एक सैर ओड़िशा की
- 1 February, 2022
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- 1 February, 2022
एक सैर ओड़िशा की
डे-वन : भुवनेश्वर (उड़ीसा) उदयगिरि एवं खंडगिरि की गुफाएँ :
हर गुफा से जुड़ी कुछ कहानियाँ होती हैं…ऐतिहासिक गाथाओं का स्मरण कराती अत्यंत रोचक कहानियाँ…कुछ रहस्यमयी तो कुछ प्रेरणादायी। ये कहानियाँ भी उतनी ही गहरी होती हैं जितनी कि ये गुफाएँ दिखती हैं। आज मैं ओड़िसा राज्य की राजधानी भुवनेश्वर में हूँ, जहाँ किसी समय में सात हजार मंदिर हुआ करते थे और जिन्हें सात सौ वर्षों में बनाया गया था। लेकिन अब 600 मंदिर ही बचे हैं जो कि अपने आप में अद्भुत हैं। दोपहर के भोजन के बाद हम राजकीय अतिथिशाला से निकल पड़े इन गुफाओं के दर्शन करने। भुवनेश्वर की चौड़ी सड़कों और सीधे-सादे शहर के दिल में उतरना एक सुखद अहसास रहा। सबसे पहले हम जा पहुँचे शहर को अपनी गोद में लिए उन पहाड़ियों के पास जहाँ की चट्टानें अपने आगंतुकों का स्वागत करने को बेचैन थीं। एक लंबे लॉक डाउन के बाद ये दर्शनीय स्थल अपने पुराने चमक-धमक को पाने के लिए आतुर दिखे।
उदयगिरि और खंडगिरि भुवनेश्वर के पास स्थित दो पहाड़ियाँ हैं जो आंशिक रूप से प्राकृतिक एवं आंशिक रूप से कृत्रिम हैं। राजधानी से मात्र 6 किलोमीटर दूर स्थित 135 फुट ऊँची उदयगिरि की गुफाएँ और 118 फुट ऊँची खंडगिरि की गुफाएँ हैं। यहाँ जैन राजा खारवेल द्वारा बनवाई गई कलाकृतियाँ हैं जो आज भी जीवंत दिखती हैं। इनकी सीढ़ियों पर चढ़ते-चढ़ते, मौसम की नमी और मुँह-नाक को ढके मास्क ने बड़ी आसानी से पसीने से तर-बतर कर दिया। पर आकाश में ढलता सूरज…सुंदर कलाकृतियों पर छिटक कर पड़ती लाली रोशनी और गुफाओं के द्वार…मानो आपको पुकार रहे हों। चारों ओर की हरियाली, थोड़ी ऊँचाई से नीचे दिखते पर्यटक, प्रेमी युगल, छोटे-बड़े बच्चे…और उन सभी को देखती मैं, मेरा बेटा, पतिदेव और उनका प्रोटोकॉल। पहली बार छुट्टियों की यात्रा पर बेटी नहीं हैं, इसीलिए खाली-खाली लगना स्वाभाविक है। पर पढ़ाई और करियर में लगे बच्चे कब तक उँगली पकड़ कर चलेंगे।
इन गुफाओं के पास लगे शिलालेखों में इनका वर्णन ‘कुमार पर्वत’ के रूप में भी किया गया है और इनकी संख्या और नाम का जिक्र किया गया है। उदयगिरि में 18 और खंडगिरि में 15 गुफाएँ हैं। कहा जाता है कि कुछ गुफाओं का निर्माण जैन साधुओं ने किया है और ये प्रारंभिक काल में चट्टानों से काट कर बनाए गए जैन मंदिरों की वास्तुकला के नमूनों में से एक है। इन्हें न जाने कितनी पूर्णिमा वाली चाँदनी रातों में बनाया गया था। ऐसा लगता है ये गुफाएँ आज भी उसी शीतल चाँदनी की शीतलता और रौनक को महसूस करा रही हैं।
धौली…भुवनेश्वर, उड़ीसा : धौली, उड़ीसा की राजधानी के दक्षिण में राजमार्ग संख्या 203 पर स्थित एक बहुत ही पावन स्थल है। यहाँ का प्रसिद्ध शांति स्तूप एक महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थान है जो कि धौली पहाड़ी के चोटी पर बना हुआ है। इस स्तूप में भगवान बुद्ध की मूर्ति तथा उनके जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं की मूर्तियाँ स्थापित है। इस स्तूप से ‘दया नदी’ का विहंगम नजारा दिखता है जो आपको रोमांचित कर देता है।
धौली, यह वही स्थान है जहाँ अशोक कलिंग युद्ध के बाद पश्चात्ताप की अग्नि में जला था। इसी के बाद उसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया और जीवन भर अहिंसा के संदेश का प्रचार प्रसार किया। अशोक के प्रसिद्ध पत्थर स्तंभों में एक यहीं है। इस स्तंभ (257 ई.पू.) में अशोक के जीवन दर्शन का वर्णन किया गया है।
गुफाओं से निकल कर इस शांति स्तूप को देखने हम सीधे धौली जा पहुँचे। सफेद-सफेद चिकनी और हल्की बारिश से भीगी हुई सीढ़ियों से चढ़कर आप जैसे ही ऊपर पहुँचते हैं…सारे पर्यटकों के बीच बुद्ध आपको अपने विलक्षण रूप में दिख जाएँगे। भीड़ हो या शांति बुद्ध हमेशा से धीर-गंभीर भाव लिए, जीवन के गूढ़ रहस्यों को सुलझाते आपके हृदय में सीधे प्रवेश करते हैं। यह अहसास बहुत सुकून दायक होता है। ऊपर परिक्रमा करने के दौरान हमें स्तूप के पीछे की सीढ़ियों से एक पुराने शिव मंदिर के दर्शन कराने ले जाया गया जहाँ बहुत कुछ देवियों की मूर्तियाँ और भगवान गणेश की भी पाषाण की प्रतिमा थी। नवरात्र की पंचमी तिथि में माँ का फूल और प्रसाद मिलना मेरे लिए सीधे माँ का आशीर्वाद पाने के बराबर था। पंडित जी द्वारा लगाए गए ललाट पर रोड़ी-चंदन के टीके हमें उस स्तूप के बीच सच्चे भक्तों की पंक्ति में खड़ा कर दिए थे। अब सीढ़ियों से नीचे जाने पर हमें एक और छोटे से बौद्ध मंदिर में दर्शन करने का मौका मिला जहाँ वज्रासन में बैठना मेरे पैरों को सुकून दे रहा था। फ्लाइट और गाड़ी में घंटों बैठने और चलने से ज्यादा सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद लग रहा था वही उस छोटे से मंदिर में कुछ देर उसी आसन में बैठ जाऊँ। पर हमें एक घंटे में कटक के लिए निकलना था और चाय की तलब तेज हो गई थी।
डे-टू : लिंगराज मंदिर, भुवनेश्वर (ओड़ीसा)
कहते हैं भगवान शिव के बारहों ज्योतिर्लिंगों के राजा हैं लिंगराज, जिनसे अन्य बारहों लिंगों को ज्योति और ऊर्जा प्राप्त होती है। यह ब्रह्मलिंग है…अत्यंत पावन है और सकारात्मक ऊर्जा का एक महान स्रोत! यहाँ मंदिर परिसर में छोटे-बड़े कुल 108 मंदिर हैं, जिनमें भगवान शिव, देवी पार्वती एवं उनके रूप, भगवान लक्ष्मी-नारायण, विघ्नविनाशक गणेश भगवान के मंदिर प्रमुख हैं।
हमारे कार्यक्रम में लिंगराज मंदिर का दर्शन एक दिन पूर्व संध्या के समय में था। पर मुझे प्रातःकाल का समय किसी भी मंदिर में पूजा अर्चना करने के लिए उपयुक्त लगता है। भगवान सूर्य की सुनहरी किरणों से प्रकाशित मंदिर की कलाकृतियाँ अत्यंत आकर्षक लग रही थीं। पीले गेंदे के फूलों की पंखुड़ियों से जगह-जगह मंदिर के चौखटों को सजाया गया था…कहीं देवी का सजाया जा रहा था तो कही फूलों से भरी डलिया और भोग के डोलचे अपने भक्तों का इंतजार कर रहे थे। लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर का मुख्य मंदिर है तथा भगवान त्रिभुवनेश्वर को समर्पित है। इसे ययाति केशरी ने 11वीं शताब्दी में बनवाया था। यद्यपि इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप 12वीं शताब्दी में बना, किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी अधिक पुराने हैं। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है।
लिंगराज का विशाल मंदिर अपनी अनुपम स्थापत्यकला के लिए भी प्रसिद्ध है। मंदिर में प्रत्येक शिला पर कारीगरी और मूर्तिकला का चमत्कार दिखता है। इस मंदिर का शिखर भारतीय मंदिरों के शिखरों के विकास क्रम में प्रारंभिक अवस्था का शिखर माना जाता है। यह नीचे तो प्रायः सीधा तथा समकोण है किंतु ऊपर पहुँचकर धीरे-धीरे वक्र होता चला गया है और शीर्ष पर प्रायः वर्तुल दिखाई देता है। इसका शीर्ष चालुक्य मंदिरों के शिखरों पर बने छोटे गुंबदों की भाँति नहीं है। मंदिर की पार्श्व-भित्तियों पर अत्यधिक सुंदर नक्काशी की हुई है। यहाँ तक कि मंदिर के प्रत्येक पाषाण पर कोई-न-कोई अलंकरण उत्कीर्ण है। जगह-जगह मानवाकृतियों तथा पशु-पक्षियों से संबद्ध सुंदर मूर्तिकारी भी प्रदर्शित है। सर्वांग रूप से देखने पर मंदिर चारों ओर से स्थूल व लंबी पुष्पमालाएँ या फूलों के मोटे गजरे पहने हुए जान पड़ता है। मंदिर के शिखर की ऊँचाई 180 फुट है। गणेश, कार्तिकेय तथा गौरी के तीन छोटे मंदिर भी मुख्य मंदिर के विमान से संलग्न हैं। गौरीमंदिर में पार्वती की काले पत्थर की बनी प्रतिमा है। मंदिर के चतुर्दिक गज सिंहों की उकेरी हुई मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं।
मंदिर का प्रांगण 150 मीटर वर्गाकार का है तथा कलश की ऊँचाई 40 मीटर है। प्रतिवर्ष अप्रैल महीने में यहाँ रथयात्रा आयोजित होती है। मंदिर के निकट ही स्थित बिंदुसागर सरोवर में भारत के प्रत्येक झरने तथा तालाब का जल संग्रहीत है और उसमें स्नान से पापमोचन होता है। मैंने स्नान तो नहीं किया पर दर्शन मात्र से ईश्वर से जाने-अनजाने हुई गलतियों के लिए क्षमा जरूर माँगी।
डे-थ्री : गोपालपुर-ऑन-सी, उड़ीसा
उड़ीसा राज्य के दक्षिणी सीमा रेखा पर स्थित एक शांत, सुंदर और छोटा सा तटीय शहर-गोपालपुर, जो बहरामपुर से मात्र 15 किमी दूर गंजाम जिले में स्थित है। समुद्र की लहरों का शोर और तटों पर लहरों के साथ आते-जाते सीपों की खनखनाहट इस शहर की शांति में हलचल पैदा करते हैं। न जाने कितने तूफानों को झेल चुका है यह शहर और आगे भी झेलने के लिए सीना ताने खड़ा है। काश! हमें भी मुट्ठी भर हिम्मत मिल जाए इस शहर और यहाँ रहने वालों से और हर बार हम मुस्कुराते हुए तैयार हो जाएँ जीवन के तूफानों को झेलने के लिए।
गोपालपुर-ऑन-सी में हमारा आना दूसरी बार हुआ है। पहली बार 2013 में हम गोपालपुर में ही थे जब फाइलिन तूफान ने दस्तक दी थी। जिस शाम तूफान का लैंडफॉल गोपालपुर के समुद्री तट पर होने वाला था, उसी दिन हम दोपहर के 12 बजे बड़ी मुश्किल से इस शहर से निकल पाए थे। पूरी जगह को खाली कराया जा रहा था। तूफान के आने की पहले वाली शांति को हमने अपनी आँखों से देखा था। फिर लहरों की बढ़ती ऊँचाई, भयानक शोर और गहराता आकाश…दिन में पसरते रात और चंद घंटों में ही शहर को वीरान होते देखा था। जिस समय हम भुवनेश्वर पहुँचे भयंकर बारिश शुरू हो चुकी थी और अगले दिन बहुत ही मुश्किल से हम एक टैक्सी से अपने शहर राँची पहुँच पाए थे। इतने सालों बाद गोपालपुर फिर से आना उत्साहित कर रहा था। शहर तो अपना लग ही रहा था। पर बार-बार तटीय शहरों को क्षतिग्रस्त होने के बाद बनने में वक्त तो लगता ही है। यह शहर अभी भी पूर्ण रूप से व्यापारिक नहीं है। आपको यहाँ सभी वस्तुओं की कीमतें अन्य पर्यटन स्थलों से काफी कम लगेंगी।
डे-फोर : चिल्का झील, उड़ीसा
‘झील की सतहों पर पसरी थी खामोशियाँ/अचानक दिल में उतर कर किसी ने हलचल पैदा कर दी…’
झील की सुंदरता का वर्णन आदि काल से महाकवि करते आए हैं। झील का नीलापन और गहराई की तुलना अक्सर नारी की सुंदर आँखों से की गई है। मगर स्त्री हो या पुरुष, जब खुली आँखों के सामने एक सुंदर झील हो तो सच आप सब कुछ भूल कर उसकी गहराई में डूब जाते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। चिल्का मैं पहले भी आई थी। इस बार चिल्का झील दूसरी बार आना हुआ था। यहाँ हमारे लिए पूरे दो घंटे का नौका विहार तय था। झील के बीच में एक छोटे से द्वीप पर माँ कालिका का सुंदर मंदिर और उसके आस-पास का सौंदर्य आपको वहाँ से हटने नहीं देगा। फिर बाहर का मौसम गर्म और उमस भरा ही क्यों न हो।
चिल्का झील में लगभग चालीस मिनट की नौका यात्रा के बाद हम महाअष्टमी के दिन माँ काली के द्वार पर पहुँचे और मंदिर के अंदर बैठकर हमें माँ की पूजा अर्चना करने का सौभाग्य मिला। अद्भुत थी वह अनुभूति। क्षण भर के लिए आप सब कुछ भूलकर एक सकारात्मक ऊर्जा के घेरे में खुद को महसूस करने लगते हैं। कुछ देर वहाँ के प्रांगण में गुजारने के बाद हम वापस अपनी नौका से चिल्का झील के किनारे बने सुंदर से रिजॉर्ट में लौट आए। यहाँ के खाने का स्वाद और खिलाने का अपनापन मैं कभी नहीं भूल सकती। रात्रि के खाने में वेज पुलाव का स्वाद ने मेरी खुराक बढ़ा दी और नतीजा कि सोने के पहले मुझे बीस मिनट का ब्रिस्क वॉक करना पड़ा।
आपको बता दूँ चिल्का एशिया का सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा लैगून है। यह भारत के ओड़िशा राज्य के पुरी, खोर्धा और गंजाम जिलों में स्थित एक अर्ध-खारे जल की अनूपझील (लगून) है। इसमें कई धाराओं से जल आता है और पूर्व में बंगाल की खाड़ी में बहता है। इसका क्षेत्रफल 1,100 वर्ग किमी से अधिक है और यह भारत की सबसे बड़ी तटीय अनूपझील और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्धखारी अनूपझील है।
चिल्का झील की लंबाई 65 किमी चौड़ाई 9 से 20 किमी और गहराई लगभग 2 मीटर है! इसे दया और भार्गवी नदी से जल प्राप्त होता है यहाँ पर नौसेना का प्रशिक्षण केंद्र अवस्थित है। हमने झील में नौका विहार के दौरान भी बगल के एक द्वीप पर नौसेना के जवानों को प्रशिक्षण लेते हुए दूर से ही देखा। लघु शैवाल, समुद्री घास, समुद्री बीज, मछलियाँ, झींगे, केकड़े आदि चिल्का झील के खारे जल में फलते-फूलते हैं और मछली उत्पादन का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस झील से होता है।
वर्ष 1981 में चिल्का झील को रामसर कन्वेंशन के तहत अंतरराष्ट्रीय महत्त्व का पहला भारतीय आर्द्रभूमि नामित किया गया था। चिल्का में प्रमुख आकर्षण इरावदी डॉलफिन (Irrawaddy Dolphins) हैं जिन्हें अक्सर सातपाड़ा द्वीप के पास देखा जाता है। पिछली बार की यात्रा के दौरान गुमें भी दो-तीन डॉलफिन्स देखने को मिली थी। एक सर्वेक्षण के मुताबिक यहाँ 45 प्रतिशत पक्षी भूमि, 32 प्रतिशत जलपक्षी और 23 प्रतिशत बगुले हैं। यह झील 14 प्रकार के रैपटरों का भी निवास स्थान है।
यह सुंदर झील दया नदी के मुहाने पर स्थित है। इस नमकीन पानी की झील को आर्द्रभूमि भी कहा जाता है। सर्दियों में यह झील कैस्पियन सागर, ईरान, रूस और दूर स्थित साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों का निवास स्थान बन जाती है। जाड़े के समय में इस झील में नौका विहार के दौरान आप उन पक्षियों को बहुत करीब से देख सकते हैं।
डे-फाइव : जगन्नाथपुरी, उड़ीसा
जय जगन्नाथ! महानवमी का पावन दिन…संध्या का समय…मंदिर के सामने अच्छी-खासी भीड़…कुछ मास्क में तो कुछ बिना मास्क के…प्रभु के दर्शन पाने के लिए भक्तों की लंबी कतार। वैसे तो हमें विजयदशमी के दिन सुबह में दर्शन करना था, मगर पुरी में प्रवेश करते ही पहला कार्य प्रभु दर्शन ही होता है। इस बार भी प्रभु की इच्छा वही थी। अत्यधिक भीड़ होने की वजह से विजयदशमी के दिन शायद दर्शन बंद होने की संभावना थी। इसीलिए हमें संध्या चार बजे के बाद का समय दिया गया जिसमें बहुत नजदीक से भगवान जगन्नाथ के दर्शन होने की बात कही गई। हम स्नानोपरांत मंदिर प्रांगण में पहुँच गए। मेरे लिए यह चौथा अवसर था प्रभु के दर्शन का। मेरे पति का छठी बार पुरी आना हुआ था। इस बार भी पुरी दर्शन आने के पीछे कुछ मन्नतों को पूरा करना था। कुछ समय पहले यहाँ हल्की बारिश भी हुई थी, जिससे मंदिर का फर्श चिकना हो गया था। अभी उड़ीसा के तटवर्ती इलाकों में आने वाले तूफान ‘गुलाब’ का हल्का असर दिख रहा है। हालाँकि यहाँ असर ज्यादा नहीं होने की संभावना है।
मंदिर के अंदर हम कई छोटे-बड़े मंदिरों के दर्शन करते हुए अंत में गर्भगृह पहुँचे। भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा एवं प्रभु बलराम की मनमोहक छवि के दर्शन का रोमांच शब्दों में उतारना असंभव है। ठीक वैसे ही गर्भगृह के बाहर मंदिर की भव्य कलाकृति एवं शीर्ष पर लगे पताके को आकाश में लहराते देखना अपनेआप में अद्भुत है। मंदिर के अंदर स्थित देवी-देवताओं के विलक्षण स्वरूपों के दर्शन मात्र से ही आपको अतुलनीय आत्मिक शांति का बोध होता है। मैंने भी अपने अंतर्मन की चंचलता एवं थोड़ी भी उदासी को दर्शनोपरांत सुकून में परिवर्तित होते महसूस किया है। दर्शन के बाद भोग लेने के दौरान आपको मंदिर की विश्व प्रसिद्ध भंडार एवं रसोई की भी झलक मिलेगी। जहाँ पके चावल और मीठे खाजों की खुशबू आपको अंदर से तृप्त कर देगी।
भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित यह मंदिर हिंदुओं का प्रमुख मंदिर है। जगन्नाथ यानी जगत के स्वामी और इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। इस मंदिर को हिंदुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है और यहाँ की वार्षिक रथ यात्रा उत्सव विश्व प्रसिद्ध है।
इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। श्रीजगन्नाथपुरी पहले नील माघव के नाम से पूजे जाते थे। जो भील सरदार विश्वासु के आराध्य देव थे। अब से लगभग हजारों वर्ष पूर्व भील सरदार विश्वासु नील पर्वत की गुफा के अंदर नील माघव जी की पूजा किया करते थे। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिए खास महत्त्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्रीचैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।
इस मंदिर के उद्गम से जुड़ी परंपरागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकाचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाए और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किंतु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परंतु तब तक वह एक कमरे में बंद रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अंदर नहीं आए। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आई, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झाँका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और ये मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जाएँगी। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ मंदिर में स्थापित की गईं।
मंदिर का वृहत क्षेत्र 400,000 वर्ग फुट (37,000 वर्ग मीटर) में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है। कलिंग शैली के मंदिर स्थापत्यकला और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण, यह मंदिर, भारत के भव्यतम स्मारक स्थलों में से एक है।
मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर विष्णु का श्रीसुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढाँचा एक 214 फीट (65 मीटर) ऊँचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मंडप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊँचे होते गए हैं। यह एक पर्वत को घेरे हुए अन्य छोटे पहाड़ियों, फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है। मुख्य मढ़ी (भवन) एक 20 फीट (6.1 मीटर) ऊँची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित है।
भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, इस मंदिर के मुख्य देव हैं। इनकी मूर्तियाँ, एक रत्न मंडित पाषाण चबूतरे पर गर्भगृह में स्थापित हैं। इतिहास अनुसार इन मूर्तियों की अर्चना मंदिर निर्माण से कहीं पहले से की जाती रही है। आधुनिक काल में, यह मंदिर काफी व्यस्त और सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों और प्रकार्यों में व्यस्त है। जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहाँ की रसोई है। यह रसोई भारत की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए 500 रसोइये तथा उनके 300 सहयोगी काम करते हैं। यह अपने आप में अद्भुत है। आप जितनी बार इस शहर में आते हैं उतनी ही बार यह शहर आपकी आस्थाओं और विश्वास को बढ़ाता है और आपको पुनः आने पर विवश करता है।
Image: Rani Gumpha ground floor
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Bernard Gagnon
Image in Public Domain