उलगुलान की अनुगूंज में शामिल स्वर

उलगुलान की अनुगूंज में शामिल स्वर

कई प्रबंध काव्यकृतियों के रचियता हरेराम त्रिपाठी चेतन की नवीनतम रचना है ‘उलगुलान की आग’। सात सर्गों मंच विभाजित इस खंडकाव्य में झारखंड के जननायक बिरसा मुंडा को केंद्र में रख कर उनकी जीवनगाथा का वृत्तांत प्रस्तुत किया गया है। इस प्रबंध कृति को देखते-पढ़ते हुए इसी पृष्ठभूमि की एक अन्य काव्यकृति की याद आती है रामकृष्ण प्रसाद ‘उन्मन’ कृत ‘शूरवीर बिरसा’। इन दोनों कृतियों में एकमात्र समानता यह है कि दोनों में शहीद बिरसा की जीवन कथा छंदोबद्ध रीति से लिखी गई है। उन्मन जी ने अपनी कृति को वृत्त काव्य कहा है, जबकि चेतन जी ने ‘अपनी बात’ में लिखा है- ‘अपनी संवेदना के भीतर उलगुलान के नायक बिरसा मुंडा को आत्मसात करने में समय लगा।’ इसलिए उनकी जीवन यात्रा को यथार्थ, कल्पना और संवेदना के सूत्रों से रचते हुए उस महानायक को श्रद्धांजलि दी गयी है।

इस प्रबंधात्मक कृति को पढ़ते हुए बाणभट्ट के जीवन के एक बहुचर्चित कथाप्रसंग की याद हो आई। कहते हैं, ‘कादंबरी’ की रचना पूरी होने से पहले बाणभट्ट गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गए थे। उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को बुलाया। सामने एक सूखा पेड़ दिख रहा था। उन्होंने उस वृक्ष को संकेतित करते हुए बड़े सुपुत्र से पूछा- वहाँ क्या है? उत्तर मिला ‘शुष्को वृक्षः तिष्ठत्यग्रे’। कवि ने दूसरे पुत्र से वही प्रश्न दुहराया तो उत्तर मिला- ‘नीरस तरुरिह विलसति पुरतः।’ इस संदर्भ में इस कथा के अन्य ब्योरे प्रासंगिक नहीं है। इस पाठक-समीक्षक के सामने विकट प्रश्न यह है कि वस्तुवर्णन की प्रभावी भाषा की कसौटी क्या हो? वस्तुनिष्ठता या अलंकरण? सत्य यह है कि साहित्य में दोनों तरह की श्रेष्ठताओं के उदाहरण प्रचुर सुलभ हैं। लेकिन अभिव्यक्ति को हमेशा सटीक तो होना ही है। लक्षणा-व्यंजना की अर्थवाह शक्ति को समुचित सम्मान देने के बावजूद क्या जीवन की सहयात्री अभिधा की अचूक उपादेयता विवादग्रस्त हो सकती है?

हरेराम त्रिपाठी चेतन जी की यह कृति केवल वृत्त काव्य की दृष्टि से विचारणीय नहीं है, बल्कि वर्णित जीवनगामी के समांतर गुंफित अपने कथ्य-संदेश के कारण भी ध्यातव्य है। अपनी कथावस्तु का अतिक्रमण करते हुए चेतन जी ने स्वाधीनता, देशप्रेम और देशज संस्कृति की विविध चिंताओं-चुनौतियों को भी उलगुलान की आग से संयुक्त कर दिया है। इस प्रकार इस कृति में भाव और विचार, प्राकृतिक परिवेष्टन और संघर्ष कथा के एकीकरण का प्रयत्न सामने आता है। यह एक अलग प्रश्न है कि इस प्रबंध कृति में यह पहल सिर्फ भौतिक स्तर पर प्रत्यक्ष हो सका या उसकी रासायनिक अन्विति भी सामने आई! दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पाठक कवि से यह पूछ सकता है कि उसके इस विषयांतर को आरोपित माना जाए या काव्यवस्तु के अंतरंग से स्वतः स्फूर्त संदेश?

इस पुस्तक की अंतर्वस्तु के विश्लेषण-विवेचन के क्रम में कई दीगर सवाल भी उठ सकते हैं। ‘उलगुलान की आग’ की भूमिका लिखते हुए प्रसिद्ध व्यंग्कार बालेंदुशेखर तिवारी ने एक अर्थपूर्ण सूत्र दिया है जो इस प्रकार है- ‘भले ही इस प्रबंध रचना की अवधारणा पारंपरिक है, भाषा का आस्वाद भी पुराना है, लेकिन रोशनी की तलाश में दौड़ती मनुष्यता और उसके राष्ट्रीय मूल्यों के लिए यह काव्यकृति कहीं न कहीं से पठनीय अवश्य है।’ इसके बावजूद यह मानने की भरपूर गूंजाइश है कि इस ‘पठनीयता’ की राह में एक बड़ी बाधा कवि की तत्समी सामाजिक मुद्रा हैं ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘वह तोड़ती पत्थर’ की भाषा एक ही कलम से लिखी गई होने के बावजूद अपने पक्ष में औचित्य के मजबूत तर्क रखती हैं।

निस्संदेह हरेराम त्रिपाठी चेतन सुकवि हैं। उनके पास भाव हैं, विचार हैं, संपदा है, अभिव्यक्ति की कला है। लेकिन इतने भर से कवि की तमाम मुश्किलों पर विराम नहीं लग जाता। हर कवि को अपने वण्र्य विषय के मौसम और मिजाज के अनुसार अभिव्यक्ति की मुद्रा में बदलाव लाना पड़ता है। लेकिन चेतन जी अपनी धुन में व्यस्त हैं। सूक्तियों पर उन्हें भरोसा है। छंद के तुकों के ध्वन्यात्मक मेल के लिए उन्हें सजग देखा जा सकता है। उनकी शब्द संपदा भरी-पुरी है। वहाँ तत्सम् तद्भव और देशज शब्दों का बड़ा जुटाव है। लेकिन उनका उपयोग शब्दार्थ और तुकांत संधान के लिए अधिक हुआ है। उनकी काव्य भाषा जड़ाऊ पच्चीकारी से भारी हो जाती हैं, वहां माधुर्य की तलाश पूरी हो सकती है, किंतु भाषा का प्रसाद गुण प्रचुर सुलभ नहीं है। परिणामतः सादगी का नैसर्गिक सौंदर्य यहाँ उपेक्षित रह गया है।

समग्रता में विचार करें तो ‘उलगुलान की आग’ कवि के समग्र कृतित्व के सर्वोच्च शिखर पर आसीन है। इसके वर्णनात्मक विवरणों में देश-काल के प्रति उनकी सजगता भी मुखर हुई हैं जीवन और साहित्य के विविध अनुभवों ने उनकी सोच और संवेदना को पुष्ट किया है। रचना अगर अपने निवेद्य को सम्यक रूप में संप्रेषित कर लेती है तो रचनाकार को सफल-विफल के संशय से बाहर आ जाना चाहिए। चेतन जी इस पड़ाव पर पहुंच कर इस चिंता से बरी हो सकते हैं।


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Artist: Rik Wouters
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