दिल्ली प्रवास के छः दिन

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दिल्ली प्रवास के छः दिन

बीते दिनों कई रोचक उपन्यास पढ़े। सोचा, उन्हीं उपन्यासों के बहाने देश की मौजूदा स्थितियों पर कुछ बातें करूँ। लिखना शुरू ही किया था कि सामने रखी डायरी के पन्ने फड़फड़ाने लगे। डायरी के पन्ने पलटने शुरू किए, तो मेरे सामने दिल्ली-प्रवास (16 से 21 दिसंबर, 2013) के किस्से खुलने लगे। उन किस्सों में ऐसा उलझा, कि जिस मुद्दे पर लिखना चाहता था, वह धरा रह गया। अब सोचता हूँ कि इस बार डायरी के इन्हीं कुछ पन्नों को आपके सामने रखूँ। कई बार ऐसा होता है कि अत्यंत सामान्य-सी दिखने वाली चीजों में भी कुछ खास चीजें दिख जाती हैं। अब इन पन्नों में कुछ हो न हो, कभी दिल्ली-प्रवास में लिखे गए इन शब्दों की दुनिया में मेरे द्वारा मित्रों के साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों की महक तो होगी ही न! तो चलिए, इस बार डायरी के इन पन्नों के संग ही आपसे संवाद करता हूँ।

दिल्ली, 17 दिसंबर

कल देर रात ‘मगध’ से दिल्ली पहुँचा। करीब ग्यारह बजे। टैक्सी से मंडी हाउस स्थित जेएनयू के अतिथिगृह ‘गोमती’ पहुँचते-पहुँचते साढ़े ग्यारह बज गए। इस बार वरिष्ठ लेखक डॉ. गंगाप्रसाद विमल जी के सौजन्य से इसी अतिथिगृह में आश्रय मिला। ‘गोमती’ के स्वागत कक्ष में कदम रखते ही पटना के इतिहासकार प्रो. ओ.पी. जायसवाल जी से भेंट हो गई। अभी परसों ही तो इनसे पटना के एक आयोजन में मुलाकात हुई थी। तब इनके व्याख्यान को सुनकर मैं काफी प्रभावित हुआ था। प्रो. जायसवाल बिहार में इतिहास के पायेदार विद्वान माने जाते हैं, जो अपनी सहजता के कारण भी आकर्षित करते हैं। उनसे थोड़ी देर बातचीत करने के बाद मैं अपने कमरे की ओर बढ़ गया। द्वितीय तल स्थिति कमरा नं. 27 में सामान रखते-रखते काफी थकान महसूस करने लगा था। जिस ट्रेन को दिन के 12 बजे नई दिल्ली पहुँचनी थी, वह हाँफते-हाँफते पहुँची रात ग्यारह बजे।भारतीय ट्रेन की इस सेवा का इतना ही लाभ मिला कि किसी तरह अंततः दिल्ली पहुँच ही गया। 

आज सुबह 9 बजे तैयार होकर बवाना स्थित दिल्ली प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पहुँचा, जहाँ प्रो. राघवन के कक्ष में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की भौतिकी परिभाषा कोश अद्यतन संबंधी बैठक में मुझे बतौर स्रोतविद भाषा विशेषज्ञ भाग लेना था। वहाँ आयोग के वैज्ञानिक अधिकारी डॉ. ब्रजेश कुमार सिंह सहित अनेक भौतिकीविदों से मुलाकात हुई, जिनके साथ मुझे काम करना था। आयोग से मैं बीते चार-पाँच वर्षों से जुड़ा हूँ, जिनकी दर्जनों बैठकों-संगोष्ठियों में भागीदारी का रचनात्मक अवसर मिला। शाम 4 बजे तक विभिन्न विश्वविद्यालयों से आए विद्वानों के साथ काम करता रहा। शाम 5 बजे मंडी हाउस के मेट्रो स्टेशन से बाहर निकला तो बाहर गेट पर डॉ. चंद्रकला मेरी प्रतीक्षा करती मिल गई। उसने रचना का एक नीला लिफाफ मुझे सौंपा और बातचीत का मनोरम सिलसिला आगे बढ़ाना चाहा, जिसे न चाहते हुए भी नकारते हुए मैं तेजी से आगे निकल गया।

दूरदर्शन भवन में डॉ. अमरनाथ ‘अमर’ मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे और मैं लगभग पौन घंटा विलंबित चल रहा था। डॉ. अमर के कमरे में गोरखपुर से आए पूर्वोत्तर रेलवे के मुख्य परिचालन प्रबंधक रणविजय सिंह से मुलाकात हो गई। वे व्यंग्य लेखक थे। उनकी चार पुस्तकें छप चुकी हैं, जो उन्होंने मुझे भेंट की। आधे घंटे वहाँ व्यतीत करने के बाद मैं डॉ. अमर के साथ साहित्य अकादमी पहुँचा, जहाँ अपने कक्ष में अकादमी के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ लेखक प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। कहते हैं प्रो. तिवारी ने अकादमी में मुट्ठीभर मठाधीश लेखकों की जकड़बंदी को ध्वस्त कर देशभर में फैले दूरदराज के लेखकों तक को अकादमी से जोड़ा, जिससे उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ी।

प्रो. तिवारी ने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया। अकादमी के सचिव के. श्रीनिवास राव को बुलवाकर उनसे मिलवाया। हालाँकि उनसे मैं पूर्व परिचित था, जिसका इसरार उन्होंने भी आत्मीयतापूर्वक किया। ‘नई धारा’ का नवंबर अंक उन्हें भेंट किया, तो वे पत्रिका के कवर पर कथाकार राजेन्द्रराजेंद्र यादव की तस्वीर देखकर तिर्यक गति में हौले-से मुस्कुराये। फिर चर्चा राजेन्द्रराजेंद्र यादव पर केंद्रित हो गई। प्रो. तिवारी काफी देर तक राजेंद्र यादव से संबंधित अनेक प्रसंग सुनाते रहे, जिसमें किसी ज्योति कुमारी का जिक्र भी आया कि कैसे थाने में ज्योति को लेकर राजेंद्र जी को ‘हंस’ का एक संपादकीय लिखना पड़ा। राजेंद्र जी से जुड़े हाशिए या नेपथ्य के अनेक तथ्यों-किस्सों से परिचित हुआ, जिसकी चर्चा सार्वजनिक रूप से संभव नहीं है।

राजेंद्र जी को जानने वाले ऐसे अनेक किस्सों-प्रसंगों से परिचित हैं। शराब और स्त्री राजेंद्र जी की कमजोरी रही है, जिसने उनके दांपत्य-जीवन तक को झुलसा कर रख दिया, पर जिनका अफसोस उन्हें शायद कभी नहीं रहा। वे बिंदास सलीके से जीवन जीने के आदी रहे और हर किसी विषय पर अपना प्रगतिशील नजरिया रखते थे।

घंटे भर प्रो. तिवारी जी के संग साथ का आनंद लेने के बाद बाहर निकल डॉ. अमर से विदा ले ‘गोमती’ की ओर बढ़ ही रहा था कि मोबाइल पर डॉ. शैलेश पंडित मिल गए। इन दिनों वे दूरदर्शन के सी.पी.सी. केंद्र के निदेशक हैं। उन्होंने पूछा- ‘कहाँ हैं?’ मेरे कहने पर कि मैं मंडी हाउस स्थित ‘गोमती’ की ओर बढ़ रहा हूँ, उन्होंने कहा- ‘बढ़िये, मैं आता हूँ।’ सचमुच, ‘गोमती’ पहुँच मैं कपड़े बदल फ्रेश होकर बैठा ही था कि वे कमरे में पहुँच गए। फिर तो घंटे भर उनसे बातें होती रहीं। उसके बाद हम बगल ही स्थित ‘नाथू स्वीट्स’ में पहुँच एक किनारे के टेबुल पर जम गए और फिर जम गए तो नमकीन व्यंजनों के साथ कोई घंटे भर तक नाना तरह की साहित्यिक बातें होती रहीं। पंडित जी की आजमगढ़ी कथन भंगिमा सम्मोहित करती है, जिसे घंटों सुनते हुए भी आप बोर नहीं हो सकते।

दिल्ली, 18 दिसंबर

सुबह नौ बजे ‘गोमती’ की कैंटीन से चाय-नाश्ते के बाद बाहर निकला ही था कि रिसेप्शन के निकट लाउंज में दैनिक जागरण के पत्रकार-मित्र विजय सुदामा प्रतीक्षारत मिल गए। उन्हें साथ ले कमरे में पहुँचा। 12 बजे उनके साथ ही दिल्ली दूरदर्शन गया, जहाँ मेरे व्यक्तित्व-कृतित्व पर डॉ. कुमुद शर्मा को मुझसे बातचीत करनी थी।

बीते दिनों भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा मुझे ‘गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार’ देने की घोषणा की गई थी, जो सृजनात्मक लेखन एवं पत्रकारिता का बहुत ही प्रतिष्ठित सम्मान माना जाता है। इसी पुरस्कार के मिलने पर दिल्ली दूरदर्शन द्वारा मुझ पर आधे घंटे का कार्यक्रम बनाना तय किया गया था। बातचीत रिकाॅर्ड तो हुआ, पर डॉ. कुमुद से मिलकर लगा कि वह बहुपठित नहीं हैं। बातचीत के लिए वह तैयार होकर नहीं आई थीं, हालाँकि दूरदर्शन पर मेरे व्यक्तित्व-कृतित्व पर वह दूसरी बार मुझसे बातचीत कर रही थीं। उन्हें मेरे बारे में कुछ पता नहीं था। बातचीत की जो फ्रेमिंग दूरदर्शन के कार्यक्रम अधिशासी डॉ. अमरनाथ ‘अमर’ ने उन्हें समझा रखी थी, उससे वह बार-बार विपथित हो रही थीं, जिसके चलते ‘बातचीत’ को कई बार बीच में ‘कट’ करना पड़ा। फिर वह बड़बोली भी हैं। एकतरफा कहती चली जाती हैं। मेहमान का कुछ भी ध्यान नहीं रखतीं। मुझे उनके ज्ञान-व्यवहार के सतहीपन को देखकर हैरत हुईं! खैर, कार्यक्रम से निबट मैं विजय सुदामा के साथ ही सी.जी.ओ. काॅम्प्लेक्स स्थित सूचना भवन की ओर चल पड़ा, जहाँ मेरे मित्र एवं ‘आजकल’ के संपादक कैलाश दहिया मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे।

कैलाश दहिया बड़े तपाक से मिले। कोई घंटे भर उनके साथ रहा। वहाँ से नोएडा जाना था, वरिष्ठ लेखक सीतेश आलोक से मिलने। वहाँ से निकल ऑटो रिक्शा से प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन तक पहुँचा भी, लेकिन फिर मूड बदल गया। मैंने मोबाइल पर सीतेश जी को फोन कर क्षमा माँग ली। वे निराश हुए, लेकिन मेरी भी विवशता थी। शाम के तब 5 बजे रहे थे। मैंने चलभाष पर कथाकार मित्र बलराम जी से बात की तो वे 6.30 बजे तक ‘गोमती’ पहुँचने को तैयार हुए। मेरे पास डेढ़ घंटे का समय था। मैं दिल्ली गेट की ओर बढ़ गया। सोचा, तब तक सामयिक प्रकशन के महेश भारद्वाज से मिल लूँ, जो मेरी पुस्तक ‘रचना का जनपक्ष’ छाप रहे हैं। उन्होंने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। ‘समीक्षा’ के नए अंक की प्रति दी, जिसमें मेरी पुस्तक ‘साहित्यिक पत्रकारिता का साधु संग्राम’ पर प्रख्यात लेखक कांतिकुमार जैन की लिखी समीक्षा छपी है। महेश भारद्वाज को अचरज हो रहा था कि जैन साहब ने मेरी पुस्तक की इतनी अच्छी समीक्षा कैसे लिख दी! उन्होंने विस्मित स्वर में पूछा- ‘इस समीक्षा में जैन साहब ने हर जगह आपके नाम के साथ ‘जी’ जोड़ा है, जो बताता है कि आपके प्रति उनके मन में बहुत सम्मान है। आखिर इस सम्मान का कारण क्या है गुरु?’ जवाब में बस मुस्कराता भर रहा! अब क्या बताता उन्हें! जैन साहब से तो मेरी देखा-देखी तक नहीं हुई है! उनके और उनके लेखन के प्रति स्वयं मेरे मन में बहुत आदर है। संस्मरण विधा को उन्होंने काफी ऊँचाई दी है। जब लिखते हैं तो अपनी संज्ञा भूल, जिनपर लिखते हैं उनसे अपने को अभिन्न कर उन्हें अपने भीतर उतारने लगते हैं और उस उतारने में उनके पूरे आवेष्टन को मूर्त कर देते हैं। राग न द्वेष, अद्भुत चित्रण से उनके पूरे व्यक्तित्व को मुखर बना डालते हैं। अब जैन साहब ने मेरी पुस्तक की खबर ली, तो जरूर उसमें कोई बात उन्हें छू गई होगी! महेश जी अब अपने प्रकाशन की अनेक लेखिकाओं का सप्रयोजन जिक्र करने लगे। लगभग दो घंटे उनके ‘प्रकाशन’ में रहा। कई कारणों से महेश मुझे अच्छे लगते हैं। घर-परिवार, प्रकाशन-व्यवसाय, मित्रों आदि के प्रति सजग, गंभीर तथा जिम्मेदारी से लकदक! उनके साथ मेरे दो घंटे कैसे निकल गए, पता भी नहीं लगा!

वहाँ से करीब 7 बजे ‘गोमती’ लौटा। बलराम जी वहाँ मेरी प्रतीक्षा में मिले। उन्हें ले मैं कमरे में गया। रात 10 बजे तक साहित्य के विविध प्रसंगों पर उनसे बातें होती रहीं। बलराम जी से मैं पहली बार भोपाल के भारत भवन में मिला था, जब 12 से 14 जून, 2009 तक मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा देशभर से 40 साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों को ‘लघुपत्रिका आंदोलन और साहित्यिक पत्रकारिता’ विषयक विमर्श में आमंत्रित किया गया था। बलरामजीबलराम जी उसमें शामिल थे। उसके बाद उनसे मेरी अंतरंगता बढ़ती चली गई। अब ऐसा लगता नहीं कि उनसे मेरी पहचान बस कुछ वर्षों की ही है। इन वर्षों में हम जाने कितने प्रसंगों-आयोजनों में साथ रहे। मेरे दिल्ली प्रवास में उनका संग-साथ भोजन-पानी की तरह रहता है। बलराम जी मित्र वत्सल हैं।

कहना चाहिए कि दोस्तों में उनका प्राण बसता है। उनके जाने के बाद मैं सोने की तैयारी कर ही रहा था कि मोबाइल थरथराने लगा। देर तक मोबाइल पर मीठी आवाजें सुनता रहा… उन मधुर आवाजों के बीच ही कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला!

दिल्ली, 19 दिसंबर

शाम 5 बजे सी.एस.टी.टी. की कार्यशाला से लौटा, तो ‘गोमती’ में मित्र राधेश्याम तिवारी प्रतीक्षा करते मिल गए। आजकल वे रेवाड़ी में हैं। वहीं बहन के घर रहकर दैनिक जागरण में काम करते हैं और सप्ताहांत घर लौटते हैं। पहले ‘जागरण’ के नोएडा कार्यालय में थे। वहाँ संपादक ने उनके स्वाभिमान पर प्रहार किया तो जवाब में उन्होंने भी उनकी ऐसी-तैसी कर दी। संपादक को उनसे ऐसी उम्मीद न थी। वे मातहतों से श्रमिक-सा बर्ताव करते। पहली बार किसी ने उन्हें आईना दिखाया तो वे तिलमिला गए। कर तो कुछ नहीं पाए, प्रबंधन से तिवारी जी का तबादला रेवाड़ी करवा दिया। इन दिनों समय तिवारी जी के प्रतिकूल चल रहा है, लेकिन वह भी ठहरे जीवट के आदमी! मुझे ‘गोमती’ पहुँचने में विलंब हो चुका था, अतः तिवारी जी से बातें करता हुआ कपड़े बदल फ्रेश भी होता रहा। मुझे शाम 5.30 बजे ‘उद्भव’ के सम्मान समारोह में ‘आजाद भवन’ पहुँचना था। तैयार होकर निकलते-निकलते 6 बज गए। तिवारी जी चाहते थे कि मैं उनके साथ करावल नगर चलूँ और रात उनके साथ बिताऊँ। इच्छा मेरी भी थी, लेकिन ‘उद्भव’ के समारोह में मेरा भी सम्मान होना था। चाहकर भी मैं उनके साथ न हो सका। न वे मेरे साथ हो सके, क्योंकि उन्हें भी अगली सुबह रेवाड़ी के लिए ट्रेन पकड़नी थी।

थोड़ी दूर तक हम साथ चले, तिलक ब्रीज स्टेशन तक, फिर अलग-अलग दिशाओं की ओर हम निकल गए। तिवारी जी मायूस थे। मैं देर तक उन्हें जाता हुआ अपलक निहारता रहा। ‘उद्भव’ के सम्मान समारोह में मैं विलंब से पहुँचा। हॉल में पहुँचा ही था कि अनेक मित्र मिल गए, जिन्होंने मुझे हाथोंहाथ लिया। डॉ. अमरनाथ अमर, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, ममता वाजपेयी सहित अनेक मित्र थे वहाँ। सम्मान के लिए जब मंच पर बुलाया गया तो वहाँ बतौर मुख्य अतिथि पत्रकार आलोक मेहता बड़े तपाक से मिले। उनके पटना प्रवास के दिनों को हमने परस्पर साझा किया। भाई विवेक गौतम समारोह का संचालन कर रहे थे। मधुर व्यक्तित्व है उनका। जब कभी दिल्ली आना होता है, उनके आयोजनों में शामिल होने का योग बना ही जाता है। समारोह खत्म हुआ तो मित्र अमरनाथ ‘अमर’ जी अपनी गाड़ी से मुझे ‘गोमती’ छोड़ गए। तब रात के ग्यारह बज रहे थे। दिल्ली की रात मोहक होती है, जिसका आनंद मैंने आज खूब उठाया।

दिल्ली, 20 दिसंबर

शाम 4 बजे सी.एस.टी.टी. की बैठक से ‘गोमती’ लौटा, तो इंद्रप्रस्थ प्रकाशन के स्वामी अशोक शर्मा प्रतीक्षा करते मिल गए। इधर उन्होंने मेरी संपादित दो पुस्तकें ‘दलित जीवन की कहानियाँ’ और ‘स्त्री संघर्ष की कहानियाँ’ छापी हैं, जिसकी 5-5 प्रतियाँ मेरे लिए लाए थे। उन्हें ले मैं ‘बंगाली स्वीट्स’ में चला गया। मैंने अपने लिए बड़ा और उनके लिए समोसा चाट का ऑर्डर दिया। नास्ते के बाद कॉफी पी ही रहा था कि कैलाश दहिया का एस.एम.एस. मिला कि वे ‘गोमती’ में मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अशोक शर्मा से विदा ले मैं ‘गोमती’ लौटा।

अपने कमरे में कैलाश दहिया से बात करते हुए थोड़ी ही देर हुई होगी कि उनका मोबाइल बजने लगा। किसी ने उन्हें खबर दी कि उनका तबादला पूर्वोत्तर राज्य असम में हो रहा है। मंत्रालय से दो-तीन दिनों में विरमित करने संबंधी पत्र निर्गत होने वाला है, अतः वे तबादला रुकवाने संबंधी कोशिश कर सकते हों, तो करें। कैलाश जी उस खबर से विचलित नजर आने लगे। बार-बार किन्हीं को फोन करने लगे। उनका मन उचट चुका था। मैंने उनके तनाव को कम करने की कोशिशें की, पर वे चाहकर भी सहज नहीं हो पा रहे थे। उसी समय यमुना बिहार से नवगीतकार राधेश्याम बंधु जी मिलने आ गए। मैंने दोनों का परस्पर परिचय कराया। दोनों बातचीत करने लगे। तभी मेरा मोबाइल कांपकाँपने लगा। देखा, कथा लेखिक अलका सिन्हा थी। पता चला कि वह ‘फिक्की’ के पास कहीं गाड़ी पार्क कर मेरी प्रतीक्षा कर रही है। वह ‘गोमती’ ढूँढ़ नहीं पा रही थी। मैं मित्रों से अनुमति ले नीचे उतर गया। ‘गोमती’ से बाहर ही अलका सिन्हा के पति मनु महाराज मिल गए, जिन्हें साथ ले उनकी गाड़ी तक गया। अलका सिन्हा ताजे गुलाबों का भारी भरकम बुके मेरे लिए लेकर आई थी। वह हड़बड़ी में थी। उन्हें किसी शादी में जाना था, इसलिए उनके पास समय की कमी थी। वहीं सड़क पर दोनों से आत्मीय बातें होती रहीं। अलका सिन्हा इन दिनों पुरुष वेश्यावृत्ति पर एक उपन्यास ‘पर्सनल डायरी’ लिख रही हैं, जिसकी कथा मुझे बताती रहीं। भाषा और शिल्प को लेकर अत्यंत सजग अलका सिन्हा कथा-साहित्य में इन दिनों तेजी से उभर रही हैं।

लौटकर अपने कमरे में आया तो कैलाश जी को सहज अवस्था में देखकर प्रसन्नता हुई। विविध साहित्यिक प्रसंगों में उनसे बातें होने लगीं। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला तो सामने सुशील सिद्धार्थ को देखकर चकित रह गया। उनके साथ एक तरुण भी था। पता चला कि उन्हें मेरे दिल्ली में होने की सूचना अमरनाथ ‘अमर’ से मिली, तो वे मुझसे मिलने चले आए। उन्होंने अपनी पत्रिका ‘दूसरी परंपरा’ के प्रवेशांक की प्रति भेंट की। अभी दस मिनट भी नहीं हुए थे कि पुनः दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला। सामने कथा लेखिका डॉ. रीता सिन्हा अपने पत्रकार पति डॉ. रहमतुल्लाह के साथ खड़ी थी। दोनों हमारी महफिल में शामिल हो गए। महफिल जमी भी नहीं थी कि पुनः दरवाजे पर दस्तक हुई। इस बार डॉ. अमरनाथ ‘अमर’ और उसके साथ ‘राज्यसभा टीवी’ के रितु थे। वे भी चहकते हुए शामिल हो गए। कमरे की रौनक बढ़ गई। दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों का राजपक्ष खुल रहा था। तभी मेरा मोबाइल चकमकाया तो देखा बलरामजीबलराम जी थे। दरअसल शाम 7 बजे मुझे उनके निवास पर होना था, जहाँ ‘हिंदी अकादमी’ के सचिव भाई हरिसुमन बिष्ट जी को मुझसे मिलना था। वहाँ दोनों नियत समय पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे और यहाँ कमरे में मित्रों का अकस्मात आगमन होता रहा, जिसके कारण समय मेरे हाथ से फिसलता चला गया। बलराम जी का फोन आया तो देखा शाम के साढ़े 7 बजे रहे थे। मैंने उन्हें विवशता बताई तो उन्होंने मोबाइल पर ही बिष्ट जी से बात करवाई।

बिष्ट जी ने अगले दिन दोपहर के भेाजनभोजन पर आमंत्रित किया। यह लंच और डिनर भी विचित्र मोह संजाल है! छह दिनों के दिल्ली प्रवास में कोई दर्जन भर मित्र लेखकों के लंच-डिनर का प्रस्ताव चाहकर भी स्वीकार न कर पाने के दंश से अपने को तड़पा चुका हूँ। बिष्ट जी से भी माफी मांमाँगी। उन्होंने कहा- ‘लेकिन दरस-परस तो होना ही चाहिए।’ मैंने मान लिया। बात खत्म हुई। इधर महफिल का रंग निखर ही रहा था कि मैंने अनिच्छा भाव से कुछ मित्रों के अनुनय पर उसके समापन की घोषणा कर दी। एक-एक कर मित्र विदा होने लगे। बच गए डॉ. रीता सिन्हा और डॉ. रहमतुल्लाह। मुझे उनके घर डिनर पर जाना था। समय ने डिनर पर जाने की इजाजत न दी, तो रहमत भाई ने कहा कि चलकर बंगाली मार्केट में ही खा लिया जाए। इतना भर ठीक था। हम ‘नाथू स्वीट्स’ में जाकर कोने वाली सीट पर जम गए। घंटे भर बाद वहाँ से निकले तो ताजा हवा के ठंडे झोंके ने शरीर को गुदगुदी दी। शरीर ही नहीं, मन भी खिल उठा। वापिस ‘गोमती’ के लॉन में रहमत भाई और रीता जी से बतकही चलती रही। 

डॉ. रीता मेरे गाँव-जवार की है जबकि रहमत भाई पटना के। दोनों से मेरी खूब छनती रही है। डाॅ.डॉ. रीता की कथा-भाषा का मैं कायल रहा हूँ और रहमत भाई के व्यवहार भाषा का। उन्हें विदा कर कमरे में लौटा तो जाने कबसे पत्नी मोबाइल पर दस्तक दे रही थी। पत्नी से बात करने के लिए आराम मतलब इत्मीनान चाहिए और शरीर थकान से लदा पस्त था। पत्नी को मेरी चिंता रहती है, हर पल। उनसे बातें कर मन से कहीं अधिक तन खिल उठता है। दिनभर की चर्या का हिसाब दे उन्हें आवश्स्त किया और बच्चों का कुशलक्षेम लिया। बातचीत खत्म हुई तो घड़ी देखी। दस बजे रहे थे। सोचा, अब कुछ अपना काम कर लिया जाए। ‘दूसरी परंपरा’ के पन्ने पलटने लगा।

तभी मोबाइल थरथराने लगा। देखा, डाॅ.डॉ. गंगाप्रसाद विमल थे। उन्हें प्रणाम किया ही था कि आवाज सुनाई पड़ी- ‘बंधुवर, मैं आपके कमरे में आ रहा हूँ।’ मैं चकित! घड़ी देखी–- साढ़े दस बजने को थे। दरवाजा खोला ही था कि सचमुच डॉ. विमल अंतिम सीढ़ी चढ़कर मेरी तरफ बढ़ रहे थे। आदरपूर्वक उन्हें बैठाया। अभी थोड़े दिनों पहले ही मैंने उनका उपन्यास ‘मानुषखोर’ पढ़ा था। अत्यंत रोचक एवं पहाड़ी-जीवन की संस्कृति को तथ्यतः खोलना एक महत्वमहत्त्वपूर्ण उपन्यास, जिसमें वर्तमान राजनीति के त्रासद को निर्ममता से खंगाला गया है। मैंने उनके उपन्यास की तारीफ की तो वे थोड़े तरल हुए। मेरी पुस्तक ‘साहित्यिक पत्रकारिता का साधु संग्राम’ पर लिखी समीक्षा मुझे सौंपते हुए कहा कि वे इसकी एक प्रति ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में छपने के लिए डाॅ.डॉ. रणजीत साहा को भी दे देंगे। मुझे सुखद अनुभूति हुई। हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक ने मेरी पुस्तक पर समीक्षात्मक टिप्पणी की, इस सुखद अहसास ने मुझे हार्दिक प्रसन्नता दी। कोई घंटे भर तक उनसे बातें होती रहीं। वे मेरे लेखन और संपादन की खुलकर प्रशंसा कर रहे थे। इन दिनों उनका पुत्र दिल्ली आया हुआ है, जिनसे संबंधित भी कई बातें हुईं।

साढ़े ग्यारह बजे उन्हें नीचे गाड़ी में विदा कर कमरे में लौटा तो थकान ने मुझे किसी भी काम को करने की सख्त मनाही कर दी। निर्विकल्प नींद की शरण में चला गया।

दिल्ली, 21 दिसंबर

दोपहर 2 बजे सी.एस.टी.टी. की बैठक से अवकाश मिला। सीधे मयूर विहार की ओर निकल पड़ा, बलराम जी से मिलने उनके दफ्तर की ओर। रास्ते में लक्ष्मीनगर बस पड़ाव पर मित्रवर विजय सुदामा से भेंट हो गई। बलरामजीबलराम जी तक पहुँचते-पहुँचते तीन बज गए। उन्हें नोएडा जाना था, जहाँ कथा लेखिका नीला प्रसाद के घर मासिक साहित्य गोष्ठी थी। वे हड़बड़ी में थे। अंजली देशपांडे भी उन तक पहुँच चुकी थी। इन दोनों को कथाकार राजकमल के यहाँ जाना था और फिर वहीं से नीला प्रसाद के घर। राजकमल जी का बार-बार बलमराम जी को फोन आ रहा था। कोई आधे घंटे तक ‘लोकायत’ कार्यालय में बिताने के बाद मैं वहीं से ऑटो रिक्शा ले चल पड़ा कथा लेखिका चित्रा मुद्गल जी से मिलने। वे मयूर विहार में ही वर्द्धमान अपार्टमेंट में रहती हैं।

चित्रा जी के घर पहुँच थोड़ा इत्मीनान हुआ। वे जिस उमंग से मिलती हैं, वह सम्मोहित करता है। अपने प्रायः हर दिल्ली प्रवास में समय निकाल उनसे अवश्य मिल लेता हूँ। उनसे मिलना अच्छा लगता है। चित्राजीचित्रा जी थोड़ी ही देर में ढेर सारे व्यंजनों के साथ चाय लेकर आयीं। बातें होने लगीं। बीच-बीच में पंडित जी (अवधनारायण मुद्गल) भी टिप्पणी करते। उसी बीच सुषमा जगमोहन भी आ गई। बात उनके उपन्यास ‘जिंदगी ई-मेल’ पर केंद्रित हो गई। वह अपने उपन्यास पर मेरी सकारात्मक टिप्पणी से बहुत प्रसन्न थी। हमारी चर्चा में ‘हुल पहाड़िया’, ‘मानुषखोर’, ‘पिछले पन्ने की औरतें’ आदि उपन्यास भी शामिल होते चले गए।

चित्रा जी मेरे तर्क से सहमत थी कि इतिहास, शोध और सृजन के उत्कृष्ट मेल के उपन्यासों में सबसे बेहतर ‘हुल पहाड़िया’ है। उनके यहाँ कोई घंटे भर रहा। वहाँ से जब निकला, शाम के छः बज रहे थे। आज ही मुझे ‘मगध’ से पटना लौटना था, जो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से रात 8 बजे खुलती है। इस बार दिल्ली प्रवास के छः दिन कैसे निकल गए, पता ही नहीं चला। कई लेखकों से चाहकर भी नहीं मिल सका। समय ही नहीं मिल पाया। उन लेखकों के फोन आते रहे, मैं मिलने के वायदे भी करता रहा, पर चाहकर भी मिल नहीं पाया। खासकर डॉ. रामदरश मिश्र, भगवतीशरण मिश्र, हिमांशु जोशी, कमलकिशोर गोयनका, डाॅ.डॉ. गोपाल राय, सीतेश आलोक आदि से न मिल पाने का बेहद अफसोस रहा। इन लेखकों का मुझ पर अपरिमित स्नेह रहा है। ‘मगध’ ठीक 8.10 में खुली। अपने समय से। मैं ट्रेन के ए-1 बोगी के बर्थ नम्बरनंबर 37 पर बैठा-बैठा कुछ सोच रहा था, कि मेरा मोबाइल थरथराने लगा। मैं कुछ कहता कि आवाज आई- ‘–‘मैं आपके कमरे में आ रही हूँ… अभी रास्ते में हूँ।’ मैंने कहा- ‘–‘लेकिन मैं तो ट्रेन में हूँ।’ आश्चर्यमिश्रित आवाज सुनाई पड़ी- ‘–‘अरे, तो इतने सारे ढोकले कौन खाएगा… और ये दही भल्ले!’


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शिवनारायण द्वारा भी