साहित्य सेवा
- 1 April, 1951
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- 1 April, 1951
साहित्य सेवा
पहला दृश्य
एक साप्ताहिक के दफ्तर में एक युवक काम कर रहा है–उसकी वेश-भूषा तथा परेशान-बेहाल चेहरा बता रहे हैं कि गरीब की क्या हालत है। घड़ी में पाँच बजते हैं और वह बिखरे हुए प्रूफों को देखकर काम में जुट पड़ता है। बगल में पड़ी प्रधान संपादक की खाली टेबुल पर भी उसकी निगाह दौड़ जाती है। मैनेजर प्रवेश करता है। उसकी गंजी खोपड़ी, झूलती हुई बंडी, खिचड़ी मूछ और तीखी निगाह कहानी पूरी कर देती हैं। जाते ही वह विज्ञापनों के बारे में उलझ पड़ता है। युवक संपादक विज्ञापनों के भद्देपन की दलील देता है पर मैनेजर साहब काफी तगड़े हैं–आज की सभ्यता यही है, रंडियों के खिलाफ लेख लिखिए और गरीबों की बहू-बेटियों की इज्जत लुटिए और सब तो यही करते हैं। युवक संपादक हार मानता है लेकिन मैनेजर इस तरह मर्माहत अवस्था में उसे छोड़ना नहीं चाहता, उसकी तारीफ करता है, तनखाह बढ़वाने की तरकीब बताता है और दुनियादारी सिखाता है–आज की दुनिया ही यही है, कहिए कुछ और करिए कुछ, जो कहिए उसे कभी मत करिए। और प्रसिद्ध गद्य लेखक वर्मा जी क्या करते हैं, क्रांतिकवि कहलाने वाले शर्मा जी क्या करते हैं, आलोचना के आचार्य पंडित जी का क्या रवैया है? युवक संपादक बचाव की दलीलें पेश करता है–व्यक्तिगत जीवन से हमारा क्या संबंध हमें तो कृतियों की आलोचना करनी चाहिए। इसी समय प्रसिद्ध गद्य लेखक वर्मा जी का प्रवेश। काफी दुनिया देखी हैं उनकी आँखों ने और जिंदगी के फूल काँटों के ही साथ ग्रहण किए हैं। आते ही बधाई देते हैं, उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन देते हैं और कुछ पान-वान की फरमाइश जिसे मैनेजर साहब चाय के साथ पूरी किए जाने का आदेश देते हैं। साहित्य की समस्याओं पर बातचीत शुरू होती है–साहित्य में वांछनीय प्रगति नहीं हो रही है–लचर चीजें लिखी जा रही हैं, हिंदी की इतनी जिम्मेदारी और हिंदी के लेखकों की यह दुर्दशा। युवक स्पष्ट कहता है–ईमानदारी नहीं बरतने से ही यह दुर्दशा हो रही है। जो कोई भी, जिस किसी विषय पर दो-चार किताबें पढ़ कर लिखना शुरू कर देता है–समाज के जिस स्तर से उसकी गहरी जान-पहचान है, उसे छोड़ फैशन-परस्ती में अन्य स्तरों से पात्र चुनता है जिनका निर्वाह नहीं हो सकता, जिनके अभाव-अभियोग के प्रति न्याय नहीं हो सकता और फलस्वरूप ऐतिहासिक पात्रों का पल्ला थाम लोग अपनी पलायनवादी प्रवृत्ति का परिचय दे रहे हैं। पैसे का धनी नहीं, जीवन का धनी होना चाहिए साहित्यकार को तो अपनी जिंदगी की मशाल की रोशनी में आसपास के दृश्य देखे और उन्हें आँके। वर्मा जी इन दलीलों का हँस कर सामना करते हैं और जवाब में दुनियादारी का उपदेश देते हैं नहीं तो लोगों की इस तरह की आलोचनाएँ शुरू होंगी कि उनके चित्र का कैनवास बहुत छोटा था, इत्यादि। बात साफ नहीं हो पाती क्योंकि क्रांतिकवि श्री शर्मा जी पधारे हैं और कदम रखते ही वर्मा जी पर उलाहने बरसाने लगते हैं–मिनिस्टर से मिलना है, किताब समर्पण करनी है, टेस्टबुक का सीजन है और आपका कहीं पता नहीं। वर्मा जी आश्वासन देते हैं कि सब ठीक हो जाएगा, अभी बहुत समय है और इससे एक प्रूफ देखवा लेना, कुछ पैसे मिल जाएँगे बेचारे को इत्यादि! इसी बीच जाने किस समय मैनेजर साहब चल देते हैं और ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के मनमाने चरित्रचित्रण के बारे में युवक फिर छेड़ देता है। शर्मा जी कल्पना की निर्बंधता की दलील पेश करते हैं लेकिन युवक अड़ा रहता है कि युधिष्ठिर को समाजवाद के किसी आधुनिक प्रोफेसर की तरह पेश करने का किसी को भी हक नहीं, इतिहास ने व्यक्तित्व का जो ढाँचा पेश किया है उस पर कल्पना के सहारे माँस और कपड़े चढ़ाए जा सकते हैं लेकिन उनको विद्रूप नहीं किया जा सकता। बात साफ नहीं हो पाती और चलने-चलाने की तैयारी होती है। एकांत में कुछ क्षणों तक वर्मा जी मैनेजर को बुलवाकर बातचीत करते हैं और फिर मिलने का वादा कर चले जाते हैं। मैनेजर साहब फिर उपदेश का एक डोज देते हैं–इसी तरह आदमी सफल हो सकता है–जाँत-पाँत के पचड़े, गुटबंदी, किताबों के प्रकाशन में तरह-तरह की धाँधली और वही हैं न आपके पथ-प्रदर्शक। शर्मा जी क्रांति का आह्वान करते-करते क्रांतिकवि हो गए और करते क्या हैं हजरत–पेशेवर सरकारी नौकर, रंडी की जात–न अपनी पसंद, न अपना सिद्धांत। युवक बिगड़ खड़ा होता है और गरमागरम वातावरण के बीच परदा गिरता है।
दूसरा दृश्य
युवक संपादक के घर का दृश्य है। कोने में संपादक महोदय एक बिस्तर पर तकिए को कलेजे से चिपकाए लेखों का संपादन कर रहे हैं और ‘हर एक माल छ: आना’ वाले ठेले की दूकान से खरीदा गया शीशे की पेंदीवाला लैंप तेल ख़तम होने की सूचना दे रहा है। उनकी पत्नी प्रवेश करती हैं जिससे मूक और शांत वातावरण थोड़ा मुखर हो उठता है। संपादक महोदय के पास आकर उनकी पत्नी कुछ क्षणों के लिए खड़ी रहती हैं और आँचल सम्हाल कर कंधे पर रखती है जिससे चाभियों का गुच्छा झनक उठता है। संपादक महोदय का ध्यान टूटता है और वह कागज के पन्नों पर ही नजर गड़ाए बेटे का हाल पूछते हैं जो उनकी मार खाकर रोता-रोता दादी के साथ सो गया है। बीवी झल्लाकर कहती हैं कि ऐसा कागज आपने ला दिया है कि स्याही फूट जाती है। स्कूल में मास्टर से डाँट सुनता है, आप से कहता है तो पिटता है, कहाँ जाए बेचारा। पहले तो ‘मैटर तैयार करना है’ की रट लगाते हैं संपादक महोदय फिर लाचार होकर झुँझला पड़ते हैं–सारी दुनिया मेरी साहित्य-सेवा की तारीफ करे और तुम घर में कुहराम मचाया करो। लेकिन उनकी पत्नी की समस्याएँ ऐसी हैं कि बेचारी को मजबूरन कहना पड़ता है–आपकी साहित्य-सेवा की कीमत मुझे चुकानी पड़ती है, दुनिया को नहीं। पत्नी अपना अधिकार माँगती है और संपादन अपना। अपनी हार देखकर पत्नी कहती है–मैं जानती हूँ कि मैं ढल गई हूँ। मुझमें कुछ आकर्षण नहीं रहे गया है। चोट खाकर युवक तिलमिला उठता है। और वह पत्नी के सामने अपनी सफाई पेश करता-करता आत्म समर्पण करता है। इसी समय डाकिया तार दे जाता है। युवक के साले ने तार दिया है कि उनके लिए एक नौकरी ठीक कर दी गई है और वह तुरत चले आएँ। युवक साहित्य-सेवा छोड़कर दूसरा पेशा अपना लेना चाहता है लेकिन पत्नी उसे रोकती है कि जल्दी में फैसला न कीजिए। अंतत: युवक पूर्ण आत्म-समर्पण कर देता है और पत्नी रोशनी गुल करती है, पर्दा गिरता है।
तीसरा दृश्य
वर्मा जी घर पर बैठे हैं । संपन्न किंतु बेतरतीब घर का दृश्य है। उनके पास ही एक प्रकाशक महोदय हैं जिनसे विश्वविद्यालय के कुछ सम्मानित व्यक्तियों के पार्टी की चर्चा चल रही है ताकि किताबें पढ़ाई के लिए मंजूर हो जाएँ। सारी बातें हो जाने पर प्रकाशक महोदय चले जाते हैं और वर्मा जी उठ कर दाढ़ी बनाने का उपक्रम करने लगते हैं। युवक संपादक प्रवेश करता है। पार्टी के अवसर पर वर्मा जी के घर वह कुछ पहले आ गया है, शायद कोई काम आ पड़े। धीरे-धीरे दाढ़ी बनती जाती है वर्मा जी की और वह युवक को छेड़-छेड़ कर सुनते जाते हैं कि सहसा रेडियो की याद पड़ती है। रेडियो बज उठता है–क. सेन से पंत का एक गीत सुनिए, और बाकायदा बंगला उच्चारण के साथ गीत शुरू हो जाता है। युवक झुँझला कर उसे बंद करना चाहता है पर वर्मा जी रोक देते हैं–थोड़ा बर्दाश्त करना सीखो, अपने ही कार्टून पर मुस्कुराने की आदत डालो। एक-एक कर शर्मा जी, पंडित जी, कामरेड सिंह, अष्ठाना जी इत्यादि प्रमुख साहित्यकार जुटते हैं। पार्टी का समय हो चुका है लेकिन वयोवृद्ध निशानाथ जी अभी नहीं आए इसलिए बातचीत चलती है साहित्य की दुर्दशा पर। प्रसंग छेड़ने वाले हैं वर्मा जी। एक-एक कर सभी अपनी-अपनी बात कह जाते हैं। पंडित जी हरि-भजन पर जोर देते हैं क्योंकि उसके बिना सरस्वती की कृपा नहीं हो सकती, कामरेड प्रोलेटेरियन के लिटरेचर का गुणानुवाद करते हैं और शर्मा जी सरकारी नौकरी का ख्याल रख कर धीमे स्वर में अपना नुस्खा फरमाते हैं। एक-एक कर सभी के बारे में युवक शंका प्रकट करता है और साहित्यकार की मजबूरियाँ पेश करता है। फिर तो सभी की ओर से अपनी-अपनी मजबूरियों और परिस्थितियों का विश्लेषण सामने आने लगता है कि किन-किन परिस्थितियों में उन्हें साहित्य-सेवा करनी पड़ती है। अंत में निशानाथ जी आते हैं जिन्हें अवैतनिक संपादन-कार्य और महामान्य नेता की पुस्तक के संपादक और प्रूफ के झमेले के कारण अब तक प्रेस में फँसा रहना पड़ा था। आते ही निशानाथ जी युवक से पूछते हैं कि कुछ लिख रहे हो कि नहीं, जिसके जवाब में वह दूसरी नौकरी कबूल कर लेने का संवाद सुनाता है क्योंकि तभी उसे भरपेट भोजन मिल सकेगा और तभी वह फुरसत के वक्त स्वतंत्र रूप से साहित्य-सेवा कर सकेगा। उसकी बात का असर लोगों पर छाया ही हुआ है कि पर्दा गिरता है।
Image: Marc Trapadoux is Examining the Book of Prints
Image Source: WikiArt
Artist: Gustave Courbet
Image in Public Domain