स्त्री-उत्थान की गाथा

स्त्री-उत्थान की गाथा

गाँव की पगडंडी से मुंबई, कोलकाता और पटना के राजमार्गों तक सफर करने वाले लेखक का नाता आज भी गाँव की पगडंडियों से यथावत् है और इनकी प्रतिबद्धता किसी विचारधारा से न होकर अपने समय से और समय के जीवन से होता है। प्रतिबद्ध लेखक अंधे की तरह लकड़ी लेकर अँधेरे में अपने अकेले के लिए रास्ता नहीं टटोलता, अँधेरे और आतंक को पैदा करने वाली शक्तियों के साथ लड़ जाना चाहता है। विशुद्धानंद की रचनाशीलता का प्राण-तत्व भी यही है। गाँव की माटी की सुगंध इनकी रचनाओं में मिलती है।

विशुद्धानंद की ‘माथे माटी चंदन’ जो भोजपुरी भाषा में तेरह कड़ियों की नाट्य धारावाहिक पुस्तक है, पूर्णतः ग्रामीण क्षेत्र में आतीं समस्याओं के समाधान की प्रेरणा देती है। इस नाटक के केंद्र में नई नवेली दुल्हन सुरसतिया है, जो गोबर (गोवर्द्धन) की पत्नी और सूपन तथा दुखिया की पुतोहू बनकर अपने ससुराल बखोरन टोला गाँव आती है, जिसका निवास एक मड़ई है। बेहद गरीबी के मार्ग से गुजरता हुआ उसका परिवार है और समाज भी अशिक्षा, रूढ़ि, कुरीति एवं अंधविश्वास में सराबोर है। सौभाग्य से सुरसतिया मैट्रिक तक पढ़-लिख पाई है। गरीबी के प्रांगण में पैदा सुरसतिया जैसी लड़कियों की शिक्षा आज भी आकाश कुसुम जैसी ही है। इस मामले में सुरसतिया भाग्यशाली होकर भी आर्थिक तंगी के चलते अनपढ़ मजदूर गोबर की पत्नी बनकर बखोरन टोला में आती है। संस्कारित और हुनरमंद सुरसतिया मुखियाजी के खेत में सास के साथ मजदूरी कर अपने नए जीवन की शुरुआत करती है। वह अपने शील, स्वभाव, सुसंस्कार और पढ़ाई-लिखाई का इस्तेमाल करते हुए धीरे-धीरे अपने समाज में अपना स्थान बना लेती है तथा लोगों के लिए अँधेरे का दीपक बनने लगती है। जाति-बिरादरी और धर्म-मजहब से ऊपर उठकर सही मायने में गरीब-गुरबा को वाजिब हक दिलाने के लिए पहल करने लगती है और गाँव की औरतों को जागरुक कर विकास के साथ उनको जोड़कर उनकी भूमिका समाज के लिए उपयोगी बनाने लगती है।

लेखक ने सुरसतिया के माध्यम से बखोरन टोला जैसे छोटे से गाँव की पिछड़ी महिलाओं में ही नहीं पुरुषों में भी नई सोच और महिला सशक्तिकरण की ज्योति जलाने में सफलता प्राप्त की है। गाँव के लिए बनी एक-एक सरकारी योजना को गाँव तक लाने में और जरूरतमंद लोगों तक पहुँचाने में सुरसतिया कामयाब हो जाती है। इसके पूर्व इन योजनाओं की जानकारी तक लोगों को नहीं रहती थी। इसके बाद तो सुरसतिया लोगों की आँखों की पुतली बन जाती है…उनके मान-सम्मान की प्रतीक बन जाती है। सरकारी योजनाओं को गाँव तक और लोगों तक पहुँचाने में सुरसतिया की भूमिका की सराहना प्रखंड विकास पदाधिकारी सहित जिलाधिकारी तक करने लगते हैं। उसकी ईमानदारी और जीवट की प्रशंसा सर्वत्र होने लगती है। मान-सम्मान-स्वाभिमान की पर्याय बनी सुरसतिया मास्टर साहब के सहयोग से अपने पंचायत की मुखिया बन जाती है, मुखिया बनने में पूर्व मुखिया का भरपूर सहयोग मिलता है। लेकिन प्रतिद्वंद्वी कमाल सिंह की करतूत के चलते बसावन सिंह का बॉडी गार्ड अँग्रेजी, पार्वती पर गोली चलाता है और गोली पार्वती को लगती देख सुरसतिया सामने आ जाती है और सुरसतिया गोली लगने से बुरी तरह घायल हो जाती है। हालत इतनी नाजुक हो जाती है कि सुरसतिया को बचाना मुश्किल हो जाता है और लोगों को लगता है कि उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु का समाचार सुनते ही वातावरण गमगीन हो जाता है। पाठक को भी सुरसतिया का मर जाना खलने लगता है। परंतु लेखक बड़ी ही खूबसूरती से सुरसतिया को नाटकीय ढंग से जीवित कर देते हैं, जिससे नाटक का अंत सुखद तो हो ही जाता है, पाठक भी, जो सुरसतिया से प्रारंभ से ही जुड़ा रहता है, राहत महसूस करता है। और मड़ई की धूल-मिट्टी की सुरसतिया बखोरन टोला गाँव के माथे का चंदन बन जाती है। मास्टर साहब भावुक होकर कहते हैं–‘आज जमाना के सामने सिद्ध कर देलू…एके माटी गोड़ में लाग जाई तऽ गंदगी आ लिलार में लाग जाई तऽ चंदन कहाई।’

समासतः कहना चाहिए कि ‘माथे माटी चंदन’ दलित, उपेक्षित ग्रामीण महिलाओं के उत्थान की गाथा है। इस नाटक में श्रव्य और दृश्य का इस प्रकार ख्याल रखा गया है कि इसे आसानी से दूरदर्शन से भी प्रसारित किया जा सकेगा। भोजपुरी भाषा को जानने वाले, पढ़ने वाले और शोधकर्ताओं के लिए भी यह पुस्तक राष्ट्रीय ग्रामोत्थान, पंचायती राज व्यवस्था के प्रचार-प्रसार के लिए सार्थक होगी। विशुद्धानंद रससिद्ध कवि हैं, लेकिन उनका गद्य भी ललित है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार विशुद्धानंद की यह पुस्तक सामाजिक सोद्देश्यता की दृष्टि से जनमानस को झकझोरेगी तथा ग्रामीण कुरीतियों को खत्म करने में अपनी भूमिका निभाएगी, ऐसा मानना चाहिए।


Original Image: Portrait of a Woman
Image Source: WikiArt
Artist: Emile Bernard
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork

हृषीकेश पाठक द्वारा भी