वे अभी भी क्वाँरी हैं!

वे अभी भी क्वाँरी हैं!

रेडियो नाटक

(वाद्य-संगीत से दृश्य प्रारंभ)

रेखा–रात बीत रही है माधव!

माधव–मेरी आँखों में नींद नहीं है।

रेखा–मैं कहती हूँ, अब सो जाओ।

माधव–नहीं रेखा, अभी मैं नहीं सो सकता।

रेखा–न मालूम, तुम्हें कभी-कभी क्या हो जाता है।

माधव–हो क्या जाता है, यों ही कुछ सोचने लगता हूँ।

रेखा–मैं भी तो सुनूँ, क्या सोच रहे हो!

माधव–तुम्हें क्या बतलाऊँ?

रेखा–क्यों, मेरे जानने योग्य नहीं है?

माधव–नहीं रेखा, जानने योग्य क्यों नहीं है, लेकिन मेरा मन कुछ अशांत-सा है।

रेखा–यही तो जानना चाहती हूँ कि इस शांति की बेला में तुम अशांत क्यों हो?

माधव–अशांत। (हल्की हँसी) मैं कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की बात सोच रहा हूँ रेखा!

रेखा–तो इसमें अशांत होने की क्या बात है?

माधव–अशांत होने की बात नहीं है?

रेखा– (हल्की हँसी) कवि और कलाकार सचमुच पागल होते हैं, यह बात तो तुम्हें देखकर ही मान गई हूँ माधव!

माधव–मैं पागल हूँ? कालिदास पागल थे! अन्यायी!

रेखा–तुम्हें क्या हो गया है माधव?

माधव–कुछ नहीं, कुछ नहीं। आज मैं विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर का एक निबंध पढ़ रहा था। उसकी पंक्तियाँ अभी भी मेरे कानों में गूँज रही हैं। सुनती हो?

रेखा–नहीं माधव!

माधव–वाह! यह गूँजती हुई आवाज तुम नहीं सुनती?

एक स्वर–संस्कृत-काव्यों में दो तपस्विनियाँ और हैं, जो हृदय को तपोवन बनाकर उसमें निवास करती हैं। वे हैं प्रियंवदा और अनुसूया। पतिगृह-गामिनी शकुंतला को विदा करके वे रोती-रोती लौट आईं। नाटक में फिर उनका प्रवेश नहीं देखा गया, उन्होंने फिर हमारे हृदयों में ही आसन जमा लिया!

माधव–सुनती हो रेखा?

रेखा–क्या सुना रहे हो माधव? मैं तो कुछ भी नहीं सुनती।

माधव–कुछ भी नहीं सुनती? सुनो भी तो!

स्वर–शकुंतला के पतिगृह-गमन के बाद प्रियंवदा और अनुसूया का क्या हुआ, यह बात शकुंतला नाटक के लिए बिल्कुल ही अनावश्यक है, किंतु क्या इसीलिए वह अकथित और अपरिमेय वेदना वहीं पर शांत हो गई? क्या वह हमारे हृदय में बिना छंद और बिना भाषा के ही सदा जागृत नहीं रहने लगी?

माधव–यही तो मैं भी कह रहा हूँ रेखा!

रेखा–क्या कह रहे हो तुम? मुझे तो कुछ मालूम ही नहीं होता।

माधव–हुँह, तुम्हें क्या मालूम होगा?

रेखा–तुम्हीं रात भर मालूम करते रहो! मुझे तो नींद आ रही है। मैं सो रही हूँ।

माधव–अच्छा रेखा, सो जाओ, मेरा भी मन जब शांत होगा, सो जाऊँगा।

(क्षणिक शांति के बाद) क्यों रेखा, सो गई? कालिदास ने प्रियंवदा और अनुसूया के प्रति सचमुच अन्याय किया है–अन्याय!

(धीरे-धीरे उठता हुआ स्वप्न-सूचक संगीत)

कल्पना–कलाकार माधव! कलाकार!

माधव–कौन हो तुम?

कल्पना–मैं? इससे तुम्हें क्या मतलब?

माधव–तो, तुम मुझे पुकार क्यों रही हो?

कल्पना–तुम्हें शांति देने के लिए।

माधव–शांति?

कल्पना–हाँ-हाँ, तुम अशांत हो न? मैं तुम्हें शांति देना चाहती हूँ।

माधव–शांति दोगी? कैसे?

कल्पना–कैसे क्या बतलाऊँ? तुम शांति नहीं चाहते क्या?

माधव–चाहता क्यों नहीं?

कल्पना–तो, आओ। शीघ्रता करो। मेरे साथ चलो। उठो। उड़ चलो। पीछे लौट चलो।

(शून्य में उड़ने की आवाज)

स्वर–1900-1875 -1857

(भीड़ की आवाज)

कुँवर सिंह–यह विद्रोह का झंडा खड़ा रहे, गिरने न पाए, जीत हमारी होगी!

स्वर–1850-1835-1800-1760

बिहारी–सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।

 यहि बानिक मो मन बसहु सदा बिहारीलाल॥

कल्पना–बढ़ते चलो कलाकार!

माधव–आ रहा हूँ देवि!

स्वर–1720-1700-1688

तुलसी–सिया राममय सब जग जानी।

           करौं प्रनाम जोरि जुग पानी॥

कल्पना–माधव, और आगे बढ़ो।

माधव–बढ़ रहा हूँ, क्या कहूँ, तुम्हें?

कल्पना–कल्पना!

माधव–कल्पना!

स्वर–990-880-400-300

माधव–और कहाँ कल्पना?

कल्पना–और नहीं कलाकार! मैं तुम्हें शीघ्र ही रुकने को कहूँगी।

माधव–वह कौन है वहाँ–उस पर्वत पर?

कल्पना–वह यक्ष है, कालिदास का विरही यक्ष!

माधव–आषाढ़ के मेघ आकाश में घिर रहे हैं, यक्ष व्याकुल हो रहा है कल्पना! चलो न वहीं।

कल्पना–नहीं माधव, मैं तुम्हें यक्ष के पास नहीं, प्रियंवदा और अनुसूया के पास ले जाऊँगी।

माधव–कहाँ हैं वे?

कल्पना–उन्हें ही तो देख रही हूँ। आगे बढ़ो! वह देखो, वहाँ, उस कुंज में!

माधव–तो, चलो न वहीं।

कल्पना–नहीं माधव, मैं वहाँ नहीं जाऊँगी।

माधव–तब?

कल्पना–तब क्या? तुम चले जाओ। फिर लौटकर आना, तो साथ चलेंगे।

माधव–तुम क्यों नहीं चलती?

कल्पना–मैं कहती हूँ, तुम जाओ, देर न करो। इच्छा होगी, चली आऊँगी।

(वाद्य-संगीत से दृश्य-परिवर्तन)

(चिड़ियों की चहचहाहट आदि की आवाज)

प्रियंवदा–(निकट आती हुई) अनुसूया! अनुसूया! अरी पगली, मैं तुम्हें कब से पुकार रही हूँ, तुम्हें कुछ सुनाई ही नहीं पड़ता?

अनुसूया–सचमुच मुझे पुकार रही थी?

प्रिय.–तुम्हें सुनाई दे, तब तो! कर क्या रही हो?

अनु.–यही एक चित्र बना रही हूँ प्रियंवदा!

प्रिय.–तुम्हारा तो मन चित्र ही में लगता है। देखूँ, किसका चित्र है?

अनु.–देखो न, यही तो है।

प्रिय.–यह तो किसी राजकुमार का चित्र है।

अनु.–हाँ प्रियंवदा!

प्रिय.–बड़ा सुंदर है। इसकी आँखों से कितनी मादकता बरस रही है!

अनु.–हाँ सखी!

प्रिय.–कैसे बनाया तुमने? कहीं इस राजकुमार को देखा है क्या?

अनु.–नहीं प्रियंवदा, जहाँ तुम हो, वहाँ मैं। देखूँगी कहाँ से? महाराज दुष्यंत के बाद इस उपवन में दूसरा कोई राजकुमार आया ही कहाँ?

प्रिय.–हाँ अनुसूया, सच कहती हो। देखते-देखते आँखें थक गईं, लेकिन इस उपवन में कोई राजकुमार नहीं आया। मन करता है,…

अनु.–क्या मन करता है सखी?

प्रिय.–यही कि महाराज दुष्यंत-जैसा ही कोई राजपुरुष हमारा अतिथि होता, तो हम उसका कितना सत्कार करतीं!

अनु.–लेकिन कोई अतिथि हुआ तो नहीं।

प्रिय.–यही तो सोचती हूँ अनुसूया, तुम कितनी भाग्यशालिनी हो!

अनु.–मैं? भाग्यशालिनी हूँ? (हल्की हँसी)

प्रिय.–भाग्यशालिनी तो हो ही, अपनी कल्पना के संसार में कभी किसी महाराज को, कभी किसी राजकुमार को बुला लेती हो, और उसे अपने चित्रपट पर उतार देती हो!

अनु.–यह तो चित्रकला की महिमा है प्रियंवदा!

प्रिय.–तुम्हारी चित्रकला की निपुणता मैं अभी भी नहीं भूली हूँ। तुमने शकुंतला के विदा के समय अपनी चित्रकला के बल पर ही उसे राजकीय वस्त्र पहनाये थे।

अनु.–हाँ सखी, उन दिनों की याद न दिलाओ। वे तो सपने-जैसे बीत गए, फिर लौटकर आनेवाले नहीं हैं।

प्रिय.–हाँ अनुसूया, मैं भी यही सोचती हूँ, वे दिन फिर एक बार आ पाते!

अनु.–मेरे मन में भी उन दिनों की स्मृतियाँ मचल रही हैं प्रियंवदा! उस दिन शकुंतला के मुख पर एक भौंरा मँड़रा रहा था, और उसी समय महाराज दुष्यंत उपवन में चले आए।

प्रिय.–मैं तो उस भौंरे को कब से खोज रही हूँ सखी! एक बार मेरे मुख पर भी मँड़राता।

अनु.–लेकिन,

प्रिय.–लेकिन क्या, कुछ नहीं। लताओं को देखा, फूलों के निकट गई, लेकिन वह भौंरा कहीं न मिला।

अनु.–इन कल्पनाओं से लाभ ही क्या है प्रियंवदा?

प्रिय.–हाँ सखी, ये कल्पनाएँ स्वप्न हैं, छलना हैं, इनमें उलझने से कोई लाभ नहीं। और मैं भी कैसी बेसुध हूँ, क्या कहने आई थी, क्या कहने लग गई!

अनु.–क्या कहने आई थी प्रियंवदा?

प्रिय.–यही कि उठो, घड़ा उठाओ, लताओं और वृक्षों को सींचने का समय हो गया।

अनु.–जरा यह चित्र पूरा न कर लूँ?

प्रिय.–नहीं अनुसूया, शीघ्र उठो, पिता कण्व आयेंगे तो क्या कहेंगे? और, यह माधवी लता हमारे स्नेह ही पर तो जीवित है। याद है न, शकुंतला इसे हमें ही सौंप गई है।

अनु.–याद है सखी!

प्रिय.–लेकिन जाने दो अनुसूया, चलो, बीती बातों को याद करने से क्या?

अनु.–हाँ सखी, चलो, देखो न, माधवी लता हमें बुला रही है।

प्रिय.–उठाओ घड़ा।

(क्षणिक शांति, फिर पानी गिरने की आवाज)

अनु.–प्रियंवदा, उस झुरमुट से खड़खड़ाहट कैसी हो रही है?

प्रिय.–कोई मृग होगा। अच्छा सखी, मेरी वल्कल की कंचुकी जरा ढीली कर दे न!

अनु.–मैं क्या इसीलिए हूँ? कभी शकुंतला की कंचुकी ढीली की थी, आज तुम्हारी कर दूँ? अच्छा!

प्रिय.–देखो सखी, कोई आ रहा है क्या?

अनु.–यह तो मैं पहले ही कह रही थी।

प्रिय.–शायद कोई अतिथि है।

अनु.–संकोच से आगे नहीं बढ़ रहा है। बुला लो।

प्रिय.–आइए, चले आइए। कौन हैं आप? क्या सत्कार करें आपका?

अनु.–आप बोलते क्यों नहीं? आज्ञा दीजिए, आपकी क्या सेवा की जाए?

माधव–कुछ नहीं देवि, कुछ नहीं। मुझे सेवा नहीं चाहिए। मैं केवल आपके दर्शन चाहता था।

प्रिय.–दर्शन?

माधव–हाँ देवि, तुम्हें देखने ही के लिए काल की लंबी दूरी पार कर चला आ रहा हूँ।

अनु.–अहो भाग्य हमारे! हमारे प्रति अभी भी किसी के हृदय में स्निग्ध भावनाएँ हैं? किसी के मन में हमें देखने की आकांक्षा भी उठती है?

माधव–क्यों नहीं अनुसूया?

अनु.–अनुसूया? तुमने हमारा नाम कैसे जान लिया अतिथि?

माधव–क्षमा करो देवि, मैं कब से यहीं झुरमुट में खड़ा तुम्हें देख रहा था, तुम्हारी बातें सुन रहा था!

प्रिय.–शायद तुम प्रतीक्षा कर रहे थे कि कोई भौंरा हमारे मुख पर उड़-उड़ कर हमें सताए, तब तुम हमारी रक्षा के लिए प्रकट हो!

माधव–नहीं देवि, मैं तुम्हें यों ही देख रहा था। न जाने क्यों तुम्हें देखकर मेरे मन में एक कैसी करुण रागिनी बजने लगती है, मेरे तार-तार झंकृत हो जाते हैं।

अनु.–अरे, तुम अभी खड़े ही हो? बैठो अतिथि, आसन ग्रहण करो। प्रियंवदा, जा, कुटी से कुछ फल-फूल ले आ।

माधव–नहीं प्रियंवदा, इस सत्कार की कोई आवश्यकता नहीं। मैं तुम्हारे दर्शन से ही तृप्त हो गया।

प्रिय.–तो आओ अतिथि, इस कदलीपत्र के आसन को सुशोभित करो।

माधव–यह स्थान तो शायद वही है, जहाँ दुष्यंत बैठे थे?

अनु.–हाँ अतिथि, यह तभी से सूना है।

माधव–लेकिन अनुसूया, मैं महाराज दुष्यंत के आसन पर बैठने योग्य नहीं हूँ!

अनु.–ऐसा न कहो अतिथि, हम तो तुम्हें उन्हीं के जैसा समझती हैं।

प्रिय.–हाँ अतिथि, हम तुम्हें अतिथि कब तक कहें?

माधव–लोग मुझे माधव कहते हैं।

प्रिय.–माधव!

अनु.–नाम तो बड़ा सुंदर है!

प्रिय.–तुम्हें देखकर हमें लगता है, जैसे हमारे जीवन-कानन में भूल-भटक कर सचमुच माधव चला आया हो!

माधव–तुम क्या कहती हो प्रियंवदा?

अनु.–प्रियंवदा सच कहती है माधव! तुम्हें देखकर मुझे इतना आनंद होता है कि क्या कहूँ! लगता है, जैसे कोई भूली बात याद आ गई हो!

माधव–तुम कितनी भावुक हो अनुसूया!

अनु.–भावुक! (हल्की हँसी) लेकिन प्रसन्नता है कि तुमने मेरे अंतर में मचलती हुई भावनाओं को पहचान लिया। तुम कितने सहृदय हो!

माधव–मैं कवि हूँ अनुसूया!

प्रिय.–यह क्या कहा तुमने?

माधव–यही तो कि मैं कवि हूँ।…क्यों? तुम्हारे मुख पर यह गहरी छाया कैसी घिर आई? तुम आशंकित क्यों हो गई?

प्रिय.–हमें कवियों से भय लगता है माधव!

अनु.–वे बड़े निष्ठुर होते हैं।

माधव–क्या कह रही हो तुम?

प्रिय.–सच कह रही हूँ माधव!

अनु.–सुनी-सुनाई बात नहीं, अनुभव का सत्य है।

प्रिय.–कालिदास कवि थे।

अनु.–कवि ही नहीं, महाकवि थे।

प्रिय.–और, उन्होंने कितनी निष्ठुरता की है?

अनु.–हमें शाप दिया है।

प्रिय.–निष्ठुर शाप!

अनु.–दुर्वासा के शाप से भी कठिन!

प्रिय.–दुर्वासा ने शकुंतला को शाप दिया था, शकुंतला शापमुक्त हो गई।

अनु.–लेकिन कालिदास का शाप आज भी हमारे शीश पर मँड़रा रहा है।

माधव–कौन से शाप के विषय में कह रही हो अनुसूया?

अनु.–नहीं देखते माधव? वह देखो, आश्रम के चारों ओर महाशाप की काली रेखा खिंची हुई है।

माधव–कैसी रेखा? मैं तो नहीं देखता।

प्रिय.–नहीं देखते? तुम भी कवि हो न?

माधव–यह क्या प्रियंवदा?

प्रिय.–कालिदास निष्ठुर थे, उन्होंने हमारी आशा-आकांक्षाओं पर अग्निवर्षा की है।

अनु.–हमारी कोमल भावनाओं की कलियों को अपने निष्ठुर हाथों से मसल दिया है उन्होंने।

माधव–हाँ, यह तुम सच कहती हो। मैं भी यही कहता हूँ।

प्रिय.–हाँ, तुम सहृदय हो, सरल हो! हमारी आशाओं के मूर्तिमान रूप हो!

अनु.–हाँ माधव, कालिदास निष्ठुर थे, लेकिन सब तो एक से नहीं होते। तुम कितने सुंदर हो! कितने सरल! कितने सहृदय!

माधव–तुम्हारे स्नेह की वर्षा से मैं भींगा जा रहा हूँ। लेकिन इतनी वर्षा उचित नहीं है, उचित नहीं है अनुसूया!

अनु.–उचित नहीं है! उचित क्या है? अनुचित क्या है? कुछ नहीं, कुछ नहीं!

प्रिय.–तुम कितने सरल हो माधव! तुम निष्ठुर नहीं हो सकते। मैं जानती हूँ, तुम हमें मुक्त करने आए हो; कालिदास के शाप से मुक्त करने!

अनु.–मैं जानती हूँ, तुम हमें इस आश्रम से मुक्त करने आए हो। तुम हमें इस आश्रम से, इस बंदीगृह से बाहर ले चलोगे, हमारी आशा-आकांक्षाओं पर, हमारे स्वप्नों पर मधु की वर्षा करोगे।

माधव–बोलो अनुसूया, मैं क्या करू? कुछ समझ नहीं पाता। प्रियंवदा, बोलो।

प्रिय.–तुम कवि हो, सहृदय हो, तुम स्वयं समझते हो, मैं क्या कहूँ?

अनु.–हमें इस बंदीगृह से बाहर पहुँचा दो माधव! यहाँ हमारी इच्छाएँ घुट-घुट कर मिटती जाती हैं।

प्रिय.–शीघ्रता करो माधव!

माधव–क्या करूँ मैं?

अनु.–ले चलो, हमें यहाँ से बाहर ले चलो, राजनगर में!

प्रिय.–तुम सोच क्या रहे हो? सोचने का समय नहीं!

माधव–तो, चलो, लेकिन कोई पुकार रहा है क्या?

प्रिय.–शायद पिता कण्व हैं!

अनु.–क्या कह रहे हैं वे?

बहुत से स्वर–(गूँजती हुई तेज आवाज में) ये क्वाँरी हैं, इनका नगर में जाना उचित नहीं है! ये क्वाँरी हैं, इनका नगर में जाना उचित नहीं है! ये क्वाँरी हैं, इनका नगर में जाना उचित नहीं है! ये क्वाँरी हैं, इनका नगर में जाना उचित नहीं है!

(तीव्र वाद्य-संगीत से समाप्ति)


Image: Madhumadhavi Ragini, Illustration from a Ragamala
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