हमें यह कहना है!

हमें यह कहना है!

भारत-सरकार ने दिल्ली में देश के साहित्यिकों की जो सभा बुलाई थी, वह एक अभिनंदनीय घटना थी। स्वतंत्र भारत की सरकार देश के चहुँमुखी विकास में साहित्य को भी स्थान देती है, इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। किंतु, इस सभा पर शुरू से ही नौकरशाही की छाप थी। साहित्यिकों का चुनाव सरकारी ढंग पर हुआ। जहाँ उसे प्रदेशों की साहित्यिक संस्थाओं से साहित्यिकों के नाम माँगने चाहिए थे, वहाँ उसने वहाँ की सरकारों से नाम माँगे। और, स्वभावत: ही उन सरकारों ने उन्हीं साहित्यिकों के नाम भेजे, जो उनके नेक नाम थे! जहाँ की सरकार ने साहित्यिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों की ओर भारत-सरकार का ध्यान आकृष्ट किया, वहाँ उसे ठुकरा दिया गया! उदाहरणस्वरूप बिहार की सरकार ने बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के प्रतिनिधियों को बुलाने पर जोर दिया; किंतु उसकी एक नहीं सुनी गई। चूँकि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद अर्ध-सरकारी संस्था है, अत:, बिहार-सरकार ने अपनी ओर से उसके लिए प्रतिनिधि भेजा। किंतु उस प्रतिनिधि को दर्शक की हैसियत से ही उस सभा में सम्मिलित होने की इजाजत मिली! यों इस सभा के प्रतिनिधि-रूप में तो त्रुटियाँ थीं ही। जो कसर थी उसे पूरा कर दिया मौलाना आजाद की वक्तृता ने। मौलाना उर्दू-साहित्य की गद्यशैली के निर्माताओं में से हैं। अत: यदि वह उसकी तारीफ करें, यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं! और हिंदी जब राष्ट्रभाषा हो गई, तो उसके अभावों की ओर वह लोगों का ध्यान आकृष्ट करें, इसे भी कोई बुरा नहीं मान सकता! किंतु, दुर्भाग्यवश उनके भाषण से हिंदी को हिकारत से देखने की दुर्भावना टपकती थी। और, हम दावे के साथ कह सकते हैं, कि उनकी इस दुर्भावना में उनके विभाग के सेक्रेटरी डॉ. ताराचंद की आत्मा बोल रही थी। डॉक्टर ताराचंद ने अपने ‘उर्दू-साहित्य के इतिहास’ में हिंदी के विकास को जिस तरह तोड़-मरोड़ कर रखा है, मौलाना का भाषण उसकी स्पष्ट छाप लिए हुए था। मिनिस्टरों के भाषण अधिकांशत: उनके सेक्रेटरियों द्वारा तैयार कराए जाते हैं। यह वक्तृता भी क्या डॉ. ताराचंद की कहानी, मौलाना अबुल कलाम आजाद की ज़बानी थी!

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प्रसंगवश हम यहाँ यह उल्लेख किए बिना नहीं रह सकते कि भारत-सरकार का शिक्षा-विभाग हिंदी के विद्वानों से ही शून्य नहीं है, बल्कि वह हिंदी-विरोधियों का अखाड़ा बन गया है। जब हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर लिया गया है और उसे पंद्रह वर्ष के अंदर देशव्यापी बनाने की जिम्मेदारी भारत-सरकार पर भी है, तो उसके शिक्षा-विभाग में हिंदी के विद्वानों को योग्य स्थान मिलना ही चाहिए। यही नहीं, वहाँ हिंदी-विरोधियों का रखा जाना तो नितांत अनुचित है ही! इस दृष्टि से, यह उचित है कि मौलाना के विभाग का काफी परिष्कार किया जाए! राष्ट्र के स्वार्थ के आगे व्यक्ति का स्वार्थ अधिक महत्त्व नहीं रखता! फिर हम किसी की नौकरी से बर्खास्त किए जाने की बात तो करते नहीं; हमारी तो यही माँग है कि उचित व्यक्ति को उचित स्थान पर रखा जाए। भारत-सरकार के सचिवालय में भी ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें हम इस दृष्टि से शिक्षा-विभाग में ला सकते हैं और उनकी जगह को डॉ. ताराचंद ऐसे योग्य आदमी भलीभाँति सुशोभित कर सकते हैं!

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त्रुटियाँ चाहे जो हों और जितनी हों, अखिल भारतीय साहित्यिकों की ऐसी सभा सरकार ने बुलाई, इसके लिए हम उसे धन्यवाद देते हैं! यदि लोकमत जाग्रत रहा, तो धीरे-धीरे इन त्रुटियों से बचने के लिए सरकार को सजग होना ही पड़ेगा। जो नींव इस सभा के द्वारा डाली गई है, उसकी अच्छी से अच्छी संभावनाएँ हैं। हमारा यह विशाल देश। एक दर्जन तो हमारी प्रमुख भाषाएँ। हर भाषा की खास विशेषताएँ। यदि एक मंच पर हम इन भाषाओं के आचार्यों को लगातार एकत्र करते रहें, तो इससे सभी भाषाओं और उनके साहित्य को तो लाभ होगा ही, चूँकि इन सभी भाषाओं को एक सूत्र में गूँथने का काम हिंदी करेगी, इससे हिंदी के प्रचार और प्रसार में ही नहीं, उसके साहित्य-भंडार की अभिवृद्धि में भी बड़ी सहायता मिलेगी। मौलाना आजाद बड़ी ही सुसंस्कृत रुचि के व्यक्ति हैं। वह दूर तक देख सकते हैं और बड़े निर्णय ले सकते हैं। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में बिना झिझक स्वीकार कर उन्होंने इसका बड़ा प्रमाण भी दिया है। आवश्यकता यह है कि वह उनलोगों से अपने को दूर रखें, जिनकी दृष्टि सँकरी है, और जिनके कान समय की पुकार सुनने की शक्ति खो बैठे हैं। यदि ऐसा उन्होंने किया, तो हमारा विश्वास है, 1951 में जो यह सभा उन्होंने बुलाई, यह धीरे-धीरे विकसित होकर संसार की शीर्षकोटि की साहित्यिक संस्थाओं में परिणत हो जाएगी। हमारा देश महान है, हमारा साहित्य महान है। संपूर्ण देश के सारे साहित्य का सही प्रतिनिधित्व करने वाली यह संस्था भी फिर क्यों वैसी ही महत्ता नहीं प्राप्त कर लेगी? अपनी इसी आशा को लक्ष कर प्रारंभ में ही इस सभा के आयोजन को हमने अभिनंदनीय बताया है।

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लीजिये यह विशेषांक और जब तक यह विशेषांक आपके हाथों में पहुँचेगा, मैं विलायत में रहूँगा। अभी उस दिन सुबह चाय की चुस्कियाँ ले रहा था, कि बिहार पत्रकार-संघ के सभापति श्री ब्रजनंदन आजाद पहुँचे और उन्होंने एक तार सामने रख दिया! मैं पढ़ कर दंग! ब्रिटिश इंफौरमेशन सर्विसेज ने आमंत्रित किया है, मुझे 22 को दिल्ली से इंग्लैंड के लिए उड़ जाना है! यह बुलाहट ‘नई धारा’ के संपादक के रूप में है, यह जानकर मुझे और भी आनंद हुआ! विलायत जाने की इच्छा कई वर्षों से दिल के किसी कोने में पोस रहा था। 1947 में ही पासपोर्ट ले लिया था। उस समय यह यात्रा न हो सकी जब मैं चाहता था। आज वह अवसर अनायास आया। अत: मैं चला। वहाँ के अनुभव ‘नई धारा’ के पाठकों के सम्मुख धीरे-धीरे आएँगे। तब तक इस विशेषांक का मजा लें। हमारा सौभाग्य कि इस विशेषांक के लिए इतनी अधिक और इतनी उत्तम सामग्री मिल गई कि दो अंकों को एक में मिला देना पड़ा, तो भी कुछ बची ही रही। यह विशेषांक अप्रील-मई का संयुक्तांक है। जून के प्रारंभ में ही मैं लौटता हूँ। ‘नई धारा’ परिवार को इस अवसर पर सस्नेह अभिवादन भेजता हूँ, कहिए–शुभास्ते पथान:।


Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Ustad Mansur
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