हमें यह कहना है!

हमें यह कहना है!

स्वर्गीय अवनींद्रनाथ टैगोर!

आधुनिक भारत का सर्वश्रेष्ठ चित्रशिल्पी हमारे बीच से उठ गया। एक-एक कर हमारे दिग्गज हमें छोड़ते जा रहे हैं। रवीबाबू चल दिए, फैयाज खाँ चल दिए। बीसवीं शताब्दि के प्रारंभ में भारत के कलाक्षेत्र में नवचेतना की–रेनेसाँ की–एक नई लहर चली। कविता क्षेत्र में उसके प्रतीक थे रवींद्रनाथ, संगीत में फैयाज़ खाँ और चित्रकारी में अवनींद्रनाथ! एक परिवार, एक युग में, इतने बड़े दो कलाकार थे, यह विरल घटना है। अवनींद्रनाथ ने भारतीय चित्रकाल का उद्धार किया–उस कला का, जो रूप के चित्रण को महत्त्व नहीं देकर आत्मा के चित्रण पर ज़ोर देती है। रंगों का हल्कापन, रेखाओं की बारीकी, मुद्राओं की भंगिमा,–ये चीजें ऐसी थीं, जो यूरोपीय चित्रकला से मेल नहीं खाती थीं। हमारी आँखों की दृष्टि कुछ ऐसी विकृत हो चली थीं, कि हम स्वयं भी कहते थे, ये चित्र नहीं, पहेली हैं बाबा! अधमुँदी आँखें और टेढ़ी-मेढ़ी अँगुलियाँ,–अवनी बाबू के चित्रों की ये दो विशेषताएँ आज भी हमारे लिए पहेली ही बनी हुई हैं! किंतु, जिनके आँखें हैं, उन्होंने इस कला के महत्त्व को समझा। फिर उसका अनुकरण होना प्रारंभ हुआ, तो आज तक उसी पथ पर लोग बढ़ते जा रहे हैं! अवनी बाबू चल दिए, किंतु, एक ऐसी लकीर छोड़ गए हैं, जिसे लाख प्रयत्न करके भी काल मिटा नहीं सकेगा! जब राजनीति का जादू हटेगा, लोग समाचारपत्रों द्वारा प्रशंसित व्यक्तियों को ही सर्वेसर्वा समझने की भ्रांति से दूर होंगे, तो उन्हें मालूम होगा, वह व्यक्ति कितना महान था जिसने बंगाल के एक सुप्रसिद्ध और अति प्रतिष्ठित परिवार में जन्म लिया, जिसने कला की आराधना में ही अपना संपूर्ण जीवन अर्पित किया, जिसने भारतीय चित्रकला की संपूर्ण महानता और विशेषता को अपनी कूची के द्वारा पुनर्जीवन दिया और जिसने एक लंबी उम्र पाकर अपनी आँखों अपनी कला का अभिनव विकास देख, परम शांति के साथ, अभी-अभी, उस दिन बैरकपुर, कलकत्ता में सदा के लिए आँख मूँद ही हैं।

यह महान कलाकार और वह आश्रम का कुत्ता!

शीर्षक विचित्र है, किंतु घटना बड़ी ही करुण है। अभी-अभी ‘नेशनल हेराल्ड’ में किसी अज्ञात सज्जन ने एक लेख लिखा है–‘ए टैगोर ऐंड ए डौग!’ पहले ‘ए’ का मतलब है अवनींद्र से! लेखक ने बताया है कि किस प्रकार पाँच दिसंबर के ‘नेशनल हेराल्ड’ में दो समाचार प्रकाशित हुए–एक में बताया गया था कि बंगाल का यह सुप्रसिद्ध कलाकार चल बसा और दूसरे में कहा गया था कि कस्तूरबा आश्रम का एक कुत्ता मर गया। किंतु जहाँ अवनीबाबू की मृत्यु पर सिर्फ 13 पंक्तियाँ छपी थीं, वहाँ उस कुत्ते की मृत्यु पर 20 पंक्तियाँ। इसमें ‘नेशनल हेराल्ड’ का दोष नहीं था, बल्कि ‘नेशनल हेराल्ड’ ने उसे प्रथम पृष्ठ पर छापकर अपनी उस परंपरा को ही निभाया था जिसके अनुसार उस अखबार में फैयाज़ खाँ की मृत्यु को बहुत बड़ा महत्त्व दिया गया था। इसमें दोष था, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया का, जिसने उस कुत्ते की मृत्यु को इतना महत्त्व दिया था और इस कलाकार के संबंध में ऐसी उदासीनता दिखलाई थी! पी.टी.आई. की यह मनोवृत्ति क्या हमारी आपकी मनोवृत्ति का ही आईना नहीं है? क्या हम अपने कलाकारों के जीवन से उतनी भी दिलचस्पी रखते हैं, जितनी कि किसी आश्रम में रहनेवाले कुत्ते के जीवन से हमारी दिलचस्पी होती है! यदि ऐसी बात नहीं होती, तो ऐसा नहीं होता कि इतना बड़ा कलाकार हमारे बीच से उठ जाए और उसके निधन पर हम सार्वजनिक शोकसभाएँ तक नहीं कर पाएँ, फिर उनकी स्मृति-रक्षा की क्या बात? किंतु सौभाग्य की बात यही है कि अवनी बाबू ऐसे लोग हमारी शोकसभाओं और स्मारक-आयोजनों की अपेक्षा नहीं करते–वे अपने पीछे ऐसी पीढ़ी छोड़ जाते हैं जो उनके पथ पर आगे बढ़ती और उनकी कीर्ति को बढ़ाती जाती है! अवनी बाबू ने तो अपने सामने ही तीन पुश्त को अपने पथ का अनुगमन करते देख लिया था और कितनी ही शताब्दियों तक उनका यह पथ प्रशस्त रहेगा, इसमें तो संदेह नहीं!

पी. सी. बरुआ नहीं रहे!

बंगाल का एक दूसरा कलाकार भी हमें छोड़कर चल बसा–पी.सी. बरुआ के नाम से वह फिल्मी संसार में प्रसिद्ध था। शहगल ने जिस तरह फिल्म की दुनिया को उच्चकोटि का संगीत दिया था, उसी प्रकार बरुआ ने उसे उच्चकोटि का अभिनय दिया था। बरुआ का अभिनय–जिसमें कहीं उछलकूद नहीं; कहीं चीख-चिल्लाहट नहीं; कहीं चेहरे पर एक अधिक शिकन नहीं; कहीं भवों पर तनिक भी अधिक वक्रता नहीं! बरुआ का अभिनय देखिए, तो मालूम होता था, आप अभिनय नहीं, जीवन देख रहे हैं! बरुआ अभिनेता ही नहीं, निर्देशक भी थे और उनके निर्देशन से महान कलाकारों की कृतियाँ भी चमक उठती थीं, इसमें शक नहीं। शरदबाबू के प्रशंसक क्षमा करें, शरद के देवदास से कहीं सुंदर और करुण बन पड़ा है बरुआ का देवदास! हाँ, हम मानते हैं कि देवदास के अभिनय में बरुआ को कहीं पीछे छोड़ दिया था शहगल ने–किंतु, फिल्म का देवदास वह नहीं है, जो पुस्तक का देवदास था। यह नहीं कि बरुआ ने शरदबाबू की इस अमर कृति की कहीं विकृति की, किंतु एक महान कलाकार ने अपने पूर्ववर्ती कलाकार की एक महान कृति पर चार चाँद लगा दिए, यह तो कहा ही जा सकता है! बरुआ की एक कृति और महान है, वह है यमुना का आविष्कार! यमुना ने फिल्मजगत में नारी-चरित का जो आदर्श उपस्थित किया, उसका जोड़ आज तक सामने नहीं आया! जोड़ की क्या बात, अब तो नारी-चरित दिन-दिन गिरता जा रहा है–नरगिस, सुरैया, मधुबाला, निम्मी! उफ, ये छोकरियाँ नारी-चरित को किस गहरे गर्त में गिरायेंगी? भारतीय चित्रपट यमुना के बिना इधर सुना लगता था, अब बरुआ के बिना वह और अंधकारमय हो गया!

पृथ्वीराज का शुभागमन!

पटना का सौभाग्य रहा कि यहाँ श्री पृथ्वीराज कपूर आए और अपने छ: उतमोत्तम नाटकों का प्रदर्शन किया। सीज़र की तरह वह आए, उन्होंने नज़र उठाई और फिर विजय उनकी होकर रही! पृथ्वीराज की इस विजय ने कम से कम दस-बारह दिनों तक बिहार की राजधानी पर कला के झंडे को ऊँचा रखा। उनके नाटकों के लिए, पैसे खर्च करने पर भी, सीटें पाना तो भाग्य की बात रही ही; वह जहाँ जब जिस ओर निकले, लोगों पर पागलपन छा गया! और, अपने अन्य कलाकार बंधुओं से उनमें एक विशेषता रही कि उन्हें जहाँ भी प्रेम से बुलाया गया, वह बेरोकटोक गए और उनकी शालीनता, सज्जनता और नम्रता ने सबको उनका बना दिया। अपनी कला की दृष्टि से तो पृथ्वीराज महान हैं ही, अपने व्यक्तित्व से भी वे महान हैं, इसे सबने एक स्वर से स्वीकार किया! उनके छ: नाटकों ने भारतीय जीवन के छ: पहलुओं का जीवन चित्र दर्शकों के सामने रखा। मंच और दर्शक में तुरंत ही इतनी तादात्मता स्थापित हो जाती थी कि उस विशाल भवन में सूई का गिरना भी सुना जा सकता था! यों तो हर पात्र का अभिनय अपनी-अपनी जगह पर पूर्ण था; किंतु, पृथ्वीराज का अभिनय तो कमाल था। सचमुच हिंदी वालों के सिर गर्व से उन्नत होने लगते थे, जब वे कल्पना करते थे कि उनके पास भी अब ऐसा कलाकार है जिसे वे संसार के श्रेष्ठतम अभिनेताओं के समक्ष गर्व से पेश कर सकते हैं! अब हिंदी वाले किसी भादुड़ी या लारेंस के लिए नहीं तरसेंगे। यदि पृथ्वीराज की प्रशंसा हम उतनी नहीं करते हैं जितनी प्रशंसा दूसरी भाषाओं के लोग अपने कलाकारों की करते हैं, तो उसका कारण हमारी गुणग्राहकता की कमी नहीं, बल्कि हमारी नम्रता की अधिकता है, जो सचमुच ही एक दोष बन गई है।

हिंदी के नाटककारों को चुनौती!

पृथ्वीराज ने रंगमंच तो बनाया, किंतु, उस रंगमंच के उपयुक्त हिंदी में उन्हें नाटक नहीं मिल रहे हैं, इस बात की ओर उन्होंने कई बार इशारा किया और उस दिन की आशा की जब वे हिंदी के महान नाटककारों की अमर रचनाओं का अभिनय करके अपने को धन्य समझेंगे। पृथ्वीराज की इस नम्रता में भी चुनौती थी! इसमें शक नहीं कि अब तक जो नाटक पृथ्वीराज खेलते हैं, वे कला की दृष्टि से उच्चकोटि के नहीं हैं। यह तो पृथ्वीराज का अभिनय है, जो उनमें जान डाल देता है, मूक प्रतिमाएँ भी जैसे उनके अँगुलि-स्पर्श-मात्र से बोल उठती हैं! सचमुच वह दिन हिंदी के रंगमंच के लिए एक महान दिन होगा, जब पृथ्वीराज ऐसे महान कलाकार, उनकी कला के अनुरूप ही नाटक पा सकेंगे और उसके अभिनय से एक अभिनव जगत की सृष्टि कर सकेंगे। किंतु, इसके लिए आवश्यक यह है कि हिंदी के नाटककार आधुनिक रंगमंच की रूपरेखा का अध्ययन करें और उनका व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करें। जब तक रंगमंच से दूर-दूर बैठ कर नाटककार नाटकों की सृष्टि करते रहेंगे। तब-तक हिंदी को वह शुभदिन देखने का सौभाग्य नहीं मिलेगा! शेक्सपीअर और शॉ दोनों ही रंगमंच के निकट थे, इसीलिए महान नाटक लिख सके। पृथ्वीराज जो खेलते हैं, उनकी रचना में उनका हाथ कम नहीं रहा है। किंतु, शेक्सपीअर ऐसे लोग कम होते हैं जो एक ही साथ अभिनेता, नाटककार हों। हमें पूरी आशा है, पृथ्वीराज ने रंगमंच के उद्धार के लिए जो यह प्रयत्न प्रारंभ किया है, उसका सुफल समय पाकर हम अवश्य चखेंगे और वह दिन दूर नहीं है जब पृथ्वीराज ऐसे महान अभिनेता की तरह ही हम महान नाटककार भी पा सकेंगे–फिर दोनों के संयोग से सोने में सुगंध की कहावत चरितार्थ होगी।


Image: Portrait of Rabindranath Tagore
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Abanindranath Tagore
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