रोशनी की तलाश करती कविताएँ

रोशनी की तलाश करती कविताएँ

कमल कुमार के नए कविता-संग्रह ‘घर और औरत’ की अधिकतर कविताओं में ‘अंधेरा’ या उससे जुड़े बिंब और संदर्भ साभिप्राय हैं। ‘अँधेरा’ अनेक व्यंजनाओं को समेटे हुए हैं और प्रायः सभी का सीधा संबंध नारी मात्र की तकलीफ और यातना से है। यह कविता-संग्रह दो खंडो में विभक्त है लेकिल दोनों खंडों में लाश सी शिथिल, बिना पट्टियों की गाड़ी जैसी, भीतर और बाहर की यातना से संत्रस्त, दिन के उजाले में रात का अँधेरा लपेटने को अभिशप्त ‘स्त्री ही केंद्रस्थ है। विभिन्न कविताओं में आए पद–‘घुप्प अँधेरा/दिमाग में उग आया’, ‘एक विकृत हँसी/रात के अंधियारे चुप्पे में’, ‘अँधेरा हथकंडे डाल रहा है’, ‘अँधेरा टहलता है घर के भीतर’, ‘लालबत्तियों के अँधेरे में’ ‘उसके साथ अंदर का अँधेरा/बाहर की रोशनी से डरा ठहरा है’, ‘अँधेरा बढ़ गया है’ आदि स्त्री की नियति से संबंधित है। अँधेरा, स्त्री की जिस विवशता, असहायता, दुर्बलता से साक्षात कराता है, उसे फैलाने और गहराने में पुरुष प्रधान व्यवस्था और पुरुष-शासित सोच का विशेष योगदान है। मुक्ति की रोशनी के लिए स्त्री की ललक और तड़प कमलकुमार के नारी-विमर्श का चमकदार और सकारात्मक पक्ष है।

‘अँधेरे में सेंध’, ‘युद्ध’, ‘भूमिका-1’, ‘भूमिका-2’ और ‘भूमिका-3’, ‘फैसला’ आदि कई कविताओं में रोशनी के लिए स्त्री का संघर्ष महज इसलिए है कि उसे भी इंसान समझा जाए, उसे ‘यूज एंड थ्रो’ की वस्तु न समझकर स्वतंत्रता और समानता प्राप्त हो। इसके लिए वह अँधेरे में दिपदिप ध्रुवतारे से प्रेरणा लेती है। ‘वह भी सीखेगी/अँधेरे में सेंध लगाने की कला’। रचनाकार आश्वस्त है। ‘रात के अँधेरे को फोड़कर/एक लौ फड़फड़ाएगी’। ‘अँधेरे को पीकर/रोशनी बाँटती रही’ माँ का स्वयं ‘उजाला’ बन जाना का जाना ध्यानाकर्षक है। ‘फैसला’, ‘युद्ध’ जैसी कविताओं में अँधेरे के विरूद्ध युद्ध वृहत्तर सरोकारों से संबंद्ध हैं और संकेत देती है कि मुक्ति अगर है तो सबके साथ है। दोनों कविताओं में ‘मशाल’ प्रतिरोध-चेतना के रूप में है। एक स्थान पर आह्वान है–अँधेरे को फोड़ें/गर्दन उठाएँ/मशाल जलाएँ-तो दूसरी कविता की संघर्ष-दिशा कुछ इस प्रकार है–‘चारों ओर घिरे अँधेरे में/छिटकी टिमकियों को मशाल बनाकर/समय की धार के साथ हो लेंगे।’

इन कविताओं की स्त्री किसी खास प्रारूप या सांचे में ढली नहीं हैं। यदि धकियाई गई बेघर लड़कियां हैं तो ‘घर के तहखाने में कैद’ गृहणियाँ भी है। अपनी अवैध संतानों के साथ नुचती, लिथड़ती औरतों के साथ ‘चेहरा’ कविता की कामकाजी महिला भी है, जो आर्थिक स्वावलंबन के बावजूद पौरुष से मदांध पति से तिरस्कृत है। मसीहाई गोंद से चिपकी महत्वाकांक्षी स्त्रियाँ ‘स्त्री विमर्श का आटा’ कविता में मौजूद हैं। कवयित्री ने यथार्थ में गहरे धंसकर यह जाना है कि कुछ स्त्रियाँ विष न देकर गुड़ खिलाकर भी मारी जाती हैं। ‘छदम’ में स्पष्ट है कि मौत से स्त्रियाँ नहीं डरतीं। उन्हें लाड़ से, दुलार से, प्रशंसा से, धर्म और नीति की दुहाई से वश में कर लिया जाता है। ‘अहल्या’ में पूछा गया प्रश्न सर्वकालिक है और स्त्री की मुक्ति की दिशा का बोधक है–‘तुमने प्रतिवाद क्यों नहीं किया।’ ‘मेरे खिलाफ मुकदमें’ में संचार साधनों और सोशल मीडिया के स्त्री के हक में उपयोग को कारगर माना गया है। स्त्री को ‘समानाधिकार’ न मिलने की स्थिति में ‘प्रेमी ही ठीक है’–यह धारणा विवाह संस्था के साथ जुड़ी मुश्किलों को बयान करती हैं। संपूर्ण कविता-संग्रह में जो विचार दीप्ति है, वह संवेदनशीलता से गहरे संश्लिष्ट है और ‘ज्वालामुखी के मुहाने पर रुकी/आग की नदी’ की ऊर्जा और शक्ति के बयान में सक्षम है।

‘रचनाकारः एक’ में एक औरत कंधों पर चक्की ढोए, छाती पर बच्चे को चिपकाए, हाथ में नाग का फण लिए लिख रही हैं उससे जो परिवर्तन प्रतिरोध और प्रतिवाद की इबारत लिखी जाएँगी, उससे शोषक शक्तियों का डरना-सहमना स्वाभाविक है। स्वयं कमल कुमार की ये कविताएँ भी उस औरत की तरह प्रबल विश्वास, स्पष्ट विजन के साथ कुछ नया और लीक से हटकर रच रही है, तो इससे उनका एक नया रचना लोक उद्धाटित होता है–‘लक्ष्मण-रेखा को तोड़ने की कोशिश में/घुटनों के बल बैठा रहा/एक प्रचंड विश्वास/उसके पास।’


Original Image: Night
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Artist: Mikalojus Konstantinas Ciurlionis
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