श्री ‘अंचल’ का उपन्यास-साहित्य

श्री ‘अंचल’ का उपन्यास-साहित्य

सौंदर्य, प्रेम और प्रगति के कवि अंचल (रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’) के उपन्यासों में भी साम्यवादी चेतना का प्रकटीकरण है। अब तक ‘चढ़ती धूप’, ‘नई इमारत’, ‘उल्का’, ‘मरु प्रदीप’ इनके ये चार उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। समाजवादी संस्कृति के आदर्श में विश्वासी अंचल जी का अभिमत है–“आर्थिक विषमता और श्रेणीजन्य शोषण और परमुखापेक्षिता तो नष्ट करना ही है, साथ-ही-साथ मनुष्य के मन को अज्ञान, अवसाद, मोह, मत्सर, कुसंस्कार और जड़ रूढ़ियों के दायरे से भी निकालना है। इसीलिए मैंने समाजवादी आदर्श को अपनाया है। समाजवादी आदर्श का प्रयोग यहाँ मैं राजनैतिक अर्थ में नहीं कर रहा हूँ वरन् आगे आनेवाली व्यापक लोक-संस्कृति के अर्थ में कर रहा हूँ। जहाँ तक प्रेम का संबंध है या नर-नारी के पारस्परिक संबंध की बात है वहाँ तक मैं प्रेम को अपरिवर्तनशील मानता हूँ। मेरी समझ में नहीं आता कि जो लोग प्रेमिका के मरने पर विरह-काव्यों का सृजन करते हैं वे कैसे साल-दो-साल बाद ही नए सिरे से प्रेम करना आरंभ कर देते हैं। मैंने अपनी कविता में जीवन के उस सर्वस्व-समर्पणशील मूलस्वर को उतारने की चेष्टा की है जो भक्ति और प्रेम का सौदा नहीं करता, जिसके भीतर अर्चना के मूल आधार बदलते नहीं और जिसका सूत्र जीवन के उस पार तक चलता है।”

अंचल और यशपाल दोनों में ही नारी चरित्र तथा उसकी समस्या की प्रमुखता है। परंतु यशपाल की नारी जहाँ आर्थिक और व्यावहारिक दृष्टि से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सचेष्ट दीखती है, उस क्रम में शारीरिक पवित्रता का मूल्य नहीं स्वीकार करती वहाँ अंचल के उपन्यासों की नारी अधिक भावुक, संवेदनशील तथा आर्थिक स्वतंत्रता से ऊपर पवित्रता के लिए सचेष्ट दीख पड़ती है। अंचल की नारी रूढ़ि की परंपरागत धारणा से मुक्त परंतु शुभ्र और शालीन है, मर्यादा का तेज उसमें है।

अंचल ने अपने सभी उपन्यासों में मूल रूप से मध्यवर्गी समाज से संबंधित कथानक को प्रस्तुत किया है। उनके सुख-दुख, सामाजिक-वैयक्तिक समस्या, उनकी मन:स्थिति और चिंतन की दिशा यथार्थ रूप में उपस्थित है। यशपाल का क्षेत्र बड़ा है। वे मध्यवर्ग से मुख्य पात्र का नियोजन कर मजदूरों को नहीं छोड़ पाते हैं। इसके साथ ही वैयक्तिकता की प्रबलता जितनी अंचल की कृतियों में है उतनी यशपाल में नहीं।

यशपाल की विचारधारा भारतीय संस्कृति से मेल नहीं खाती है। परंतु, अंचल परंपरागत संस्कार और रूढ़ियों तथा समाज में व्याप्त विकृतियों का एक प्रगतिशील साहित्यकार की तरह उन्मूलन स्वीकार कर भी अभारतीय नहीं बनते। उनके साहित्य में भारतीय निष्ठा, नैतिक दृढ़ता, आचरण शुद्धता, प्रेम की पवित्रता, चारित्रिक शुभ्रता है, भारतीय संस्कृति का परिष्कृत और शुद्ध रूप उपलब्ध होता है। ‘उल्का’ एक सशक्त प्रगतिशील कृति है जिसमें मंजरी के माध्यम से भारतीय मध्यवर्गी परिवार में पत्नी पर पुरुष के अत्याचार और अधिकार, पूँजी-प्राप्ति की लोलुप दृष्टि और भारतीय सामाजिक विकृतियों को यथार्थ ढंग से प्रस्तुत करते हुए लेखक ने नारी को स्वतंत्रता की साँस से दृढ़ बनाते हुए भारतीय निष्ठा, पवित्रता और नैतिकता को महत्त्वजनीन स्वीकृत कर उसका (मंजरी को) इस दिशा में सफल अभियान कराया है। मंजरी, प्रकाश, किशोर, चाँद सभी का चरित्र काफी सफल रहा है। परंतु अंचल की नायिका प्राय: असाधारण व्यक्तित्व रखती है। उसके व्यक्तित्व की दृढ़ता का उज्ज्वल प्रकाश चतुर्दिक विकीर्ण होता रहता है। मंजरी का चरित्र भी उसी के अनुरूप है जिसमें नैतिक आत्मबल है, निष्ठा और सच्चरित्रता है। वह अत्याचारी पति और ससुराल से मुक्त होकर भी अपनी वासना की उच्छृंखलता में न बहकर, संयमित बनी रह नई राह का निर्माण करती है। यशपाल की नारी जहाँ वासना की व्यग्रता में विद्रोह करने के पश्चात भारतीय नैतिकता और नारी चरित्र की महिमा विघटित कर देती है वहाँ अंचल की नारी अत्याचार से मुक्त होकर भी अपना मर्यादित रूप प्रस्तुत कर पाठकों से सहानुभूति प्राप्त कर लेती है, भारतीय नारी चरित्र की उज्ज्वलता में धब्बा नहीं लगने देती है। मंजरी को सबसे सफल उदाहरण माना जा सकता है। तभी प्रकाश जैसे चरित्र उसे बहन रूप में स्वीकार कर सुख अनुभव करते हैं। अत्याचार की सीमा का अतिक्रमण होते ही मंजरी विद्रोह कर उठती है, परंतु नवीनता के नाम पर, नारी-स्वतंत्रता के नाम पर, जो क्लबों में नाचती-गाती है–बड़े-बड़े भाषण देती है, वैसी नहीं (पृष्ट 183, उल्का) बनती। परंतु यशपाल के नारी पात्रों के सदृश अंचल की नारी किसी-न-किसी रूप में अत्याचार के प्रतिकार के लिए संघर्ष (अंतर्बाह्य) अवश्य करती हैं। इसलिए तो प्रकाश स्पष्ट शब्दों में कहते हैं–“अपने अधिकारों और जन्म-सिद्ध सुविधाओं के लिए लड़ना जीवन की कला है। जो लड़ता नहीं–केवल सहता है वह स्थूल स्वार्थों को भले साध लेता हो पर व्यापक मानवी वृत्तियों और लक्षणों का तिरस्कार करता है।” (पृष्ठ 167, उल्का) प्रेम का स्वस्थ रूप उनमें है। अंचल के साधारण से साधारण पात्र की भाषा भी काव्यात्मक होती है जिस प्रकार हम प्रसाद के नाटकों में पाते हैं। एक उदाहरण देखें–वृद्धा माँ भी बोलती है–“तू तो पुण्य के सौरभ-सार से झुकी जा रही है। उल्लासपूर्ण शारदी ज्योत्सना जैसी पावन-निर्विकार है तू–केशर के खेत जैसी पुण्यमयी।” (पृष्ट 230, उल्का)।

‘नई इमारत’ 1942 की अगस्त क्रांति पर आधारित धर्म और जाति की संकीर्णता पर प्रहार कर ऊर्ध्वमुखी मानवतावादी चेतना को समादृत करने वाला उपन्यास है। यह कालिदास कृत ‘अभिज्ञान शकुन्तलम’ की तरह प्रेम और कर्त्तव्य के बीच संघर्ष और उसके संतुलन को प्रतिष्ठित करनेवाला है। निश्चय ही यह उपन्यास एक साथ यथार्थवादी और रोमानी है। चरित्र की दृष्टि से महमूद, शमीम, बलराज और शीला काफी सक्रिय होकर सुंदर बन पड़े हैं। उनमें शक्ति, संयम, साहस और आदर्श की शुभ्रता है।

प्रगतिशील कलाकार के अनुरूप लेखक ने धार्मिक और जातीय संकीर्णता की व्यर्थता पर प्रहार करते हुए लिखा है–“धर्म ने अब तक बराबर पूँजीवाद और सामाजिक अगति की शक्तियों का साथ दिया है।” (पृष्ठ 134) इसीलिए तो आरती के पिता महमूद का दुश्मन बन जाने में अपने मान और शान की रक्षा का अनुभव करते हैं, परंतु सहर्ष पुत्री का हाथ मुसलमान युवक के हाथ में देना किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं करते। महमूद और आरती इंकलाब का शंख फूँकते हुए प्रगति-पथ में अग्रसर हो जाते हैं। परंतु इसके लिए दृढ़ता, आत्मनिष्ठा, अंत:करण की शुद्धता की अपेक्षा होती है, वासना का उभार महत्त्वहीन सिद्ध होता है। यशपाल के चरित्र वासना की उत्तेजना और उच्छृंखलता के कारण प्राय: कष्ट भोगते असफलता को अंगीकार करते हैं, उनका अंत दुखद होता है। परंतु अंचल प्रगतिशील दृष्टि रख सतीत्व की रक्षा कर पात्रों को सफलता के शिखर पर पहुँचा देते हैं। उनकी नारियाँ नारीत्व को उतार फेंकने को उतावली नहीं होतीं। उनमें प्रेम और कर्त्तव्य का संतुलन रहता है, नारी और पुरुष का एकनिष्ठ प्रेम अपना मर्यादित रूप रखता है। ‘नई इमारत’ में भारतीय राष्ट्रीयता भी अपने महत्त्व के साथ सुरक्षित है। तभी तो महमूद कहता है–“हमें एक दूसरे से बढ़कर मुल्क प्यारा है।” (पृष्ठ 422) प्रसंगवश 1942 के आंदोलन का साम्यवादी पार्टी द्वारा विरोध और अपने पक्ष में वही पुरानी, अंतर्राष्ट्रीयतावाद की दुहाई भी चित्रित है जिसके कारण साम्यवादी देशद्रोही भी कहे जाते थे। यशपाल ने ‘देशद्रोही’ में इसी लांछना को उपयुक्त एवं पुराने तर्क-जल से धो डालने का प्रयत्न किया है।

अंचल के इस उपन्यास में भी लंबे-लंबे विस्तृत वार्तालाप, जो पार्टी की नीति पर प्रकाश डालने वाले हैं, यत्र-तत्र कथा की रोचकता को थोड़ा मंथर कर देते हैं, वेग की शक्ति को कम कर देते हैं। लीला, आरती, ज़यराज के वाद-विवाद आदि को देखें जो आवश्यकता से अधिक बड़े हो गए हैं। लेखक ने साम्यवाद को ‘वैज्ञानिक क्रांतिवाद का प्रतीक’ (पृष्ठ 176, नई इमारत) माना है।

महमूद का, पिता तुल्य आरती के पिता को, “बूढ़ा” शब्द से अभिहित कर अनादर-सूचक भाव प्रदर्शित करना खटकता है। उतने बड़े दायित्व को लेकर चलने वाले महमूद के मुख से निकला यह शब्द उचित नहीं प्रतीत होता है।

आलोच्य उपन्यास में सर्वत्र काव्यात्मक भाषा का प्रयोग है जो अंचल जी की अपनी शैली की विशेषता है। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ देखें–“वह हँसी हँसो मेरी मल्का जो चाँद को देखकर कुमुदिनी हँसती है, जो फ़स्ले बहार को पहली बार देखकर अंदलीव हँसता है, जो शमा को देखकर परवाना हँसता है, जो बादल को देखकर रूखा-प्यासा खेत हँसता है। वह हँसी जो शबाब को देखकर शबाब और हुबाब को देखकर हुबाब–लहर को देखकर लहर, गुल को देखकर गुल हँसता है। जिस हँसी के पागल कर देने वाले प्रवाह में मैयरस्त चमन पूनम की भरी-पूरी चाँदनी में डूबने-उतराने लगता है।” (पृष्ठ 43, नई इमारत) लेखक की पंक्ति-पंक्ति में यह झलक मिल जाती है।

यद्यपि अंचल की भाषा परिमार्जित, साहित्यिक तथा संस्कृतनिष्ठ होती है तथापि इसमें मुसलमानी परिवार से कथावस्तु के संबंधित होने से उन्होंने उर्दू शब्दों का भी नि:संकोच प्रयोग किया है–“तुम्हारी उम्र मेरी दुगनी होनी चाहिए। तुम मुझसे शिक्षा, अनुभव, खूबसूरती और नेकनीयती सब में दुगनी हो। दुनिया के तजुरबे, जिंदगी की उलट-फेर और गुलाम जहनियत से पस्त समाजी संगदिली और कड़ुआहट मुझसे दूनी झेली है तुमने।” (पृष्ठ 5)

‘मरु प्रदीप’ मध्यवर्गी परिवार के संस्कार में पली शांति के माध्यम से विधवा की समस्या और उसके इर्द-गिर्द उदित होनेवाली क्रिया-प्रतिक्रिया को उपस्थित करने वाला उपन्यास है। प्रेम के आकर्षण, संयम आदि के मध्य मनोवैज्ञानिक द्वंद्व इसकी मुख्य आधारशिला है। विमल, जो ‘प्रेम, सृजन और सौख्य’ में विश्वास करनेवाला चरित्र है (पृष्ठ 38 देखें), खुले शब्दों में विधवा की कुंठा, और यौवन पुष्प को शिला के अंदर दबा कर सुखा देनेवाली रूढ़ियों से त्रस्त प्रवृत्ति का विरोध करता है–“जब मैं प्रेम, सृजन और सौख्य में विश्वास करता हूँ तब कैसे अक्षय विधवापन को मानूँ। मुक्ति का विश्वासी मैं कैसे बंधनों को जानूँ?–इससे इतर किसी ऊर्ध्वलोक में जीवन की सार्थकता है इस प्रकार के अर्थहीन असामाजिक संस्कारों को लेकर स्वप्नचारी लोग रह सकते हैं–हाड़-मांस की ममत्वमुखी वत्सल तृष्णा के अनुगत मानव नहीं।” (पृष्ठ 38-39, मरुप्रदीप)। एक ओर रुढ़ियों से ग्रस्त चाची शांति को वैधव्य की ज्वाला में जीवन की स्वाभाविकता को जला देने के लिए उपदेश करती रहती है, दूसरी ओर प्रगतिशील विचारों का समर्थक विमल उसे उस अस्वाभाविकता के दलदल से निकालकर जीवन की मुक्त साँस लेने को प्रेरित करता रहता है और इन्हीं राग-विराग, प्रगति और परंपरा के मध्य उत्पीड़ित शांति अपने मरु जीवन में विमल को प्रदीप की तरह स्वीकार कर जीवित रहने का प्रयत्न करती है परंतु जब उस दीप की रोशनी से वह वंचित की जाने लगती है तो वह भावुकता के प्रवाह में अपने समर्पण की लाश बहा देती है। इसको विमल मानवतावाद की दुहाई देता कहता है–“नियति ने तुम्हें चिरंतन विराम-चिह्न बना रखा है। तुम गति का गौरव और गर्जन लेकर उठो। तुम सत्य से प्यार करो। तुम्हें स्वयं मालूम होगा मानव से बड़ा कोई सत्य नहीं। प्यार स्वत: अपने विध्य की व्यापकता बता देता है। तुम प्यार तो करो। जीवन की रक्षा और पोषण के लिए आनंद की अनिवार्यता सर्वस्वीकृत है। उसका उल्लंघन न करो।” (पृष्ठ 125, मरु प्रदीप) यशपाल ने भी नारी जीवन के इस पक्ष का समर्थन किया है। कमल (मरु प्रदीप) भी तो इस सत्य का समर्थन करता सौंदर्य, प्रेम पर संयम की लगाम कसने वाली विमला से कहता है–“रक्त के बिंदु-बिंदु में संचरण करने वाली इस अग्नि-मदिरा को लोग पाप कहते हैं। कलुष का कीचड़, वासना का कर्दम; न जाने किस-किस नाम से इसे पुकारते हैं। इस स्वर्गीय उत्तेजना को पाप कहना कितना बड़ा-पाप है। वे यदि जान पाते तो देवत्व का झूठा उपहास न किया करते। मैं पूछता हूँ, इससे सत्य प्रत्यक्ष कल्याण कहाँ पाया जा सकता है? जीवन का इससे शीतल विराम स्थल और कहाँ है?–मरघट में बसंत-बयार क्यों चलती है? ऊसर में पावस क्यों उमड़ता है? उजड़े से उजड़े जीवन में भी सपनों की साकारता क्यों आती है? यह सृजन की प्रेरणा है–परिपूर्ति का क्रम है–भविष्य की चिरनवीनता का इतिवृत्त है। इसी लालसा में–इसी प्रेरणा में लाखों-करोड़ों के आगामी जीवन निहित रहते हैं। शक्ति का रूपीकरण है यह। इससे तुम छूट नहीं सकती। कोई नहीं छूट सकता। मरने के बाद भी मानव इससे नहीं छूटता। इसी विराट सत्य से संपूर्ण भव बँधा है। इसी शक्ति से नदियाँ बनती हैं–पृथ्वी अंकुरिता होती है–मिट्टी से कोंपल फूटते हैं–आकाश में तारे उगते हैं। सृष्टि की अबाधता का रहस्य है यह। इसके बिना मानव के स्वरूप का रहस्य अपरिस्फुट रह जाता है–इसके केंद्र के चारों ओर घूमने वाली यथार्थता छिपि रह जाती है। नारी का नारीत्व–पुरुष का पुरुषत्व इसके बिना झूठा है।”–(पृष्ठ 212-213) और “संयम के नाम पर जीवन की अकर्मण्यता कब तक टिकेगी? यह वासना का कलुष नहीं, जीवन का प्रवाह है।” (पृष्ठ 227) परंतु शांति मरु प्रदीप की तरह पवित्र, ज्योतिर्मयी बनी रहती है, एक राह दिखाती है। जीवन की इस स्वाभाविकता का समर्थन करते हुए भी अंचल ‘पति-पत्नी के एकनिष्ठ प्रेम’ (पृष्ठ 29) के कायल हैं, समर्थक हैं।

अंचल जी ने अपने पात्र के मुख से साम्यवादी देश रूस का समर्थन किया है, उसकी प्रशंसा की है–“एक आदर्शभूमि है वह–जीवित और जीवनप्रद।” (पृष्ठ 51)

परंतु ‘मरु प्रदीप’ में भी सर्वत्र लंबे-लंबे वार्तालाप ही वार्तालाप हैं। क्रिया-कलापों, मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया-प्रतिक्रिया की ओर लेखक का ध्यान नहीं रहा है जिससे मात्र भावुकता तथा विचारों के बोझ से कथा के लघु तंतु दबकर शिथिल हो गए हैं। साथ ही विमल की पत्नी का भी स्वाभाविक चित्रण नहीं हो पाया है। एक सामान्य मध्यवर्गी परिवार की नारी किस प्रकार एकांत में शांति और अपने पति विमल को घंटों बातें करते रहने, एक दूसरे के प्रति अधिक विश्वास और झुकाव रहने, एक विधवा पर सुंदरी आकर्षणमयी शांति को सदैव विमल के सान्निध्य में रखने की मन:स्थिति देखकर भी मौन रह सकती, अपनी संपत्ति के लूट लिए जाने की शंका से ग्रस्त नहीं होती? पुन: अपनी अज्ञानता, अपनी बुद्धि अपने परिवार का विमल द्वारा उपहास करने पर उसका आक्रोशहीन रहना भी स्वाभाविकता के प्रतिकूल है–इसमें नारी चरित्र की स्वाभाविकता नहीं है। इसके अतिरिक्त संपूर्ण कथावस्तु पर काव्यात्मकता, कवित्वपूर्ण कल्पना का कुहासा इस प्रकार घने रूप में छाया रहता है कि जिससे कथावस्तु की रोचकता घट गई है।

अंचल जी के सभी उपन्यासों की भाषा देखने से स्पष्ट रूप से लगता है जैसे एक कवि लिख रहा हो।
‘मरु प्रदीप’ में निश्चय ही मध्यवर्गी चरित्र के बौद्धिक विकास के अनुरूप वार्तालाप रखे गए हैं। उदाहरण देखें–“दुनिया में पढ़ा सब कुछ जा सकता है पर उस गहरी अनुभूति को नहीं जो जीवन की सर्वग्राही विदग्धता का अभिशाप बनकर आता है। उस संपूर्ण भावैक्य को–उस आत्मांतिक एकत्व को नहीं पढ़ा जा सकता…। जो प्रतिक्षण अपने को बढ़ते हुए संशय की दृष्टि से देखता है जो शक्ति का बीज मात्र बनी रहकर फड़फड़ाया करती है–जिसे अंकुरित होने की इजाजत नहीं है उस तीक्ष्ण आकर्षण की विह्वलता को कौन समझ पाया है आज तक?”–(पृष्ठ 23)

‘चढ़ती धूप’ प्रभावपूर्ण कृति है। इसका अंत–नायक का समग्र गतिरोधों के अंधकार से ऊपर उठना–पाठक के मन पर प्रभाव डालता है। आलोच्य कृति में साम्यवाद के अनेक पक्षों पर भी विशद रूप से प्रकाश डाला गया है। इसे मैं अंचल जी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सफल रचना मानता हूँ।


Image: Gujjari-Ragini
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