डॉ. नीरू झा को गुस्सा क्यों आता है?

डॉ. नीरू झा को गुस्सा क्यों आता है?

बारहवें तल्ले पर स्थित नीरू के फ्लैट में जब मैं पहुँचा, तब वह अपनी बेटी पर बुरी तरह बरस रही थी। उसका पूरा बदन काँप रहा था। शायद बेटी को समझा नहीं पा रही थी, इसलिए झल्लाहट में अतार्किक कथनों से उसे नियंत्रित करना चाहती थी। मुझे देखकर उसने अपने को संयत करना चाहा, किंतु शब्द उनके साथ नहीं थे। मुझे ड्राईंग रूम में बैठने को कहकर अंदर चली गईं। बाई घबरा रही थी कि मेरे डोरबेल बजाने की आवाज पर बिना मालकिन से पूछे मुझे अंदर क्यों आने दिया! वह हड़बड़ी में किचन की तरफ भागी। थोड़ी ही देर में नीरू मेरे सामने अत्यंत अनुशासित लहजे में आवभगत को हाजिर थी, जैसे थोड़ी देर पहले कुछ हुआ ही न हो! परस्पर नमस्कार के बाद जब मैंने यों ही सहज भाव में पूछा, ‘बेटी बड़ी हो रही है, फिर भी तुम उसे डाँट क्यों रही थी?’ वह जैसे एकदम से पिघलने लगी, ‘यही तो मेरा दुःख है! कायदे से कुछ खाती-पीती नहीं…कहती है अधिक खाने से मोटी हो जाएगी, मेरा फिगर खराब हो जाएगा…जब देखो, चेहरे पर जाने कौन-कौन से क्रीम पोतती रहती है! सुंदर दिखने की धुन में डाइटिंग करती है। दूध-फल कुछ लेगी नहीं और डाइटिंग से सुंदर दिखने का पागलपन करती है। ऐसा कहीं होता है क्या!’ नीरू बड़बड़ाने लगी थी।

डॉ. नीरू झा अपने शहर में जानी-मानी गायनोकोलॉजिस्ट है। उसके पति भी प्रसिद्ध हृदयरोग चिकित्सक हैं। उन्हें दो बेटियाँ हैं। सुशील एवं समझदार। पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहीं। दोनों बेटियों में सुंदर दिखने की स्वाभाविक चाहत है। उसकी इस चाहत को बाजार के विज्ञापनों ने और अधिक समृद्ध किया। सुंदर दिखने के लिए सौंदर्य बाजार जो-जो टिप्स प्रचारित कर रहे, उन सबको लड़‌कियाँ आजमाना चाहती हैं। ‘मिस कॉलेज’ से लेकर ‘मिस इंडिया’ और ‘मिस यूनिवर्स’ की प्रतियोगिताओं में फतह हासिल करने के लिए सुंदरता निखारने के जितने टिप्स बाजार द्वारा परोसे जाते हैं, उन्हें अंगीकार करने में लड़‌कियों में होड़ लगी हैं। वे जानती हैं कि इन्हीं रास्तों से चलकर दुनिया की तमाम सुख-सुविधाओं को अर्जित किया जा सकता है। केवल पढ़ाई से क्या होता है? असल चीज है ब्यूटी! मस्त कर देने वाली बॉडी फिगर! जो चीज सुंदर दिखेगी, वही बिकेगी! बाकी का क्या मोल! घर में माता-पिता पुराने मूल्यों की दुहाई देते हैं…भारतीय संस्कृति और मूल्यों का रस पिलाते हैं! इन रसों को पीकर कोई सुंदर हो सकता है क्या? बाजार में सुंदरता निखारने के तो एक-से-एक रस हैं!

डॉ. नीरू झा अक्सर बेटियों पर झल्लाती हैं। नीरू मेरे स्कूल-कॉलेज के दिनों की मित्र है। उसके पिता हाईस्कूल में विज्ञान के शिक्षक थे। मुझे याद है, जब मैं इंटर साइंस का छात्र था तो नीरू मेरे क्लास में इकलौती छात्रा थी। उसके झकाझक सफेद रंग और चित्ताकर्षक देहयष्टि को देखकर लगता जैसे वह किसी ब्रिटिश दंपत्ति की संतान हो। क्लास में जब उसका रौल नंबर पुकारा जाता, तो जाने कितने ही छात्र एक साथ ‘यस सर’ कह उठते और प्रोफेसर रजिस्टर से नजर हटाकर वर्ग के छात्रों को देखने लगते। नीरू हौले से मुस्कुरा देती। उसकी इसी मुस्कान पर तो वर्ग के सैकड़ों छात्र घायल रहते। उसकी वेशभूषा में कभी तड़क-भड़क नहीं दिखी और न ही ऐसा लगता कि वह सजने-धजने पर बहुत समय गँवाती है! पर देखने में वह इतनी सुंदर थी कि कॉलेज में हर जगह, पुस्तकों के पन्ने और यहाँ तक कि कैरम की गोटियों तक पर उसका नाम छाया रहता! पढ़ाई में अव्वल थी ही! उसका दिव्य सौंदर्य उसकी विनम्रता और मेधा में छलकता! पहली ही बार में वह मेडिकल के लिए सेलेक्ट हो गई! कॉलेज-शहर, सबका मान रखा उसने! उसने चित्त के आंतरिक सौंदर्य को निखारने पर अधिक ध्यान दिया। तब ‘मिस यूनिवर्स’ की चमक दुनिया में फैली न थी और न बाजार का शोर था। बाजार था भी तो उसमें स्त्री देह और उसकी सुंदरता को बेचने की होड़ न थी। तब लड़‌कियों की सुंदरता को बढ़ाने में उसके शील-संस्कार का ही योगदान रहता! लड़कियाँ पृथ्वी के किसी हिस्से में रहती हों, उसकी सुंदरता के मापन में देहयष्टि, उत्तेजक परिधान आदि पर बहुत ध्यान नहीं जाता।

समय बदला! पूँजी बाजार के बर्बर विस्तार ने विकसित मुल्कों के बाद विकासशील मुल्कों को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू किया। भारत जैसे विकासशील मुल्कों के समाज का रंग तेजी से बदलने लगा। पूँजी साम्राज्य के विस्तार के दो प्रहरी हैं–बाजार और मीडिया। इन दोनों प्रहरियों ने सौंदर्य बाजार को नए मान-मूल्यों से इतना आकर्षक बनाया कि देश की लड़कियों में मॉडल बनने की होड़ मच गई। मॉडल बनने के लिए सुंदरता की नई परिभाषा गढ़ी गई। अब रैप पर मॉडलों की जिंदगी चाहे जितनी छोटी होती हो, पर उन्हीं रास्तों से चलकर तो ‘मिस इंडिया’ या ‘मिस यूनिवर्स’ के सपने को साकार किया जा सकता है। लड़‌कियों के दिमाग में ये बातें भरी जाने लगी कि ईश्वर ने उसे कैसी देहयष्टि दी, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं, जितना यह कि देह को बाजार की चाहत के अनुकूल किस प्रकार अधिक-से-अधिक उत्तेजक-आकर्षक बनाया जा सकता है। मसलन मॉडलिंग की क्रूर शर्तों के मुताबिक लड़‌कियाँ अपने वक्षस्थल की सर्जरी कराकर उसे ऐसा उत्तेजक रूप देती हैं, जिसे बाजार खूबसूरत मानता है। कुल्हों को पुरुषों की चाहत के अनुरूप सजाती हैं। सुंदरता गोरापन में है और गोरा बनने के लिए तरह-तरह के क्रीम उपयोग में लाए जाते हैं; अब यह बात पुरानी पड़ गई। ब्लीच कराने की बात भी अब नई नहीं रही। अब तो स्कीन ग्राफ्टिंग अर्थात नई त्वचा लगाने की नई तकनीक अपनाई जा रही है। सुंदर दिखने की चाहत किस हद तक देह को कृत्रिम बना देती है, इसे माइकेल जैक्सन या सन् 1994 में ‘मिस यूनिवर्स’ बनी अर्जेंटीना की सोलांगे मैगनाने को सामने रखकर समझा जा सकता है। इन दोनों का कारुणिक अंत भी दुनिया ने देखा। 

लड़कियाँ सुंदर दिखने की मृगमरीचिका के पीछे भाग रही हैं। उसे कैसा दिखना है, उसका रंग कितना गोरा हो, उसे कैसे चलना–बातें करना है, कहाँ कितना किस तरह से मुस्कुराना है, ये सब उन्हें बाजार सिखाता है। मध्यवर्गीय घर-परिवार से मिलने वाले संस्कार उन्हें अपनी उड़ान में बाधक लगते हैं और इसीलिए वे उन्हें झटक देना चाहती हैं। आज बाजार और मीडिया भारतीय सुंदरता की जो अवधारणा परोस रही है, उसमें इस देश की विविधता की संस्कृति विलोपित है। विकसित मुल्कों विशेषकर यूरोप से निकलकर विश्व भर में छा गए ऐंग्लो सैक्सन लोग आज तय कर रहे हैं कि सुंदरता क्या होती है। अमेरिका-यूरोप से लेकर आस्ट्रेलिया तक में छाये इस नस्ल के लोग ही अपने-अपने सौंदर्यबोध के अनुसार दुनिया में सुंदरता के मानदंड निर्धारित कर रहे हैं। इसी मानदंड के अनुसार बाजार उत्पादन करता है, जिसके पीछे विकासशील मुल्कों की लड़कियाँ दिवानी हैं। यूरोप-अमेरिका जैसे देशों की जलवायु भी शीतल है, जिससे वे अपने गोरे रंग को सुंदरता का पर्याय मानते हैं। भारत जैसी गर्म जलवायु वाले देश में, जहाँ त्वचा का रंग साँवला होना आम बात है, करोड़ों लड़कियों के मन में गोरी बनने की चाह इस तरह उत्पन्न कर दी जाती है, जैसे साँवली या काली होना उनके लिए अभिशाप है। फिल्मों या टी.वी. सीरियलों में हीरोइन का काला-साँवला दिखने का कोई विकल्प ही नहीं है। फिल्मों की हीरोइन तो लंबी-गोरी, सुडौल-छरहरी होती है। उसके होंठ मोटे नहीं हो सकते, उसकी नाक चिपटी नहीं होती। कमर, कुल्हे, सीने का एक खास अनुपात होना जरूरी है। लंबाई और वजन का भी संतुलित अनुपात आवश्यक है। भारत में एथनिक, क्षेत्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के अनुरूप सुंदरता के अलग-अलग मानदंड का बाजार के लिए कोई महत्त्व नहीं है। इसलिए कुछेक अपवादों को छोड़कर द्रविड़ या आदिवासी लड़कियाँ कभी ‘मिस यूनिवर्स’ तो छोड़िए, ‘मिस इंडिया’ भी नहीं हो सकती हैं।

विकसित देशों द्वारा सुंदरता के मानदंड बनाए जाते हैं, जिसे बाजार और मीडिया जी-जान से स्थापित करता है। हम कल्पनाजीवी लोग हैं। कल्पना कीजिए, यदि यूरोप-अमेरिका के देश कभी अफ्रीका के गुलाम होते तो क्या आज सुंदरता के मानदंड वही होते, जैसा उन मुल्कों ने तय कर रखे हैं? क्या गोरा रंग सुंदरता का पर्याय होता? जाहिर है कि सदियों की औपनिवेशिक दासता ने भारतीय चेतना को इस कदर भूलुंठित कर रखा है कि अपनी विरासत की समृद्धि की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। अपने नैसर्गिक सुंदर-बोध को हेय मान हम सुंदरता के कृत्रिम या आरोपित मानदंडों को अपनाने में दिवाने हुए जा रहे हैं। महान अस्तित्ववादी दार्शनिक-चिंतक ज्याँ पाल सार्त्र की प्रेमिका सिमोन द बउवा ने कभी कहा था कि स्त्री कभी अपने को एक स्त्री की नजर से नहीं, पुरुष की नजर से देखती है। इसका मतलब यह हुआ कि सौंदर्यबोध का निर्धारक पुरुष है। वही तय करता है कि सुंदर दिखने में स्त्री की देह कैसी हो, उसकी टाँगें कैसी हों, वजन कितना हो, कुल्हे कैसे दिखें; इन सबका निर्धारक पुरुष है। उसी के आरोपित सुंदरता के मानदंड को अंगीकार करने में स्त्री अपना पूरा जीवन लगा देती है। आज पुरुष की भूमिका विकसित देशों के पूँजी साम्राज्य के सत्ता नियामक निभा रहे हैं। उसकी नजर में मनुष्य, मनुष्य नहीं, संसाधन मात्र हैं। उस संसाधन का उपयोग वह अपने पूँजी साम्राज्य के बर्बर विस्तार के लिए करना चाहता है। उसी शृंखला में स्त्री देह की सुंदरता का उपयोग करना भी शामिल है। आज मॉडलिंग लड़कियों को जितनी लुभावनी लगती है, पहले कभी नहीं लगती थी। मिस यूनिवर्स की दिनचर्या और उसके इस्तेमाल की तमाम चीजों के उपयोग में लड़कियों की दिवानगी आज जैसी पहले कभी नहीं थी। पहले समाज बाजार के पास जाता था और अपनी जरूरत की चीजों को उससे प्राप्त कर लेता था, लेकिन अब बाजार घर-घर टी.वी. आदि माध्यमों से पसरता चला जा रहा है। पहले अपनी जरूरतों के हिसाब से सामानों का क्रय होता था और अब बाजार ही हमें हमारी जरूरतें बताकर उसके क्रम को विवश करता है। बाजार हम पर हावी होता चला गया है, बल्कि कहना चाहिए कि हम उसके गुलाम होते चले गए हैं। नई पीढ़ी उसका क्रीत दास होता जा रहा है। 

डॉ. नीरू झा की बेटियाँ सुंदर दिखने की होड़ में इस कदर दिवानी हैं कि उन्हें समझाने में उसका अपना रक्तचाप बढ़ता जा रहा है। किशोरवय में नीरू स्वयं अपूर्व सुंदरी थी। डाइटिंग करती थी न कृत्रिम सौंदर्य प्रसाधनों का जमकर उपयोग। घर-परिवार से प्राप्त सहज जीवनचर्या, प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग और व्यायाम के अभ्यास ने ही उसे अपूर्व सौंदर्य प्रदान किया था। ये सारी चीजें उनकी बेटियों को नहीं रुचतीं। वे डायटिंग करती हैं। प्रायः हर हफ्ते ब्यूटी पॉर्लर जाती हैं। उन्हें दूध-फलों से परहेज है और अपनी सुंदरता बढ़ाने के लिए ऐसे-ऐसे काम करती हैं, कि नीरू बेटियों पर बरबस बरस पड़ती हैं। बेटियों पर बरसती नीरू अब अकेली नहीं, करोड़ों में हैं। नीरू बेटियों को समझा नहीं पा रही कि चित्त का नैसर्गिक सौंदर्य ही देह की सुंदरता को बढ़ाने का स्त्रोत है! नीरू बेटियों में खुद को तलाशना चाहती हैं। पीढ़ियों के इस अंतराल को कौन भरेगा? विश्व बाजार की पूँजी संस्कृति और भारतीय जीवन-मूल्यों की संस्कृति के बीच सेतु का निर्माण कौन करेगा? बाजार का सौंदर्य आखिर कब तक नैसर्गिक सुंदरता को आहत करता रहेगा? वसुन्धरा में सुंदर क्या है, इसका निर्धारण किसे करना चाहए? पूरी पृथ्वी के अलग-अलग भू-भाग और अलग-अलग संस्कृतियों में भाँति-भाँति की भिन्नताओं के जीवन-दर्शन के मध्य सुंदरता का मान-मूल्य क्या हो, क्या इस पर नए सिरे से हमारे रचनाकारों को विचार नहीं करना चाहिए? आखिर डॉ. नीरू झा कब तक अपनी बेटियों पर बरसती रहेंगी?


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In valley and distant jan brueghel the elder
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Artist : Nicholas Roerich
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शिवनारायण द्वारा भी