मेरी काठमांडू यात्रा
- 1 February, 2022
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- 1 February, 2022
मेरी काठमांडू यात्रा
तीस नवंबर की सुहानी दोपहर! इंडियन एयरलाइंस की आई.सी. 813 की फ्लाईट से हम, सार्क लेखक सम्मेलन में भाग लेने दिल्ली से काठमांडू की ओर रवाना हुए। अजीत कौर के साथ हम सात लेखक–असग़र वज़ाहत, देवेंद्र इस्सर, हिमांशु जोशी, जे.पी. दास, अनखी साहब, पुष्पेश पंत और मैं! हिंदी-तेलुगू लेखक वाई लक्ष्मी प्रसाद भी हमारे साथ यात्रा में जुड़े। पिछले कई वर्षों से अजीत कौर प्रतिबद्धता से पड़ोसी देशों के रचनाकारों को साथ लेकर, सार्क लेखक सम्मेलनों का आयोजन करती आई हैं। वैश्वीकृत समय के इस रचना विरोधी दौर में ऐसे आयोजनों को मैं महत्त्वपूर्ण मानती हूँ, ऐसे आयोजनों से न सिर्फ विभिन्न देशों की सांस्कृतिक विरासतों, राजनीतिक-आर्थिक समस्याओं की जमीनी हकीकत की पहचान होती है, बल्कि विभिन्न देश-समाजों की परिस्थितियों से उपजे सामाजिक और मानवीय संकटों से भी साक्षात्कार होता है। लेखकों के आपसी संवाद और साहित्यिक रचनाओं के पठन-पाठन से जुड़ाव की संभावनाओं के तार भी मजबूत हो जाते हैं। यों भी साहित्य के केंद्र में मनुष्य और मानवीय संवेदनाएँ होती हैं जो आपसी समझ और सौहार्द में इजाफा भी करती हैं और चेतना का विस्तार भी!
दिल्ली से काठमांडू की कुल डेढ़ घंटे की विमान यात्रा एक दूसरे से बतियाते और नेपाल के मोहक पर्वतों के अभिभूत करते सौंदर्य को सराहते, कैसे पूरी हुई, पता भी न चला। क्षितिज पर कहीं गले मिलती शोख बदलियाँ थीं, कहीं धुनकी रूई के तूदों में इकट्ठा हुए ढेरों-ढेर बादल और दूर पहाड़ों की चोटियों को ढकती बर्फ की चुन्नटों वाली चूनर, जिसकी किनारियाँ गुलाबी रंग से रंगने लगी थीं। मुझे अपने कश्मीर के बर्फीले ताजों वाले बुज़ुर्ग पहाड़ याद आए। एसोसिएशन ऑफ़ आइडियाज! प्रकृति भी तो स्मृतियों पर दस्तक देती, जोड़ने का काम करती है।
कश्मीर के नेपाल से घनिष्ठ संबंध भी तो रहे हैं। कर्ण सिंह की पत्नी यशोराज्यलक्ष्मी नेपाल की बेटी रही हैं, जिन्हें मैंने पहली बार किशोरावस्था में अपने घर के बुखारचे से देखा था, जब वे पति के साथ गणेश मंदिर में पूजा करने आई थीं, जो हमारे घर श्रीनगर के ठीक सामने अपने चमचमाते कलश-कँगूरों के साथ शान से अवस्थित था। कई वर्ष पहले की बात है, तब नेपाल में पूर्ण राजतंत्र की शानो-शौकत थी। तब से आज तक नेपाल राजनैतिक-प्रशासनिक उथल पुथल और संघर्ष के कई कठिन दौरों से गुज़रा है। एक जून दो हज़ार एक को यहीं काठमांडू के नारायणहिति राजमहल में नेपाल नरेश बीरेंद्र विक्रम और रानी ऐश्वर्या के साथ राजपरिवार के नौ सदस्यों की निर्मम हत्या हुई थी। इस दुखद घटना से पूरा नेपाल दहल उठा था। इस जघन्य हत्याकांड के पीछे कौन थे, क्या कारण थे, इस बारे में आज भी अंदाजे लगाए जाते हैं। लेकिन नेपाल की जनता क्षुब्ध है। अफवाहें बहुत हैं, प्रिंस दीपेंद्र का प्रेमिका देवयानी से विवाह करने का आग्रह, रानी ऐश्वर्या का सिंधिया खानदान की लड़की को शाही खानदान की बहू बनाने का विरोध, इस पर दीपेंद्र का क्रोध में आकर परिवार पर गोलियों की बौछार कर खुद पर भी गोली चलाना। कुछ लोग अगले नरेश ज्ञानेंद्र पर आरोप लगाते हैं, कि वह राजा बनना चाहता था, हो सकता है गद्दी हथियाने के लिए उसने षड्यंत्र रचा हो। कुछ इसमें माओवादियों का भी हाथ मानते हैं। आज तक तो इस हत्याकांड के सच का ख़ुलासा नहीं हुआ। बहरहाल! भीतरी असंतोष के बावजूद बाहर से सब ठीक-ठाक ही लग रहा था।
काठमांडू के हवाई अड्डे पर सार्क के नेपाल चैप्टर से जुड़े लेखक मित्र फूलों के महकते गुलदस्ते लेकर हमारे स्वागत के लिए खड़े थे। फॉसवाल नेपाल चैप्टर के सेक्रेटरी जनरल थापा, डॉ. रामदयाल राकेश और गीता केशरी बड़ी गर्मजोशी से मिले। गाड़ियों में हमारा सामान रखा गया और हम पार्क विलेज रिज़ॉट, बुद्ध नीलकंठ की ओर रवाना हुए। वहीं बनियान कन्वेंशन सेंटर में कॉन्फ्रेंस का आयोजन होना तय किया गया था। हवाई अड्डे से होटल जाते हुए हम काठमांडू के भीड़ भरे बाज़ारों, कंधे से कंधा जोड़े मकानों की कतारों बीच गुजरे। सड़कों पर देशी-विदेशी सामान से ठसाठस भरी दुकानें थीं, फलों-सब्जियों के ठेले और काला धुआँ फेंकती गाड़ियों का अस्त-व्यस्त प्रवाह था। इंटरनेट-वीडियो और सेलफोन कंपनियों के बेशुमार इश्तहार, किसी भी भारतीय शहर के पुराने बाजार में घुसपैठ करती नई तकनीकी का मंजर पेश कर रहे थे। और मैं उनमें अपने श्रीनगर की ‘ऐलान गली’, जम्मू के ‘बावडा बाजार’ और दिल्ली के ‘करोल बाग’ के भीड़-भाड़ की धक्का-मुक्की से व्यस्त और त्रस्त पुराने बाजारों में खुद को देखती रही।
नेपाली भाषा हिंदी से काफी मिलती-जुलती है, लिपि देवनागरी होने से विज्ञापन और सूचना पट्ट पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं हुई। होटल पहुँचते-पहुँचते शाम होने लगी थी। पहाड़ों के पीछे ढलते सूरज ने अपना गुलाबी-सुनहरा मोहक जाल समेटना शुरू कर दिया था।
पार्क विलेज होटल खूबसूरत रिजॉट है। शिवपुरी की पहाड़ियों के दामन में, प्रकृति के आगोश में, घने सायेदार वृक्षों, कलात्मक छतरियों और छोटे-छोटे ताल-तलैयों में कूदते झरनों बीच बैठा, कोई ध्यानमग्न योगी हो जैसे! शहर के करीब होकर भी शहर के शोर शराबे से दूर! लैंपपोस्टों की मुलायम रौशनी में मुसंडी के लाल फूल मैरून दिख रहे थे। हवा में तीखी ठंड थी।
हमलोग तरोताजा होकर डाइनिंग हॉल में भोजन के लिए इकट्ठा हो गए। वहाँ कॉन्फ्रेंस में शामिल होने, कलकत्ता से रामकुमार मुखर्जी और उड़ीसा से आई प्रतिभा राय से मुलाकात हुई। वे एक दिन पहले ही काठमांडू पहुँच गए थे। भोजन कक्ष में लेखक मित्रों से अनौपचारिक बातचीत होती रही। आँध्र प्रदेश से सम्मेलन में शिरकत करने आए, वाई लक्ष्मी प्रसाद से हैदराबाद की यादें ताजा की गईं। हिंदीतर प्रदेश में हिंदी साहित्य की जोत जलाने वाले बदरीविशाल पित्ती जी से जुड़ी स्मृतियों का साझा हुआ, जिन्होंने ‘कल्पना’, जैसी स्तरीय पत्रिका निकाल कर साहित्यिक पत्रिकाओं में एक मानदंड स्थापित कर दिया था। वे जानते थे कि चार-चार संपादकों की स्क्रीनिंग के बाद ही किसी लेखक की रचना कल्पना में प्रकाशित होती थी। नए लेखक के लिए कल्पना में छपना किसी स्वप्न के पूरा होने जैसा विरल अनुभव था। इसे मैं अपनी खुशकिस्मती समझती हूँ कि मेरी पहली कहानी ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई थी। अजीत कौर ने एयरपोर्ट पर ही हमें काठमांडू के कुछ दर्शनीय स्थानों का चार्ट बना कर थमा दिया था, जिसमें म्यूजियम, कुमारियों का स्थल, बूढ़ा नीलकंठ, पशुपतिनाथ मंदिर, थमल का बाजार आदि शामिल थे। सोचा, कल कॉन्फ्रेंस के बाद कुछ समय मिला तो एकाध जगह जरूर देखेंगे।
पहली दिसंबर सुबह दस बजे कॉन्फ्रेंस के आरंभिक सत्र में लेखकों के औपचारिक स्वागत के बाद अध्यक्ष–द्वारिका श्रेष्ठ, मुख्य अतिथि–संस्कृति मंत्री प्रदीप गेवली, डॉ. रामदयाल राकेश और अजीत कौर के भाषणों-टिप्पणियों से कांफ्रेस के उद्देश्यों का औपचारिक परिचय दिया गया।
चाय के बाद पहले सत्र में पुष्पेश पंत को हिंदी गद्य साहित्य पर पर्चा पढ़ना था। यह अच्छा अवसर था जब हिंदी साहित्य में सक्रिय भारतीय रचनाकारों के लेखकीय अवदान पर कुछ प्रकाश डाला जा सकता। ग्लोबल होते इस मूल्य खिन्न संक्रांति काल में, लेखकों की प्रतिबद्धताओं और मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना के प्रयासों को कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों को केंद्र में रख हिंदी साहित्य की वर्तमान प्रवृत्तियों, बदलते सरोकारों और नये प्रयोगों से नेपाली लेखकों को अवगत कराया जा सकता था। हिंदी साहित्य में रचनारत चार पीढ़ियों के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों, कथाकृतियों का संक्षिप्त परिचय भी दिया जाता तो नेपाली रचनाकारों में उन कृतियों को पढ़ने की उत्सुकता जागती। पसंद आने पर अनुवाद के इच्छुक साहित्य प्रेमियों को कुछ पुस्तकों का नेपाली भाषा में अनुवाद करने की मंशा को भी बल मिलता। पंत जी ने भारत-नेपाल संबंधों से जुड़े प्रश्नों-समस्याओं पर कुछ रोचक संस्मरण जरूर सुनाए, लेकिन न किसी महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृति का जिक्र किया, न ही किसी रचनाकार का नाम लिया। यह काम नेपाली साहित्य के संदर्भ में, त्रिभुवन यूनिवर्सिटी के गोविंदराज भट्टराय ने बख़ूबी किया। हिंदी कथा साहित्य की तरह नेपाली कथा साहित्य की यात्रा भी सौ वर्ष पूरे कर चुकी है। डॉ. गोविंदराज भट्टाराय ने गिरीश वल्लभ जोशी के प्रथम उपन्यास ‘बिरासिका’ से लेकर अब तक के नेपाली साहित्य की प्रवृत्तियों, पारंपरिक से आधुनिक, और आधुनिक से उत्तर आधुनिक होते रुझानों का संक्षिप्त परिचय देते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण कृत्तियों को रेखांकित किया। कई रचनाकारों की कृतियों के अँग्रेजी अनुवादों की जानकारी भी दी, जिसमें रुद्रराज पांडे के उपन्यास रूपमती, बी.पी. कोइराला के ‘सुमनिया’, ध्रुवचंद्र गौतम के ‘अलिखित’, ‘फूल को आतंक’, भरत जंगम के ‘रतो सूर्य’ (द् रेड सन) तक कई रचनारत लेखकों की कृतियाँ शामिल थीं। इन कृतियों को पढ़ कर गैर नेपाली भी नेपाली साहित्य से जुड़ कर उसके वैशिष्ट्य का आकलन कर सकते हैं। नेपालियों की सांस्कृतिक-सामाजिक समस्याओं से जुड़ कर आपस में भावनात्मक रिश्ता भी कायम हो सकता है! बहरहाल!
पुष्पेश पंत ने अपने वक्तव्य में भारत-नेपाल की सीमाओं से जुड़े प्रदेशों में भाषा और सांस्कृतिक समानताओं को ऐतिहासिक और भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की, जिस से श्रोताओं को खासी रोचक जानकारी मिली।
कथावाचन सत्रों में जो कहानियाँ पढ़ी गईं उनमें भारतीय एवं नेपाली साहित्य की विषय-वस्तुगत प्रवृत्तियों, समकालीन कथाकारों की बदलते संदर्भों में चिंताओं और शैली-शिल्प संबंधी नये प्रयोगों की कुछ झलकें जरूर मिलीं, गोकि नेपाली कथाकारों में भुवन धुंगना को छोड़कर अधिकांश के कथ्य और ट्रीटमेंट साधारण स्तर के ही रहे। नेपाली भाषा में समय के जीवंत साक्ष्य और सत्ता विरोधी आवाजों को साहित्य में दर्ज करने वाले सशक्त रचनाकारों का अभाव नहीं है, जिनमें साम्राज्यशाही के विरुद्ध, लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने वाले कई लेखकों में, मोहनराज शर्मा, (मनवीर, एज ही वाज, कहानी) नारायण ढाखल (इन विच टाउन) जैसे कई रचनाकार शामिल हैं। सामाजिक अँध रूढ़ियों, स्त्री शोषण और कमजोर वर्ग की करुण अवस्था पर ध्रुवचंद्र गौतम की कहानी, ‘द् रॉक,’ सनत रेगमी की, ‘फुलमतिया’ के साथ, स्त्री लेखकों की भी अनेक कहानियाँ हैं, जिनमें धर्म और नैतिकता के नाम पर आज भी स्त्री पर पुरुष वर्चस्व के जबरदस्त अंकुश का बेबाक वर्णन हैं। धर्म के नाम पर ठगे जाने से इनकार करती लेखिकाओं में, भुवन धुंगना, के साथ, पद्मावती सिंह, मंजु कांचुली, गीता केशरी, प्रेमा शाह जैसी कई सशक्त लेखिकाएँ, रूढ़ नैतिकता के प्रतिपक्ष में खड़ी, स्त्री मुक्ति और स्त्री अस्मिता के प्रश्न तीखेपन से उठा रही हैं। भुवन धुंगना की कहानी, ‘सिंबल ऑफ रेलिजन’, और पद्मावती सिंह की ‘आड़ू का पेड़’ कहानियाँ सुन कर अपने यहाँ की लेखिकाओं की कई कहानियाँ याद आई, जो अपनी रचनाओं में स्त्री विरोधी व्यवस्था का पर्दाफाश ही नहीं करतीं, बल्कि, स्त्री की सशक्त छवि उभारने में भी काफी सफल हुई हैं।
सम्मेलन में लेखिकाओं की संस्था ‘गुंजन’ की कई रचनाकारों से संवाद करने का अवसर मिला। वे इस संस्था के माध्यम से नेपाली लेखिकाओं द्वारा रचित साहित्य को उपयुक्त मंच देने का प्रयास कर रही हैं। धर्म, संस्कार और नैतिकता के नाम पर छली गई, पुरुष वर्चस्व तले दबी-घुटी स्त्री की छटपटाहट तो उनकी रचनाओं में है ही, साथ ही विरोध का उभरता तीव्र स्वर भी मुखर हो उठा है। भारतीय लेखिकाओं की तरह ही वे भी स्त्री-मुक्ति के नए प्रश्नों से रू-ब-रू हो रही हैं। हिंदी लेखन में, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा और मन्नू भंडारी ने, क्रमशः मित्रो मरजानी, पचपन खंबे लाल दीवारें, आपका बंटी, उपन्यास लिख कर स्त्री को रूढ़ नैतिकता के शिकंजे से निकाल, दबी-घुटी स्त्री अस्मिता को मुक्ति की राह दिखाई। आगे, ‘छिन्नमस्ता, ‘आवां’, ‘कठगुलाब’, ‘अपने-अपने कोणार्क’, ‘कथा सतीसर’, ‘तत्सम’, ‘इदन्नम’, ‘माई’, जैसे कई उपन्यास लिख कर लेखिकाओं ने, विभिन्न परिप्रेक्ष्य में, स्त्री विरोधी व्यवस्था, सामाजिक विसंगतियों के साथ, आतंकवाद, सांप्रदायिक उन्माद, पर्यावरण-ह्रास से जुड़े विषयों, जैसी वैश्विक समस्याओं और उनके प्रभावों पर भी गंभीर लेखन कर रही हैं, जिनकी कुछ बानगियाँ विभिन्न सत्रों में पढ़ी गई कहानियों से मिली।
सम्मेलन में भारतीय लेखकों ने जो रचनाएँ पढ़ीं, उनमें आज के अर्थ केंद्रित समय के विद्रूप थे, संबंधों की आइरनी और उनकी परिणतियाँ थीं। हिमांशु जोशी ने पारिवारिक संबंधों में आए विघटन के बावजूद, नई पीढ़ी से संवेदना की उम्मीद दिलाती कहानी ‘चश्मा’ पढ़ी, तो देवेंद्र इस्सर ने कला के बाजारीकरण की प्रवृत्ति का विरोध किया, असगर वजाहत ने विकसित देशों की विकासशील देशों पर अपना वर्चस्व बढ़ाने की नीतियों पर चिंता दर्शायी। संबंधों को भुनाने की प्रवृत्ति पर, जे.पी. दास और स्त्री की सामाजिक स्थिति पर प्रतिभा राय ने प्रभावी कहानियाँ पढ़ीं।
अजीत कौर ने आतंक और हत्या के माहौल में आपसी संबंधों में बढ़ते अविश्वास और आत्मीयता के क्षरण पर चिंता जतायी। फैंटसी का सहारा लेकर वे ईश्वर को एक फकीर के रूप में धरती पर ले आईं, जो स्वर्ग से उतर कर धरती के मनुष्य को सही मायनों में जीना सिखाने आया है। उसके पास एक गठरी है, जिसमें मुट्ठी भर तारे, जुगनू, हँसी और भाईचारे की ख़ुशबू है। जिसकी आज हमें जरूरत है।
कश्मीर की आतंकग्रस्त पृष्ठभूमि पर एक बलात्कृत लड़की के संघर्ष और मुक्ति की छटपटाहट की शक्त बानगी मेरी कहानी ‘आवाज’ में देखी गई। रचनाकारों ने अपने अनुभव, संवेदन और वैचारिक उन्मेष के दायरे में, समय की विसंगतियों, और बेरहम सच्चाइयों का परीक्षण कर श्रोताओं को प्रभावित किया। नये लेखकों से आत्मीय संवाद सुखद वातावरण के बीच हुआ। नेपाली लेखक और दर्शक अपने भाईबंद जैसे लगे। पुस्तकों का आदान-प्रदान हुआ। एक दूसरे को पढ़ने-गुनने का चाव नजर आया। अनुवाद की जरूरत पर विचार-विमर्श हुआ। मृदुला शर्मा ने हिंदी से नेपाली और नेपाली से हिंदी की कई पुस्तकों का स्तरीय अनुवाद किया है। सम्मेलन के कई कार्यकारी सदस्यों ने अनुवाद के क्षेत्र में सामूहिक प्रयत्नों की जरूरत पर सहमति जताई और इसके कार्यान्वयन के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। अंतिम सत्र में त्रिभुवन यूनिवर्सिटी के संजीव उप्रेती ने कुछ कहानियों का मूल्यांकन किया।
घूमने-फिरने, व नगर दर्शन के लिए ज्यादा समय नहीं था। कुछ समय निकाल कर हम ललितपुर-पाटण देखने निकल पड़े। पाटण में नेपाल के कला-कौशल के कई अप्रतिम नमूने देखने को मिले। स्थापत्य कला के कई बेजोड़ भवनों-मंदिरों पर कलात्मक कारीगरी चकित करने वाली थी। तीन सौ वर्ष पुराने भवन, बौद्ध मंदिर और ‘गोल्डन टेंपल ऑफ़ बुद्ध’! जो यहाँ पाटण में तमाम भव्यता के साथ स्थापित था। हमारे साथ नगर दर्शन को आए अनखी साहब मुग्ध होकर गोल्डन टेंपल ऑफ बुद्ध, को निरखते-परखते बोल उठे, ‘अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के अलावा भी कहीं दूसरा गोल्डन टेंपल है, मैंने तो नहीं सुना! गोकि वे जानते थे, कि भारत-नेपाल के भौगोलिक-सांस्कृतिक व आर्थिक संबंधों के साथ दोनों देशों में हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के भी साझा संबंध रहे हैं। क्यों न हो, बुद्ध का जन्म लुम्बिनी नेपाल में, निर्वाण कुशीनगर भारत में और आत्मज्ञान भी बोध गया भारत में हुआ है!
पाटण के पटरियों के बाजार दिल्ली के जनपथ के पटरी बाजार जैसे लगे। सामान बेचने वाले दुकानदारों की प्रवृत्ति भी उनसे काफी मिलती-जुलती है। बाहर से आए सैलानियों की हिगलिंग-हैगलिंग करने के बावजूद उनसे अधिकतम कमाने की प्रवृत्ति। हमने शिव-शक्ति की युगल मूर्त्ति खरीदनी चाही, कीमत पूछी तो दो हजार! पर हम भी उनके बंधु, ली हमने पाँच सौ में ही! बूढ़ा नीलकंठ, मंदिर में चिकने पत्थर से बनी भव्य मूर्ति ने मोह लिया। ताल में शांत मुद्रा में लेटे विशालकाय नीलकंठ! पशुपतिनाथ के दर्शन कर थोड़ी बहुत खरीदारी की। सौम्य-नम्र स्वभाव के धनी थापा जी अंत तक हमारे साथ रहे। मंदिर के परिसर में लगे बाज़ार से रुद्राक्ष मालाओं को पसंद करने का आग्रह करते रहे। असली रुद्राक्ष तो यहीं से मिलता है। हिमांशु जोशी को एक दो मोतियों की मालाएँ भी साग्रह थमा दीं।
लौटते वक्त हुजूम दर हुजूम लोगों को लाल झंड़ियाँ फहराते सड़कों-बाजारों से गुजरते देखा, माओवादियों के साम्रजशाही के विरोध में नारे लगाते! यानी हवा में एक बार फिर बदलाव की बयार! नेपाल कई वर्षों से राजनीतिक संकट के दौर से गुजर चुका है। मन-चेतना को एक ही बात टहोकती रही, कितने स्तरों पर संबंध हैं भारत और नेपाल के! महत्त्वपूर्ण पड़ोसी, खुली सीमाएँ, सदियों से सांस्कृतिक और पारिवारिक संबंध, रक्षा सहयोग, विदेश नीति में भी महत्त्वपूर्ण…! कितना कुछ एक जैसा है हम में और नेपालियों में, फिर सोच में सीमाएँ क्यों?
आज सालों-साल बाद नेपाल और भारत में असहमति के कई मुद्दे संबंधों में दरारें डाल रहे हैं। हाल में ही कैलाश-मानसरोवर की यात्रा के लिए भारत द्वारा लिपुलेख-धाराचूला मार्ग के उद्घाटन करने के बाद नेपाल का आपत्ति जता कर इसे एकतरफा निर्णय बताना और नया मानचित्र जारी कर उत्तराखंड के कालापानी व कुछ भागों को नेपाल के क्षेत्र में मानना। इसके पीछे नेपाल और चीन की बढ़ती नज़दीकी को माना जाता है, चीन नेपाल में कई परियोजनाएँ तैयार कर रहा है। नेपाल पर चीनी कूटनीति प्रकारांतर से भारत की सीमा में घुसपैठ करना है। उम्मीद है कि नेपाल चीन का मुहरा न बनकर उसकी विस्तारवादी चाल समझेगा और भारत के साथ सदियों पुराने संबंधों में दरार न आने देगा!!
Image: Kathmandu durbar square
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Bernard Gagnon
Image in Public Domain