व्यंग्य की तिरछी पगडंडियों पर

व्यंग्य की तिरछी पगडंडियों पर

संपदा पांडेय कृत ‘भारतीय नारी: सृजन और व्यंग्य-कर्म’ पुस्तक संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार की कनिष्ठ शोधवृत्ति के लिए तैयार शोध परियोजना का संशोधित रूप है। एक शोधकर्ता की दृष्टि की जागरूकता व सतर्कता के प्रमाण से लैस यह किताब पाठकों ने सायास ही लिखा है कि आँचल में दूध ओर आँखों में पानी वाली भारतीय नारी के पास गुदगुदाने वाला हास्य और सुधारने वाला व्यंग्य भी है। यह कथन उनकी पुस्तक को और अधिक प्रामाणिक घोषित करता है। लेखिका ने बड़े सुनियोजित ढंग से व्यंग्य के स्वरूप व प्रयोजन की विवेचना के साथ अपनी कृति का आरंभ किया है। उनके अनुसार–‘व्यंग्य के पीछे सामाजिक चिंतन है, व्यंग्य साहित्य के पीछे की सारभूत चेतना है, व्यंग्य प्रतिबद्धता का लेखन है, व्यंग्य व्यवस्था के विरोध में अस्वीकार की आवाज है। अद्भुत मूल्य बोध का आंदोलन है व्यंग्य। एक सच्चे और सतर्क थानेदार का डंडा जैसे चोर की पीठ पर पड़ता है वैसे साहित्य के व्यंग्य का डंडा समाज पर पड़ता है। तीखे व्यंग्य की रचनाओं में सत्य को हू-ब-हू एक्सरे की नजर से व्यक्त करने की जिम्मेदारी होती है, ताकि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दोषों को वगैर किसी लाग-लपेट के, नमक मिर्च और टाल-मटोल के व्यक्त किया जा सके। व्यंग्य में सत्य की संप्रेषणीयता को लक्ष्य बनाया जाता है।’ (पृ. 22-23) युगों से व्यंग्य लेखन भारतीय साहित्य का अभिन्न अंग रहा है किंतु उसके स्वरूप को लेकर गंभीर चिंतन का धरातल आजादी के बाद ही बन पाया है। इस तरह के शोध-कर्म कदाचित इन युगों की खामी व क्षति को पाटने का एक मजबूत व महत्त्वपूर्ण प्रयास साबित हो सकता है। ‘व्यंग्य विधा में सक्रिय नारियाँ’ इस पुस्तक का दूसरा अध्याय है जिसमें संपदा जी ने बड़ी सावधानीपूर्वक विस्तार से सूर्यबाला से लेकर चेतना भाटी तक की रचनाओं में व्यंग्य की धार की पैनी परख की है। प्रतिष्ठा की कतार में भारतीय नारी हमेशा पीछे की तरफ खदेड़ी गई है, उस पर व्यंग्य लेखिकाओं को कदाचित हाशिए की जगह ही नसीब हुई है। ऐसी विषम परिस्थिति में संपदा जी ने इन लेखिकाओं के कृतित्व का मनोयोगपूर्ण अध्ययन करते हुए उनका प्रामाणिक डॉक्यूमेंटेशन किया है। इन रचनाओं की वैचारिक महत्ता व उपादेयता को असंदिग्ध घोषित करने की पुरजोर कोशिश की है। वे सूर्यबाला की रचना-शैली, संवाद-शैली के प्रतिमानिक जायके, स्नेहलता पाठक के व्यंग्य में इस्तेमाल किए गए पारंपरिक मिथकों की सजीवता व प्रभावात्मकता, सरोजिनी प्रीतम के हास्य-व्यंग्यपूर्ण रचना संसार के जीवन संदर्भ, अलका पाठक के व्यंग्य-संकलनों की समसामयिकता व भाषा की तीव्र धार, बानो सरताज के व्यंग्य-संग्रहों की वर्णनात्मक क्षमता तथा विषय-वैविध्य, सुधारानी श्रीवास्तव के व्यंग्य-जगत में जबलपुर की लोक-भाषा की सोंधी महक व नारी-सुलभ भावनाओं की रोचक अभिव्यक्ति, रेखा व्यास के नए सामाजिक आलंबनों व टटकेपन से लैस भाषा में रचित व्यंग्य रचनाओं तथा चेतना भाटी की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक विडंबनाओं को परखने की पारखी नजर का सूक्ष्म निरीक्षण किया है।

व्यंग्य लेखन नाटकों, उपन्यासों के माध्यम से भी हिंदी महिला व्यंग्यकारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बना है। व्यंग्य नाटक के क्षेत्र में डॉ. कुसुम कुमार, मृणाल पांडेय, अन्विता अग्रवाल आदि जाने-माने नाटककारों की कृतियों को आपने एक आलोचक की समीचीन दृष्टि के साथ परखा है। हास्य-व्यंग्य उपन्यासों की कतार में भी पद्मा अग्रवाल, सलमा सिद्दिकी, डॉ. सरोजिनी प्रीतम, आशा रावत के उपन्यासों पर फोकस किया है। पुस्तक में लेखिका की रचनाशीलता यह प्रमाणित करती है कि वे आलोच्य कृतियों की नब्ज जाँचना जानती हैं। वे जानती हैं कि भारतीय नारी दलित व वंचित रही है। इसलिए नारी लेखन का मुआयना करते समय समग्र भारतीय नारी लेखन की परिक्रमा करना उन्हें अपने शोध कर्म के प्रति ईमानदारी लगी। अतः उन्होंने भारतीय साहित्य में नारी व्यंग्य सृजन के अंतर्गत गुजराती, मराठी, असमिया, तेलुगु व्यंग्य लेखिकाओं की कृतियों की गंभीरता का बेहद समझदारी के साथ आकलन किया है। उनके अनुसार–‘नारी-सवालों के प्रति पुरुष लेखकों के नारी विरोधी नजरिए ने भी विकासशील देशों की स्त्रियों को आहत किया है। औरत की लड़ाई को चुटीले अंदाज में अंकित करने के लिए भारतीय भाषाओं की कई लेखिकाओं ने अपनी कलम में व्यंग्य कर रंग भरा है। भारतीय नारी की वर्तमान तस्वीर को उभारते हुए इन लेखिकाओं ने कहीं पारिवारिक-सामाजिक परिस्थितियों के बीच नारी की नियति का चित्रण किया है तो कहीं नारियों के बारे में व्याप्त मानसिकता का सच्चा रूप सामने रखा है।’ (पृ.-81) पुरुषवादी दृष्टि व नारीवादी दृष्टि में जो भिन्नता है, उसी भिन्नता का साथ देती हुई संपदा पांडेय ने व्यंग्य क्षेत्र में सक्रिय महिला लेखिकाओं के अस्तित्व को स्वर दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि समाज में नीरव आंदोलनकारियों के रूप में सजग इन महिला व्यंग्य लेखिकाओं को संपदा पांडेय जी की यह पुस्तक मानसिक बल व वैचारिक खाद देगी।


Original Image: Boy Reading
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Artist: Samuel Peploe
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राष्ट्रपिता गाँधी जी ने असहमति की अभिव्यक्ति को रोकना एक स्वस्थ समाज के लिए सबसे बड़ी चिंता का कारण बताया था। प्रखर आलोचक एवं व्यंग्यालोचन के क्षेत्र में कई दशकों से एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में चर्चित डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी की नवीनतम कृति ‘व्यंग्यालोचन के पार-द्वार’ में भी किसी सीमा तक असहमति की अभिव्यक्ति को ही व्यंग्य की अंदरूनी शक्ति घोषित किया गया है। इसलिए पुस्तक के प्रथम अध्याय में कहा गया है–‘भ्रष्टाचार का धनुष किसी से उठ नहीं रहा है, प्रहार की जयमाला निष्फल हो रही है। नारों की नदियाँ बनी हैं, वादों के नाव चल रहे हैं, अफवाहों की बयार बह रही है, अपराध की शीतलता सारे पर्यावरण को सुधार रही है। मानवता और आदर्श के सारे आचरण शब्दकोश में सजे हुए हैं।