सहज भाषा में कठोर यथार्थ की गजलें

सहज भाषा में कठोर यथार्थ की गजलें

विजय कुमार स्वर्णकार एक ऐसे गजलकार हैं जिन्होंने गजल के रूप रंग को बिगाड़े बिना अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विषयों को अपनी गजलों के साथ जोड़ा है। समाज की प्रत्येक विसंगति को अपनी गजलों के माध्यम से उकेरा है। प्रायः गजल में समाज में व्याप्त कई त्रासद समस्याओं का वर्णन मिलता है। समाज की बिगड़ती स्थिति को गहराई से महसूस कर अपने सामर्थ्य के बल पर सशक्त अभिव्यक्ति देने की कोशिश की है। गजलों में प्रतीक और बिंब का बहुत कुछ निकट का संबंध है। प्रतीक से ज्यों अर्थ लक्ष्य रूप में संप्रेषित होता है वह सीमित, निश्चित और सपाट नहीं होता, उसमें भावों के रंग प्रस्फुटित होते हैं जो लक्ष्यार्थ को बिंब की छटा प्रदान करते हैं। देखें इस शेर को–‘खुलेगी बात यहाँ सिर्फ कुछ इशारों से/नजर की चाभियों वाले जुबां पे ताले हैं।’

इस शेर में अभिधा का प्रयोग लक्षणा और व्यंजना के माध्यम से हुआ है। यह बिंब-चाक्षुष श्रेणी का है जो लक्ष्यार्थ बिंब के रूप में प्रकट होता है। यहाँ बोलने की विवशता है। परिस्थितियों को समझने के लिए इशारों की बात की गई है। इस बिंब प्रधान शेर में वर्तमान की जटिलता और नए अर्थ व्यक्त कर पाने की क्षमता है। इसी तरह का एक और शेरे देखें–‘प्रतीक्षा पूछ ही बैठी उखड़ कर/नजर किसके इशारे पर गड़ी है।’

‘शब्दभेदी’ विजय कुमार स्वर्णकार का नया गजल-संग्रह है संग्रह में कुल 99 गजलें हैं। सारी गजलों के अपने रंग-रूप तेवर तो हैं ही साथ ही ग़ज़लकार की संवेदना और सरोकारों के क्षेत्र विस्तार भी उद्घाटित होते हैं। इससे ऐसा लगता है विजय कुमार स्वर्णकार ने अपने निजी वास्तविक अनुभव जगत से ही अपनी गजल-यात्रा शुरू की है। कम गजलकारों में यह देखा जाता है। पुस्तक के फ्लैप पर द्विजेंद्र द्विज ने लिखा है ‘इस शब्दभेदी गजलकार की अभिव्यक्ति की प्रखरता से संपन्न निन्यानवें गजलों के पाँच सौ अड़तालीस बहुआयामी शे’रों में व्यंजनाओं की अप्रतिम झिलमिल पर विस्मित और अभिभूत हुआ जा सकता है। अतिशयोक्ति नहीं होगी यह कहना कि शिल्प, कहन और अर्थवत्ता के एकदम नए प्रतिमान स्थापित करने वाली ये गजलें गजल-साहित्य जगत को बहुत कुछ नया देंगी।’

प्रश्न उठता है यह नया क्या है, इसकी पड़ताल तो यहाँ पर आवश्यक हो जाता है। अगर कम शब्दों में कहा जाए तो संग्रह की गजलों का प्रत्येक शेर अपनी विषय वस्तु के दृष्टिकोण से अपना एक अलग और पूर्ण अस्तित्व रख रहा है। अधिकांश शेरों में बिंब, (दृश्य बिंब, श्रव्य बिंब) प्रतीक, मिथक, रूपक उत्कृष्ट रूप में उभरते हैं। कथ्य के नए-नए रूप सामने आते हैं। जैसा कि आज समय के आतंक से निकलने के लिए एक तल्ख बेचैनी से छटपटाता ढर्रेनुमा व्यवस्था विरोध और छिछले प्रेम का प्रदर्शन ही देखने को मिल रहा है। इनकी गजलों में विरोध तो हैं लेकिन शिल्प के अन्य तत्वों में छंद, भाषा, शैली, अभिव्यंजना, शब्द-शक्ति मुहावरे भी हैं। हाँ, कहीं-कहीं उर्दू-फारसी शब्दों की बोझिलता परेशान जरूर करती है। अगर इस पर ध्यान दिया जाता तो मेरी समझ से यह संग्रह इस दशक के महत्त्वपूर्ण संग्रहों में से एक जरूर होता। फिर भी अधिकांश गजलें बोलचाल की ही भाषा में हैं।

विजय कुमार स्वर्णकार की अधिकांश गजलें न केवल शब्द-योजना, बल्कि संवेदना की दृष्टि से भी हिंदी की अपनी ही चीज लगती हैं। अनेकानेक पहलुओं को संवेद्य शब्द-रचना में पकड़ने की कोशिश की गई है। उत्कट और तीव्र भावात्मकता गजलों की विशेषता है। सहज भाषा में कठोर यथार्थ का संप्रेषण भी। इसी वजह से हिंदी गजल को हर दृष्टि से सर्वथा एक नूतन मोड़ मिला है और वह मोड़ जनवाद की ओर जाता है–‘न सिर्फ पाँवों में, देखो सड़क पे छाले हैं/यहाँ के लोग बहुत भाग-दौड़ वाले हैं।/पाँव में वो फटी बिवाई दे/पीर सब की मुझे दिखाई दे/यह कौन आ गया है हमारे पड़ाव में/कोई दबाव में है तो कोई तनाव में/मन आरती के दीप-सा देने लगा प्रकाश/ऐसी जगाई लौ कि अँधेरे चले गए/ऐसा भी नहीं है कि जतन काम न आये/आगाज की तासीर के अंजाम न आये/अंत में बातियों ने वो जौहर किया/सोच में था तमस इन पे क्या वार दें।’

विजय कुमार स्वर्णकार शिल्प और गजल के संधि-स्थल पर खड़े हैं। न कोई अराजकता और न ही गजल में अधिक छूट लेने की प्रवृति। हिंदी गजल और काव्य कला के लिए, गजल लेखन के लिए और भाषा के प्रांजल प्रवाह के लिए सदैव रेखांकित किए जाते रहेंगे। संग्रह की संपूर्ण गजलें पठनीय हैं और अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हैं।


Image: A Raja with three musicians and three noblemen seated on a terrace
Image Source: Wikimedia Commons
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