हमें यह कहना है!

हमें यह कहना है!

स्वर्गीय बालमुकुंद गुप्त हिंदी के उन नायकों में से थे जिन्होंने हिंदी-गद्य के पौधे को उस समय सींचा, जब वह बिल्कुल पौधा था। पंजाब उनकी जन्मभूमि थी; उर्दू में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी। प्रारंभ में वह उर्दू में ही लिखते थे, उर्दू पत्रों का संपादन भी किया था। किंतु, भारतेंदु-काल में हिंदी के लिए जो एक अपूर्व उत्साह पैदा हुआ था, वह उससे प्रभावित हुए और हिंदी-संपादन-क्षेत्र में आए। यहाँ आकर उन्होंने कमाल किया। कलकत्ता से प्रकाशित ‘भारतमित्र’ जैसे-तैसे चल रहा था। उन्होंने उसमें जान डाल दी, यही नहीं, संपादन-कला का एक नवीन मापदंड भी कायम किया। आप एक सजग संपादक थे; हिंदी उस समय ढल ही रही थी, अत: उन्होंने हमेशा खयाल रखा कि यह भाषा भ्रष्ट नहीं की जाए, इसके प्रयोग सही हों, इसका व्याकरण स्थिर हो। जिस किसी ने इस बारे में जरा-सी गलती की, आप उस पर झपट्टे मारकर टूट पड़े। एक बार स्वर्गीय पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘अनस्थिरता’ शब्द का प्रयोग कर दिया। फिर क्या था, ‘भाषा की अनस्थिरता’ शीर्षक से एक लेखमाला ही उन्होंने शुरू कर दी। हिंदी संसार दो दलों में बँट गया और खूब लिखा-पढ़ी हुई और अंत में गुप्तजी की बात ही प्रमाण मान ली गई। तब से ‘अस्थिरता’ के स्थान पर कोई भी ‘अनस्थिरता’ लिखने का साहस नहीं करता!

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गुप्त जी जैसे संपादकाचार्य की अधिकांश रचनाएँ यों ही फुटकर बिखरी पड़ी हुई थीं। यह एक बड़ा ही शुभ, सुंदर और शिव कार्य हुआ है कि उनकी ऐसी सभी प्रमुख कृतियों को पुस्तक-रूप में संग्रहीत कर दिया गया है। यही नहीं, उनके पत्रों, डायरी के पन्नों एवं उन पर लिए नए पुराने संस्मरणों को भी पुस्तकाकार छाप दिया गया है। इस तरह गुप्तजी पर दो ग्रंथरत्न तैयार किए गए हैं, जिनका संपादन हिंदी के पुराने सेवक और संपादक पं. झाबरमल्ल शर्मा ने किया है और उसके प्रकाशन में स्वर्गीय गुप्त जी के सुपुत्रों ने हाथ बटाया है। माँ-बाप का श्राद्ध पुत्र-पुत्रियों का परम कर्तव्य समझा जाता है! क्या इससे अच्छा कोई श्राद्ध हो सकता है जो उनके सुपुत्रों ने किया है! और पं. झाबरमल्ल शर्मा जी का यह सदुद्योग कितना महत्त्व रखता है इसका प्रमाण यह है कि हमारे वर्तमान कांग्रेसाध्यक्ष श्री पुरुषोत्तम दास टंडनजी इसके प्रकाशन-अवसर पर, खास इसी काम से कलकत्ता गए और उन्हीं के हाथों यह काम संपन्न किया गया। इस अवसर पर हिंदी के साहित्यिकों का एक बड़ा जमावड़ा भी वहाँ हुआ! आयोजन में बंगाल के गवर्नर महोदय भी सम्मिलित हुए। हम चाहते हैं कि शर्मा जी एवं गुप्तजी के सुपुत्रों के इस कार्य का अनुसरण हिंदी-संसार में किया जाए। कलकत्ता ने जो पथप्रदर्शन किया है, उसके लिए वह वंदनीय है।

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कलकत्ता बंगाल में रहते हुए भी सदा हिंदी का एक प्रमुख क्षेत्र रहा है। हम तो उसे हिंदी का पूर्वी प्रवेश-द्वार मानते हैं। यहीं से नए-नए विचार हिंदी क्षेत्र के पूर्वी भाग में आते रहे! हिंदी के साधक यहीं बैठकर उसके पूर्वी क्षेत्रों के लिए साधना की धूनी जमाते रहे। आज से तीस-चालीस साल पहले बिहार में अखबार का अर्थ ही था ‘हिंदी-बंगवासी!’ कलकत्ता के ‘भारतमित्र’ ने इस पूर्वी क्षेत्र में राजनीतिक चेतना उत्पन्न की। हिंदी का सबसे पुराना पत्र ‘उदंत मार्तंड’ कलकत्ता से ही प्रकाशित हुआ। बड़े-बड़े साहित्य-महारथियों का विकास यहीं हुआ। पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी, पराड़कर जी और गर्देजी कलकत्ता की ही देन हैं। स्वर्गीय पं. अमृतलाल चक्रवर्ती और पं. जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी की लीलाभूमि ही कलकत्ता रही। स्वर्गीय बालमुकुंद गुप्त की कृतियों का उद्धार करके और उनके प्रति यह असाधारण सम्मान प्रगट करके, कलकत्ता ने अपनी पुरानी परंपरा को जीवित किया है। अत: हम उससे बड़ी आशाएँ रखें, तो अनुचित नहीं होगा। हम चाहते हैं कि कम-से-कम दो काम वह और कर ले–एक तो स्वर्गीय पं. अमृतलाल चक्रवर्ती की कृतियों का और दूसरा स्व. पं. जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी की कृतियों का उद्धार! कलकत्ता धनाढ्यों की नगरी है, जिनमें अधिकांश हिंदी-प्रेमी और हिंदी-भाषी हैं। चक्रवर्ती जी ने बंगाली होकर भी हिंदी की जो सेवा की, उसे भुला देना, उनकी कृतियों को नष्ट होने देना, एक अक्षम्य अपराध है, पाप है! और चतुर्वेदीजी को तो वहाँ के धनाढ्यों का स्नेह सदा प्राप्त रहा–उनमें से कुछ जीवित भी होंगे, जो स्वर्गीय हो गए, उनके सुपुत्रों का तो यह कर्तव्य है ही कि इस आयोजन में पूरी सहायता करें! यदि कोई साहित्यिक सज्जन पं. झाबरमल्ल शर्मा जी की तरह इस ओर कदम उठावें, तो वहाँ रुपए की कमी नहीं होगी, ऐसा हमारा विश्वास है! क्या हमारी यह कामना पूरी होगी, हम कलकत्ता के हिंदी-प्रेमियों से सविनय पूछते हैं?

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बिहार सरकार ने आचार्य शिवपूजन सहाय जी की नियुक्ति अपनी राष्ट्रभाषा-परिषद के मंत्री के रूप में की है। हम इसके लिए बिहार सरकार का धन्यवाद दे चुके हैं। किंतु इधर एक अजीब बात हुई है। आचार्य जी की यह संस्था राष्ट्रभाषा की उन्नति और विकास के लिए ही स्थापित हुई है। अत: यह स्वाभाविक बात है कि उनका सारा कारबार हिंदी में ही हो। शिवजी ने यह पद्धति चलाई भी है। इसी पद्धति के अनुसार उन्होंने अपने वेतन का बिल हिंदी में ही सरकार के पास पेश किया है। किंतु कितने खेद की बात है कि यह बिल इसलिए वापस कर दिया गया है कि वह हिंदी में नहीं हो कर अँग्रेजी में होना चाहिए! हिंदी में क्यों नहीं होना चाहिए; अँग्रेजी में ही वह क्यों होना चाहिए, यह प्रश्न मन में उठता है। एकाउंटेंट जेनरल के दफ्तर का काम अँग्रेजी में ही होता आया है, यदि यही कारण हो, तो उस कारण को तुरंत दूर कर देना चाहिए। अब हिंदी को बिहार सरकार अपनी राजभाषा मान चुकी है, तो यहाँ के लिए जो हिसाब-किताब विभाग हो, उसके लिए हिंदी अछूत नहीं रहनी चाहिए। आचार्य जी के काम की सराहना बिहार का हर हिंदी-प्रेमी व्यक्ति कर रहा है और सरकार की ओर से यह जो अड़चन उत्पन्न हो गई है, उससे सभी का मन क्षुब्ध है! हम आशा करते हैं कि बिहार सरकार देखेगी कि शीघ्र ही यह अड़चन दूर हो और आचार्यजी का वेतन हिंदी में बिल उपस्थित करने पर भी समय पर मिल जाया करे!

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भारतेंदु हरिश्चंद्र की जन्म-शती हिंदी संसार में धूमधाम से मनायी गयी, यह उचित ही हुआ है। भारतेंदु आधुनिक हिंदी-गद्य के पिता थे, इसे निस्संकोच कहा जा सकता है; यद्यपि इसका मतलब यह नहीं होता कि उनके पहले हिंदी-गद्य था ही नहीं। वर्तमान प्रजनन-शास्त्र के अनुसार बच्चे का जन्मकोश खानदान का होता है, पिता तो माध्यम-मात्र होता है, लेकिन उसे पिता का गौरव इसलिए प्रदान किया जाता है कि उसी के द्वारा वह प्रादुर्भूत होता है, लालित-पालित होता है, वृद्धि और विकास पाता है। इसी अर्थ में भारतेंदु हिंदी-गद्य के पिता थे। किंतु वह हिंदी-गद्य के पिता के अतिरिक्त भी बहुत कुछ थे। एक उच्चकोटि के कवि, समाज सुधारक, देशभक्त थे। सर्वस्व के दानी थे। सहृदय प्रेमी थे! और इनसे भी बढ़कर वर्तमान हिंदी-नाटक के भी वह पिता थे! उस दिन हिंदी नाट्यशाला के एक विद्यार्थी ने क्या यह सच नहीं कहा था–प्रसाद जी ने नाटक की वस्तु में तो उन्नति की, किंतु जहाँ तक ‘टेकनिक’–नाट्यकला–का प्रश्न है, वह तो उनके हाथों और बिछड़ गई! यदि यह बात है–तो क्यों? ‘क्यों’ का उत्तर भी स्पष्ट है! भारतेंदु नाटक लिखते ही नहीं थे, खेलते भी थे, शेक्सपियर की तरह। एक बार उनका अभिनय देख कर एक बड़ा अँग्रेज अफसर कह उठा–क्या हिंदोस्तान में भी ऐसे अभिनेता होते हैं!

भारतेंदु की जन्म-शती मनाई गई, धूमधाम से मनाई गई, यह अच्छा हुआ। लेकिन हमें इतने ही से संतोष नहीं करना चाहिए। भारत को एक राष्ट्रीय रंगमंच चाहिए। यह राष्ट्रीय रंगमंच उसकी राष्ट्रभाषा का रंगमंच होना चाहिए। यह रंगमंच कहाँ बनाया जाए! क्या यह उचित नहीं होगा कि वह रंगमंच भारतेंदु की जन्मभूमि काशी नगरी में बनाया जाए। काशी एक प्रदेश का एक नगर होने पर भी, वह एक अखिल भारतीय नगर है! शंकर के त्रिशूल पर बसी काशी में भारत के हर प्रांत के लोग बसे हुए हैं–सबके अलग-अलग मुहल्ले हैं, टोलियाँ हैं! फिर काशी कलाकेंद्र भी रही है–वहाँ कलाकारों का सदा जमघट रहा है और आज भी है। अत:, काशी से बढ़ कर, भारतेंदु की इस नगरी से बढ़कर राष्ट्रीय रंगमंच के लिए दूसरी जगह कौन हो सकती है? यों तो शेक्सपीयर की जन्म-भूमि की तरह उनका जन्मस्थान किसी गाँव में होता, तो भी वहीं राष्ट्रीय रंगमंच बनना चाहिए था। लेकिन हमारे लिए यह सौभाग्य की बात है कि वह पैदा हुए काशी नगरी ऐसे पुनीत, अखिल भारतीय सांस्कृतिक केंद्र में! काशी में वह राष्ट्रीय रंगमंच कब स्थापित होगा?


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Artist: Ustad Mansur
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