हमें यह कहना है!

हमें यह कहना है!

पिछले दिनों, हिंदी-संसार ने दो जयंतियाँ मनाई–पं. माखनलाल जी चतुर्वेदी ‘भारतीय आत्मा’ की हीरक जयंती और युगकवि श्री सुमित्रानंदनपंत की स्वर्ण जयंती। चतुर्वेदीजी और पंत जी हिंदी-कविता के दो दौरों के ही नहीं, उसकी दो प्रवृतियों के भी प्रतीक हैं! चतुर्वेदी जी की कविता में मुख्यत: पुरुष बोला है–बलिदान की वाणी में। पंत की कविता में प्रकृति कूकी है बाल-विहगों के स्वर में। दोनों एक ही सड़क पर आगे-पीछे खड़े किए गए मील के दो पत्थर ही नहीं हैं, चौराहे पर पड़े वे तख्ते हैं, जो दो भिन्न दिशाओं की ओर इंगित करते हैं। बहुत दिनों तक ये दोनों कविता-पथ के पथिकों को सोचने-समझने और अपने लिए पथ चुनने के पहले रुकने को मजबूर करते रहेंगे। कवि ‘प्रसाद’ के शब्दों में इनमें से एक-एक की वाणी कह रही है और कहती रहेगी–

‘मैं एक पकड़ हूँ जो कहती–ठहरो, कुछ सोच-विचार करो!’

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ये जयंतियाँ तो मनीं, किंतु किस तरह! एक तरफ हमारे नेताओं की, उनसे भी बढ़ कर हमारे मिनिस्टरों की जयंतियाँ मनाई जा रही हैं–धूमधाम से; लाख-लाख की थैलियाँ, मोटे-मोटे अभिनंदन ग्रंथ, हवाई जहाजों पर आमद रफ्त, लंबे-लंबे व्याख्यान; अखबारों के कलेवर पर कलेवर रंगे जा रहे हैं! दूसरी तरफ ये जयंतियाँ–कुछ पत्रों ने एक-दो विशेष लेख लिख दिए; एकाध ने विशेषांक निकाल दिया, शहर के किसी कोने में दस-पाँच व्यक्ति मिलकर, दो-चार मालाएँ डाल कर, कुछ कह-सुन कर चलते बने! वाणी के वरद पुत्रों के प्रति ऐसी उपेक्षा! इसकी निंदा की जाए या इस पर रोया जाए!

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क्या यह सच नहीं है कि कुछ दिनों के बाद ये नेता भुला दिए जाएंगे; इन मिनिस्टरों का कोई नामलेवा भी नहीं रह जाएगा; किंतु हमारे ये कलाकार तब भी स्मरण किए जाएंगे, उनकी कीर्ति-कथाएँ कहते लोग अघाएंगे नहीं। कितनी किंवदंतियाँ बन जाएंगी; कितनी लोकगाथाएँ गढ़ ली जाएंगी! जिनके शब्दों को हम आज अनसुना कर रहे हैं, उनके अक्षरों के लिए हम तरसेंगे, तड़पेंगे, मुँहमाँगा दाम देकर उन्हें खरीदना चाहेंगे। हम जयंतियाँ मनाएंगे; स्मारक तैयार करेंगे! इतिहास साक्षी है–‘ताज’ के निर्माता को लोग भूल गए; ‘मानस’ का रचयिता आज भारत के घर-घर में विराज रहा है। और उस जमाने के दस हजारी, पाँच हजारी मनसब-दारों को कौन पूछता है आज!

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यहाँ एक प्रश्न–क्या हम अपने साहित्यिकों की जयंतियाँ, अपनी साधन-हीनता के बावजूद इससे अच्छी तरह से नहीं मना सकते? इसके लिए अपेक्षा है संगठित प्रयत्न की एकमात्र और यही संगठन-द्वारा ही संभव है। हिंदी वालों के सौभाग्य से ऐसा संगठन हमारे पास है भी–हमारा मतलब है हिंदी साहित्य-सम्मेलन से। किंतु, सम्मेलन को तो परीक्षा संबंधी उलझनों से ही फुर्सत नहीं। श्रद्धेय टंडनजी ने एक बार कहा था– तुम्हारे यहाँ के ही एक फक्कड़ साहित्यिक थे, श्री चंद्रशेखर शास्त्री जी। उन्होंने कहा था–टंडन, देखो मधु इकट्ठा कर रहे हो, अब मक्खियाँ भिनकेंगी! क्या सचमुच आज सम्मेलन में मक्खियाँ नहीं भिनक रही हैं? हिंदी की इस एकमात्र प्रतिनिधि संस्था को फुर्सत कहाँ कि वह अपने साहित्यिकों, उनके कर्तृत्वों, उनके अभाव-अभियोगों के प्रति ध्यान दे।

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जिस परिस्थिति में सम्मेलन की स्थापना हुई, शायद उसके साथ ही ये सब अवांछनीय बातें जुडी थीं। हमारा ध्यान तब मुख्यत: प्रचार की ओर था और हिंदी को राष्ट्रभाषा-पद दिलाने के लिए हम जमात जुटा रहे थे, गोल बाँध रहे थे। फलत: वे लोग भी घुस आए और हमने उन्हें बर्दाश्त किया, जिन्हें हम अपने बीच में देखना भी नहीं चाहते। किंतु अब छँटैए का वक्त आ गया है। अब बगुला भगतों को अलग करना होगा–साहित्य का मानस राजहंसों के लिए ही है! किंतु, यह हो कैसे? बगुलों की संख्या जो बड़ी है और उनका काँ-काँ भी तो भयावना होता है! स्थिति गंभीर है, किंतु, हमें इसका सामना करना ही पड़ेगा।

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हिंदी साहित्य सम्मेलन की प्रतिष्ठा उसी दिन धूल में मिल गई जब जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंदजी ऐसे लोग उसके सभापतित्व के पद को सुशोभित किए बिना ही चल दिए और वह कीचड़ में फँसी है, तभी तो मैथिलीशरण, महादेवी, निराला, पंत ऐसे कलाकार उनसे किनाराकशी किए हुए हैं। उसे इस दलदल से निकालना है। यह तभी संभव है जब सम्मेलन का नए सिरे से संगठन किया जाए। हैदराबाद में जिन लोगों ने सम्मेलन की नियमावली में संशोधन का प्रस्ताव रखा था, उनकी मंशा यही थी। यह प्रसन्नता की बात है कि इस शुभ कार्य के लिए सम्मेलन का विशेष अधिवेशन पटना में इसी महीने में होने जा रहा है। बिहार की राजधानी यह सौभाग्य प्राप्त करे कि उसने सम्मेलन को उसके योग्य स्थान पर पुन: प्रतिष्ठित किया; हम बिहार निवासियों की इससे बढ़कर दूसरी कामना क्या हो सकती है?


Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Ustad Mansur
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