साहित्य में आदर्श और यथार्थ
- 1 October, 1951
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- 1 October, 1951
साहित्य में आदर्श और यथार्थ
दार्शनिक भूमिका पर आदर्शवाद अनेकता में एकता देखने का प्रयत्न करता है। वह विशृंखलता में शृंखला, निराशा में आशा, दुख में सुख-समाधान की प्रतिष्ठा करने का उद्देश्य रखता है। इसके विपरीत यथार्थवाद वस्तुओं की पृथक्-पृथक् सत्ता का समर्थक है। वह समष्टि-सार की अपेक्षा व्यष्टि-तथ्य की ओर अधिक उन्मुख रहता है। यथार्थवाद का संबंध प्रत्यक्ष वस्तु-जगत् से है। यथार्थवाद अपने को वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न बताता है। वह ‘सत्य’ का खोजी हुआ करता है, और उसका सत्य वही है जिसे वह अपनी इंद्रियों की सहायता से जान पाता है। वास्तव में आदर्शवाद मानवी जीवन की उच्च संभावनाओं पर आश्रित है, जबकि यथार्थवाद किसी लक्ष्य-विशेष को महत्त्व न देकर जो कुछ अनुभव में आता है और बुद्धि से सिद्ध होता है, उसी का हामी है।
इस दर्शन-भेद के कारण साहित्य में भी आदर्शवाद और यथार्थवाद की पृथक्-पृथक् धाराएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यदि हम प्राचीन ग्रीक साहित्य को देखें तो साधारण से श्रेष्ठतर पात्रों का चित्रण करने वाली दु:खांत कृतियाँ जीवन के उच्च आदर्शों पर प्रतिष्ठित प्रतीत होंगी। उनका आधार आदर्शवाद ही है। इसके विपरीत सामान्य पात्रों के आधार पर निर्मित होने वाले प्रहसन यथार्थवादी दृष्टि पर आश्रित हैं। वे मनुष्य की सामान्य वृत्तियों का स्वरूप उपस्थित करते हैं। ग्रीक साहित्य के पश्चात् यूरोप में धार्मिक प्रभाव के अंतर्गत ईसाई साहित्य का निर्माण हुआ, जो पूरा का पूरा ईसाई धर्म से शृंखलित है। उस साहित्य में मनुष्य की सामान्य वृत्तियों के लिए अधिक अवकाश नहीं। ईश्वर और जीव के संबंध को लेकर त्याग और संयम की शिक्षा देनेवाला वह साहित्य निवृत्तिमुखी साहित्य है। उसमें आदर्श और शिक्षा की भावना इतनी प्रचुर मात्रा में मिली हुई है और सामान्य मानव व्यवहारों से उसकी इतनी स्पष्ट पृथक्ता है कि वह साहित्य केवल पादरियों और धार्मिकों के लिए रह गया। मध्यकालीन रहस्यवाद के नाम पर इसी धार्मिक साहित्य का प्रचलन रहा। इस साहित्य का आधार आदर्शवाद है; परंतु ईसाई धर्म के अंतर्गत मानवीय आदर्शों की सीमा बहुत कुछ संकुचित हो गई थी। वह निवृत्ति के घेरे में घिर गई थी। जीवन की व्यापक प्रवृत्तियों और व्यवहारों के आधार पर आदर्शों का निर्माण नहीं हो रहा था। केवल ख्रीष्ट की शिक्षा ही एक मात्र आदर्श थी। इस आदर्शवाद को हम ईसाई आदर्शवाद कह सकते हैं।
जन-समाज के अंतर्गत कला की स्वाभाविक प्रेरणा से इस धार्मिकता-प्रधान युग में भी जनता के साहित्य का निर्माण होता ही रहा। लोक-गीतों, लोक-नाट्यों और प्रेम-कथाओं का वह साहित्य जन-समाज की सरल स्वाभाविक प्रवृत्तियों का परिचायक है। उसकी मुख्य धारा यथार्थवादी ही कही जाएगी। जबकि आदर्शवादी अपने काव्य के लिए एक अप्रचलित और क्लिष्ट भाषा का आधार लिए हुए थे, तब यथार्थवादी जन-साहित्य ने लोक-भाषा को अपनाकर सुगम और लोक-प्रचलित साहित्य की सृष्टि की, यद्यपि वह अपने समय के शिष्ट समाज द्वारा स्वीकृत न किया गया। मध्ययुग का प्रमुख कवि दांते इस सीमित और संकीर्ण ईसाई आदर्शवाद से दूर हटकर व्यापक रूप से जीवन आदर्शों के आधार पर रचना कर रहा था; उसके साहित्य में आदर्शवाद है, धार्मिकता है; परंतु वे आदर्श साधारणत: अधिक व्यापक और लोक-आदर्शों के निकट हैं। उसकी भाषा भी जन-भाषा का परिष्कृत रूप है।
एक क्रांति जो मध्यकालीन साहित्य के विरुद्ध नवीन युग के आरंभ में हुई, धार्मिक आदर्शवाद के विरुद्ध मानवता की प्रतिष्ठा का लक्ष्य लिए हुई थी। शेक्सपिअर, जो इस नवीन धारा का प्रतिनिधि है, प्राचीन धार्मिक आदर्शवाद के विरुद्ध इस नई धारा का प्रवर्त्तक कहा जा सकता है। इसी समय काव्य और नाटकों के स्थान पर गद्य और उपन्यासों का भी अभ्युदय हुआ जो नवीन यथार्थोन्मुख प्रवृत्ति का परिचायक है। गद्य और उपन्यास काव्य और नाटक की अपेक्षा अधिक यथार्थवादी साहित्य-स्वरूपों हैं। यद्यपि काव्य या कविता के अंतर्गत आदर्शवाद और यथार्थवाद की धाराएँ भी मिलती हैं, परंतु साहित्य-स्वरूपों के विकास में काव्य और नाटक की अपेक्षा उपन्यास और गद्य यथार्थवादी पद्धति के अधिक समीप हैं।
‘रोमेंटिसिज्म’ के नाम से प्रचलित होनेवाली नई साहित्यिक धारा भी कल्पना का आधार लेने के कारण मुख्यत: आदर्शवादी ही थी। यद्यपि नवीन जीवन की प्रवृत्तियों की छाप इस नए साहित्य में मिल रही थी, परंतु इसके लेखक और कवि अधिकतर आदर्श से प्रेरित थे। रोमेंटिसिज्म की यह धारा उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक चलती रही। बीच-बीच में वर्ड्सवर्थ सरीखे कवि और लेखक भी सामान्य मानवीय वस्तुओं को लेकर सुंदर रचनाएँ करते रहे, उन्होंने प्रकृति के निकट संपर्क में आकर जीवन और जगत् से तटस्थ रहने के आदर्शवाद को तिलांजलि भी दे दी और भाषा के क्षेत्र में भी सामान्य गद्य-भाषा को काव्य में प्रयोग करने का सिद्धांत रखा। फिर भी मूलत: वर्ड्सवर्थ आदर्शवादी दार्शनिक कवि था। इंग्लैंड के इन ‘रोमेंटिक’ कवियों में कीट्स को यथार्थवादी कहा जाता है; वह इस अर्थ में कि उसके चित्रणों में वस्तुओं के यथार्थ और सूक्ष्म विशेषताओं का निरूपण हुआ है। प्राचीन दृश्य और घटनाओं का यथातथ्य चित्र उपस्थित करने में कीट्स अत्यंत सफल रहा है। अतएव चित्रण-शैली की दृष्टि से उसे यर्थाथवादी कहा जा सकता है, यद्यपि जिस ‘रोमेंटिक’ धारा का वह कवि था, वह कल्पनावादी या आदर्शोन्मुख धारा ही थी।
उन्नीसवीं शताब्दी में विशेषकर फ्रांस के कलाकारों ने रोमेंटिसिज्म की कल्पनाशीलता के विरुद्ध ‘यथार्थ’ और ‘वास्तविक’ की पुकार उठाई और कथा-साहित्य के अंतर्गत यथार्थवाद, यथातथ्यवाद और प्रकृतिवाद का प्रवेश कराया। इन निर्माताओं का कथन था कि विक्टर ह्यूगो जैसा कल्पनावादी लेखक मिट्टी की भीत पर मूल्यवान चित्र बनाने का मूढ़ प्रयत्न कर रहा है। चित्र कितने ही सुंदर हों परंतु जब भित्ति ही कमजोर और अस्थाई है, तब उस चित्रण का मूल्य ही क्या! आदर्शवादियों के लिए उनका प्रसिद्ध वाक्य था–“They are riding on horseback over vacuum” (वे शून्य में घोड़े दौड़ाते हैं।) यह समय और समाज की भूमि पर कल्पना प्रधान आदर्शवाद की प्रतिक्रिया थी।
परंतु यथार्थवाद और प्रकृतिवाद के नाम पर जिस नवीन वाद या साहित्यशैली का विकास हुआ, उसमें भी क्रमश: जीवन के स्वस्थ उपकरणों का अभाव दिखाई पड़ने लगा। सत्य और यथार्थ के नाम पर जो रचनाएँ प्रस्तुत की गईं, उनमें प्राय: विकृत और असंतुलित चरित्रों की जीवन-गाथा रहा करती थी। इस पर आदर्शवादियों ने उनके संबंध में कहा–They promised to give us a world, instead they gave a hospital (उन्होंने हमें एक नया संसार देने का वादा किया, पर दिया एक नया अस्पताल।) इस अस्वास्थ्यकर वातावरण में ऐसे ही पाठकों की अभिरुचि हो सकती थी जो स्वयं अस्वस्थ प्रकृति के हों। इस प्रकार आदर्शवाद और यथार्थवाद की विरोधी साहित्यिक धाराओं में एक द्वंद्व चल रहा था और चलता रहा है। वास्तव में ये आदर्श और यथार्थ की अतिवादी प्रवृत्तियाँ थीं जो इन रचनाओं में व्यक्त हुईं।
वर्तमान समय में विभिन्न वादों के अंतर्गत जिस साहित्य की सृष्टि हो रही है, उस सब को यथार्थवादी साहित्य का ही अंग कहा जाता है। वर्तमान युग में मार्क्स और लेनिन के साहित्य-संबंधी और समाज-संबंधी विचार यथार्थवादी कहलाते हैं। मार्क्सवाद को वैज्ञानिक भौतिक यथार्थवाद कहा जाता है और मार्क्सवादी साहित्यिक इस बात का आग्रह करते हैं कि उनके साहित्य का संबंध कल्पना और आदर्श से नहीं, ठोस और व्यावहारिक सत्य से है। उनका सिद्धांत है कि काव्य और साहित्य वास्तव में वर्ग-संघर्ष के ऐतिहासिक विकास-क्रम में आए हुए विभिन्न युगों के अधिकारी वर्गों की प्रवृत्तियों के परिचायक हैं; उन्हीं की संस्कृति के प्रतिबिंब हैं। ऐसी अवस्था में साहित्य का संबंध ऐतिहासिक विकास से है जो एक यथार्थ वस्तु है। कल्पना और आदर्श का कितना भी योग साहित्य को वर्ग-संघर्ष की भूमिका से अलग नहीं ले जा सकता। अतएव साहित्य के समीक्षक और विचारक ही नहीं, साहित्य के विधायक और स्रष्टा भी मार्क्सवाद की प्रेरणा से यथार्थवादी जीवन-दृष्टि और यथार्थवादी रचना-शैली को ही अपना रहे हैं।
मार्क्सवाद के भौतिक सिद्धांत के नितांत विरोधी और विपरीत शिविर में रहनेवाले अंतश्चेतनावादी लेखक और कवि भी अपने को यथार्थवादी ही कहते हैं। उनका यथार्थवाद अंतश्चेतना का यथार्थवाद है। इस मत के अनुगामी भी यही कहते हैं कि काव्य हमारी अंतश्चेतना में पड़े हुए संस्कारों और भावों का यथार्थ उन्मेष है। अंतश्चेतना की यह यथार्थता साहित्य में प्रतिफलित हो रही है। मार्क्सवाद जहाँ सामाजिक विकास को आधार बनाकर चलता है, अंतश्चेतनावाद व्यक्ति के अंतर्मुखी यथार्थ को साहित्य का प्रेरक ठहराता है। दोनों धाराओं में दार्शनिक और विचार-संबंधी विरोध होते हुए भी दोनों ही यथार्थवाद का आधार लिए हुए हैं।
इस युग के प्रमुख आदर्शवादी लेखक टालस्टाय हैं जिन्होंने अपनी पिछली कृतियों में क्रिश्चियन धर्म के प्रेम और अहिंसा सिद्धांत को प्रतिबिंबित करने की चेष्टा की है। टालस्टाय के संपूर्ण साहित्य में मानव की महत्ता और उसके भविष्य के उत्कर्ष के संबंध में अडिग आस्था प्रकट हुई है, परंतु इस युग के अधिकांश लेखक विज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थनीति आदि आधारों को लेकर यथार्थवादी साहित्य का सृजन कर रहे हैं। यह है पश्चिमी साहित्य में यथार्थवाद और आदर्शवाद का धारावाहिक विकास-क्रम।
अस्तु, आदर्शवाद और यथार्थवाद सबसे पहले एक जीवन-दृष्टि है। उसका प्रभाव साहित्य के विकास पर पड़ता रहा है। दूसरी बात यह है कि आदर्शवादी धारा की भूमि भी बदलती रही है, कभी ईसाई धर्म की किसी एक शाखा ने उस पर अधिकार किया, कभी किसी दूसरी शाखा ने। आदर्शवाद की अति के अवसरों पर साहित्य कभी उपदेशात्मक और संकीर्ण हो गया है और कभी स्पष्ट रूप से रचयिता की ऐकांतिक अव्यावहारिक और अस्वस्थ मनोभावना का परिचायक बन गया है। वह साहित्य के लोकसामान्य स्वरूप से दूर जा पड़ा है। काव्य-विषय और काव्य-भावना के अतिरिक्त काव्य-शैलियों पर भी इन दोनों वादों का प्रभाव पड़ता रहा है। कविता के अंतर्गत भावना की प्रमुखता रहती आई है, इसलिए उपन्यास, कहानी आदि की अपेक्षा कविता आदर्शवाद की उपयुक्त माध्यम है। यद्यपि कविता में भी आदर्श और यथार्थ के अलग-अलग प्रवाह मिलते हैं, फिर भी कहा जा सकता है कि कुछ साहित्य-प्रकार आदर्शवादी सृष्टि के प्रतिनिधि हैं और कुछ यथार्थवाद के। यथार्थवाद में सत्य और विज्ञान का नाम लेकर उच्छृंखल और अस्वास्थ्यकर रचनाएँ भी की गई हैं। इस तरह की साहित्यिक सृष्टि से यथार्थवाद की बदनामी हुई है।
भाषा के क्षेत्र में यथार्थवादी लोक-प्रचलित भाषा को अपनाते हैं और शब्दों का बड़ा मार्मिक और सूक्ष्म अर्थप्रकाशक चयन करते हैं। आदर्शवादियों की भाषा और शब्दों के प्रयोग में भावुकता तथा नाद-सौंदर्य अधिक रहता है, परंतु अर्थ का सूक्ष्म चुनाव यथार्थवादी अधिक करते हैं। शैली की दृष्टि से यथार्थवाद मनोरंजक, विनोदात्मक, बौद्धिक और तार्किक शैलियों को अपनाकर चलता है और आदर्शवाद कल्पना-प्रधान और भावुकतापूर्ण शैलियों को अपनाता है। आदर्शवादी की रचनाओं में व्यंग्य या कर्कशता नहीं होती वह प्राय: आशावादी होता है, जबकि यथार्थवादी अनाधार आशा को भावावेश मात्र मानता है। इस तरह दोनों दृष्टिकोणों में अंतर है। अपने स्वस्थ रूप में दोनों वादों के अंतर्गत साहित्य की अच्छी सृष्टि हुई। साहित्य के ऐतिहासिक विकास में दोनों ने अपना-अपना हाथ बँटाया। एक वाद ने दूसरे वाद की अति को रोकने का उपयोगी कार्य किया।
आज के अंतश्चेतनावादी साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर विश्वास नहीं करते, उनका यथार्थ एकदम वैयक्तिक है। उनका कहना है कि कवि सामाजिक प्रतिबंधों के विरुद्ध दमित वृत्तियों का प्रकाशन करता है। वह प्रतीकों और उपमानों का प्रयोग करता है जो उसकी दमित चेतना द्वारा आविर्भूत होते हैं। इन यथार्थवादियों की दृष्टि में कविता कल्पना या भावना का व्यापार नहीं है, न उसका संबंध किसी सामाजिक स्थिति या आदर्श से है। वह तो कवि की चोट खाई हुई आत्मचेतना का विस्फोट या उद्गार है।
अंतश्चेतनावादियों का कहना है कि कविता हमारे मन पर पड़े हुए सामाजिक प्रतिबंधों और तज्जन्य विकारों की प्रतिक्रिया है। उसमें किसी आदर्श की स्थिति नहीं होती। आज का लेखक ‘रस’ या आनंद के संचार का कोई लक्ष्य नहीं रखता। कविता कला नहीं है, वह तो व्यक्ति के अंतरंग संघर्ष का विस्फोट है। पाठकों के लियए काव्य-भेंट उपस्थित करने का उसमें कोई लक्ष्य नहीं रहता। वे कहते हैं कि साहित्य अंतश्चेतना का स्वाभाविक उन्मेष है, उसे कला के रूप में सामाजिक सुख या लालित्य की वस्तु बनाने के लिए आज का कलाकार बाध्य नहीं।
इन अंतश्चेतनावादियों ने साहित्य की परिभाषा बदल दी है। वे साहित्य को रसात्मक या सामाजिक आह्लाद की वस्तु न मानकर उसे निरा वैयक्तिक और अंतर्मुखी पदार्थ मानते हैं। उसमें कवि की अंतस्तलव्यापिनी चेतना का सत्य प्रकाशित होता है। यह चेतना जिन काव्य-प्रतीकों की सृष्टि द्वारा आत्मप्रकाशन करती है, वे काव्य में पाए जाने वाले सामान्य उपमान-उपमेयों से भिन्न होते हैं। वे अलंकार नहीं हैं, वह तो कवि के मानस से अनिवार्य रूप से उठा हुआ ज्वार है, जिसकी वास्तविकता और आशय को परखने के लिए मानस-शास्त्र (मनोविश्लेषण) का ज्ञान आवश्यक है। इस प्रकार कविता न केवल एक वैयक्तिक वस्तु होती है, उसका यथार्थ स्वरूप केवल मानस-विशेषज्ञ ही समझ सकते हैं। स्पष्ट है कि यह नवीनतम यथार्थवाद काव्य की सार्वजनीनता का तिरस्कार कर उसे कुछ विशेषज्ञों की ही वस्तु बना देता है।
इसके विरुद्ध समाजवादी यथार्थवाद, जो वर्ग-संघर्ष की भूमि पर काव्य की ऐतिहासिक प्रगति का आकलन करता है, काव्य-सत्य को एक पृथक् वस्तु मानता है और कवि की कल्पना को उस सत्य का आवरण (भले ही वह रोचक आवरण हो) ठहराता है। वैज्ञानिक भौतिकवाद के विकासक्रम में जिन-जिन समयों में वर्ग-संघर्ष की जो स्थिति रही है, उसी स्थिति की ज्ञापक उस समय की कविता रही है। इससे बाहर कोई कवि या रचनाकार जा नहीं सकता। अधिक से अधिक वह अपनी कल्पना के प्रयोग द्वारा किसी सदभिलाषा या आदर्श को व्यक्त कर ले, पर उसके काव्य की मौलिक भूमि उस युग के वर्ग-संघर्ष की गतिविधि से ही आबद्ध होगी। यह भी यथार्थवादी दृष्टिकोण है, परंतु ऊपर कहे हुए अंतश्चेतनावादी यथार्थ से यह नितांत भिन्न है। जबकि अंतश्चेतनावादी अपने उन मनोमय और अंतर्मुखी प्रतीकात्मक उद्गारों को ही काव्य का श्रेष्ठ और एकमात्र स्वरूप कहकर उद्धोषित करते हैं, इन समाजवादी यथार्थवादियों की दृष्टि में यह वैयक्तिक कविता वर्ग-संघर्ष के क्रम में आए हुए सत्ताधारी वर्ग की अत्यंत ह्रासोन्मुख स्थिति की परिचायक है। यह कविता इतनी वैयक्तिक और आदर्शहीन तथा लक्ष्यहीन है–यह ऐसे रुग्ण व्यक्तियों की सृष्टि है कि इसे स्वस्थ काव्य मानना ही एक बड़ा भ्रम है। वास्तव में ऐसी रचनाएँ प्रतीकात्मक और दुर्बोध होती हैं तथा सर्व सामान्य के किसी काम नहीं आती। उनका महत्त्व इतना ही है कि वे एक युग विशेष की ऐतिहासिक स्थिति और तथ्य की साक्षी हो जाती हैं। इससे अधिक उनका कोई मूल्य नहीं।
एक ही युग में चलने वाले यथार्थवाद के इन दो परस्पर विरोधी मंतव्यों को सामने रखकर देखने पर यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता कि आज यथार्थवाद के अंतर्गत नितांत भिन्न जीवन-दृष्टियों का प्रवेश हो गया है और काव्य के मूल्य और मान के संबंध में भी यथार्थवादियों में कहीं कोई समता या एकात्मकता नहीं रह गई है। इसी के साथ यदि हम यथार्थवाद के नाम पर चलनेवाली आज की विविध रचनाओं को भी अपने विवेचन में ले लें, तब तो काव्य-संबंधी आज की अराजक स्थिति का पूरा प्रत्यय मिल जाएगा। हिंदी साहित्य में भी ये प्रयोग चल रहे हैं, जिनमें कहीं तो मनोविश्लेषण की किसी पाठ्य-पुस्तक से लिया गया या कोई मँजा-मँजाया काव्य-प्रतीक रखा मिलता है और कहीं किसी मार्क्सवादी वक्तव्य का परिचायक कोई अधूरा या पूरा वाक्यांश जुड़ा दिखाई देता है। इन यथार्थवादी रचनाओं में वास्तविकता थोड़ी और प्रदर्शन अधिक है।
Image: At a Book
Image Source: WikiArt
Artist: Marie Bashkirtseff
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