हमें यह कहना है!
- 1 September, 1951
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- 1 September, 1951
हमें यह कहना है!
क्या कभी हमने यह सोचा है कि हिंदी में उनके साहित्यकारों की जीवनियाँ कितनी कम हैं? क्या तमाशा है, जिन्होंने संसार को अपनी कृतियों से अमरता दी, उनकी कृतियों की कहानी कह कर कोई अपने को अमर करने को तैयार नहीं! तुलसी और सूर ने राम और कृष्ण को जनता के हृदय-पटल पर नाना रूपों में इस गहराई के साथ अंकित किया कि सदियों के हवा-पानी के बावजूद उनके चित्र और भी सुंदर और आबदार बनते और निखरते जा रहे हैं। किंतु, कितना आश्चर्य कि इनके ही रहस्यमय चरित्रों की ओर आजतक ध्यान नहीं दिया गया! जो अपनी पत्नी के एक वचन पर सदा के लिए वैराग्य ले ले, या जो एक वेश्या के ऊपर अपनी आँखें निछावर करने से नहीं चूके–उसके चरित के भीतर कितनी रंगीनियाँ होंगी, क्या हमने कभी कल्पना की है! आधुनिक युग में हरिश्चंद्र और प्रेमचंद को लीजिए। एक बड़े कुल में जन्म पाकर अपनी अपार संपत्ति को जो 33 वर्ष की उम्र तक ही फूँक डाले और फिर अपने को फक्कड़ बनाकर भी संसार को हिक़ारत की नज़रों से देखता हुआ, हँसता-गाता चल बसे–उसकी जीवनी कितनी हृदय-हारिणी हो सकती है, इसका अनुभव हम आज तक नहीं कर सके हैं, क्या यह आश्चर्य की बात नहीं मालूम होती है? यों ही जिंदगी-भर कहानियाँ कह-कहकर जो हमें रिझाता, हँसाता या रुलाता रहा; उसकी कहानी हम आज तक सारी संपूर्णता में संसार के सामने नहीं रख सके, क्या इसे सिर्फ अकृतज्ञता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है? सचमुच, जब हम यह देखते हैं कि हिंदी में उनके विधाताओं की जीवनियाँ कितनी कम हैं, तो अपार विस्मय के साथ महान खेद भी होता है! प्राचीन कवियों और लेखकों की बात छोड़िए, तो आधुनिक युग के श्री बालमुकुंद गुप्त, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. रामावतार शर्मा, गणेश शंकर विद्यार्थी, कामताप्रसाद गुरु, जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी, कृष्णकांत मालवीय, शिवप्रसाद गुप्त ऐसे लोगों की जीवनियाँ नहीं लिखी जा सकीं, क्या यह हमारे लिए शोभनीय है? यही नहीं, बहुत से हमारे जीवित साहित्यकार भी हैं, जिनकी जीवनियाँ अभी तक प्रकाशित हो जानी चाहिए थीं।
जब कभी हिंदी-साहित्य के किसी विभाग के अभाव की ओर दृष्टि जाती है, सहसा हिंदी-प्रकाशन की त्रुटियाँ आँखों के सामने आ खड़ी होती हैं! दुर्भाग्य की बात है कि हिंदी में कोई ऐसी समर्थ प्रकाशन-संस्था नहीं है, जो हिंदी के अभावों की ओर ध्यान देकर एक आयोजित रूप में प्रकाशन करे! हिंदी का प्रकाशन आज मुख्यत: कॉलेजों और स्कूलों के लिए टेक्स्टबुक तैयार करने और उसे किसी तरह स्वीकृत कराकर लीख का लाख बनाने पर तुला हुआ है! हिंदी के दो प्रमुख प्रकाशक हैं, वे इसी उलझन में फँसे हुए हैं! जो स्वतंत्र पुस्तकें छापते हैं, उनका ध्यान इस ओर रहता है कि वे पुस्तकें ऐसी हों, जिनका संस्करण तुरंत से तुरंत खत्म हो जाए। इसलिए वे उसी ओर कदम बढ़ाते हैं, जिस विषय का बाज़ार पहले से तैयार हो। यह स्वाभाविक भी है। छोटी पूँजी के व्यापार में यही किया ही जाता है। अत: हिंदी की सबसे बड़ी आवश्यकता आज यह है कि इसमें कोई ऐसी बड़ी पूँजी की समर्थ संस्था स्थापित की जाए, जो प्रकाशन को अन्य बड़े व्यापारों की तरह एक सर्वांगपूर्ण योजना के स्तर पर ले जाए। तभी हम इंसाइक्लोपेडिया ऐसे बड़े-बड़े प्रकाशनों की ओर ध्यान दे सकेंगे, साथ ही हिंदी के हर विभाग की आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर भी सम्यक प्रयत्न कर सकेंगे! बड़ी-बड़ी प्रकाशन संस्थाएँ लेखकों का शोषण और भी बड़े पैमाने पर कर सकेंगी, ऐसा कहा जा सकता है। किंतु, अनुभव यह बताता है कि बड़ी संस्थाएँ उन निम्नकोटि की नीचताओं पर प्राय: नहीं उतरतीं, जहाँ हिंदी का प्रकाशन आज पहुँच चुका है! फिर बड़े पैमाने के प्रकाशन के साथ ही लेखकों की स्वत्वरक्षा की समस्या भी आपसे आप ऊपर आएगी और कोई रास्ता निकल कर रहेगा। छोटे दिमाग की तरह छोटा व्यापार भी खुराफातों का घर होता है, यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं! बड़े प्रकाशन का स्थान लेखकों की सहयोगमूलक छोटी-छोटी संस्थाएँ भी ले सकती हैं। किंतु, मालूम होता है, यहाँ तक पहुँचने के पहले लेखकों को अभी बहुत तमाचे खाना रह गया है!
लेखकों को अभी बहुत तमाचे खाना रह गया है–यह लिख कर हम कोई सुख नहीं अनुभव कर रहे हैं। हिंदी के लेखकों की तरह का निरीह प्राणी शायद सृष्टि में कोई नहीं है! किंतु, इसकी सारी निरीहता शक्ति और अर्थ के सम्मुख झुकने और दाँत निपोड़ने में है। आपस में एक दूसरे का अनिष्ट करने में इसका जोड़ किसी जीवधारी में मिलना मुश्किल है। साँप, हाथी, कुत्ता–सभी उपमान एकांगी पड़ेंगे इसके सामने! इसका कोई एक साथी किसी ऊँचे पद पर पहुँचा–सबके पेट में हिरन कूदने लगा! इसका कोई साथी आजकल औज-मौज में है, बस सबके घर में जैसे कोई स्यापा पड़ गया। इसके किसी एक साथी को निकाल बाहर किया गया, सब में धक्कमधुक्की मची कि कौन पहले पहुँच जाए वहाँ। एक लेखक से दूसरे लेखक के बारे में पूछिए, एक कवि से दूसरे कवि के बारे में पूछिए, एक आलोचक के बारे में दूसरे आलोचक से पूछिए–बस, झट नाक-भौं सिकोड़ लेगा वह! और, तमाशा यह कि आमने-सामने जब मिलेगा, तो प्रेम का वह सागर बहा देगा कि देखने वाला शरमा जाए! क्या किसी भी हिंदी-लेखक से यह बात छिपी हुई है कि उसका कैसा शोषण हो रहा है? किंतु, कभी वह मिलजुल कर शोषण को रोकने का प्रबंध करेगा? नहीं। फिर उससे किसी सामूहिक प्रयत्न की आशा क्यों की जाए? और उसके ऐसे किसी प्रयत्न की प्रतीक्षा में प्रकाशन की प्रगति तो रुकी नहीं रहेगी। अत: हमें यह स्पष्ट दिखाई देता है कि हिंदी प्रकाशन का भविष्य बड़ी पूँजी से बड़े पैमाने पर संगठित संस्था पर ही निर्भर करता है। व्यापार के इस क्षेत्र में भी विकास का नियम अपना काम करके ही रहेगा–भले ही वह किसी को रुचे या नहीं रुचे, किसी के लिए भला पड़े या बुरा।
फिर मूल-विषय : जीवन-लेखन! यों देखिए, तो सामान्यत: हिंदी में जीवनियों की बहुत कमी है। प्रारंभ में बाबू शिवनंदन सहाय जी ने ‘तुलसीदास’ और ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’ की बहुत बड़ी और प्रामाणिक जीवनियाँ लिखी थीं! पं. नंदकुमारदेव शर्मा जी की ‘शिवाजी’ की जीवनी भी उच्च कोटि की जीवनी में गणना पा सकी थी। श्री बनारसी दास चतुर्वेदी लिखित कवि सत्यनारायण की जीवनी भी अपने ढंग की अनूठी पुस्तक थी। श्री रामनाथ लाल ‘सुमन’ ने नेताओं की छोटी-छोटी जीवनियाँ लिखी थीं, जिन्हें रेखाचित्र कहना ही उपयुक्त होगा। इधर के वर्षों में ‘रोजा लुक्जेंबुर्ग’ और ‘जयप्रकाश’–ये ही दो जीवनियाँ निकली हैं, जिनकी साहित्य में गिनती की जा सकती है! तिलक, गाँधी, रवींद्र ऐसे महापुरुषों पर भी हिंदी में कोई उच्चकोटि की जीवनी नहीं, फिर हिंदी के साहित्यकारों की क्या चर्चा! यद्यपि उच्चकोटि की जीवनी के उपादानों की दृष्टि से भारतेंदु, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी–ये पाँच नाम ऐसे हैं कि कोई कलम का धनी उनका उपयोग कर अपने लिए सहज ही अमरता का अर्जन कर सकता है। बंगला में प्राय: सभी बड़े साहित्यकारों के जीवन पर नाटक भी बन गए हैं। माइकेल मधुसूदन पर सिनेमा बन चुका है और एक नाटक तैयार किया है जिसे बंगाल के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता श्री शिशिरकुमार भादुड़ी ने खेला है। जिन्होंने इस सिनेमा और इस नाटक को देखा होगा, उन्हें अनायास ही यह आभास मिला होगा कि भारतेंदु की जीवनी पर तैयार किया गया नाटक या सिनेमा इससे कहीं अच्छा होगा! हम चाहेंगे कि कोई समर्थ लेखक इस काम को अपने हाथ में लें।
‘नई धारा’ के इस अंक में हम श्रीमती उषादेवी मित्रा की एक कहानी दे रहे हैं। श्रीमती मित्रा की कहानियाँ हिंदी संसार में ख्याति प्राप्त कर चुकी हैं, कोई भी पत्रिका उन्हें मुख्य स्थान देकर अपने को धन्य समझ सकती है। किंतु, हम उनकी इस कहानी की ओर अपने पाठकों का ध्यान खास कर उसकी भाषा के लिए आकृष्ट करना चाहते हैं। जब भिन्न भाषा-भाषी लेखक हिंदी में लिखना प्रारंभ करेंगे, तो वे अपने साथ अपनी मातृभाषा की शब्दावली, मुहावरे और शैली भी लाएँगे ही। आप इन्हें वांछनीय समझें या नहीं–यह अलग बात है। हमने इस कहानी की भाषा में जान-बूझकर बहुत ही कम परिवर्तन किया है, जिसमें हमारे पाठक मित्रा जी की मूल भाषा का रस ले सकें और यदि संभव हो, तो हमें बता सकें कि इस संबंध में उनकी क्या राय है।
Image: Still Life – Vase with Fifteen Sunflowers
Image Source: WikiArt
Artist: Vincent van Gogh
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