आकाशवाणी !

आकाशवाणी !

नाम का तो यह गणतंत्र है, किंतु मालूम होता है, हमारी सरकार ने अँग्रेजी नौकरशाही के सब ऐब विरासत में ले लिए हैं। वही जनमत की उपेक्षा, वही कुछ अफसरों की ज़िद्द की रक्षा। सुनते हैं, ऑल इंडिया रेडियो का सूत्र जिस मंत्रालय के हाथ में है, उसमें एक अफसर हैं, जिन्हें ‘आकाशवाणी’ शब्द बहुत प्यारा है। अब उनकी ज़िद्द यह है कि रेडियो की जगह इसका प्रयोग किया ही जाए। उन्होंने बड़े-बड़े तिकड़म भिड़ाए; रेडियो के क्षेत्रीय स्टेशनों को प्रभावित कर उनके यहाँ से अपने पक्ष में सम्मतियाँ मँगाईं, रेडियो परामर्श समिति के सदस्यों को भी अनुनय-विनय से इस पर राजी किया और ‘आकाशवाणी’ का प्रयोग शुरू करा दिया है–बड़ी हुशियारी से, धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए! नेहरू साहब संप्रदायवाद की खोज कांग्रेस में कर रहे हैं–यदि कभी वह दिल्ली के अपने मंत्रालय में उसकी खोज करते, तो उन्हें पता चलता कि झकझोर-इलाज की कहाँ अधिक ज़रूरत है। इन संप्रदायवादियों का कार्यक्षेत्र मुख्यत: भाषा की ओर है। वे हिंदी के नाम पर भोंड़े-से-भोंड़े संस्कृत शब्द को चलाने में ज़रा भी हिचक नहीं लाते। ‘कमीशन’ के लिए ‘आयोग’ और सिलेक्ट कमीटी को ‘प्रवर-समिति’ कहने में इन्हें कभी यह बात नहीं खटकती कि शब्द का सिर्फ वही अर्थ होता, जो धातु से निकलता है! ‘आयोग’ यदि कमीशन है, तो ‘विनियोग’ क्या होगा? और ‘प्रवर’ तो यज्ञोपवीत की गाँठ के अर्थ में भारत भर में प्रचलित हो चुका है! किंतु, इन बातों पर ध्यान देने की बुद्धि इनमें होती, तो फिर संप्रदायवाद को अफीम क्यों कहा जाता? ‘आकाशवाणी’ एक खास अर्थ में ही भारतीय साहित्य में प्रयुक्त होती रही है। उस शब्द के अंतर्गत अभिनेत्रियों के प्रेम-गान और नेताओं के प्रचार-भाषण प्रसारित करना उस शब्द का ही अपमान नहीं है, सारे भारतीय वाङ्मय का अपमान है। हम फिर कहते हैं, रेडियो के अधिकारी, खास कर वह अफसर, अपनी जिद छोड़ें। ऑल इंडिया रेडियो का नाम बदलना है, तो ‘भारत-रेडियो’ से बढ़कर कोई दूसरा नाम नहीं हो सकता!

2. कला और भोजन!

धन्य था वह समय और धन्य थे वे लोग–जो स्वांत: सुखाय लिखते थे! किसी मानव की प्रशंसा करने में भी जो सरस्वती का अपमान समझते थे–“किन्हें प्रकृति जन गुन गाना–सिर धुनि गिरा लागि पछताना!” किंतु आज के कलाकार की तो विचित्र स्थिति है। आज कला की आराधना के साथ पेट की समस्या बँध गई है। कलाकार को पेट तो होता ही है। किंतु, पहले इस पेट की ओर समाज का ध्यान था, समाज कलाकार की आवश्यकताओं की ओर ध्यान देता था, वह निश्चिंत होकर समाज को नए गीत, नया काव्य, नई-नई मूर्तियाँ, नए-नए स्थापत्य दिया करता था! कला के क्षेत्र में जो कुछ उदात्त है, उसी युग में पंदा हुआ। किंतु धीरे-धीरे ऐसी सभ्यता आई, जिसने समाज पर व्यक्ति को प्रधानता दी। हर आदमी को अपनी समस्या आप हल करने को लाचार होना पड़ा। इस स्थिति में कुछ लोग जो चतुर थे, उनकी तो बन आई। किंतु भोले-भाले लोगों पर आफत आ ढही। कलाकार ऐसे ही लोगों में था! वह लेखक हो, कवि हो, चित्रकार हो, संगीतकार हो, आज उनकी सब जगह दुर्गत है! अच्छे-अच्छे साज़ बजाने वाले उचित भोजन के अभाव में अकाल वार्धक्य के शिकार हो रहे हैं। जब किसी तरुण चित्रकार का अपनी सुंदरतम रचना लेकर बाज़ार में घूमता और वहाँ से भी उपेक्षा पाता हुआ देखते हैं, आँखों में खून उतर आता है–मालूम होता है, कोई कण्व अपनी शकुंतला को भठियारखाने में बेचने को मजबूर हुआ हो! कवियों की समस्या तो और बुरी है। इंग्लैंड ऐसे देश में भी देखा गया है कि कविता की पुस्तकें बहुत कम बिकती हैं। प्रकाशक कविता पुस्तक प्राय: नहीं लेता; तो अब बाप-दादे की जायदाद बेच कर कवियों ने अपनी रचनाएँ प्रकाशित करने का धंधा उठाया है। आधुनिक कवियों के काव्य में जो रुदन-ही-रुदन है, वह उसकी यथार्थ स्थिति का कलामय रूप है। और, लेखक–यदि वह कोई कुशबाहाकांत नहीं हुआ, तो उसकी दुर्गति भी देखने लायक है। पहले प्रकाशक की सेवा में दौड़ो–फिर टेक्स्टबुक कमेटी या सरकारी लाइब्रेरियों के लिए नियुक्त समिति के सदस्यों के दरवाजे की धूल झाड़ो! सरकार को किसानों, मजदूरों, कारीगरों, कर्ल्कों, चपरासियों, सबका ध्यान हैं–किंतु बेचारा कलाकार! उसका भगवान अब भी सोया है और पेट में खाँव-खाँव मची है!

3. सम्मेलन की दुर्गति

हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की दुर्गति का क्या कहना? उसको लेकर प्रयाग और वर्धा में कुहराम मचा हुआ है। प्रयाग में सात-सात मुकदमे चल रहे हैं। उसके ऑफिसों पर सरकारी मुहरबंद ताले लटक रहे हैं! वर्धा में आनंद जी को अनशन पर उतारू होना पड़ा। उन पर घृणित से घृणित आरोप लगाने वाले पर्चे इधर भारत-भर में बाँटे गए थे! निस्संदेह, इसमें प्रयाग का हाथ था! जिन लोगों को आनंद जी ने वर्धा के हिंदी-नगर में बटोर रखा था, उन्होंने ही उन्हें धोखा दिया। इधर, महात्मा गाँधी जी को अलग कर के जिनके हाथों में पूज्य टंडन जी ने सम्मेलन को सौंपा, उन्होंने ही भस्मासुर का पाठ प्रारंभ किया! बेचारे टंडन जी यह कर भी सम्मेलन को सही रास्ते पर नहीं चला पाते। सम्मेलन के सारे झगड़े की जड़ यह परीक्षा-विभाग है। सम्मेलन को इससे आय होती ही है सबसे बड़ी आय होती है उन लेखकों और प्रकाशकों को, जिनकी पुस्तकें सम्मेलन-परीक्षाओं में स्वीकृत हो जाती हैं। ऐसे ही लेखकों और प्रकाशकों तथा उनके एजेंटों ने एक गुट बना रखा है और ऐसी मोर्चेबंदी कर रखी है कि उनकी मर्ज़ी के खिलाफ एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। वे ही जिसे चाहते हैं, सभापति बनाते हैं और साल भर उसे बंदर की तरह नचाते हैं! सम्मेलन के सभापतियों की दुर्गति भी देखने ही लायक है। संयोग से इस साल उन्हें सभापति मिल गए श्री जयचंद्र विद्यालंकार ऐसे आदमी। जयचंद्र जी की हिंदी सेवा उन्हें कब न इस पद पर पहुँचा चुकी होती। किंतु, वहाँ तो दलबंदी के दस्तावेज पर जब तक कोई दस्तखत न कर दे, सभापति कैसे हो सकता है? जयचंद्र जी ने इसी कीमत पर यह पद पाया और अब उस पद का ‘सुख’ भोग रहे हैं! यह सौभाग्य उन्हें ही प्राप्त हुआ कि उनके कार्यकाल में सम्मेलन के ऑफिस पर मुहरबंद ताला पड़ा और टंडन जी ऐसे आदमी को अदालत के कटघरे में खड़े होने का समन मिला! सचमुच, जयचंद्र जी के भाग्य पर किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है।

4. ये भोंड़ी आलोचनाएँ

ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी पर आलोचना के बहाने जो कीचड़ उछाले हैं और जिस कारण उछाले हैं उसके विरोध में काफी पत्र आ रहे हैं। पिछले अंक में हमने उस तरह का एक पत्र छापा भी था। पर ठाकुर साहब की गाड़ी नहीं रुकती। वह उसी तबियत के हैं। अफसोस इस बात का है कि पत्र-पत्रिकाओं के संपादक वैसी भोंड़ी चीज़ को क्यों स्थान देते हैं। उनके हर लेख को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि स्कूल और कॉलेजों में गुप्त जी के किताबों के स्वीकृत होने से ही उनकी नाराजगी है। उनका अपना स्वार्थ खतरे में है इसलिए वे इस सतह पर उतर कर आलोचना करते हैं। क्या यह भी मान लिया जाए कि उनके लेख छापने वाले हर पत्र का स्वार्थ उनके स्वार्थ से जुड़ा है या यह संपादकों की काहिली अथवा अक्षमता है कि वैसी चीजें छप जाती हैं? यह सिलसिला न सिर्फ उन्हें ले बीतेगा बल्कि हिंदी पत्रकारिता के नाम पर वैसा कलंक लगाएगा जो धोए न धुलेगा। आखिर संपादक के टेबुल के नीचे रद्दी की टोकरी भी तो रहती है। विचार-स्वातंत्र्य का यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि सभी कुछ छापने पर संपादक मजबूर हो।


Image: A military officer of the East India Company
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