विवेकी राय के नाम 10 पत्र

विवेकी राय के नाम 10 पत्र

वह फरवरी के पहले हफ्ते की कोई शाम थी। प्रसिद्ध लेखक डॉ. विवेकी राय का फोन आया–‘भाई आपने सुना ही होगा कि गोपाल राय जी नहीं रहे…बड़ा भारी वज्रपात हुआ मुझ पर…।’ उनकी आवाज काँप रही थी। फिर वे गोपाल राय जी से संबंधित अपने आत्मीय संस्मरण सुनाते हुए बोले–‘मेरा उनसे गंगा के इस पार और उस पार का संबंध था। एक नदी के दो किनारों पर होते हुए भी हम साहित्य की एक ही धारा में बरसों साथ बहते रहे। अब उनके नहीं रहने से मैं बिल्कुल अकेला हो गया! मैं ही कब तक रहूँगा, कौन जाने! आपकी पत्रिका के माध्यम से उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ…।’ बीच में ही मैं बोल उठा–‘मुझे खुशी होगी कि आप उन पर ‘नई धारा’ के लिए कुछ लिखें।’ बेहद थके स्वर में उन्होंने कहा–‘लिखना तो चाहता हूँ, पर मेरा स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा। आज ढूँढ-ढाँढ़ कर मैंने उनके दस पत्र निकाले हैं। आपको भेज रहा हूँ। इसे ही आप उनके प्रति मेरी श्रद्धांजलि के रूप में छाप दें।’ इसके बाद वे इन पत्रों के संदर्भ और इतिहास बताने लगे।

प्रसिद्ध समालोचक डॉ. गोपाल राय का जन्म बक्सर (बिहार) के चुन्नी नामक गाँव में हुआ जो गंगा नदी के दक्षिण पड़ता है और गंगा के उत्तर स्थित गाजीपुर के डॉ. विवेकी राय ठहरे। दोनों ही गंगा नदी के आर-पार के गहरे मित्र! दोनों ही अत्यंत सामान्य परिवार में जन्मे। अपने ज्ञान एवं जीवन-संघर्ष से साहित्य के शिखर पर प्रतिष्ठित हुए। डॉ. गोपाल राय पटना विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे, जहाँ वे 1957 से 1992 तक अध्यापन करते हुए दर्जनाधिक आलोचनात्मक पुस्तकों की रचना की। उनकी चर्चित पुस्तकों में ‘हिंदी उपन्यास का इतिहास’, हिंदी कथा साहित्य और उसके विकास पर पाठकों की रुचि का प्रभाव’, ‘हिंदी उपन्यास कोश’ (दो खंड), ‘उपन्यास का शिल्प’, ‘अज्ञेय और उनका उपन्यास’, ‘हिंदी कहानी का इतिहास’ (तीन खंड) आदि प्रमुख हैं। साहित्य के अनुसंधान में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। अंत समय तक वे अपने लेखन में सक्रिय रहे।

जैसा कि चलभाष पर डॉ. विवेकी राय से मेरी बात हुई। एक सप्ताह बाद उनके नाम डॉ. गोपाल राय के लिखे दस पत्र आ गए। वे इतने पुराने पत्र थे कि उन्हें पढ़ पाना भी मुश्किल था। हिंदी के एक शोधप्रज्ञ अश्विनी कुमार ने बहुत मेहनत कर उन पत्रों की पांडुलिपि तैयार की। डॉ. गोपाल राय हिंदी के पायेदार आलोचक और ‘समीक्षा’ के यशस्वी संपादक रहे, जिनका निधन 25 सितंबर, 2015 को दिल्ली में 83 वर्ष की आयु में हुआ। वे ‘नई धारा’ के लिए अंत समय तक लिखते रहे। यहाँ हम प्रसिद्ध लेखक विवेकी राय के नाम उनके दस पत्र का प्रकाशन कर रहे हैं।
–संपादक

(एक)

समीक्षा
सी. 1/2, यूनिवर्सिटी कॉलोनी
राजेंद्र नगर, पटना-800016
19-05-83

आदरणीय भाई साहब,
सादर प्रणाम।

आपका 12/5 का पत्र कल ही मिल गया और मैं उसके पहले से आपके पत्र लिखने की बात सोच रहा था, पर मैं इधर तीन-चार दिनों से आपकी ‘सोनामाटी’ में इस प्रकार डूबा था कि सभी कम आवश्यक कार्य मुल्तवी कर दिए थे कि आज अभी-अभी उस ‘बाढ़’ से मुक्ति मिली है, और थोड़ी ही देर में उस पर समीक्षा लिखने बैठ जाना है। (शाम के पाँच बज रहे हैं; लगभग एक घंटा लिखाई चलेगी।) तो उसके पहले आपके पत्र का उत्तर दे देना जरूरी लगा है।

पहली बात यह कि इस बार आपकी रचना बेजोड़ है…अलवत्त रचना (झिरि झिरी) है ‘हाय गई।’ मैं बहुत विश्वास और बिना किसी भावुकता के कह रहा हूँ कि अब आप हिंदी के टाप (या टॉप) रचनाकारों की पंक्ति में आ गए। भाई साहब, आपका यह उपन्यास पढ़ते हुए मुझे वही अनुभूति हुई है जो हजारी प्रसाद द्विवेदी या अमृतलाल नागर की रचनाएँ पढ़ते समय हुई थी। मैं इस पर समीक्षा लिख रहा हूँ और अगले दस वर्ष लिखता रहूँगा। मुझे खुशी है कि आप पिछली बार मेरे बरामदे पर हुई बातों के अनुरूप अपने को ढालने लगे हैं। कहते हैं सर्जनात्मक प्रतिमत के उदय का काल 30 वर्ष तक ही है और फिर यह मुरझाने लगता है। प्रेमचंद और हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह आपने इसे झूठलाया है।

अब सच में समय इतना कम बचा है कि किसी प्रकार पत्रोत्तर दिया जा सकता है। मैं ‘सोनामाटी’ पर अपने मनचाहे समीक्षकों से लिखवाना चाहता था। घोष (श्यामसुंदर घोष) केवल प्रशंसा कर सकते हैं…क्रिटिकल नहीं हो सकते। मैं चाहता था कि अपने को अत्यधिक क्रिटिकल कहने वाले आलोचक इस पर लिखें और मैं उनकी चुनौती को स्वीकार करूँ। पर आपने लिख दिया है तो एक वे ही रहें। दूसरी समीक्षा मैं अपने मन के समीक्षक से लिखवाऊँगा। आपके यहाँ कोई ‘सोनामाटी’ पर लिखने की क्षमता नहीं रखता। आप एक प्रति जैसे भी हो घोष को भिजवा दें। मेरे पास दो प्रतियाँ रहेंगी। आपको लाभ ही होगा।

‘असगाँव पसगाँव’ फालतू उपन्यास है। गंगाधर की किताब का पता नहीं। जैसी हो पर भिजवा सकते हैं। आप अपनी समीक्षाएँ भेज दें। ‘गुरुदेव के चरणों में’ लिखे, पर हलकी रचना ना हो। पत्र में स्थान नहीं बचा और लिखने को बहुत बाकी रह गया।…
आशा है सानंद हैं।

आपका
गोपाल राय

(दो)

पटना-800016
17-07-89

आदरणीय भाई साहब,

आपका उपन्यास पढ़ गया। मुझे प्रसन्नता है कि इस बार आपने उपन्यास लेखन के क्षेत्र में लंबी छलाँग लगायी है। जहाँ तक मुझे स्मरण है मैंने ‘सोनामाटी’ की भी प्रशंसा की थी और कुछ लोगों ने उसे पसंद नहीं भी किया था। मुझे ‘सोनामाटी’ में कुछ कमजोर स्थल भी दिखाई पड़े थे जिसकी चर्चा मैंने आपसे की थी। ‘समर शेष है’ वैसी कमजोरियों से बिल्कुल मुक्त है। आपने बहुत शक्तिशाली उपन्यास लिखे हैं। उपन्यास पढ़ते समय दर्जनों स्थलों पर स्वगतालाप के रूप में मैंने ‘वाह’ कह कर दाद दी है और यदि उस समय कोई पास रहा है तो उससे मैंने इस उपन्यास की चर्चा की है। इस चर्चा का परिणाम यह हो गया कि मेरी प्रति की मँगनी आरंभ हो जाएगी और उससे मुझे खुशी ही होगी।

‘समर शेष है’ की समीक्षा तो मैं विस्तार से लिखूँगा ही, पर छपने में कुछ विलंब हो जाएगी। काश, उपन्यास एक महीना पहले मिला होता तो जनवरी-मार्च अंक से ही इसकी चर्चा शुरू हो जाती, पर विश्वास रखिए यह उपन्यास आपकी सर्जनात्मकता का एक कील स्तंभ है। कहना तो चाहता था कि यह आपकी सर्जनात्मकता का ‘शिखर’ है, पर केवल ‘कील स्तंभ’ इसलिए कह रहा हूँ कि मैं चाहता हूँ कि वह ‘शिखर’ इतना ऊँचा हो कि उसके सामने तल स्तंभ फीके पड़ जाएँ। बंधुवर, इस उपन्यास से आप भारतीय भाषाओं के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकारों की पंक्ति में पहुँच गए हैं। वर्तमान हिंदी उपन्यासकारों में केवल नागर जी ही आपकी बराबरी पर हैं। मैं प्रशंसा करने की अपनी इच्छा पर रोक लगा रहा हूँ। लिखूँगा तो खूब सोचकर, तर्क देकर लिखूँगा। पर आप निराश न हों कि अब तक ‘समर शेष है’ की चर्चा नहीं हुई। इसकी चर्चा होगी और खूब होगी। ‘समीक्षा’ अपने कर्तव्य का निर्वाह करेगी। अप्रैल-जून अंक तो कविता का है, पर जुलाई-सितंबर अंक इस उपन्यास की समीक्षा से ही महत्त्वपूर्ण बनेगा।
आशा है सानंद है।

आपका
गोपाल राय

(तीन)

कलकत्ता
17-11-97

आदरणीय भाई साहब,
सादर नमस्कार।

पाँच मिनट पहले आपकी बेतहाशा याद आई और आपको पत्र लिखने बैठ गया। इधर काफी दिनों से आपको पत्र भी नहीं लिखा। सितंबर में आपका एक पत्र मिला था, जिसका उत्तर शायद दे दिया था, पर थोड़ा संदेह भी है कि पत्र लिखा या नहीं। यह तो जानते ही हैं कि मैं यायावर हो गया हूँ, जिसने घर नहीं बनाया उसे यायावरी ही सुख देती है। मैं 22 सितंबर से 11 अक्टूबर तक कटनी में था, 12 अक्टूबर से 25 अक्टूबर तक दिल्ली में, 26 अक्टूबर से 28 अक्टूबर तक पटना में और 29 अक्टूबर से यहाँ हूँ। 25 नवंबर को पटना पहुँच रहा हूँ और पूरा दिसंबर यदि कोई व्यवधान न पड़ा तो पटना में ही बिताऊँगा। जनवरी के प्रथम सप्ताह से दिल्ली चला जाऊँगा। उसके बाद का कार्यक्रम आपको बाद में लिखूँगा। हाँ, मेरा ‘उगना’ सदा मेरे साथ रहता है।

कलकत्ता में मेरी अच्छी कट रही है। प्रभा खेतान, प्रतिभा अग्रवाल, विष्णुकांत शास्त्री, प्रभाकर श्रोत्रिय आदि से मुलाकात होती रहती है। दो बार यहाँ की साहित्यिक सभाओं में भी जा चुका हूँ। यहाँ के साहित्यकारों से परिचय हो रहा है। एक दिन नेशनल लाइब्रेरी भी गया था, फिर जाना है। इस प्रकार पढ़ने-लिखने का काम भी जारी है। निराला पर एक लेख और चार पुस्तकों की समीक्षाएँ लिखी है। …लगता है, यह सब लिखकर थोड़ा बचपना कर रहा हूँ…?

आशा है आप स्वस्थ प्रसन्न हैं? प्रसन्नता तो मन से आती है, कदाचित प्रभु की कृपा से भी। आपका स्वस्थ प्रसन्न रहना समाज के लिए बहुत जरूरी है। मैं तो प्रभु से विनती करता रहता हूँ कि आप स्वस्थ प्रसन्न रहकर हिंदी साहित्य को समृद्ध करते रहें। इधर मैंने प्रभा खेतान का ‘पीली आँधी’ नामक उपन्यास पढ़ा है; जो बहुत अच्छा है। यदि मिल जाए तो आप भी यह उपन्यास जरूर पढ़ें।

देखें, आपसे मुलाकात कब होती है।

घर में सभी को मेरा यथायोग्य प्रणाम आशीर्वाद कहेंगे।

आपका
गोपाल राय

(चार)

दिल्ली
13-01-2004

आदरणीय भाई साहब,
सादर प्रणाम।

इधर फोन पर तो बातें हो ही चुकी हैं और शायद 18 जनवरी को काशी में मुलाकात भी हो जाए। मैं संगोष्ठी में भाग लेने के लिए 18 जनवरी को सुबह वाराणसी पहुँच रहा हूँ।

‘पत्रों के अंक में’ की प्रतियाँ मिल गई हैं। अपने पत्र पढ़ गया। विश्वास नहीं हुआ कि मैं इतना अच्छा लिख सकता हूँ। बड़ा मजा आया। आप पत्रों को इतना सुरक्षित रखते हैं, धन्य हैं। प्रभु आपको इस शक्ति के साथ शतायु बनाए। अगले बीस वर्षों में आप इसी प्रकार साहित्य को समृद्ध करते रहें, यही प्रभु से प्रार्थना है।

मेरी क्षमता आप सा कहा है ईर्ष्या होती है। पत्रों को तो मैं सुरक्षित रख ही नहीं पाता। पुस्तक और पत्रिकाएँ भी बिखर जाती हैं। कितना सहेजूँ? आपका स्नेह मिलता रहे, इसी प्रार्थना के साथ।

आपका
गोपाल राय

(पाँच)

नई दिल्ली
02-05-2005

आदरणीय भाई साहब,
सादर प्रणाम।

अचानक ही आपको पत्र लिखने का मन हो आया। आशा है, आप स्वस्थ प्रसन्न हैं और रचनाकर्म में लगे हुए हैं। मैं पूरे परिवार के साथ प्रसन्न हूँ और प्रभु की कृपा तथा आपके आशीर्वाद से पठन तथा लेखन का काम निर्विघ्न चल रहा है। आपसे मिलने की लगन तो बराबर ही लगी रहती है, पर अवसर नहीं मिल रहा है। इधर आंजनेय जी से भी कोई संपर्क नहीं हुआ है, यद्यपि मैं प्रतिदिन, प्रातःकाल, आपके साथ उनका भी स्मरण कर लेता हूँ। जून में मेरा चुन्नी जाने का कार्यक्रम तो बना है, पर वहाँ वाहन की सुविधा न होने के कारण निकलना कठिन हो जाता है। ऐसे सूचनार्थ ही लिख रहा हूँ कि मैं, सत्यकाम और सत्यकेतु के साथ, 16 जून को सवेरे, मगध एक्सप्रेस से बक्सर स्टेशन पहुँचूँगा और 21 जून को बक्सर से ही श्रमजीवी एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए प्रस्थान करूँगा।

आपको एक कष्ट देना चाहता हूँ। यह आश्चर्य की बात है कि जैनेंद्र की कहानियों का प्रामाणिक प्रकाशनकाल अब तक सुनिश्चित नहीं हो पाया है। मैं प्रयासरत हूँ। जैनेंद्र के कतिपय कहानी-संग्रह हिंदी-ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बंबई से 1931-44 की अवधि में प्रकाशित हुए थे। यदि इनके प्रथम प्रकाशन-काल की प्रामाणिक सूचना और उनमें संकलित कहानियों की सूची प्राप्त हो जाती तो जैनेंद्र की कहानियों के प्रकाशन-काल का निर्धारण करने में बड़ी सहायता मिलती। इन संग्रहों में कुछ के नाम हैं; ‘वातायन’ (1931), ‘फाँसी’ (1933), ‘दो चिड़ियाँ’ (1934), ‘एक रात’ (1935), ‘नीलम देश की राजकन्या’ (1938) आदि। यदि आपके निजी पुस्तकालय अथवा आपकी पहुँच के किसी भी गाजीपुर स्थित पुस्तकालय में इनकी कोई प्रति हो तो कृपया उनके प्रथम पृष्ठ (प्रकाशन संबंधी सूचनाओं वाले) की फोटोप्रति और उनमें संकलित कहानियों की सूची भिजवाने का कष्ट करें।

आपका
गोपाल राय

(छह)

दिल्ली
20-08-05

आदरणीय भाई साहब,
सादर प्रणाम।

आपका 9/8 का पत्र मिला। इस पत्र से आपकी निराशा थोड़ी-थोड़ी झलकती है। दिल्ली में साहित्यिक जीवंतता है, यह मानता हूँ, पर यहाँ बनावटीपन और पाखंड भी उतना ही अधिक है। मैं अपने एकांत, प्राकृतिक परिवेश में रहकर जहाँ तक संभव हो रहा है, कुछ कर-धर रहा हूँ। आपने अब तक जो साहित्यिक सेवा की है, वह आपके हिंदी साहित्य में अमर करने के लिए पर्याप्त है। मैं हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने में ही लगा हुआ हूँ। मैं जानता हूँ कि साहित्य की लगभग सभी अन्य विधाओं में आपकी अलग पहचान है। अभी आप निराश न हों। अच्छा हो कि आप आत्मकथा ही लिख डालें, ऐसी आत्मकथा जिसमें समाज की कथा भी समाहित हो। यदि आप इस काम में लग जाएँ तो आपको समय की कमी हो जाएगी।
प्रणाम के साथ।

आपका
गोपाल राय

(सात)

द्वारा-प्रो. सत्यकाम
एच-2 यमुना, इग्नू परिसर,
मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-110068
04-04-2006

आदरणीय भाई साहब,
सादर नमस्कार।

आपको पत्र लिखने का इरादा तो 15-20 दिन पहले से ही करता रहा हूँ, पर उसकी शुरुआत आज कर पा रहा हूँ। बता दूँ कि मैं पुनः दुर्घटना का शिकार हो गया हूँ। 5 मार्च को ही शाम को टहलते समय मैं सड़क पर पैर फिसल जाने से गिर गया और मेरे बायें हाथ की कुहनी तथा एड़ी में फ्रैक्चर हो गया। 6 मार्च को अस्पताल में भरती हुआ, सात को ऑपरेशन हुआ और 9 मार्च को घर आया। तभी से बिस्तरबद्ध हूँ और यह स्थिति मई के अंतिम सप्ताह तक रहने वाली है। इस स्थिति में क्या पत्र लिखूँ और आपको भी मानसिक कष्ट में डालूँ? पर लगा कि अब इसकी सूचना दे ही देनी चाहिए।

वैसे तो सचमुच बहुत असुविधाजनक स्थिति में पड़ गया हूँ, पर मैंने हार नहीं स्वीकार की है। इसका कारण है मेरा प्रभु में विश्वास और आस्था। मेरे सभी कार्य तो प्रभु को ही समर्पित हैं। अतः उसके बीच आनेवाली कठिनाइयाँ भी तो प्रभु की ही हुई न! फिर मैं क्यों चिंता करूँ? यह तो उन्हीं का सरदर्द है कि वे मुझे कैसे रखते हैं। 24 घंटों के दिन-रात में जब शरीर की जरूरतें पूरी करनी होती है, कर लेता हूँ और बाकी समय कंप्यूटर पर काम करता रहता हूँ। परेशानी तो मुझे लेकर बहू को हो गई है। एक बिस्तर में कैद, 74 वर्ष के व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा कराना मामूली काम नहीं है। मुझे तो लगता है, प्रभु ने मुझे दंड न देकर बहू को ही उसे किसी गलती का दंड दिया है। पर कौन जाने! प्रभु की माया को कौन जान सका है?

भाई साहब, लगता है, हमलोग विश्व के रंगमंच पर ‘फालतू’ होने की स्थिति में पहुँच रहे हैं। यद्यपि मैं अभी अपने सार्थक होने के संघर्ष को जारी रखे हुए हूँ, पर प्रभु चेतावनी देते से प्रतीत हो रहे हैं कि अब ज्यादा समय बचा नहीं रह गया है, अतः ‘और तेजी से काम करो।’ इधर मैं यह मनोवृत्ति विकसित कर रहा था कि ‘जल्दी क्या है?’ धीरे-धीरे सब काम करते चलो और जहाँ भी यात्रा समाप्त हो जाए, समझ लो कि तुम्हारा काम (तुम्हारा क्या, प्रभु का काम) पूरा हो गया। काम तो सब प्रभु का ही है न? हम तो उसकी इच्छा के मुताबिक माध्यम मात्र होते हैं। समझिए कि इसी मानसिकता में मैं जी रहा हूँ और प्रभु द्वारा ही दिए गए काम को पूरा करने में लगा हुआ हूँ। हिंदी कहानी का इतिहास लिखने का काम काफी आगे बढ़ गया है, पर किताब पूरी होने में शायद साल भर लग जाए।

‘समीक्षा’ का जनवरी-मार्च अंक मिल गया होगा। अंक कैसा बना है, लिखेंगे। एक समस्या ‘समीक्षा’ को लेकर भी पैदा हो गई है! श्रीकृष्ण जी ने स्वास्थ्य के कारण अपना कारोबार बंद कर दिया है। अब तक ‘समीक्षा’ के मुद्रण का भार उन्हीं पर था। प्रभात प्रकाशन से बातें हुई हैं। श्याम सुंदर जी ने उसे मुद्रित करा देने का दायित्व स्वीकार कर लिया है। देखें, कैसे यह काम पूरा होता है?

आशा है, आप स्वस्थ प्रसन्न हैं। आप मुझसे लगभग नौ साल बड़े हैं। पर न तो समय से आपको पराजित होना है, न मुझे। क्योंकि समय भी प्रभु से बड़ा नहीं है और हम प्रभु के चाकर हैं। समय भला हमारा क्या बिगाड़ सकता है। जाने का दिन आएगा तो गर्व के साथ चले जाएँगे। पर बीच में रूकेंगे नहीं। अंतिम साँस तक चलते रहेंगे, क्यों?

आपका
गोपाल राय

(आठ)

नई दिल्ली-110068
24-04-2006

आदरणीय भाई साहब,
सादर प्रणाम।

उस दिन आपसे फोन पर बात करके मन को बड़ी सान्त्वना मिली। वस्तुतः जब समानधर्मा आपस में बतियाते हैं तो उनके मन का अवसाद बड़े स्वाभाविक रूप में घुलकर बह जाता है।

मैंने इधर शिवप्रसाद सिंह की सारी कहानियाँ पढ़ ली हैं। पर समस्या उनके काल-निर्धारण की है। इसके लिए उनके कहानी-संग्रहों का प्रथम प्रकाशन-वर्ष और उनमें संगृहीत कहानियों की सूची की जानकारी अपेक्षित है। मुझे उनके दो संग्रहों, ‘आरपार की माला’ और ‘मुरदा सराय,’ से संबद्ध सूचनाएँ मिल भी गई हैं। पर ‘कर्मनाशा की हार,’ ‘इन्हें भी इंतजार है,’ ‘अँधेरा हँसता है’ और ‘भेड़िये’ संग्रह मुझे उपलब्ध नहीं हो सके हैं। यदि आपके पास ये संग्रह हों या आपके प्रयत्न से कहीं मिल सकें, तो कृपया इनके प्रकाशन-काल की सूचना और उनमें संगृहीत कहानियों की सूची उपलब्ध कराकर अनुगृहीत करें। यदि इन संग्रहो की भूमिकाओं की फोटोप्रति भेज दें तो और अच्छा हो। यदि शिवप्रसाद सिंह की कहानियों के संबंध में अपनी लिखित सामग्री उपलब्ध करा दें तो सोने में सुगंध हो जाए।

मुझे विश्वास है, आप मेरे लिए यह कष्ट उठाने में असुविधा का अनुभव न करेंगे और असुविधा हो भी, तो उसे झेल लेंगे!
आशा है, स्वस्थ प्रसन्न हैं।

आपका
गोपाल राय

(नौ)

नई दिल्ली-110068
27-04-06

आदरणीय भाई साहब,
सादर प्रणाम।

आपके द्वारा प्रेषित उपन्यासकारों-कहानीकारों से संबंधित सूचनाएँ प्राप्त हुई। आभारी हूँ। मुझे वह पौराणिक प्रसंग याद आ रहा है, जिसमें कहा गया है कि शुंभ-निशुंभ से लड़ने के लिए सभी देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियाँ माँ दुर्गा को अर्पित की। वैसा ही कुछ मेरे इतिहास-लेखन के प्रसंग में भी घटित हो रहा है। मैं अपने मित्रों-हितैषियों का सहयोग देखकर दंग हूँ। यह प्रभु की कृपा ही है।

आपके द्वारा प्रेषित सूचनाएँ कंप्यूटर में डाल रहा हूँ। यदि आपके ग्रंथागार में शिवप्रसाद सिंह के कहानी-संग्रह ‘इन्हें भी इंतजार है’, ‘अँधेरा हँसता है’ और ‘भेड़िये’ हों तो इनमें (प्रत्येक से अलग-अलग) संग्रहीत कहानियों की सूची तथा उनकी भूमिकाओं (यदि हो) की फोटोप्रति भेजने की कृपा करें।

अब आपकी कहानियाँ पढ़ना शुरू कर रहा हूँ। ‘कालातीत’ की सभी कहानियाँ पढ़ ली हैं। खूब पसंद आई हैं। अब अन्य संकलनों की बारी है। इतिहास में इनके साथ न्याय होगा।… आशा है, सानंद हैं।

आपका
गोपाल राय

(दस)

नई दिल्ली-110068
31-05-2007

आदरणीय भाई साहब,
सादर प्रणाम।

अब मेरी नयी किताब ‘हिंदी कहानी: आख्यायिका से नयी कहानी तक’ मुहाने पर पहुँच रही है। आपने पाँचवें दशक में कहानी-लेखन आरंभ किया था, इसकी सूचना मुझे है। आपका पहला कहानी-संग्रह ‘जीवन-परिधि’ 1952 में प्रकाशित हुआ था, यह भी मुझे ज्ञात है। पर आपकी आरंभिक कहानियों पर लिखने के लिए ‘जीवन-परिधि’ की प्रति मेरे पास नहीं है। यदि कहीं हो भी तो ऐसी जगह छिपी हुई है जिसका मिलना मुश्किल है। कृपया उसकी प्रति मुझे यथाशीघ्र उपलब्ध करा दें, ताकि मैं उस पर अपने विचार लिख सकूँ। यह आश्वासन दे रहा हूँ कि पढ़कर और नोट्स लेकर किताब तुरंत वापस कर दूँगा। आशा है, आप मुझे निराश न करेंगे।

मैं 6-11 मई के बीच अपने गाँव गया था। कोई सवारी उपलब्ध न थी, अन्यथा आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी। लगता है, अब हमारी बहुत सारी अभिलाषाएँ इसी प्रकार दम तोड़ती रहेंगी। फिर कुछ होता रहे, तो वह प्रभु की कृपा ही है। मैं लगा हुआ तो हूँ देखना है, कहाँ तक यात्रा संपन्न होती है।
आशा है, स्वस्थ प्रसन्न हैं।

आपका
गोपाल राय


Original Image: Two Trees
Image Source: WikiArt
Artist: Hercules Seghers
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गोपाल राय द्वारा भी