सेर आध सेर चावल के लिए

सेर आध सेर चावल के लिए

(एकांकी)

अंधी गली!

अश्क की प्रतिभा अनूठी है। कविता, कहानी, नाटक–सबमें कमाल हासिल किया है इस अनूठे व्यक्तित्व के कलाकार ने। शरणार्थियों की समस्या भारत-व्यापी समस्या है। इस समस्या का यथार्थ चित्रण ‘अंधी गली’ में एकांकियों के माध्यम से इस कलाकार ने उपस्थित कर कला में एक नई दिशा का निर्देश किया है। उसकी पहली कड़ी यह आपकी सेवा में…

[अंधी गली प्रयाग के एक गुंजान इलाके की अंधी गली है–पर प्रयाग ही क्यों, यह दिल्ली, लखनऊ, पटना, किसी भी बड़े नगर की अंधी गलियों में से एक हो सकती है–जिसका व्यक्तित्व हमारे पुराने समाज की ही भाँति गतिशील समय के संपर्क और आघात से बदलने को विवश है, बदलना नहीं चाहता, पर बदल रहा है। ऐसी गली कि जिसमें शरणार्थी घुस आए हैं, जिसमें बड़े अफसर मकान की तंगी के कारण अनिच्छापूर्वक रहने को विवश हैं; जिसमें एक दो क्लर्क कुछ द्वितीय महायुद्ध और कुछ स्वतंत्रता प्राप्ति के कारण उन्नति कर हेडक्लर्क अथवा बड़े अफसर हो गए हैं और अपनी मिट्टी से ऊपर उठने का प्रयास कर रहे हैं।

छोटी-सी बंद गली है। बीच का मकान हट जाए तो उधर की गली से मिल खुली हवा ही न पाए, वरन् अवरोध के मिटने से बाजार बन जाए। पर अभी तो उसी प्रकार तंग, संकीर्ण, अंधी, बरबस अपने जर्जर व्यक्तित्व से चिमटे ऐसे ऊँट की भाँति बैठी है जिसके बलबलाने की परवाह न कर लादने वाले सामान लादे जा रहे हों।

एकदम अँधेरे रंगमंच पर पर्दा उठता है। फिर रौशनी[1] कौल साहब के ड्राइंग रूम के बाएँ भाग को उजागर करती है, जिसमें तख्त भी है और कुर्सियाँ भी। प्रकट है कि मध्यवित्त के अधिकांश घरों की तरह इस कमरे से रात को सोने और दिन को बैठने का काम लिया जाता है। बाईं दीवार में बैठके में खुलनेवाला एक दरवाज़ा भी दिखाई देता है जिस पर पर्दा पड़ा है। सामने की दीवार के दाएँ कोने में एक दरवाजा है, जिसका पर्दा किवाड़ के ऊपर कर दिया गया है। कदाचित घर की मालकिन ने सफाई करते समय ऊपर कर दिया था और अभी गिराया नहीं गया। किवाड़ खुले हैं। बाहर गली में उतरने वाली सीढ़ियों का छोटा-सा जंगलेदार चबूतरा दिखाई देता है। उससे परे सामने के मकान का बरामदा नजर आता है।

कौल साहब कोट पहनते हुए अंदर से बकते-झकते आते हैं। दफ्तर जाने की जल्दी में हैं। पीछे-पीछे श्रीमती कौल हैं। अभी स्नानादि कर कपड़े नहीं बदल पाई। पति को तैयार करने में लगी रही हैं। अस्त-व्यस्त हैं। पर उस अस्त-व्यस्तता में भी पता चलता है कि कुछ शिक्षित अवश्य हैं संस्कृत हैं कि नहीं, यह कहना कठिन है क्योंकि संस्कृति का संबंध केवल शिक्षा से नहीं।]

कौल साहब(झल्लाए हुए स्वर में) तुम केवल जबान हिलाना जानती हो, पर यह सब आए कहाँ से?

श्रीमती कौल(उनसे भी अधिक झुँझलाए स्वर में) तो बच्चे को नंगे पाँव भेजो। तपती धूप में जलती हुई कोलतार की सड़कें। उसके सिर को गर्मी चढ़ गई तो बैठे रोयेंएँगे।

कौल(जो कोट पहन कर अँगीठी पर रखे हुए शीशे में देखकर बाल सँवार रहे हैं, मुड़कर) मैं कब कहता हूँ नंगे पाँव भेजो। पुराने की मरम्मत करा दो।

(फिर बाल बनाने लगते हैं)

श्रीमती काल(व्यंग से) अभी मरम्मत ही नहीं हुई। चार बार तला लगा चुका है।

कौल–तो फिर क्या हुआ। यह मेरा जूता देखती हो। छठी बार तला लगवाया है कल। और मुझे दस बार भी तला बदलवाना पड़े तो बदलवाऊँगा। नया जूता पच्चीस से कम में हाथ नहीं आता। और पच्चीस में भी वह पाता है, जिसके छै महीने में फूसड़े उड़ जाते हैं। जब तक ऊपर का चमड़ा ठीक है, तला लगवाने में क्या हर्ज है। नया नौ दिन, पुराना सौ दिन।

[बाल बना हैट खूँटी से उतार कर उसे ब्रश करते हैं]

श्रीमती कौल–पुराना सौ दिन की बात मैं खूब जानती हूँ। लेकिन पुराना तो हो। (विद्युत गति से जाकर बच्चे का जूता उठा लाती है और कौल की आँखों के आगे कर देती है) लो यह देखो! कहाँ इसमें तला लगवाओगे? है कहीं जगह सीने के लिए। तुम्हारे पास तो दो जूते हैं। फिर तुम बच्चे तो हो नहीं कि दिनभर खेलो-घू! बच्चे के जूते में चार बार तला लग गया, यही बहुत जान। मैं स्कूल में पढ़ती थी तो हर महीने जूता गुम कर देती थी।

[हाथ के जूतों को कोने में फेंक देती है]

कौल–तुम स्कूल में पढ़ती थी, जब गेहूँ रुपए का बारह सेर मिलता था और आज डेढ़ सेर भी मिल जाए तो बड़ी बात है। मैं अब ढाई सौ वेतन पाता हूँ। उस समय पाता तो डिप्टी की बेटी से शादी कर लेता।

श्रीमती कौल–नाच नचा देती डिप्टी की बेटी। मैं ही हूँ जो इस तंगी में गुजारा कर रही हूँ।

कौल(हैट सिर पर रखकर शीशे में देखते हैं और टाई की गिरह ठीक करते हैं) और तुम नाच नहीं नचाती हो क्या? जान तो मार रहा हूँ। सुबह उठता पीछे हूँ और नाच पहले शुरू हो जाता है। घंटा भर सेन के यहाँ टाईप करता हूँ, आठ घंटे दफ्तर में जान देता हूँ, दो घंटे शाम को ट्यूशन पढ़ाता हूँ। तीन साढ़े तीन सौ में भी तुम गुजारा नहीं चला सकतीं।

[कौल साहब बेजारी की एक ‘ऊँह’ करके चलने वाले होते हैं कि उनकी बड़ी लड़की पुष्पा अंदर से आती है–नवें दर्जे में पढ़ती है, आकर बाबू जी का कोट थाम लेती है।]

पुष्पा–बाबू जी, मुझे पाँच का एक नोट देते जाइएगा।

कौल(रुककर मुँह बा देते हैं) पाँच का नोट!

पुष्पा–मुझे ढाई रुपए की भूगोल की पुस्तक लेनी है और ढाई की तीन कापियाँ।

कौल(झुँझला कर) अभी परसों तुमने पाँच रुपए लिए थे।

पुष्पा–उसकी तो गणित की पुस्तक लाई थी। आप एक ही बार सब पुस्तकें ले दें तो मैं काहे को बार-बार माँगूँ!

कौल–अभी और कितनी पुस्तकें लेनी हैं, पचास रुपए तो मेरा ख्याल है मैं तुम्हें दे चुका हूँ। (जैसे हवा को सुनाकर) एक वह जमाना था कि एक पैसा न लगता था और दिल-दिमाग शिक्षा में रौशन हो जाते थे। एक यह वक्त है कि घर धुल जाता है और शिक्षा बच्चों के पास नहीं फटकती। भला कोई पूछे ये लड़कियाँ भूगोल पढ़कर करेंगी क्या? इन्हें सिंदबाद जहाजी[2] का अनुकरण कर दुनिया के गिर्द घूमना है, कि ध्रुव प्रदेश की खोज करनी है, कि कौसमिक किरणों का पता लगाना है। घर के भूगोल का ज्ञान नहीं और दुनिया के भूगोल के पीछे लठ लिए फिरती हैं।

पुष्पा(रुआँसी होकर) आप मुझे काहे को कोसते हैं बाबू जी, जो स्कूल में पढ़ाते हैं वही तो पढ़ती हूँ।

कौल–जानता हूँ जो पढ़ाते हैं स्कूल में। वह गुप्ता की साली पढ़ कर जो गुल खिला रही है…

[बाहर से बिंदा बाबू की आवाज आती है।]

बिंदा बाबू(बाहर से) कौल साहब! कौल साहब!!

[बिंदा बाबू सीढ़ियों पर चढ़ते हैं। धूप से चबूतरे पर उनकी छाया पड़ती है।]

कौल–आइए बिंदा बाबू! (पत्नी और लड़की से) अब चलो साँझ को ले देंगे जो कहोगी।

[बिंदा बाबू चबूतरे पर आ दरवाजे से झाँकते हैं। यद्यपि कौल से दो-चार ही वर्ष बड़े हैं पर मोटे थल-थल पिलपिल होने के कारण अधिक बड़े दिखाई देते हैं। चिंताओं का रोना रोते हुए भी मोटा होते रहना जानते हैं। दुनियादार हैं, चादर देखकर पाँव पसारते हैं बल्कि इस बात का ध्यान रखते हैं कि जहाँ एक पाँव का स्थान हो वहाँ दो से कम न पड़ें।

माँ-बेटी उनके आने से पहले ही खिसक जाती हैं।]

कौल–आइए, कहिए कैसे कृपा की?

बिंदा बाबू–अरे भाई सेर आध सेर चावल हो तो जरा दो। आज घर में चावल नहीं और राशन की दूकान बंद है।

कौल–तुम सेर आध सेर की बात करते हो, मेरे घर में तो एक दाना भी नहीं (हैट उतार कर फिर तख्त पर फेंक देते हैं।) राशन के चावल इस बार अच्छे न थे। खुली मार्केट में साठ-सत्तर रुपया मन खरीदने की हिम्मत नहीं। ससुराल से मेरा साला आया था। पाँच सेर चावल लाया था, सो वो भी मेरा ख्याल है दो दिन से खत्म है। घर में आज आलूवाली रोटी बनी है। बस यही सभी है। अब मठे का एक लोटा तुम दे दो तो नीचे उतर जाए।

बिंदा बाबू–मैंने तो गाय बेच दी। तुम्हें नहीं मालूम?

कौल–बेच दी? कब? क्यों?

बिंदा बाबू–अरे भाई, अब गाय-भैंस पालने का जमाना है? रुपए की साढ़े तीन सेर खली और पौने तीन सेर भूसी, तीन रोज में खत्म। और फिर खाली भूसी और खली से तो गाय-भैंस दूध देतीं नहीं–याने ऐसा दूध जिसमें कुछ तत्त्व भी हो, (हँसकर) जो पानी मिला कर लोगों को देने के बदले स्वयं पिया जा सके। अच्छा दूध दरकार हो तो डालिए बनौले, भढ़ या जौ! और जौ, तुम जानों, गरीबों को खाने तक को नहीं मिलता।

कौल–यह तुमने बुरी सुनाई। दूध तो हमारे बच्चों को कहाँ मयस्सर पर तुम्हारे घर से मठे का एक लोटा आ जाता था, उसी से बच्चे दो कौर निगल लेते थे।

[हताश भाव प्रदर्शित करते हुए तख्त पर बैठ जाते हैं।]

बिंदा बाबू–बच्चे मेरे नहीं क्या? उनका मुँह देखता तो गाय को विदा न करता। पर दूध के बिना काम चल जाता है, रोटी के बिना नहीं चलता। ये दो शरणार्थी किराएदार न बसा लेता तो इतनी देर भी गाय को न रख सकता। तुम ढाई सौ पाते हो, तुम्हारे दो बच्चे हैं; मैं दो सौ पाता हूँ और मेरे पाँच।

[इस शिकायत में चिंता नहीं, संतोष है। हिं-हिं कर हँसते हैं।]

कौल–लेकिन भाई तुम्हारी पत्नी सौ में जो कर सकती है, मेरी पाँच सौ में नहीं कर सकती। पढ़ी-लिखी बीवियों में यही तो ऐब है। वह सुघरता, वह मितव्ययिता, घर को सुचारु रूप से चलाने की वह क्षमता पढ़ी-लिखी बीवियों में कहाँ।

बिंदा(बढ़कर कुर्सी पर बैठ जाते हैं) अब बात यह है कि आदमी किसी तरह संतुष्ट नहीं होता। हम पढ़ी-लिखी बीवियों को रोते हैं, तुम अनपढ़ों को। तुम्हारी बीवी जिस तरह बच्चों को पढ़ाती-लिखाती है, मेरी पत्नी सात जन्म में ऐसा नहीं कर सकती। अपनी और मेरी बात छोड़ो। गली भर में देखो, पढ़ी-लिखी और अनपढ़ बीवियों का अंतर तुम्हें साफ नजर आ जाएगा। रही खर्च की बात! तो भाई तुम दुधार गाय बाँधोगे तो उसे सूखी घास पर तो नहीं टाल सकते। खली-बनौले तो उसे देने ही पड़ेंगे।

कौल–ये दुधार गाय की बात तुमने खूब कही।

(ठहाका मारता है)

बिंदा–और फिर मेरी बीवी कैसी भी सुघड़ क्यों न हो दो सौ को पाँच सौ तो नहीं बना सकती। कीमतें ही आसमान को छू रही हैं। तुम्हारी बीवी इसमें क्या करेगी। दो सिख शरणार्थी अगर कृपा कर इधर न चले आते और उन दो कोठरियों को महल न समझते जिनमें से एक में इंधन रहता था और एक स्नानगृह का काम देती थी, तो मेरे बच्चे भूखों मर जाते। अब गाय चली गई है तो सोचता हूँ गाय की कोठरी को साफ करा फर्श बनवा, कुछ लीपापोती करा के वहाँ भी कोई किरायेदार बसा दूँ। वह मैंने कहा न कि दूध के बिना काम चल सकता है पर रोटी के बिना नहीं चल सकता।

कौल(घड़ी को देखकर उठते हुए) अब वही देखो कि मेरा मकान तुम्हारे मकान से छोटा नहीं पर मैं एक भी किरायेदार नहीं बसा सका। तुमने तीन किरायेदार बसा रखे हैं और तुम्हारी बीवी इस प्रकार उनसे हिलीमिली है जैसे वे तुम्हारे भाई-बंधु हों, मैंने अपनी श्रीमती जी से कहा कि हम भी एक कमरा किराए पर चढ़ा दें। बोली मैं और सब कुछ कर सकती हूँ पर किसी के साथ एक मकान में नहीं रह सकती और तुम पढ़ी-लिखी बीवियों के गुण गाते हो।

(हैट पहनकर दरवाजे की ओर बढ़ते हैं)

बिंदा(उनके साथ उठकर चलते हुए) भाई यह संस्कारों की बात है। जो आदमी जैसे रहता आया है वैसा ही बन जाता है।

कौल–पर भाई मेरे, वह शिक्षा कैसी जो समय के साथ बदलना नहीं सिखाती।

[बाहर से कैप्टेन लीकू की बड़बड़ाहट सुनाई देती है।]

लीकू–द होल ब्लडी प्लेस इस ए स्टिकिंग होल।

बिंदा(दरवाजे के बराबर पहुँच कर हँसते हुए) क्यों कैप्टन साहब, किस पर खफा हो रहे हैं।

लीकू(बाहर से) देखिए साहब। दस बजने को आए हैं और भंगी का अभी कहीं पता नहीं। नालियाँ सड़ रही हैं। हम तो जैसे जन्नत में बैठे-बैठे जहन्नुम में आ गए। इतना अच्छा बंगला था बनारस में, इतना खुला और इतनी अच्छी जगह कि यहाँ बदली हो गई। तीन महीने के बाद मकान भी मिला तो इस अंधी गली में।

[चबूतरे पर आ चढ़ते हैं। कैप्टन लीकू पी. आर. डी. में पब्लिक रिलेशन अफसर थे तो वर्दी भी पहनते थे और सितारे भी लगाते थे। इस समय तो वे सिल्क की कमीज और पतलून पहने हैं और स्वर की ऐंठ के सिवा कप्तानी के जमाने की कोई बात उनमें नहीं। चालीस-पैंतालीस की वयस है। एंपलायमेंट एक्सचेंज में बड़े अफसर हैं। मोटर है पर वह गली के बाहर काफी दूर एक गैराज में रहती है। गली में कभी-कभी नालियों के बंद होने से जो पानी रास्ते में बह उठता है, उससे कैप्टन साहब बड़े परेशान हैं। मोटर में बैठे हों तो उस गंदे पानी की उन्हें चिंता नहीं, सर्र-सर्र उस पर से गुजर जाएँ। पर पतलून को बचाते हुए, एड़ियाँ उठाकर गली की उस बहती नदी में द्वीप खोज-खोज कर चलते हैं और म्यूनिसिपैलिटी के साथ भंगी, भिश्ती और किराएदारों को बीस-बीस कोसते हैं।]

कौल–लेकिन आपका मकान तो इतना बड़ा और खुला है, दोनों ओर बारजे हैं, बिजली के पंखे लगे हुए हैं। अब जरा हमारा मकान देखिए।

लीकू–मकान का क्या करें। आप गली देखिए, पहले क्या कम गंदी थी कि आप लोगों ने दो कम्बख्त पंजाबी किराएदार बसा लिए। जो हाथ में आता है, नीचे फेंक देते हैं–फलों के छिलके, सिरों के बाल, बच्चों के पोतड़े। नागरिकता का किसी को रंचमात्र भी ज्ञान नहीं। आइ एम नॉट यूज़्ड टू सी आल दिस स्टिंक।

कौल–घीरे-धीरे हो जाएँगे कैप्टन साहब, धीरे-धीरे हो जाएँगे। हम भी पहले ऐसे ही थे।

लीकू–नो-नो, नो-नो, मैं अभी जाकर हेल्थ ऑफिसर को फोन करता हूँ। या मैं इस गली को ठीक कराऊँगा या इस गली को छोड़ दूँगा।

(ऐंठ कर चला जाता है।)

कौल(चबूतरे पर जाकर) गली तो ठीक होगी नहीं आपको ही मकान छोड़ना पड़ेगा। मकान छोड़ें तो हमें न बिसार दीजिएगा। जन्म भर आपके आभारी रहेंगे। हमारा मकान मालिक से झगड़ा चल रहा है और हमें मकान की बड़ी जरूरत है। (आते हुए डाकिए को आवाज देकर) क्यों भई डाकिए, कोई हमारा भी खत है?

डाकिया(बाहर से) आप ही का ला रहा हूँ साहब (सिढ़ी पर आकर पत्र बढ़ाता है) ये लीजिए।

कौल–लाओ (खत लेकर फाड़ता है और पढ़ता है) हूँ…हूँ…।

बिंदा–अच्छा भाई तो चलता हूँ, कहीं से चावलों की व्यवस्था करूँ।

(चलता है)

कौल(जिसके स्वर में टालने का भाव पत्र को पढ़ते ही बदल जाता है) मैं अभी पूछ कर तुम्हें जवाब देता हूँ, सेर आध सेर शायद निकल आवें। हमारे घर में तो आज आलुओं की रोटी बनी है।

(बिंदा बाबू चले जाते हैं। कौल अंदर की ओर मुड़ते हैं)

कौल(पत्नी से) अरे भाई सुनती हो। एक और मुसीबत आती दिखाई देती है।

श्रीमती कौल(अंदर के कमरे से) क्या बात है?

कौल–ये त्रिपाठी का खत आया है?

श्रीमती कौल(आते हुए) त्रिपाठी! कौन त्रिपाठी?

कौल–अरे भाई वही त्रिपाठी जिसके पास मैं लाहौर जाकर रहता था। तुम उसे नहीं जानती पर वह मेरा पुराना मित्र है। यूनिवर्सिटी में हम इकट्ठे रहा करते थे। लाहौर में निस्बत रोड पर साइकिलों की दूकान थी उसकी। बँटवारे की लपेट में वह भी आ गया।

श्रीमती कौल–कितने दिन को आ रहे हैं?

कौल–यह तो मैं नहीं कह सकता। लिखता है कि दिल्ली में जगह की बड़ी दिक्कत है। पूछा है कि यहाँ कैसा स्कोप है। छोटा-मोटा मकान चाहता है। जब तक मकान न मिलेगा यहीं रहेगा। इलाहाबाद में बसने का इरादा है उसका।

श्रीमती कौल–मैं आपसे पहले कह चुकी हूँ कि घर किराएदार न रखूँगी।

कौल–तुम पागल हो। मैं उससे किराया लूँगा। जब-जब लाहौर दौरे पर गया हूँ, सदा उसी के यहाँ ठहरा हूँ।

श्रीमती कौल–तब तो और भी मुश्किल है। अकेले आ रहे हैं या…

कौल–बीवी-बच्चे साथ ही होंगे। जब दिल्ली में जगह ही नहीं तो कहाँ छोड़ जाएँगे उन्हें।

[हैट उतार कर फिर फेंक देते हैं और सिर खुजलाने लगते हैं]

श्रीमती कौल–मैं तो किसी अनजाने के साथ चार दिन भी नहीं रह सकती।

कौल–अनजाना! वह मेरा पुरना मित्र है।

श्रीमती कौल–वह सब ठीक है। मर्दों की और बात है। स्त्रियों में चार दिन नहीं निभ सकती। और फिर पंजाबी स्त्रियाँ! मेरी तो उनसे रूह काँपती है। अपनी गली में ही देख लो ना, ऐसी रहती हैं जैसे सारी गली उनकी ही हो।

कौल–पर भई वे पंजाबी नहीं। वे तो यही प्रतापगढ़ के रहनेवाले हैं।

श्रीमती कौल–बीस वर्ष से पंजाब में रह रहे हैं और पंजाबी नहीं। आग लेने आएँगे और घर के मालिक बन बैठेंगे।

कौल(सिर कुरेदकर) मैं स्वयं बड़ा परेशान हूँ। अभी एक पत्र लिखता हूँ कि भाई हम तो मकान छोड़ रहे हैं, मकान मालिक ने नोटिस दे रखा है। बीवी-बच्चों को भेज रहा हूँ। जाने कहाँ सिर छिपाना पड़े। तुम उस समय तक न आओ जबतक मैं न लिखूँ। मकान की यहाँ भी बड़ी दिक्कत है। (पत्नी से) कहीं आ गया तो तुम्हें जाना पड़ेगा।

श्रीमती कौल–मैं बच्चों को लेकर कहाँ जा सकती हूँ?

कौल–अरे भई अभी जाने की जरूरत नहीं। मैं तो उसे केवल पत्र लिख रहा हूँ। ऐसा खत लिखूँगा कि पढ़कर वह आने का साहस ही न करे। वह तो इसलिए कहा कि यदि वह आ गया!

श्रीमती कौल–हाँ, यदि वह आ गए तो…

कौल(स्वयं ही अपने को तसल्ली देते हुए) आएगा भी तो तार देगा। उसने यही लिखा है। उस स्थिति में तुम्हें बच्चों को लेकर कुछ दिन पीहर जाना पड़ेगा।

श्रीमती कौल–पर तुम्हारे खाने-पीने का क्या रहेगा? नौकर तो कम्बख्त भाग गया।

कौल–मेरी तुम चिंता न करो। बिंदा बाबू के यहाँ खा लूँगा…मैंने कहा बिंदा बाबू सेर आध सेर चावल माँग रहे हैं।

श्रीमती कौल–चावल कहाँ है? वही थोड़े पड़े हैं जो मोहन लाया था।

कौल(जरा धीमे स्वर में) बात यह है, कहीं सचमुच त्रिपाठी आ गया तो तुम्हें जाना पड़ेगा और मुझे जाने कितने दिन बिंदा बाबू के घर खाना पड़े।

(बाहर से बिंदा बाबू की आवाज आती है)

बिंदा बाबू(बाहर से) कौल साहब…कौल-साहब।

कौल–तुम जाकर चावल निकाल दो।

[श्रीमती कौल जाती हैं। कौल पलट कर बाहर के दरवाजे पर आते हैं]

कौल(हिं-हिं-हिं-हिं हँसते हुए) भई चावल कुछ तो निकल आए हैं। वह मेरी बीवी जरा चुन रही है उन्हें। देहात से आए हैं। कहीं-कहीं धान का छींटा है उनमें।

बिंदा–अरे वाह! जीते रहो। मेरी पत्नी ही चुन लेती। काहे तुमने कष्ट दिया भाभी को। यह तुम्हारा तार आया है।

[बिंदा सीढ़ियों की ओर से आए चबूतरे पर चढ़ जाते हैं और कौल को तार देते हैं]

कौल(तार लेते हुए) अरे भई, यही तो मेरी बीवी की सनक है कि जो चीज हो साफ हो। (नीचे खड़े डाकिए से) लाओ कहाँ हस्ताक्षर करने हैं।

डाकिया(दरवाजे में आकर) यहाँ नंबर होगा।

कौल–हूँ…(तार पर हस्ताक्षर करके लौटाते हुए) लो भाई

(तार फाड़ता है)

डाकिया–सलाम हुजूर (चला जाता है)

बिंदा(अंदर आते हुए) क्या खैरियत है?

कौल–हाँ। मेरे साले का तार है। ससुर साहब की तबियत खराब है। शायद श्रीमती जी को लखनऊ जाना पड़े। तुम दो मिनट बैठो। मैं अभी लाता हूँ चावल।

बिंदा–तुम मेरे घर ही पहुँचा देना। सुबह से मैंने दाढ़ी तक नहीं बनाई और दफ्तर का टाइम हो गया है।

कौल–हाँ, हाँ चलो मैं आता हूँ। (बिंदा चबूतरे से कूद जाते हैं, कौल तेज-तेज अंदर को मुड़ते हैं। पत्नी से जो अंदर के दरवाजे में खड़ी है) यह मुसीबत तो आ पहुँची। त्रिपाठी का तार आया है कि वह कल रात की गाड़ी से आ रहा है। लाओ यह चावल मुझे दो और चलने की तैयारी करो।

श्रीमती कौल–तुम यदि त्रिपाठी के बहाने मुझे पीहर भेजना चाहते हो तो याद रखो कि मैं सात दिन से अधिक वहाँ नहीं टिकने की। अभी दो महीने वहाँ रह कर आई हूँ।

कौल–सात दिन! अरे तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं चार दिन में उसे चलता करूँगा। कसम तुम्हारी मुझे क्या मुसीबत पड़ी है बैठे-बैठाए बला मोल लेने की। यह कोई जमाना है मेहमान पालने का। जाने के लिए तो मैं इसलिए कहता हूँ कि तुम्हारी अनुपस्थिति में दस बहाना बना सकता हूँ।

श्रीमती कौल(चावल की थैली देती हुई) मैं फिर बता देती हूँ कि मैं हफ्ते से ज्यादा वहाँ न रहूँगी।

कौल(वापस मुड़ते हुए) हाँ, हाँ…हाँ। मैं बिंदा बाबू को चावल देकर दफ्तर जाते हुए तुम्हारे भाई को तार देता हूँ कि तुम आ रही हो। तुम तब तक तैयारी कर लो। गाड़ी साढ़े छह बजे जाती है।

[दरवाजे के बाहर चबूतरे पर जाकर बिंदा बाबू, बिंदा बाबू आवाज देते हैं। वे सीढ़ियाँ उतर रहे हैं जब रोशनी मद्धिम होती हुई बुझ जाती है]


संदर्भ

[1] रौशनी नाटक भर में पात्रों पर रहती है और उनकी गतिविधि का ब्योरा दर्शकों को देती रहती है।

[2] अलिफ लैला का एक पर्यटक।