ही से मालूम होता था, कि दर्जी ने उसको बहुत अच्छी तरह से रखा था। उसके गालों पर फिर सुर्खी आ गई थी, मांस भी बढ़ गया था, आँखें जो पहले दबी-दबी रहती थीं, वह अब उभड़ी और चमकीली हो गई थीं। दर्जी ने उसे अच्छे कपड़े का सलवार और दुपट्टा बना दिया था। एक सुंदर ओवरकोट उसके शरीर की शोभा को बढ़ाता था। दर्जी ने सोचा था, ठंडी जगह की स्त्री नीचे की गर्मी को एकाएक बर्दाश्त नहीं कर सकती, इसलिए उसके खर्च-बर्च का इंतिजाम करके मधुपुरी भेजा था।
लेकिन, मधुपुरी में आकर तो उसे अपने उसी परिवार में रहना था, उसी मधुशाला में उठना-बैठना था, जिसमें उसकी माँ मधुबाला बनकर रहती थी। शराब और रूप दोनों के ग्राहक वहाँ बराबर आया करते थे। माँ कैसे पसंद करती, कि हाथ में आई लक्ष्मी को लौटाया जाए? रूपी के पहले के कितने ही घनिष्ट ग्राहक उसके रूप के नए निखार को देखकर कैसे चुप बैठ सकते थे? वह सोचने लगी, मैंने यहाँ आकर भूल की। लेकिन, जब उसे यह बात साफ-साफ समझ में आने लगी, तब तक नीचे लू चलने लगी थी–अखबारों को पढ़ सकती, तो देखती, कि वहाँ 112 और 115 डिग्री की गर्मी है। ऐसी लू में वहाँ जाकर कोई पहाड़ी बच नहीं सकता, यह वह जानती थी, तो भी उसने अपने दर्जी पति को चिट्ठियाँ लिखवाईं, कि आकर ले जाओ। पर वह इस तरह का खतरा मोल लेने के लिए तैयार नहीं था। रूपी मुश्किल से एक महीने तक अपने को बचा पाई। इसमें भी किसी-न-किसी बहाने से कई बार उसको अपनी माँ और सौतेले बाप की झिड़कियाँ खानी पड़ीं। सब ने मिलकर फिर उसी खड्ड में उसे ढकेला।
गर्मियाँ बीतीं, वर्षा शुरू हो गई। ढाई-तीन महीने आए हो गए थे। पैर भारी हैं; यह देर से मालूम हुआ। उसकी और उससे भी अधिक उसकी माँ की इच्छा थी, कि दर्जी जल्दी आकर ले जाए। दर्जी की चिट्ठियाँ बराबर आती थीं, और वह अपने प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए कभी-कभी सिनेमा के गाने की कुछ पाँतियाँ भी उद्धृत कर देता। अचानक एक बार उसने अपनी चिट्ठी में लिखा : मेरे माँ-बाप तुम्हें लाना पसंद नहीं करते। रूपी के पैर से धरती निकल गई। अब क्या किया जाए? माँ के सामने वह हमेशा दबती रहती थी, लेकिन अबकी उसने उसे बहुत फटकारा–मैं दलदल से निकल चुकी थी, तुमने मुझे अपने लोभ के लिए फिर गड्ढे में ढकेला। दर्जी की इंकारसूचक चिट्ठी मिली, उसने जब उसे पढ़वा कर सुना, तो वह अपने को संभाल न सकी और फूट-फूट कर रोने लगी।
उसकी माँ की मधुशाला यद्यपि कानून की दृष्टि से एक गुप्त चीज थी, लेकिन अंतर्जगत् के लोग उसे अच्छी तरह जानते थे। रूपी के ‘ससुराल’ से लौटकर आने की खबर जहाँ पुराने भँवरों को लगी, वहाँ इनके मँडराने और फूल सूँघने की गंध कुछ ऐसे आदमियों को भी लग गई, जो दर्जी के परिचित थे। उन्होंने चिट्ठी में सारी बात उसके पास लिख दी। यहाँ बैठी-बैठी झूठी-सच्ची सफाई पेश करना भी रूपी के लिए आसान नहीं था। फिर उस सफाई को वहाँ मानता ही कौन? तो भी उसने गिड़गिड़ाकर एक-पर-एक चिट्ठियाँ लिखीं। दर्जी का दिल नरम हुआ। शायद वह यह भी समझता था, कि यदि यह स्त्री हाथ से गई, तो हमेशा के लिए मैं अनब्याहा ही रह जाऊँगा। एक दिन जब वह माँ की मधुशाला में पहुँच गया, तब भीतर से शंकित होने पर भी रूपी के मन में बड़ा संतोष हुआ। उसने किसी बहाने जल्दी चलने के लिए कहा।
(5)
माँ ने लड़की को दर्जी के साथ भेज दिया, और बिना पूछे ही आसपास के लोगों को कहना शुरू किया–मेरी बेटी ससुराल चली गई। उसने उसके पास चिट्ठी भी लिखी, लेकिन महीनों कोई जवाब नहीं आया। एक दिन देखा, कि रूपी फिर उसके घर में आ गई है। दर्जी उसे वहाँ छोड़ जरा भी न ठहरे चला गया। रूपी के चेहरे पर खून नहीं था। मालूम होता था, कई महीनों से बुखार ने पकड़ रखा है, आँखें भीतर धस गई थीं। दर्जी भलामानुस था, इसे वह मानने के लिए तैयार थी। उसने जो भी जेवर-कपड़े उसके लिए बनवा दिए थे, उनमें से किसी को नहीं लौटाया। वस्तुत: वह माँ-बाप से लड़-झगड़ कर उसे अपने पास रखने के लिए तैयार था। लेकिन, जल्दी ही मालूम हो गया, कि उसके तो पाँच महीने का गर्भ है। पाँच महीने क्या उससे भी पहले से रूपी उसके पास नहीं थी। वह कैसे मान लेता, कि यह गर्भ मेरा है। इतनी कड़वी घूँट पीने के लिए उसका समाज तैयार नहीं हो सकता था। उसके समाज में किसी भी कुल से कन्या को ले लेना वैध था, लेकिन ऐसी अवस्था में नहीं। तो भी उस ईमानदार दर्जी ने उसका अनिष्ट नहीं करना चाहा। किसी डॉक्टर से मिलकर या किसी दूसरी तरह गर्भ गिरवा दिया। दो-तीन महीने का होता, तो शायद स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता, किंतु गर्भ आधी अवधि पूरा कर चुका था, इसलिए जब रूपी मधुपुरी लौटी, तब भी रक्तस्राव हो रहा था।
उसके जीवन में एक बार उषा की लाली छिटकी, उसने अपने भावी जीवन के कितने ही सपने देखे। मालूम होता था, वह जमीन पर नहीं, आकाश में किसी देव-विमान में विचरण कर रही है। यह जीवन उसने वासना के वश में होकर स्वीकार नहीं किया, बल्कि दरिद्रता ने उसे वहाँ ढकेल दिया था। कई आशाओं और निराशाओं के बीच में होकर आखिर उसे एक बार रास्ता मिला था, लेकिन वह फिर अब उसी खड्ड में।
शरीर की ऐसी अवस्था में मधुपुरी में रहना बेकार था, इसलिए उसे गाँव में भेज दिया गया। अबके सारे सीज़न–गर्मियों और बरसात दोनों–को उसने गाँव में बिताया। मधुशाला की ओर जो दाढ़ी और बेदाढ़ी वाले, टोप और बेटोप वाले दर्जनों की संख्या में हर रोज आया करते, अब उनकी संख्या बहुत कम थी। शाम के वक्त कोई-कोई शराब पीने के लिए आते। मालूम होता था, रास्ते पर फिर घास जम आएगी, जब चलने वाले पैरों की संख्या कम हो, तो वैसा होना ही था।
अक्तूबर के महीने में फिर रास्ता चालू हो गया। तरह-तरह की मूर्तियाँ उधर आती-जाती देखी जाने लगीं। बिना कहे भी मालूम हो गया, कि रूपी आ गई है।
अब फिर उसका वही जीवन आरंभ हो गया है। दर्जी के बनवाये हुए ओवरकोट, सलवार तथा दुपट्टे को पहन कर कभी-कभी वह बाहर भी जाती देखी जाती है। जो लोग दिल से चाहते थे, कि इस जीवन से उसका निस्तार हो और जिन्होंने कुछ दिनों उसके परिवर्तित जीवन को देखकर बहुत खुशी मनाई, उनकी ओर अब देखने की भी उसकी हिम्मत नहीं होती, वह अपने आप शर्म से धरती में गड़ जाती है। उसे चलते देखकर मालूम होता है, वह कोई मनुष्य नहीं, बल्कि यंत्र चल रहा है। उसके मन में अब क्या आशा हो सकती है? जीवन में एक ही बार समाज की अनेक बाधाओं को तोड़कर उसको निकलने का मौका मिला था, और कितने सालों के प्रयत्न के बाद। अब क्या फिर कोई उस दर्जी जैसा उसे मिलेगा!
मधुपुरी के लिए यह अकेली रूपी नहीं है, यहाँ और भी कितनी ही अपने जीवन को बर्बाद कर चुकी हैं। जब हम मधुपुरी के मधुर सौंदर्य की प्रशंसा करते नहीं थकते, उस समय हमें नहीं ख्याल आता, कि इस सौंदर्य को पैदा करने कि लिए कितने नर्क-कुंड में पड़ने के लिए मजबूर हुए।
Image: A Mughal warrior and his wife, with large cloud and trees in the background
Image Source: Wikimedia Commons
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