बाजार की गोद में फिसलता बचपन

बाजार की गोद में फिसलता बचपन

भी पिछले हफ्ते एक राज्यस्तरीय संगोष्ठी में मुझे बुलाया गया, जो वैश्वीकरण के दुष्परिणामों से प्रभावित बाल मनोविज्ञान से संबंधित था। संगोष्ठी में कई तरह के पर्चे पढ़े गए, जो विकासशील देशों के शहरी बच्चों की तंग होती दुनिया की त्रासदी से परिचित कराने वाले थे। बच्चों से संबंधित एक जर्मन अध्ययन के हवाले से पढ़े गए एक पर्चे में कहा गया कि अगर कंप्यूटर गेम खेलनेवाला कोई बच्चा अपनी रचनात्मक हॉबी, दोस्तों, पसंदीदा व्यंजनों और परिवार वालों के लिए समय नहीं निकाल पा रहा है तो समझिए कि उसमें किसी नशाखोरी जैसी उदासीनता व तटस्थता खतरनाक रूप से घर करती जा रही है। बच्चे कंप्यूटर गेम खेलने के अभ्यासी हो जाते हैं, धीरे-धीरे उनका स्वभाव आक्रामक होता जाता है। बाल मनोविज्ञानियों के अनुसार एक खास सीमा के बाद कंप्यूटर गेम का नशा किसी नशीले पदार्थ के नशे से कम खतरनाक नहीं होता। जिस तरह नशेड़ी समाज और घर-परिवार को भूल जाता है, उसी तरह कंप्यूटर गेम का दीवाना अपने स्वास्थ्य और परिवार के प्यार की कीमत पर घंटों गेम में उलझा रहता है। उसका स्कूली प्रदर्शन भी खराब होता जाता है और उसमें ऐसे बदलाव आने लगते हैं कि वह एकाकी जीवन के रास्ते गलत संगति के प्रभाव में अपराध की ओर अग्रसर होता चला जाता है।

एकाकी होती बच्चों की दुनिया में इधर ‘कार्टून नेटवर्क’, ‘पोगो’ जैसे टी.वी. चैनलों ने जबरदस्त दखल बना लिया। कंप्यूटर गेम के नशे की तरह ही इन चैनलों का नशा भी बच्चों के सिर चढ़कर अपना प्रभाव दिखा रहा है। बच्चे घर-परिवार और अपनी प्रकृत दुनिया से अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं, जिसके कारण उसमें नितांत एकाकीपन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। बच्चों की इस बदलती दुनिया के जिम्मेदार कौन हैं? वास्तव में, पूँजी संस्कृति के विकास के साथ ही इस देश में संयुक्त परिवार की संरचना ढहती चली गई, जिसकी जगह एकल परिवार की आदर्श उपस्थिति ने अपनी स्थिति मजबूत बना ली। आज माता-पिता और उनके अविवाहित बच्चों से बननेवाला एकल परिवार ही समाज के आदर्श बन रहे हैं। इस नई व्यवस्था में बच्चों का समाजीकरण अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुआ कि विश्वग्राम के उपभोक्तावाद ने उसे एक उत्पादन में तब्दील कर उनकी रातों की नींद उड़ा दी। ‘इंडियन पेडियाट्रिक्स’ नामक पत्रिका द्वारा किए गए एक अध्ययन को यदि संदर्भवश देखा जाए, तो इस देश के 42 फीसदी बच्चे अनिद्रा के शिकार हैं। बच्चों का नींद में डर जाना, चलना, सोते में बातें करना, रोना, हाथ-पैर चलाना और डरावने सपने देखने जैसी समस्याएँ उन्हें अलग से परेशान कर रही हैं। बड़े शहरों और महानगरों में भौतिक समृद्धि से भरे जीवन में लोगों की अपनी वरीयताएँ और बढ़े कामों के दबाव के बीच माता-पिता से बच्चों के संवाद का सिलसिला लगभग खत्म-सा होता जा रहा है। एकल परिवार की इसी मनोवृत्ति का दुष्परिणाम है कि बच्चे अकेलेपन का शिकार होकर चिड़चिड़े, असहनशील और आक्रामक होते चले जा रहे हैं।

आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में वास्तव में देखा जाए तो सूचना प्रस्फोट से जुड़ी इलेक्ट्रॉनिक-प्रिंट मीडिया और वैश्विक उपभोक्तावादी संस्कृति ने एकल परिवारों में बच्चों से उसका बचपन अपहृत कर असमय ही उसे यौवन की दहलीज पर धकेल दिया है। वैश्विक उदारीकरण के चलते जो दोहरी संस्कृति उभर रही है, उसमें पुराने मूल्यों के दरकने का दर्द और आधुनिक यांत्रिक मूल्यों को अंगीकार किए जाने की होड़ स्पष्ट देखी जा सकती है। ऐसे में बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में अत्यंत थोड़ी भूमिका निभाने वाले परिवार, शिक्षा और समरुचि समूह जैसी सामाजिक संस्थाएँ भी इस बाजारवादी शक्ति के सामने स्वयं को अक्षम महसूस कर रही हैं। प्रसंगवश इस तथ्य का उल्लेख आवश्यक है कि हज़ारों वर्षों तक उत्पादन एवं उपभोग के तालमेल से संयुक्त परिवार ने समाज की उपभोक्तावादी आवश्यकताओं को अपने नियंत्रण में रखा था, लेकिन जनसंचार माध्यमों के नीतिविहीन फैलाव ने उसे एक ही झटके में बिखेर कर रख दिया। जनसंचार माध्यमों की विशेषता यह है कि इसमें व्यक्ति की सोच का सामूहिक पक्ष अदृश्य होकर उसका व्यक्ति केंद्रित पक्ष ज्यादा प्रभावी हो जाता है। बच्चों के जीवन में सामाजिक संस्थाओं के प्रति निरंतर घटती आस्था तथा कुछ कर गुजरने की तीव्र आक्रोश जैसी घटनाएँ भी कहीं-न-कहीं मीडिया की ही देन है। यहाँ इस तथ्य को याद किया जाना जरूरी है कि परिवार और बच्चों के मध्य मानवीय संवाद की दो तरफा प्रक्रिया बच्चों में लक्ष्य निर्धारण करके उनके व्यक्तित्व में नकारात्मक पक्ष को नियंत्रित रखती है।

यह औचक नहीं है कि वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों में मीडिया संस्कृति को बच्चों में ही बाजारवाद की संभावनाएँ अधिक नजर आ रही हैं। टी.वी. सीरियलों के द्वारा बच्चों की भावनाओं के उद्वेलन तथा विज्ञापन संस्कृति से बालमन के विवेकहरण की प्रक्रिया को गति मिल रही है; तभी तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ देशी कंपनियाँ भी बच्चों की जीवन-शैली को पाश्चात्य जीवन-शैली की तर्ज पर विकसित करने का प्रयास कर रही हैं। इसका स्पष्ट उद्देश्य बच्चों की भाषा, खान-पान, शैली तथा मनोवृत्तियों में आकर्षण पैदा करके उनकी आलोचनात्मक चेतना का दमन करते हुए अपनी खपत को बढ़ाना है। मुनाफे की इस व्यक्तिवादी दुष्प्रवृत्ति के तहत ही ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आजकल अपने मुख्य उत्पाद के साथ-साथ वस्तुओं का प्रलोभन देकर नव उपभोक्ता के रूप में बच्चों की एक बड़ी फौज तैयार करने में जुटी हैं। फिर आज के नव उपभोक्ता बच्चे ही तो कल उनके प्रौढ़ उपभोक्ता बनेंगे, जिससे समाज में उपभोक्तावादी जीवन संस्कृति की जड़ें और मजबूत होती चली जाएँगी। मुफ्त वस्तुओं का लालच आज बच्चों में उपभोग की भूमि को उर्वर बनाने का काम तो कर ही रहा है। ध्यान देने की जरूरत है कि इन विदेशी कंपनियों का प्रमुख उद्देश्य प्रायोजित कार्यक्रमों के जरिये अपने उत्पादन की बिक्री बढ़ाना मात्र ही नहीं है, बल्कि उपभोक्ता को उसकी विविध आयामी जीवन-शैली का दर्पण दिखाकर खपत का एक बड़ा बाजार स्थापित करना भी है। आज जितनी चीजों का उत्पादन हो रहा है, उसमें नब्बे फीसदी चीजें बाल केंद्रित ही तो हैं। बच्चों को उपभोक्ता बनाने के पीछे की एक बड़ी मंशा समाज की आरंभिक चेतना को क्षत-विक्षत किए जाने की ही लगती है, ताकि पूरे राष्ट्र को एक बाजार में बदलने की प्रक्रिया की गति में वृद्धि हो सके।

आज हम एक ऐसे त्रासद दौर से गुजर रहे हैं जहाँ बच्चों के संवाद के प्रायः सभी माध्यम निस्तेज होते जा रहे हैं। बच्चों से पारस्परिक एवं सामाजिक संवाद करने के साधन चाहे वह परिवार हो या उसके दोस्त या फिर शिक्षण संस्थाएँ, प्रायः सभी मौन हैं। यह उसी का परिणाम है कि बच्चे टी.वी., कंप्यूटर आदि के लगातार संपर्क में रहने के कारण एकतरफा मशीनीकृत हिंसा से परिपूर्ण रोमांचक संवाद की गिरफ्त में आ जाते हैं। इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि आज बच्चे पारंपरिक सहज दृश्यों की अपेक्षा हिंसा से जुड़े दृश्यों को अधिक पसंद करते हैं और उसे ही अपना रोल मॉडल भी मानने लगते हैं। बच्चों के बीच पनप रही हिंसा, अनिद्रा, आक्रामकता एवं अश्लीलता के मनो-सामाजिक द्वंद्व का समाजशास्त्र बताता है कि स्वतंत्रता आंदोलन के पश्चात पुरानी पीढ़ी ने जिन मूल्यों और आदर्शों के साथ अपना जीवन जिया, उन्हें बीते एक-डेढ़ दशक में पूँजी के तूफानी बाजार ने ध्वस्त कर दिया है। परिणामतः युवा पीढ़ी में आज सफलता पाने की तीव्र आकांक्षा तो रहती है, किंतु असफल होने का संयम व धैर्य उनमें नहीं है, जिस कारण जीवन की असफलता उन्हें प्रतिशोधात्मक बना रही है। कहना चाहिए कि बच्चों के जीवन में आज ग्राम से विश्वग्राम तक के चकाचौंध भरे जीवन को छलाँगने की होड़ और साहस तो दिखाई पड़ता है, लेकिन ज्ञान एवं विवेक के तालमेल के अभाव में उनमें अगोचर हिंसा, आक्रामकता, अपराध-उन्मुखता तथा अश्लीलता का बीजारोपण भी हो रहा है। बच्चों के समाजशास्त्रीय विश्लेषण बताते हैं कि संयुक्त परिवारों के टूटने से बच्चों का अकेलापन, मानसिक तनाव, वैयक्ति पहचान खो जाने की व्याकुलता आदि को आज के एकल परिवार भी दूर नहीं कर पा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट का आश्चर्यजनक पक्ष यह है कि हिंसा में संलिप्त युवाओं में अधिकांश ऐसे परिवारों से आते हैं, जहाँ उनके मानवीय सामाजिकरण को कोई तरजीह नहीं दी जाती। दुष्परिणामस्वरूप परिवारों में बच्चों से भावनात्मक रिश्ते तक क्षीण पड़ते जा रहे हैं। बड़े होकर बच्चे माँ-बाप को भौतिकवादी सुविधाएँ देकर ही अपनी सामाजिक भूमिका की इतिश्री मान लेते हैं। उनमें रिश्तों को समझने की संवेदनशीलता एवं भावात्मक अनुभूति का विकास नहीं हो पाता।

आर्थिक उदारीकरण ने समाज और परिवार के रिश्तों-संबंधों को कितना निष्क्रिय कर दिया है, इसे कोई भी अपने घर-परिवार और पास-परिवेश की स्थितियों का अवलोकन कर सहज अनुमान लगा सकता है। बाजार की गोद में फिसलता बचपन उसका ज्वलंत शिकार है। संचार माध्यमों ने तो बच्चों के कल्पनालोक और उनके यथार्थ में घालमेल करते हुए आक्रोश, अश्लीलता और हिंसा को केंद्र में लाकर रख दिया है। संयम, सहनशीलता, चरित्र, अहिंसा, करुणा, सेवा जैसे मूल्य अब उनके लिए अधिक अर्थ नहीं रखते। ऐसी त्रासद स्थिति में यदि बच्चे हिंसात्मक गतिविधियों के द्वारा अपनी इच्छाएँ पूरी करने लगें या उसमें बाधा डालने वालों से प्रतिशोध लेने लगें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। इसलिए समय रहते यदि मूल्यहीन विश्वपूँजी संस्कृति के खिलाफ इस देश के बुद्धिजीवियों, लेखकों तथा जिम्मेदार तबके के सभ्य नागरिकों द्वारा प्रतिरोध की जन संस्कृति विकसित कर बाजारवादी संस्कृति को कुंद नहीं किया गया, तो इस देश के बच्चों को एक बेहतर रचनात्मक भविष्य दे पाने से हम वंचित रह जाएँगे और फिर…!


Image : Italian Boy_s Head
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Artist : Carl Bloch
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शिवनारायण द्वारा भी