संघर्ष
- 1 June, 1953
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 June, 1953
संघर्ष
(वाद्य-संगीत से दृश्य प्रारंभ)
(छेनी और हथौड़ी से मूर्ति गढ़ने की ‘खट् खट् खट् खट्’ आवाज़)
पंकज–(धीरे धीरे)
प्रस्तर में जीवन जागेगा।
मेरी साधना न हार कभी भी मानेगी।
मैं अपने हाथों से गढ़ दूँगा नई मूर्ति।
पत्थर जीवित जाग्रत बन कर मुस्काएगा।
इसका अंतर मचलेगा,
आँखें चमकेंगी,
मुख की अंकित रेखाएँ
अपने मौन स्वरों में गाएँगी ।
मेरी साधना, न ठहर तनिक,
तू चलती जा।
(मूर्ति गढ़ने की आवाज़)
पंकज
मैं अपने आघातों से
प्रतिपल जगा रहा हूँ नई ज्योति,
संसार तनिक जिसकी छाया में मुस्काए।
(मूर्ति गढ़ने की आवाज़)
पंकज
यह निर्जनता का राज्य,
यहाँ कोई न और।
जग के कोलाहल, संघर्षों से दूर,
यहाँ है अभय शांति ।
है शांति भंग होती
मेरी छेनी की ‘खट्-खट्’ से ही, बस।
इस निर्जनता में जाग रहा मैं ही केवल,
सोए पत्थर को जगा रहा।
मैं कलाकार हूँ, शिल्पी हूँ।
पंकज का मन
तुम कलाकार ही नहीं,
नहीं शिल्पी केवल,
तुम रक्त-मांस के पुतले भी, मानव भी हो
पंकज
यह कैसी ध्वनि?
सुनता हूँ क्या
मन
तुम कलाकार ही नहीं,
नहीं शिल्पी केवल,
मानव भी हो!
पंकज
तुम कौन?
कहाँ से बोल रहे?
मैं तुम्हें देखता यहाँ नहीं,
लेकिन आवाज़ सुन रहा हूँ।
मन
मैं तो तुमसे
कुछ कहता रहता हूँ सदैव,
जिसको तुम सुन कर भी
न कभी हो सुन पाते मेरे पंकज!
पंकज
संबोधित करते हो मुझको ‘पंकज’ कह कर?
मन
आश्चर्यचकित क्यों होते हो
मैं तुमसे परिचित हूँ।
तुमको पहचान रहा,
हैं ज्ञात मुझे आख्यान तुम्हारे जीवन के,
हर एक तुम्हारी धड़कन
मेरी धड़कन है।
पंकज
सम्मुख आओ,
मैं भी तुमको पहचानूँ तो।
मन–(हल्की हँसी)
पहचानोगे?
आश्चर्य यही,
मुझको तुम अबतक भी
न तनिक पहचान सके।
पंकज
मैं समझ नहीं पाता,
तुम क्या यह कहते हो?
मन
जब से तुमने देखा प्रकाश इस धरती का,
जब से चंचल साँसें
गिनने लग गईं ज़िंदगी की घड़ियाँ,
मैं तब से ही तो संग तुम्हारे रहता हूँ!
पंकज
तुम संग हमेशा रहते हो?
मन
हाँ, संग हमेशा रहता हूँ।
तुम भी हो उतना निकट नहीं अपने,
जितना मैं निकट तुम्हारे
प्रतिपल रहता हूँ!
पंकज
तुम कौन?
क्यों नहीं मेरे सम्मुख आते हो?
मन
सम्मुख क्या आऊँ पंकज!
मैं तो सदा तुम्हारे मन में हूँ,
मैं सदा तुम्हारे अंतर से बोला रहता।
पंकज
क्या कहने आए हो मुझ से?
इस समय? यहाँ?
मन
मैं कहने आया हूँ पंकज,
तुम कलाकार ही नहीं
नहीं शिल्पी केवल,
तुम रक्त-मांस के पुतले भी मानव हो।
पंकज
तात्पर्य तुम्हारे कहने का?
मन
तात्पर्य स्वयं सोचो, समझो।
पंकज
अवकाश नहीं मुझको इतना,
उलझूँ तुमसे।
अवकाश नहीं मुझको इतना,
मैं तथ्यहीन तात्पर्य तुम्हारा
समझूँ, सोचू यों रुक कर।
तुमने अपनी बातों में
उलझा कर मुझको,
साधना भंग कर दी मेरी।
ये हाथ रुक गए हैं मेरे,
छेनी है नीचे गिरी हुई।
मेरे सम्मुख यह मूर्ति अधूरी खड़ी-खड़ी
सतृष्ण नयन से ताक रही,
है माँग रही जीवन मुझ से।
मैं कलाकार हूँ, शिल्पी हूँ,
भर दूँगा इसमें नए प्राण, चेतना नई!
(मूर्ति गढ़ने की आवाज़ शुरू होती है, फिर शीघ्र ही बंद हो जाती।)
मन
मत पागल हो पंकज,
कुछ मेरी बात सुनो।
पंकज
तुम क्यों अशांत
मुझको यों करने आए हो?
मन
मैं तुम्हें सत्य दिखलाने आया जीवन के।
पंकज
मैं देख रहा हूँ
जीवन के सत्यों को
इन्हीं मूर्तियों में
मन
पाषाणों में जीवन का सत्य नहीं मिलता,
सत्यों के फूल खिला करते हैं धरती पर।
पाषाणों से तुमको
न उलझने दूँगा अब।
मैं तुम्हें खींच कर
जीवन की धरती पर लाने आया हूँ।
पंकज
मैं कहता हूँ,
मुझको जाना है कहीं नहीं।
मैं कलाकार, साधना-निरत,
कर रहा अभी मैं नई सृष्टि!
मन
तुम भ्रम में हो ।
तुम में है इतनी शक्ति नहीं,
तुम देख सको
जीवन के निष्ठुर सत्यों को
सत्यों को अपनी आँखों से ओझल करके
भ्रम-सृष्टि कर रहे हो प्रतिपल।
भ्रम की दुनिया में
तुम्हें नहीं रहने दूँगा,
देखना तुम्हें होगा जीवन का कठिन सत्य।
पंकज
ऐसी असत्य बातें क्यों करते हो?
बोलो,
मैं कलाकार,
जीवन के सत्यों का द्रष्टा
मैं देख रहा हूँ उन्हें सतत,
इसलिए कि उनको जग को भी दिखला पाऊँ,
इसलिए कि
प्रमुदित हो पाए संसार
कलाकृतियों में उनका बिंब देख।
मन
तुम चाह रहे हो
जगती को प्रमुदित करना?
पंकज
सच कहते हो,
मेरी कामना यही है,
जग यह हँस पाए।
मेरी साधना सफल होगी,
जब मेरी कला-सृष्टियों से
जग पाएगा उल्लास-हास।
मन
इन बातों पर
मुझको विश्वास नहीं होता।
कामना तुम्हारी होती यदि
जगती को सुखी बनाने की,
पहले तुम सुखी बनाते
अपनी पत्नी को, माँ को, अपने नन्हे शिशु को
पंकज
क्या कहते हो?
मन
मैं सत्य कह रहा हूँ पंकज।
तुम जीवन के सत्यों से आँखें फेर रहे,
तुम कहते हो,
तुम निर्मित करते हो अनुपम मूर्तियाँ नई,
मैं कहता हूँ,
मूर्तियाँ नहीं,
भ्रम-सृष्टि तुम्हारी है केवल।
तुम देख रहे,
अपनी आँखों के सम्मुख नित,
बूढ़ी माता है भूख-प्यास से विकल बनी,
नन्हा मोहन बीमार पड़ा है शय्या पर,
पत्नी बेचैन हो रही है!
(करुण संगीत के साथ एक दृश्य प्रारंभ होता है)
मोहन–माँ! माँ!
बेला–क्या है बेटा? प्यास लगी है क्या?
मोहन–हाँ माँ, पानी दे।
बेला–पहले दवा पी ले बेटा, फिर पानी पीना।
मोहन–नहीं माँ, मैं यह दवा नहीं पीऊँगा, बड़ी कड़वी लगती है।
बेला–दवा पीएगा, तभी तो जल्दी अच्छा हो जाएगा।
मोहन–तू रोज़ यही कहती है, पर मैं अच्छा नहीं होता। बाहर कब खेलने जाऊँगा माँ? शांति
और रामू रोज़ खेलते हैं।
बेला–तुम भी खेलने जाओगे मेरे लाल। पहले अच्छा तो हो जाओ।
मोहन–मैं कब अच्छा होऊँगा माँ?
बेला–अब दो-चार दिन में ही अच्छे हो जाओगे।
मोहन–तब तुम मुझे खाने को दोगी न?
बेला–हाँ बेटा, मैं तुम्हारे लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें बनाऊँगी।
मोहन–मैं संदेश खाऊँगा माँ, रसगुल्ले भी।
बेला–मैं तुम्हें सब कुछ दूँगी मोहन।
मोहन–तू मुझे जल्दी अच्छा कर दे माँ। बाबूजी से कहकर कोई अच्छी दवा मँगा देना।
बेला–बाबूजी! बाबूजी को फुर्सत नहीं रहती बेटा। वे हमेशा अपने काम में लगे रहते हैं।
मोहन–मेरे लिए वे काम छोड़कर जरूर दवा ला देंगे माँ।
बेला–मोहन बेटा, उनके पास पैसे भी तो कम हैं!
मोहन–इससे क्या हुआ माँ। तू बहाना करती है। मैं कहूँगा, तो मेरे लिए वे जरूर दवा ला देंगे।
बेला–देख, वे आ ही रहे हैं।
मोहन–कहाँ हैं माँ?
बेला–आ ही गए। देखिए न, मोहन कब से आपको खोज रहा है। आपको तो अपनी मूर्तियों
से छुट्टी नहीं मिलती।
पंकज–क्या करूँ थोड़ा-सा काम बाकी रह गया था, सोचा, पूरा ही कर लूँ। मोहन की तबीयत
कैसी है?
बेला–आपको इसकी चिंता थोड़े ही है।
पंकज–चिंता क्यों नहीं है? लेकिन काम में इस तरह उलझ जाता हूँ कि कुछ याद ही नहीं
रहता। और मूर्तियाँ बेकार तो नहीं बना रहा हूँ, उनसे पैसे भी तो मिलेंगे।
बेला–पैसे क्या खाक़ मिलेंगे। मूर्तियों के प्रेमी कितने हैं?
पंकज–हैं क्यों नहीं? दुनिया में अनेक कला-पारखी हैं।
बेला–साल दो साल में कोई दो मूर्तियाँ खरीद ही लेगा, तो क्या इसी से ज़िंदगी चलेगी? मैं
कब से कहती हूँ, कोई दूसरा काम कर लो।
पंकज–नहीं बेला, मुझसे दूसरा काम न होगा।
मोहन–बाबूजी।
पंकज–क्या है बेटा?
मोहन–मुझे जल्दी अच्छा कर दीजिए बाबूजी। मैं खेलने जाऊँगा।
पंकज–तू अच्छा हो जाएगा मोहन!
मोहन–आपने यह बड़ी कड़वी दवा ला दी है, मैं इसे नहीं पीऊँगा। आप कोई अच्छी दवा ला
दीजिए।
पंकज–अच्छी दवा? ला दूँगा बेटा! तू जल्दी अच्छा हो जाएगा!
मन–(जोर की हँसी)
तुम कलाकार हो, शिल्पी हो।
तुम चाह रहे
उल्लास-हास से भर देना इस जगती को।
लेकिन अपने नन्हे शिशु,
अपनी पत्नी को
तुम तनिक न प्रमुदित कर पाते।
पंकज
सच कहते हो ।
विक्षुब्ध, विकल हो उठता हूँ
मैं उन्हें देख।
मेरे अंतर के तार-तार बज उठते हैं,
बह चलती है आँखों से करुणा की धारा।
लेकिन क्या करूँ,
विवश हूँ मैं।
ये पत्थर माँग रहे मुझसे आकार नए।
आकृतियाँ माँग रहीं मुझ से जीवन-स्पंदन।
मैं कलाकार,
इनको निराश कैसे कर दूँ?
(मूर्ति गढ़ने की आवाज़)
मन
लगता मुझको,
विक्षिप्त हो गए हो पंकज!
पाषाणों की वाणी तुम सुनते हो प्रतिक्षण,
लेकिन मोहन की कातर ध्वनि
अंतर तक तनिक तुम्हारे नहीं पहुँच पाती?
पंकज
मुझको अशांत मत करो अधिक।
उनकी स्मृतियों को सोने दो ओ मेरे मन!
मेरे अंतर को और न अधिक कुरेदो तुम।
मैं शिल्पी हूँ,
गढ़ रहा मूर्तियाँ जग के हित
मेरी साधना न भंग करो
इन बातों से।
मन– (हँसते हुए)
साधना!
साधना इसे तुम कहते हो!
तुम पागल हो!
तुम भाग रहे हो जीवन के संघर्षों से।
पाषाणों के सँग जूझ-जूझ
पाषाण हो गए हो तुम भी।
पंकज–(आश्चर्य से)
क्या कहते हो।
पाषाण हो गया हूँ मैं भी?
तुम निष्ठुर हो,
तुम अंतर की धड़कन न तनिक हो सुन पाते।
देखो, मेरे उर में
आकाँक्षाएँ हैं जाग रहीं कितनी,
मेरी पलकों में सपने उमड़ रहे कितने।
मेरी साँसें जग की
मंगल-कामना किया करतीं सदैव!
तुम कैसे कहते हो
मैं भी पाषाण हो गया हूँ
इन पाषाणों के संग?
मेरे उर में तो जाग रही
जीवन-विद्युत् इतनी सशक्त
जो पाषाणों को भी
नवजीवन देती है,
चेतना नई उनके प्राणों में भरती है।
मन
आश्चर्य यही तो
होता है मुझको पंकज।
तुम कहते हो
कैसे निराश कर दूँ मैं इन पाषाणों को?
लेकिन निराश करते अपनी प्रिय बेला को
तुमको न तनिक लज्जा आती!
है याद,
कौन-सी आशाएँ थीं
जाग उठीं उसके मन में?
(मधुर वाद्य-संगीत से दृश्य प्रारंभ होता है)
बेला–(हल्की हँसी)
पंकज–बड़ी खुश हो बेला।
बेला–मैं खुश न होऊँ, तो दूसरा कौन होगा?
पंकज–आख़िर बात क्या है?
बेला–मुझसे खुशी की बात पूछ रहे हो? आज मुझसे सुखी दूसरी कौन नारी होगी?
पंकज–क्यों?
बेला–‘क्या’ का जवाब मैं नहीं देती।
पंकज–जरा सुनूँ भी।
बेला–तुम्हारे-जैसा कलाकार तो खुद समझ जाएगा।
पंकज–कलाकार की पत्नी कह दे, तो अच्छी बात न होगी?
बेला–तुम तो मुझे चिढ़ाने लगते हो। तुम्हीं बतला दो, तो कैसा हो?
पंकज–नहीं बेला, मैं पहेली बूझना नहीं जानता। मैं तो मूर्ति गढ़ना जानता हूँ, पत्थर की मूर्ति।
बेला–एक मेरी मूर्ति नहीं बना दोगे?
पंकज–तुम तो मेरी कला की प्रेरणा हो। अपनी प्रत्येक मूर्ति में मैं तुम्हारी ही आत्मा का संगीत
भरता हूँ। मैं कितना प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जैसी जीवन-संगिनी पाकर।
बेला–यह तो तुम उल्टी बात कहते हो।
पंकज–उल्टी बात कहता हूँ?
बेला–और नहीं तो क्या? खुश तो मैं हूँ कि तुम्हारे जैसे कलाकार की पत्नी हूँ।
पंकज–पगली। (हल्की हँसी)
बेला–हँसते क्यों हो ? मैं झूठ कहती हूँ?
पंकज–झूठ क्यों कहोगी बेला ! लेकिन मैं सोच रहा हूँ कि क्या तुम हमेशा सुखी रह सकोगी?
बेला–मैं तुमसे ऐसी बातें नहीं सुनना चाहती। मेरा मन आशंकित हो उठता है। मैं तुम्हारे साथ
हमेशा सुखी रहूँगी।
पंकज–तुम मेरी बात नहीं समझी।
बेला–मैं समझती हूँ। तुम कलाकार हो, शिल्पी हो। मुझे तुम्हारी प्रतिभा पर, तुम्हारी शक्ति पर
विश्वास है। मैं जानती हूँ, तुम मुझे दुखी नहीं होने दोगे।
पंकज–हाँ बेला, मैं तुम्हें दुखी नहीं होने दूँगा। तुम्हारे होठों की मुस्कान के लिए मैं सब कुछ
करूँगा।
बेला–तुम कितने अच्छे हो!
मन–(जोर की हँसी)
तुम कितने अच्छे हो पंकज! (हँसी)
पंकज
तुम हँसने आए हो मुझ पर?
मन
मैं हँसने नहीं यहाँ आया,
यह तुमसे कहने आया हूँ,
तुमने अपनी बेला को सुखी बनाया है।
मुस्कान अधर पर खिलती रहती है उसके,
आँखें उसकी मुस्काती हैं,
हो सुख विभोर,
उल्लास-हास के गीत सदा वह गाती है।
तुम कितने अच्छे हो पंकज। (हँसी)
पंकज
मैं कहता हूँ,
मुझ पर न हँसो अब और अधिक,
ओ मेरे मन!
मन
मैं हँसता नहीं तनिक तुम पर।
कुछ बीती बातें याद करा देता हूँ बस।
उन मधु-दिवसों की स्मृतियाँ,
बोलो, कहाँ गईं ?
बेला की पलकों के सपने क्या कहते हैं?
उसके मन का विश्वास
भला क्या हार गया?
तुमने थे जो आश्वासन दिए कभी उसको,
वे पाषाणों से टकरा कर क्या धूल हुए?
क्या सचमुच ही
तुम देख नहीं पाते उसकी इच्छाओं को?
जो सिसक-सिसक कर रोती हैं,
जो घुट-घुट कर मिट जाती हैं।
पंकज
बस, रहने दो ओ मेरे मन!
मैं सुन न सकूँगा और अधिक।
कोई स्मृतियों को जगा-जगा
मुझको अशांत क्यों करते हो?
मैं कलाकार हूँ,
मुझे साधना करने दो
(मूर्ति गढ़ने की आवाज़)
मन
ठहरो पंकज!
भागो न अभी,
भागने नहीं दूँगा तुमको।
सोचो तो कुछ,
तुम पाषाणों से टकराना यह छोड़,
कहीं श्रम और दूसरा करते यदि,
धन-वैभव मिलता,
सुख मिलता,
जीवन में हँसी-खुशी तब आकर लहराती,
बेला मुस्काती,
मोहन किलकारी भरता,
साधों की कलियाँ खिल जातीं।
कितना सुंदर लगता यह जग
पंकज
रहने दो अब
ओ मेरे मन!
तुम दुनिया को रंगीन बना
साधना-भ्रष्ट मुझको यों करने आए हो।
लेकिन मैं अपने पथ से भ्रष्ट नहीं हूँगा ।
है मुझे ज्ञात,
इस दुनिया की यह चमक-दमक,
यह रंगीनी,
सब नश्वर हैं, हैं क्षणिक, तुरंत मिट जाएँगी।
मैं नश्वरता के लिए
अमरता को न कभी भी खो सकता।
मन
यह बात अमरता की
तुमने कैसी छेड़ी?
पंकज
ओ मेरे मन,
तुम अंधे हो,
तुम समझ न पाओगे सब कुछ।
मन
पत्थर के प्रेमी,
जरा मुझे समझाओ भी।
पंकज
जो रंग दिखाते हो मुझको
इस दुनिया के,
वे सब के सब धुल जाएँगे।
बेला न रहेगी,
रह न सकेगा मोहन भी
औ, कलाकार पंकज की
नश्वर देह कभी मिट जाएगी।
मिट जाएँगे,
जग के वैभव-ऐश्वर्य सभी,
मिट जाएगी
दुनिया की सारी चमक-दमक।
लेकिन यह अनुपम कला सृष्टि।
जग के ध्वंसों पर भी सदैव मुस्काएगी।
युग-युग तक कलाकार पंकज की
गौरव-गाथा गाएगी।
सब मिट जाएँगे,
वर्तमान के प्राणी हैं,
लेकिन यह मेरा कलाकार
है तोड़ रहा इस वर्तमान की सीमा
छेनी के निष्ठुर, निर्मम कुछ आघातों से।
आनेवाली सदियों में भी
यह कभी न मिटनेवाला है।
यह गौरव देख रहे हो तुम?
देखो भी तो।
(वाद्य-संगीत से नया दृश्य प्रारंभ होता है । बहुत से लोगों के जमीन खोदने की आवाज़ सुनाई पड़ती है)
आदमी 1–अरे भई, इतने जोर से कुदाल न चलाओ।
आदमी 2–क्यों?
आदमी 1–कहीं ऐसा न हो कि जिन मूर्तियों की खोज में हम मेहनत कर रहे हैं, वे हमारी
कुदाल की ही चोट से टूट जाएँ।
आदमी 2–हाँ, अभी-अभी तो यह छोटी-सी पत्थर की मूर्ति मिली है।
आदमी 1–इसीलिए तो कहता हूँ कि यह बड़ी मूर्तियाँ भी शीघ्र ही मिलेंगी अच्छा, जल्दी-
जल्दी काम करो।
(कुदाल और फावड़े चलाने की आवाज़)
आदमी 2–यह देखिए, एक नई मूर्ति यह निकली!
आदमी 1–कितनी सुंदर है। मैं कहता हूँ, अभी और मूर्तियाँ निकलेंगी। काम करो।
(कुदाल और फावड़े चलाने की आवाज़)
आदमी 2–यह देखिए, एक नई मूर्ति और निकली!
(कुदाल और फावड़े चलाने की आवाज़)
आदमी 2–एक मूर्ति और!
आदमी 1–इतनी मूर्तियाँ! कला का अनुपम भांडार पा लिया हमने! कितनी सुंदर हैं ये!
आदमी 2–इनकी कला तो देखिए! इनकी एक-एक रेखा बोल रही है। ये कितनी सजीव
लगती हैं।
आदमी 1–किसकी बनाई हुई है?
आदमी 2–नाम तो इस मूर्ति के नीचे खुदा हुआ है।
आदमी 1–क्या नाम है?
आदमी 1–मूर्तिकार पंकज।
आदमी 2–मूर्तिकार पंकज । तुम हमारी श्रद्धा के पात्र हो। हम तुम्हारे चरणों पर अपनी
श्रद्धांजलियाँ अर्पित करते हैं।
आदमी 2–आश्चर्य है कि हम ऐसे महान् कलाकार के विषय में कुछ नहीं जानते थे। पता नहीं,
यह किस युग का कलाकार है!
आदमी 1–मूर्तियों पर सन्-संवत् का उल्लेख तो अवश्य होगा।
आदमी 2–होना तो चाहिए।
आदमी 1–जरा गौर से देखो।
आदमी 2–देख रहा हूँ। (जरा ठहर कर) यह तो किसी सन् का ही उल्लेख है।
आदमी 1–पढ़ो भी तो।
आदमी 2–उन्नीस सौ पचास।
आदमी 1–तो, इसमें संदेह है कि मूर्तिकार पंकज बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में रहा होगा।
आदमी 2–उसकी कला गजब की है। आज इतनी सदियों के बाद भी उसकी मूर्तियों में इतनी
शक्ति है कि ये हमारे मन को गुदगुदा सकें।
आदमी 1–सचमुच वह महान् कलाकार था।
आदमी 2–ये मूर्तियाँ हमारे गौरव की वस्तु हैं।
आदमी 1–इन्हें हम अपने म्यूज़ियम में ले चलें।
आदमी 2–हाँ, हाँ, हमें इनका संरक्षण करना चाहिए।
मन–(जोर की हँसी)
पंकज
क्यों हँसते हो
हो मेरे मन?
मन
पागल सपने छल रहे तुम्हें।
पंकज
पागल सपने?
मन
मैं ऐसे सपनों को
पागल ही कहता हूँ।
ये निष्ठुर होकर छीन रहे हैं
तुमसे मधुमय वर्तमान।
अमरत्व प्राप्त करने के हित
तुम दौड़ रहे हो अंधों-से अपने पथ पर।
पंकज
क्या कहते हो?
मैं दौड़ रहा हूँ अंधों-सा?
मन
तुम देख नहीं पाते
जीवन के सपनों को,
जो वर्तमान की धरती पर
सामने तुम्हारे बिखरे हैं।
तुम कहते हो,
ये वर्तमान के सुख-वैभव
सब नश्वर हैं,
चाहिए तुम्हें अमरत्व कहीं।
मैं कहता हूँ,
तुम भ्रम में हो।
तुम खोज रहे अमरत्व यहाँ,
यह भी नश्वर, क्षणभंगुर है।
पंकज
वह भी क्षणभंगुर है कैसे?
मन
तुम देख नहीं पाते उसको?
तुम कहते हो,
बेला, मोहन, मिट जायँगे,
इस दुनिया के चमकीले रंग धुल जायँगे,
दस वर्षों में सब चमक दमक होगी मलीन।
तुम अमर रहोगे
इन्हीं मूर्तियों में छिप कर
मैं कहता हूँ,
ये कला-सृष्टियाँ भी
खंडित हो जाएँगी।
पंकज
कैसे खंडित होगी,
मैं समझ नहीं पाता।
मन–(हँसी)
तुम समझोगे इसको कैसे?
भ्रम का आवरण
तुम्हारी आँखों पर छाया।
क्या देख नहीं सकते
कि कभी तूफान बवंडर आएँगे,
धरती डोलेगी,
आसमान थर्राएगा?
(आँधी, तूफान, भूकंप आदि की भयंकर ध्वनियाँ दूर से धीरे-धीरे उठ कर तेज हो जाती है। बहुत से लोगों की आवाज़ें सुनाई पड़ती हैं…‘भागो, भागो’ जान बचाओ आदि)
पुरुष स्वर 1–और राकेश, तुम यहीं खड़े हो?
पुरुष स्वर 2–और क्या करूँ?
पुरुष स्वर 1–भागते क्यों नहीं?
पुरुष स्वर 2–भाग कर कहाँ जाऊँ? देखते नहीं? समूची धरती डोल रही है, आकाश फट रहा
है, काले-काले बादल उमड़े आ रहे हैं, आँधियाँ बढ़ती आ रही हैं, तूफान उत्पात
मचा रहे हैं । मालूम होता है, प्रलय आ कर ही रहेगा।
पुरुष स्वर 1–तुम भी गजब के आदमी हो यों खड़े-खड़े प्रलय की बातें सोच रहे हो।
पुरुष स्वर 2–जो सामने देख रहा हूँ, उसे सोच रहा हूँ, ये बड़े-बड़े आलीशान महल गिर कर
चूर-चूर हो रहे हैं, धरती फट रही है, सभी ढह रहे हैं, ढह रहे हैं, आह!
(आवाज़ तेज होकर कम होती है)
मन–(अट्टहास)
कलाकार पंकज की
सब मूर्तियाँ ध्वस्त हो जाएँगी। (हँसी)
पंकज
इतना न हँसो ओ मेरे मन।
मैं पागल हो जाऊँगा सचमुच इन्हें सोच।
मन–(हँसी)
मैं क्यों न हँसू
तुम खोज रहे अमरत्व यहाँ।
अमरत्व भला इस धरती पर
मिल पाता है?
धरती पर सब कुछ नश्वर है;
क्षणभंगुर है,
आशंका से जीवन का
प्रतिक्षण कंपित है।
तूफान-बवंडर
उल्का-झंझावातों का भय तो है ही,
संभव है,
जग के भले आदमी,
शांति चाहने वाले नर
कुछ ऐटम बम भी बरसा दें।
(बहुत-से हवाई जहाजों की आवाज़। विस्फोट आह-चीत्कार आदि की ध्वनियाँ)
मन–(अट्टहास)
तब कलाकार पंकज की
ये मूर्तियाँ कहीं बच पाएँगी? (हँसी)
अमरत्व चाहने वाले भावुक कलाकार? (हँसी)
पंकज
बस!
रहने दो, रहने दो,
हँसो न और अधिक
ओ मेरे मन!
सच कहते हो,
अमरत्व नहीं इस धरती पर।
भ्रम है, सब मिथ्या है।
मेरी साधना, कला-कौशल,
सब निष्फल हैं।
मेरी मूर्तियाँ सभी
खंडित हो जाएँगी!
मैं रचकर इन्हें करूँगा क्या?
प्रतिमे, तुझको मिटना ही है,
तो बन कर भला करेगी क्या?
(पत्थर पर जोर से हथौड़ा मारने की आवाज़)
पंकज
आह!
मैंने यह क्या कर दिया आज?
मेरी यह अनुपम कला-सृष्टि
हो गई नष्ट मेरे हाथों
मैं पागल हूँ,
मैं उलझ रहा हूँ, जाने क्यों,
अपने मन से।
मैंने अपनी प्रतिमा
खंडित कर दी पल में!
यह प्रतिमा मेरी कला-सृष्टि!
जिसके रचने में
मुझे आत्म-सुख मिलता था,
संतोष हृदय को होता था!
मैं फिर से कोई मूर्ति रचूँगा मनमोहक,
पत्थर में ज्योति जगाऊँगा!
Image: Portrait of the sculptor L.V.-Posen
Image Source: WikiArt
Artist: Mykola Yaroshenko
Image in Public Domain