यथार्थ की परतें खोलती ग़ज़लें

यथार्थ की परतें खोलती ग़ज़लें

मधुवेश द्वारा रचित ग़ज़लों का पहला संग्रह ‘क़दम-क़दम पर चैराहे’ सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की तहों की खोज-ख़बर लेने वाली ग़ज़लों को सामने लाता है- इसमें दर्द की एक ऐसी दास्तान है जिससे आज के आम आदमी को रोज़-रोज़ दो-चार होना पड़ता है और यह दास्तान ऐसे सहज अशआर में प्रकट होती चलती है कि संप्रेषणीयता में कहीं भी बाधा नहीं पहुँचती।

यहाँ यह भी विचारणीय है कि यथार्थ की परतों तक पहुँच बनाने के लिए केवल निजी संचित ज्ञान और निजी अनुभवों का जख़ीरा ही काफ़ी नहीं है, ख़ासकर ग़ज़ल जैसी विधा के लिए। जो शायर कल्पनाशक्ति द्वारा मान-अनुमानों का सहारा लेता है, उनका महत्त्व भी किसी मायने में कम नहीं है। यथार्थ का मतलब तथ्यों की प्रामाणिकता तक सीमित नहीं है, उसमें प्रत्येक वह चीज़ भी शामिल है, जिसकी हम कल्पना कर सकते हैं। ख़ास बात यह भी है कि हमारे सृजन की दिशा और पक्षधरता किस ओर है। इस दृष्टि से देखें तो मधुवेश जनपक्षधर हैं और आम जन-मानस के प्रति संवेदनशील भी। विचार को संवेदना में रूपांतरित करने की क्षमता भी उनमें है, जो किसी भी कला-विधा की ज़रूरी शर्त है। लेकिन कहीं-कहीं मधुवेश सपाटबयानी के शिकार होते भी देखे जाते हैं, जिसके कारण कुछेक अशआर में वह गहराई नहीं आ पाती जिसकी अपेक्षा किसी भी अच्छे ग़ज़लकार से की जाती है। संभव है कि वे कल्पना को यथार्थ का दुश्मन मानकर जानते-बूझते ऐसा करते हों, जैसा कि हिंदी के कई ग़ज़लकार कलावाद का विरोध करते हुए कला को भी खारिज करते हैं।

इधर (शायद दुष्यंत के समय से) कहन और ग़ज़ल कहने के तौर-तराक़ों में लाजमी तौर पर फ़र्क आया है, इसे पुस्तक के फ्लैप पर स्पष्ट किया ही गया है। अवश्य ही कोई रचना चाहे वह किसी भी कला-विधा में सिरजी गई हो, अपने समय का तभी प्रतिनिधित्व कर पाएगी जब उसमें अपने समय की अनुगूंजें हों और अपने समय से संबंधित तौर-तरीके भी हों। आज हम अनेक स्तरों पर सामाजिक बदलावों को देख-महसूस रहे हैं- हीर-रांझा, लैला-मजनूं, सीरी-फ़रहाद वगैरह के इश्किया किस्से अब गए ज़माने की बातें हैं…और ग़ज़ल? ग़ज़ल-जिसका मतलब ही माशूका से गुफ़्तगू बताया गया, आज बदले हुए सरोकारों की वजह से अपना स्वभाव बदल चुकी है। इसके ऊपरी ढ़ांचें में भी थोड़ा-बहुत फ़र्क आया ही होगा- इसे ग़ज़ल के पंडित ही बता सकते हैं।

मधुवेश की संवेदनशील, पैनी और सजग दृष्टि, बिना लाग-लपेट के सीधे-सीधे कहने की कला (जिसे उनकी सीमा से जोड़कर भी देखा जा सकता है) के हम सभी कायल हैं और साक्षी भी। ‘कदम-कदम पर चैराहे’ की ग़ज़ले पढ़ते हुए यह बात पूरी तरह साफ हो जाती है, जब वे कहते हैं- ‘सो गई खुद ‘पीड़िता’ झकझोरकर हमको/मौत ये उसकी नहीं इनसानियत की है।’ या ‘बड़े नरम लहज़े में हमसे माँगेंगे वो वेाट मगर/जब हम मिलने जाएंगे तो गूंगे-बहरे निकालेंगे।’

ग़ज़लों में जन-चेतना से उत्पन्न वर्तमान व्यवस्था के विरूद्ध आक्रोश, व्यंग्य और चिंता के भाव भी हैं। वर्तमान ‘भारतीय लोकतंत्र’ का बेनकाब होता चेहरा है। पुस्तक की अधिकांश ग़ज़लें एक खास धारा से संबंध रखती हैं, जहाँ रूमानियत के लिए थोड़ा-सा भी स्पेस नहीं बचा हैं। अवश्य ही इन्हें समकालीन स्थितियों की लाक्षणिकता से जोड़कर देखा जाएगा। इन अशआर पर ध्यान दें- ‘हमारा नाम सुनकर लोग कोसों दूर से आए/हमारे नाम से वाकिफ़ हुई उस दिन गली अपनी।’ यह शेर अपने गर्भ में गहरे और तीखे व्यंग्य को छुपाए है और कुछ ही शब्दों में वर्तमान समय की विडंबनाओं को सामने ले आता है- हमारे सामाजिक संबंध इस इंटरनेट के युग में भी, जबकि आदमी पूरी दुनिया को मुट्ठी में समेटने के लिए बेचैन है, इतने आत्मकेंद्रित हैं कि गली के लोग एक-दूसरे के नाम तक नहीं जानते। यह कैसा समाज है, जहाँ कोसों दूर से नाम सुनकर आने वालों के कारण ही गली के लोग नाम से वाकिफ़ हो पाते हैं।

‘पाठ पढ़ाने आए हैं कुछ लोग अहिंसा का हमको/कंधों पर बंदूक संभाले देखो अपनी बस्ती में।’ कलिंग-विजय में हज़ारों गांवों को आग के हवाले करने और लाखों को मौत के घाट उतारने वाले सम्राट अशोक का अंततः हृदय-परिवर्तन होता है और वह दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाकर महान होता है, लेकिन यहाँ तो शांति बंदूक की नलियों में भरी हुई है, जो किसी भी समय आदमी के चिथड़े कबूतर की तरह उड़ा सकती है। शांति-शांति के शोर से लोगों की शांति भंग करने वालों की कमी आज भी नहीं है। आज के अधिकांशतः युद्ध शांति के नाम पर ही हुए हैं।


Original Image: Interior Strandgade 30
Image Source: WikiArt
Artist: Vilhelm Hammershoi
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork

हरिपाल त्यागी द्वारा भी