प्रतिरोधी चेतना के साहित्यकार उदय राज सिंह
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- 1 August, 2021
प्रतिरोधी चेतना के साहित्यकार उदय राज सिंह
हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार उदय राज सिंह का संपूर्ण रचनाकर्म मध्यवर्गीय नागर समाज के बहुपरतीय जीवन-संघर्ष और भावनात्मक रिश्ते की संवेदना को उकेरता अपने समय का जीवंत दस्तावेज है। उनका लेखन कहानी से आरंभ होकर उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र आदि विधाओं में विस्तार पाता हुआ अंततः धर्म और अध्यात्म में पूर्ण होता है। वे आंदोलनधर्मी कथाकार हैं और कदाचित हिंदी के पहले ऐसे लेखक हैं जो काँग्रेसी विचारधारा के पक्षधर होते हुए भी देश में लगे आपातकाल का मुखर विरोध ही नहीं किया, उसके विरुद्ध एक दमदार उपन्यास की रचना भी की। उन्होंने अपने समय की अनगिन समस्याओं पर लिखा। बिहार की भूमि समस्या पर ‘भूदानी सोनिया’ नामक उपन्यास लिखा, तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा छेड़े गए बिहार आंदोलन पर ‘उजाले के बीच’ जैसे धारदार उपन्यास की रचना की। हिंदी के शैली सम्राट राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के पुत्र उदय राज सिंह का जीवन चाहे राजसी रहा हो, परंतु उनके जीवन के केंद्र में हमेशा दबे कुचले एवं वंचित समुदाय के पात्र ही रहे। उनके साहित्य में प्रतिरोध का भाव हमेशा मुखर रहा है। सन् 1976 में आपातकाल के दौरान जब पूर्णिया में प्रसिद्ध कथाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ गिरफ्तार कर लिए गए तो एकमात्र लेखक-संपादक उदय राज सिंह ही थे, जिन्होंने काँग्रेसी परिवार की पृष्ठभूमि से आने के बावजूद सरकार की कड़ी निंदा करते हुए रेणु जी के पक्ष में संपादकीय टिप्पणी लिखी और उनकी रिहाई की माँग की। वे जे.पी. आंदोलन के समर्थक ही नहीं थे, अपितु आंदोलनकारियों की हर तरह से मदद भी करते थे।
उदय राज सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक (1942) किया, फिर वहीं एम.ए. की पढ़ाई करते हुए अगस्त-क्रांति में कूद पड़े। उसी दौरान वे जयप्रकाश नारायण, सुचेता कृपलानी, हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे राजनेताओं के संपर्क में तो आए ही, अन्य भूमिगत क्रांतिकारी नेताओं के भी संपर्क में आकर देशसेवा का काम किया। सन् 42 के आंदोलन में अपने अभिन्न मित्र हेमवतीनंदन बहुगुणा के साथ इलाहाबाद में बढ़-चढ़कर आंदोलन में हिस्सा लिया था, जिस कारण उन्हें लंबे समय तक भूमिगत जीवन व्यतीत करना पड़ा। उसी वजह से उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई। उनकी कहानियों तथा उपन्यासों में विद्रोह तथा प्रतिरोध का तेवर यों ही नहीं दिखाई पड़ता है। दबे-कुचलों की पक्षधरता और किसी भी प्रकार के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की प्रवृत्ति उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली। आखिर उनके पिता राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ने ‘दरिद्रनारायण’ जैसी कालजयी कहानी लिखकर जो अक्षय कीर्ति हासिल की थी, उसका कुछ तो प्रभाव उन पर पड़ना ही था। कथा-संवेदना में गरीबों की पक्षधरता और प्रतिरोध ही नहीं, कथा कहन की भंगिमा, शैली-शिल्प आदि का प्रभाव भी उदय राज सिंह ने अपने पिता से विरासत में प्राप्त किया। देखा जाये तो उनके पिता राजा साहब को भी साहित्य अपने पितामह दीवान रामकुमार सिंह और पिता राजा राजराजेश्वरी प्रसाद सिंह उर्फ प्यारे कवि से विरासत में मिला। प्यारे कवि तो भारतेंदु मंडल के प्रमुख कवियों में रहे। उदय राज सिंह के साहित्य में करुणा, न्याय और प्रतिरोध का भाव मुखर है, तो उसका एक कारण उनके पूर्वजों द्वारा गरीबों के सुख-दुःख की चिंता करने के साथ-साथ उनके हितों की संरक्षा करने का संकल्प भी रहा है।
उदय राज सिंह के साहित्य गुरु रहे आचार्य शिवपूजन सहाय, जिनकी प्रेरणा से स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने अशोक प्रेस की स्थापना कर ‘नई धारा’ पत्रिका का संचालन-प्रकाशन आरंभ किया। देखा जाये तो अल्पवय से ही उनमें साहित्य के प्रति रुचि थी। उनका जन्म बिहार के सूर्यपुरा राजवंश (रोहतास) में 5 नवंबर, 1921 ई. को हुआ। बड़े होने पर अकसर वे अपने पिता को एकांत में कुछ लिखते हुए देखते और छिप-छिपकर उनका लिखा पढ़ते भी। स्कूली जीवन में ही उन्हें ‘विकास’ और ‘सौरभ’ नामक हस्तलिखित पत्रिका निकालने का अवसर मिला। आगे चलकर जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर रहे थे, तभी उन्होंने कहानी, एकांकी, उपन्यास आदि की रचना शुरू कर दी। उनकी प्रकाशित कृतियों में प्रमुख हैं ‘नवतारा’ (कहानी एवं एकांकी), ‘अधूरी नारी’ (उपन्यास), ‘रोहिणी’ (उपन्यास), ‘भूदानी सोनिया’ (उपन्यास), ‘अँधेरे कि विरुद्ध’ (उपन्यास), ‘उजाले के बीच’ (उपन्यास), ‘कुहासा और आकृतियाँ’ (उपन्यास), ‘उदय राज सिंह की कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह), ‘मुस्कुराता अतीत’ (संस्मरण), ‘यादों की चादर’ (संस्मरण), ‘सफरनामा’ (यात्रा), ‘परिक्रमा’ (यात्रा), ‘गाँव के खिलौने’ (स्केच), ‘अनमोल रत्न’ (दो खंड) आदि। अंतिम पुस्तक को छोड़कर उनकी सभी रचनाएँ ‘उदय राज रचनावली’ के नाम से तीन खंडों में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘भूदानी सोनिया’ आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को लेकर लिखा गया उपन्यास है, जिसकी भूमिका लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने लिखी है। ‘उजाले के बीच’ बिहार आंदोलन पर केंद्रित उपन्यास है। इनका लगभग पूरा का पूरा लेखन सामाजिक-सामयिक समस्याओं पर आधारित है, जिसकी सराहना साहित्य के दिग्गज महारथियों ने समय-समय पर की है।
साहित्य में उदय राज सिंह का प्रवेश कथा-लेखन से हुआ। आरंभ में वे कहानी एवं एकांकी लिखा करते। 1942 में ही उनका पाँच कहानियों एवं तीन एकांकियों का पहला संग्रह ‘नवतारा’ के नाम से प्रकाशित हुआ, जिसकी भूमिका में जैनेंद्र कुमार ने लिखा–‘भाई उदय राज की इन कहानियों में यथार्थ और वर्तमान की अप्रियता के विरोध में दूर की मनोरमता को आँखों के आगे टिकाये रखने की चेष्टा है।’ उन्होंने अपने जीवन में कुल 26 कहानियाँ लिखीं, जिसमें झोपड़ी का क्रंदन, राष्ट्रीय भावनाओं का उत्तरोत्तर विकास के साथ-साथ मानवीय संबंधों में संवेदना का उद्वेग दिखाई पड़ता है। उनका कथा-लेखन परतंत्र भारत में हुआ। स्वतंत्रता सेनानी के बलिदान की गाथा है। इस कहानी की नायिका कमला नवविवाहिता है, जिसकी हर रात्रि पति की प्रतीक्षा में कटने की नियति बन जाती है। उसका पति स्वतंत्रता सेनानी है, जो अंततः आजादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर देता है। इस कहानी में पत्नी की प्रतीक्षा का इतना सजीव चित्रण किया गया है कि पाठकीय संवेदना स्वतः जाग्रत हो जाती है। पत्नी की प्रतीक्षा के चित्रण का एक अंश देखें–‘सामने दीया जल रहा है। उसकी आँखें दीये की लौ पर गड़ी है। कुछ पतंगें लौ की चारों तरफ उड़ रही हैं। फूलों की सेज खाली पड़ी है। फूलों का राज अभी नहीं आया है। अगर के धुएँ से, फूलों के परिमल से और पेरिस के इत्रों की भीनी-भीनी खुशबू से सारा कमरा भर रहा है।’ प्रतीक्षा के ऐसे मार्मिक चित्रण से पाठकों के दिल में एक हूक-सी उठती है। उस दौर में इस प्रकार की अनेक सुंदर कहानियाँ लिखी गईं। स्वयं जैनेंद्र कुमार की भी ‘पत्नी’ शीर्षक से एक कहानी आई, जिसमें स्वतंत्रता सेनानियों के पत्नियों के मनोविज्ञान की पड़ताल की गई। उदय राज सिंह ने भी अपनी कहानी के माध्यम से एक प्रश्न छोड़ा कि क्या उन स्वतंत्रता सेनानियों की तुलना में इनकी स्त्रियों का देशभक्ति में कम योगदान रहा? उनकी कहानियों में अपने समय की चिंताओं की सुंदर प्रस्तुति मिलती हैं। ‘बंदी का मोह’, ‘चित्र भी कलाकार’, ‘कवि की ज्वाला’, ‘भग्नरूप’, ‘शारदा की शादी’, ‘चरित्रहीन’, ‘रेशमी साड़ी’, ‘घर’ जैसी अनगिन कहानियों का कथालोक तद्युगीन सामाजिक द्वंद्व एवं सामयिकता के दर्द को सामने लाता है। उनकी कहानियों के विषय एवं विचार आज भी प्रासंगिक हैं।
उदय राज सिंह का पहला उपन्यास 1945 में ‘अधूरी नारी’ के नाम से प्रकाशित हुआ। स्त्री चेतना एवं मातृत्व की महिमा को उद्घाटित करते इस उपन्यास में कुलीन परिवारों की स्त्रियों में अभारतीयता की घुसपैठ के खिलाफ शंखनाद का भाव मुखरित किया गया है। नीना इस उपन्यास की नायिका है, जो पाश्चात्य सभ्यता और स्वच्छंदता की आँधी में उड़ती-गिरती जो जिंदगी जीती है, अंततः वह खुद को अधूरी नारी मानती है। उसे परंपरागत भारतीय संस्कार प्रिय नहीं, विवाह उसके लिए बंधन है, वह मानती है कि वैवाहिक बंधन में नारियों का स्वतंत्र विकास संभव नहीं है, आरंभ में अपने विचारों के स्वतंत्र जीवन-प्रवाह में सुख तो मिलता है, लेकिन अंततः उसे अपना जीवन असंतोष और अंधकार से बोझिल लगने लगता है। ‘अधूरी नारी’ नारी के अधूरेपन को चित्रित करते हुए भी उसका समर्थन नहीं करता। देखा जाए तो पाश्चात्य संस्कृति के चकाचौंध से आक्रांत भारतीय समाज की महिलाओं को ‘अधूरी नारी’ सही-सार्थक राह दिखाता उपन्यास है। ‘रोहिणी’ लेखक का दूसरा उपन्यास है, जो 1949 में प्रकाशित हुआ। इस लघु उपन्यास में मध्यवर्गीय जीवन-संस्कृति का प्रवाह है। इस प्रवाह में बेरोजगारी की ज्वाला है, तो महिलाओं के हृदयद्रावक आत्म-संघर्ष का चित्रण भी हुआ है। इसी समस्या पर आधारित ‘त्यागपत्र’ में जहाँ अंतर्मुखी करुणा है, वेदना है; वहीं ‘रोहिणी’ बहिर्मुखी और व्यावहारिक दृष्टिकोण की ज्वालामुखी है। उपन्यास में रोहिणी, शेखर और विनोदिनी, ये तीन प्रमुख पात्र हैं; जिनके माध्यम से मध्यवर्गीय समाज की प्रमुख समस्याओं को उजागर करते हुए उसकी करुण गाथा का चित्रण किया गया है।
‘भूदानी सोनिया’ उदय राज सिंह का चर्चित सामाजिक-राजनीतिक उपन्यास है, जिसमें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आजादी मिलने के बाद के ऐतिहासिक तथ्यों एवं राजनैतिक-सामाजिक जीवन के परिवर्तनों की हृदयद्रावक गाथा कही गई है। उपन्यास की भूमिका में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने लिखा है–‘भूदानी सोनिया ने कला के माध्यम से सेवा बनाम सत्ता का प्रश्न मार्मिक ढंग से उठाया है और राष्ट्र-जीवन के इस गंभीर तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि असली उन्नति नैतिक विकास में है, न कि आर्थिक समृद्धि में।’ उपन्यास में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को विन्यस्त करते हुए उपन्यासकार अपने पात्रों के कथा-विन्यास के द्वारा संदेश देना चाहता है कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम की वास्तविक उपलब्धि नैतिक महत्ता में है, राजनैतिक सत्ता में नहीं। ‘भूदानी सोनिया’ के स्वामी गोकुलदास के शब्दों में लेखक कहता है कि ‘यदि आजादी के बाद यही सब होना था, जो आज इस अभागे मुल्क में हर तरफ हो रहा है तो भई उस परतंत्रता में ही ज्यादा आनंद था, इस स्वतंत्रता में नहीं! …मेरा तो यही ख्याल है कि जब तक तुम दलबंदी से ऊपर उठकर दिल की दुनिया में नहीं पहुँचते हो, पद की लिप्सा को ठुकरा कर फिर से निःस्वार्थ सेवा का बाना नहीं पहनते हो, बेईमानी को ताक पर रखकर ईमानदारी को नहीं अपनाते हो, तब तक इस देश का कल्याण कभी होने का नहीं। आज हमारा देश अपने राजनैतिक लीडरों से बस एक ही याचना करता है–‘ईमान सम्हालो! पद की मर्यादा सच्ची सेवा और त्याग की देहली पर आकर माथा टेक देती है। उठो, आकाश में अब भी लाली है।’ 1957 ई. में लिखे गए इस उपन्यास का कथ्य आज भी प्रासंगिक है, जबकि समाज हो या राजनीति; हर ओर अराजकता व्याप्त है। ‘भागते किनारे’ (1962) पहेली-पुरुषों का उपन्यास है जबकि ‘अँधेरे के विरुद्ध’ (1970) एक सांस्कृतिक उपन्यास है। इसकी कथावस्तु भगवतीचरण वर्मा के ‘भूले बिसरे चित्र’ की तरह कई पीढ़ियों के घटना-विस्तार में फैली हुई है। एक ओर इसमें राय साहब और मेहरुन्निसा की कथा है जो स्वतंत्रता पूर्व जमींदारी व्यवस्था की संस्कृति की झाँकी देती है, तो दूसरी ओर इसमें बी.डी.ओ. नरेंद्र, डॉक्टर साहब, मुन्ना बाबू जैसे पात्रों की कथा कही गई है जो आजादी के बाद के भारतीय समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और उसके प्रतिक्रिया स्वरूप नव जागरण की झलक प्रस्तुत करती है। स्वतंत्रता पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर भारत के बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश की प्रस्तुति के साथ-साथ यहाँ राजनैतिक प्रशासनिक कार्यप्रणाली में निरंतर हो रहे बदलाव को भी चित्रित किया गया है। वास्तव में ‘अँधेरे के विरुद्ध’ स्वातंत्र्योत्तर भारत में छटपटाती लोकतांत्रिक कार्य-व्यवस्था का दस्तावेज है।
भारत में लगे आपातकाल के विरुद्ध लिखा गया उपन्यास ‘उजाले के बीच’ 1978 में प्रकाशित हुआ। इसमें स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर संपूर्ण क्रांति तक के भारतीय जीवन की विसंगतियों का जीवंत चित्रण किया गया है। लोकतंत्र से लोगों के घटते विश्वास और तानाशाही से लोहा लेने में बुद्धिजीवी और छात्र कैसे तत्पर हुए, उसकी कथा भी यहाँ कही गई है। इस उपन्यास का यह उद्धारण ही औपन्यासिक कथावस्तु की पृष्ठभूमि की अच्छी व्याख्या कर देता है–‘दमन का बाजार गर्म है। इंदिरा शासन ने सी.आर.पी.एफ. तथा बी.एस.एफ. के नौजवानों से बिहार का चप्पा-चप्पा घेरवा लिया है और हर कोने में गुप्तचरों का जाल बिछ गया है। बेशुमार लोग पकड़े गए। बिना वजह गोलियाँ चला दी जाती । निर्दोष मारे जाते। मगर कहीं कोई सुनवाई नहीं, कहीं कोई कोर्ट कचहरी नहीं। मीसा और डी.आई.आर. के चलते व्यक्तिगत स्वतंत्रता का खात्मा कर दिया गया। सेंसर के चलते अखबार में भी कोई खबर नहीं छपती। सभी ओर अंधियारी, सरकारी मनमानी, और भी, सेठ जी लखपति से करोड़पति हुए, अब इमरजेंसी में अरबपति होने का नक्शा देख रहे हैं। मंत्री जी की गद्दी इमरजेंसी के चलते जाने कितने वर्षों के लिए बरकरार हो गई है, क्योंकि चुनाव तो अब इमरजेंसी में होने को नहीं! फिर मजे ही मजे हैं। फिर क्यों नहीं मुख्यमंत्री बन जाया जाए! उधर हरिप्रसन्न जी तथा किसलय जी सोचते हैं कि अब सही वक्त आ गया है, जब वे बड़ी आसानी से मंत्री बन जा सकते हैं। न राज्य या देश की पार्लियामेंटरी बोर्ड के सदस्यों की खुशामद, न काँग्रेस अध्यक्ष की ताबेदारी। बस, एकै साधे सब सधै! संजय को मिला लो, तो बेड़ा पार हो जाए! देश के सारे राज्यपाल, मुख्यमंत्री उसके पैर चुमते हैं। उसके एक इशारे पर नाचते हैं।’ काँग्रेसी पृष्ठभूमि से आते हुए भी उदय राज सिंह ने अपने उपन्यासों में प्रतिरोधी चरित्र गढ़े और इस प्रकार के क्रांतिदर्शी संवाद रचे, जो उस समय संभव न था।
उपन्यासकार उदय राज सिंह की औपन्यासिक कथा-वस्तुओं के विषय की दो विशेषताएँ उभरकर आती हैं–स्त्री-जीवन का त्रास और स्वतंत्र भारत के राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार का उद्घाटन। सरसरी तौर पर वे जैनेंद्र कुमार की भाँति स्त्री-जीवन की व्यथा-कथा के लेखक लगते हैं, लेकिन उन्होंने मनोविश्लेषण से कहीं अधिक समाज-सर्वेक्षण का लेखन किया है। अनेक आलोचकों का मानना है कि वे चरित्रों, विशेषकर नारी चरित्रों के लेखक हैं। उनके उपन्यास ‘रोहिणी’, ‘अधूरी नारी’, ‘भागते किनारे’ और ‘भूदानी सोनिया’ से गुजरते हुए इस कथन की पुष्टि भी होती है। वस्तुतः वे सेमुएल रिचर्डसन (Samual Rechardson) के समान ही नारी चरित्रों के लेखक हैं। इनके उपन्यासों में भगवतीचरण वर्मा के ‘चित्रलेखा’ की तरह नारी-सौंदर्य एवं उन्मत्त स्वच्छंद वासना नहीं, जयशंकर प्रसाद के ‘स्कंदगुप्त’ की देवसेना की तरह सजीव साधना का भाव-विकास है। इनके स्त्री चरित्रों में तन की नहीं, मन की सुंदरता है, पावनता है। रोहिणी, माला, सोनिया किसी भी स्त्री चरित्र को देखें, उनमें सादगी-सौंदर्य के बीच वैचारिक परिपक्वता मिलेगी। वास्तव में उनके उपन्यासों की नारियाँ महीयसी महिलाएँ हैं, जो पुरुषों को भी उनके जीवन का आदर्श बताती हैं। वहाँ स्त्री-पुरुष परस्पर पूरक हैं। उदय राज सिंह ने ‘भागते किनारे’ में एक जगह लिखा भी है–‘पुरुष और नारी विधि के हाथों गढ़ी दो अप्रतिम प्रतिमाएँ, एक ही तने की दो डालियाँ, बाहर से दो अंदर से एक; परंतु फिर भी दोनों में कितना अंतर, कितना दुराव! एक धरती, दूसरा आसमान। एक मोम दूसरा वज्र। एक सब कुछ सहकर भी चुप, दूसरा एक खूट से तूफान उठाने को तैयार। एक छाती तले अंगार को भी तुषार सदृश छिपाकर रखे मुँह से ‘सी’ न करती, हँसती-बोलती बैलौस चली जाती है और दूसरा-उफ्, दूसरा कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं।’
उदय राज सिंह ने यों तो अन्य विधाओं में विपुल लेखन किया, किंतु कथा-साहित्य में उनके तेजस्वी सर्जक का रूप अधिक निखर कर उद्घाटित हुआ। उदय राज सिंह की कहानियाँ जीवन की मार्मिक व्याख्या है। यह जीवन दिनानुदिन का जीवन है, कटु यथार्थ से पूर्ण। उदय राज सिंह की कहानियाँ इसीलिए ज्यादातर दुःखांत हैं। जीवन में दुःख ही तो ज्यादा है, बतौर कवि पंत मिलन के पल केवल दो-चार, विरह के कल्प अपार! कथा-लेखन में विषय-वस्तु के चयन में उदय राज सिंह की दो बड़ी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। पहली विशेषता तो यही है कि उन्होंने स्त्री-जीवन की मर्मस्पर्शी घटनाओं को अपने लेखन का विषय बनाया, जिसे ‘अधूरी नारी’, ‘रोहिणी’, ‘भागते किनारे’ आदि उपन्यासों में देखा जा सकता है। देखा जाए तो वे बहुत हद तक जैनेंद्र कुमार की तरह स्त्री-जीवन के दर्द के लेखक हैं, परंतु उन्होंने स्त्री-जीवन का मनोविश्लेषण से अधिक समाज सर्वेक्षण किया है। उनकी दूसरी विशेषता है कि उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार को अपने औपन्यासिक लेखन के केंद्र में रखा, जिस कारण उनके लेखन में अपने समय के निर्मम यथार्थ का चित्रण और प्रतिरोध का भाव मुखर हो सका, ‘भूदानी सोनिया’, ‘अँधेरे के विरुद्ध’ और ‘उजाले के बीच’ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। सही मायने में वे प्रतिरोधी चेतना के साहित्यकार थे! वे अपने समय, समाज और राजनीतिक चेतना के प्रहरी लेखक थे, लेकिन उनकी कलम हमेशा संवेदना में डूबी रहती! आनंद शंकर माधवन ने ठीक ही लिखा है–‘उदय राज सिंह बहुत भावुक थे। अत्यधिक कोमल रहा है उनका हृदय! सदा उनकी आँखें सजल ही रहती थीं। आश्चर्य है उनकी क्या अंतर्व्यथा थी। हाँ, यही बात रहस्य की है! क्या अंतर्व्यथा थी मीरा की! सभी तपस्वी रो-रोकर मरे हैं! …भगवान को समझ सकते हैं, पर कलम के सिद्ध साधु पुरुषों की हृदयगति को समझना बिलकुल ही कठिन साधना है!’