साँवरिया पहाड़िया और उनके लोकगीत
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- 1 January, 1952
साँवरिया पहाड़िया और उनके लोकगीत
दूर पहाड़ों से आने वाली रोशनी के साथ सैकड़ों कंठों से निकलने वाली मोहक आवाज ने अगर कभी आपका ध्यान खींचा होगा, तो दूसरे ही क्षण आपको समझते देर न लगी होगी कि जंगल के रहने वाले उत्सव मना रहे हैं, नाच-गा रहे हैं। उनके हर्ष-विषाद हमसे दूर हैं लेकिन क्यों और कब तक? –संपादक
युगों की उपेक्षा, अशिक्षा एवं बुभुक्षा के निविड़ अंधकार में जीवन की क्रूर विभीषिकाओं के साथ निरंतर होड़-सी लेते रहने वाले साँवरिया पहाड़िया जाति के लोगों को सभ्यता की तुमुल लहरों ने मानों राजमहल की दो हजार फुट ऊँची पहाड़ियों पर ला पटका है। राँची के उराँवों के बंधु-बांधव, उन्मुक्त प्रकृति की गोद में पलने वाले इन पहाड़िया लोगों को, जो आज भी किसी ‘शहरी’ को देखते ही शुतुर्मुर्ग की तरह जंगल के किसी कोने में अपना मुँह छिपा लेना चाहते हैं, क्या पता कि किसी समय उनके पूर्वजों का निवास कर्नाटक में था। भारत का इतिहास यदि यह साक्षी दे सकता कि भगवान् राम के साथ लंका जाने वाले तथा उनके साथ अयोध्या आने वाले किष्किंधा के ‘वानर’ और ‘भालू’ वास्तव में वानर और भालू नहीं, इन ‘मालेर’1 लोगों के पूर्व-पुरुष ‘मल्ल’ ही थे, तो शायद, आज की दुनिया में असभ्यता का कलंक इनके माथे न लगता!
जो हो, इतना तो प्रमाणित हो चुका है कि समय की बाढ़ ने इन पहाड़िया लोगों के पूर्वजों को कर्नाटक से बहाकर रोहतास पहुँचा दिया जहाँ उनका जीवन कुछ काल सुख-शांति में बीता। परंतु मुसलमान आक्रमणकारियों ने उन्हें वहाँ भी चैन लेने नहीं दिया! अंत में गंगा के किनारे उनका एक दल रोहतास से भाग कर राजमहल की पहाड़ियों पर जा बसा जो आज मालेर, पहाड़िया अथवा साँवरिया पहाड़िया के नाम से जाना जाता है।
राजमहल की पहाड़ियाँ जंगलों से आच्छादित हैं। पहाड़िया लोग उन्हीं पहाड़ियों की चोटियों पर रहते हैं, जहाँ वे लकड़ियाँ और सवई घास काट और बेच कर पेट की ज्वाला शांत करने का असफल प्रयत्न करते हैं। कृषि-योग्य भूमि और पानी का नितांत अभाव उन पहाड़ों पर है। स्वभावत: क्षुधा और पिपासा, छाया की तरह पहाड़िया जीवन का पीछा नहीं छोड़तीं। यह बात नहीं कि इन लोगों ने कभी परिश्रम नहीं किया, खेती नहीं की। मेहनत उन्होंने की, पहाड़ियों की छाती को चीरकर मकई और बाजरे के बीज भी उन्होंने समय-समय पर बोये। परंतु भगवान ने कभी उनका साथ नहीं दिया। तभी तो उनका स्वर उनके लोकगीतों में इस प्रकार उभरता है–
कुदिनायाँ कुदे रे बालेके;
चाकेनायाँ चाके रे बालेके;
ना–पड़ाँ बेरु लेहियोति आंबिया, चाँदी रे! (1)
–काम भी मैंने काम करके देखा;
बीज भी मैंने बो करके देखा;
(लेकिन) उस भगवान् ने उपज ही नहीं दी, ओ चाँदी (बिटिया)!
सूखा ही नहीं, बाढ़ ने भी किसी समय इन पृथ्वीपुत्रों को सताया है। उसकी याद आज भी भूली नहीं–
दो–केनो पिंडिचा;
दो–निनो तेऽऽ का;
बानवासी जड़ा रे बास रे की एकेया, चाँदी रे! (2)
–पहाड़ पर जोरों की आवाज हुई;
बाढ़ (सब कुछ) बहाकर ले गई, ओ चाँदी (बिटिया रानी)!
अन्न-धन तो गया ही, ‘लखी-लक्ष्मी’ भी विदा हो गई–
बाले-बाले ओयू, कारों देनो एकेया;
बाले बाले मानेगू, मोटों देमो एकेया;
ना–पाड़ाँ बेरु लेहियोति अंबिया चाँदी रे! (3)
–बड़ी-बड़ी गौएँ एक ‘पाय’2 (अनाज) में ही चली गईं ;
बड़े-बड़े भैंसे एक मुट्ठी (अनाज) में ही चली गई;
भगवान् ने ही तो उपज नहीं दी, ओ चाँदी (बिटियाँ रानी)!
गृहस्थी नष्ट हो चुकी। गरीबी और भूख की विभीषिका गृहिणी की आँखों के आगे नाच उठी। वह आँसू बहा रही है। परंतु उसी के सामने छोटी, अबोध बच्ची, अपने हृदय के सहज-सुलभ आनंद में मग्न, गाना गा रही है। उसे क्या पता कि गरीबी किस चिड़िया का नाम है! घर का मालिक दोनों दृश्यों को देखता है। उसके अंतस्तल में हर्ष और विषाद मानों आँख-मिचौनी खेल रहे हों, मन में एक द्वंद्व-सा उठता है। परंतु उसी क्षण जैसे किसी ने उसके कान में धीरे से कह दिया हो–‘दु:खे यादेर जीवन गड़ा, तादेर आबार दु:ख कि रे?’ इसीलिए तो वह कह उठता है–
ओ लि ग मा पेली रे;
पा-ड़ो मा माको रे;
एकाचोया नूनी रे बाजारे नो लालेतोरे, चाँदी रे! (4)
–अरी! सुनती हो? तुम मत रोओ; (अपनी स्त्री से)
बिटिया रानी! तुम मत गाओ;
आओ, बिटिया! चलो हम दोनों गली में खेलें, ओ चाँदी!
दु:ख को भुलावा देने के लिए इससे सुंदर दूसरा उपाय हो भी क्या सकता था?
किंतु, केवल भुलावा देने से ही नहीं चलता। दु:ख को दूर करने के लिए उपाय भी करना चाहिए। तभी तो वह कहता है–
केडेर माकोत् एकेनाँ दे;
बाड़ेर माकोत् एकेनाँ दे;
अन्ना कारेन् ओंदेरेनो, चाँदी रे! (5)
–इन छोटे-छोटे पाँवों से चलकर भी जाऊँगा;
इन छोटे-छोटे हाथों से चलकर भी जाऊँगा;
चाहे आना-‘पाय’ ही क्यों न मिले, (अन्न) लाऊँगा ही, ओ चाँदी! और, अंत में रोते-रोते थककर उसकी स्त्री कहती है–
एनोंद् ओ लो ए न;
एनोंद् पा-ड़े न;
ना–पाड़ाँबेरू पीटोति आंबिया, चाँदी रे! (6)
–हाय! मैं कितना रोऊँ!
हाय! मैं कितना गाऊँ!
वह भगवान् मुझे मार भी तो नहीं डालता! ओ चाँदी! और भी–
केयीनायाँ केचे रे बालेके;
बोङेनायॉ बोंङे रे बालेके;
ना–पाड़ाँ बेरू पीटोति आंबिया, चाँदी रे! (7)
–मरने की भी कोशिश मैं कर देखती हूँ;
भागने की भी कोशिश मैं कर देखती हूँ; (पर व्यर्थ);
वह भगवान् मुझे मार भी तो नहीं डालता! ओ चाँदी!
परंतु यह न समझें कि दु:ख से हार खाकर ये लोग सचमुच आत्महत्या कर लेते हैं। सच तो यह है कि ये भूख-प्यास की कड़वा घूँट पीने के आदी हो गए हैं। बहुत हुआ तो जीविकोपार्जन के लिए अपने घर-द्वार छोड़कर ‘मोरंग’ अथवा ‘बरिन’ (बंगाल) भाग गए।
पहाड़िया लोगों के ये थोड़े-से लोकगीत सिर्फ बानगी के तौर पर यहाँ दिए जा रहे हैं। इन्हें मैंने ‘देबा’ नाम के एक बूढ़े पहाड़िया से लिया है। इन लोगों की भाषा ‘मलतो’ कहलाती है जो द्रविड़-परिवार की एक भाषा है। इन थोड़े-से गीतों से ही साफ ज़ाहिर होता है कि जीवन और समाज के साथ इसका कितना अधिक सामंजस्य है।
1. ‘मालेर’ शब्द ‘माले’ का बहुवचन है जिसका अर्थ होता है ‘मनुष्य’। साँवरिया पहाड़िया अपनों को ‘मालेर’ भी कहते हैं। ‘पहाड़िया’ शब्द गैर मालेरों के द्वारा उन्हें दिया गया एक नाम है जिसका अर्थ होता है ‘पहाड़ पर रहने वाला’ और साँवरिया? शायद यह ‘समर’ (या सूर्य-वंश)? से संबंध रखने वाला शब्द है! –ले.।
2. एक माप, जिसमें पाँच-छ: छटाँक चावल अँटता है। –ले.
Image: Hills
Image Source: WikiArt
Artist:Nicholas Roerich
Image in Public Domain