वंसत का राग-रंग

वंसत का राग-रंग

महानगर में वसंत दबे पाँव पसरता है। माघी के फूल जब अपने पीताभ सौंदर्य से संपूर्ण ग्रामांचल को महमह करने लगते हैं, तो वहाँ से चलने वाली हवा हौले-हौले महानगरों में प्रवेश कर पेड़-पौधों पर पसरने लगती है। उन हवाओं में एक अलग प्रकार की मादक गंध होती है, जिसमें बौर-टिकोरे, महुए आदि की उपस्थिति तो होती ही है, मौसम के परिवर्तन की अनुगूँज भी होती है। महानगर के यांत्रिक जीवन में प्रकृति के ऐसे परिवर्तन का एहसास तक कहाँ हो पाता है! हम अपनी व्यस्त दिनचर्याओं में इस कदर उलझे होते हैं कि ऋतुओं के परिवर्तन का संज्ञान तक नहीं कर पाते। उस दिन मेरा अवकाश था। छत पर बैठा सुबह का अखबार पढ़ रहा था। पत्नी को बागवानी में रुचि होने की वजह से गमलों में भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे फूलों का मेला लगा था। मैं उन नीले-पीले फूलों को ही निहार रहा था कि मुझे दूर कहीं से आती कोयल की कूक सुनाई पड़ी। मैं चौंक उठा! कोयल की कुहू…यानी वसंत का आगमन! मैंने सामने देखा, पड़ोस के परिसर में लगे आम के पेड़ से कोयल की आवाज आ रही थी।

वसंत कामदेव का सखा है। कामदेव का धनुष फूलों से बना होता है। इस धनुष की कमान में ध्वनि नहीं होती। वह स्वरविहीन होता है। कामदेव जब कमान से तीर का संधान करते हैं तो उससे किसी तरह की ध्वनि नहीं निकलती, पर तीर अपना काम कर जाता है। कामदेव का एक नाम अनंग भी है, यानी बिना किसी अंग के ही वह प्राणियों में बसे होते हैं। एक नाम ‘मार’ है अर्थात इतने मारक हैं कि इनके बाणों का कोई कवच नहीं होता। इन्हीं कारणों से वसंत को प्रेम का मौसम माना जाता है। इस ऋतु में फूलों के बाणों से आहत हृदय प्रेम से सराबोर हो जाता है। मैं रंग-बिरंगे फूलों को देख अपनी स्मृति-यात्रा में प्रेम के अनगिन प्रसंगों से तरबतर हो रहा हूँ। गुनगुनी धूप, वासंती हवा, मौसम का नशा प्रेम की अग्नि को उत्तेजित कर जाती है। अपनी स्मृति-यात्रा में मैं अपने घुटपन की उन स्थितियों में पहुँच जाता हूँ, जब गाँव के खेत-खलिहानों में उन्मुक्त विचरण ही मेरा जीवन हुआ करता था। गाँव से सटे आम-महुए का एक बड़ा बगीचा हुआ करता, जहाँ हम नाना प्रकार के क्रीड़ा करतब किया करते। वृक्षों में नए हरे-हरे पत्ते आने लगते और सभी पेड़-पौधे पुनः पत्तों से लद जाते, मैदानों में हरी-हरी मखमली घास बिछ जाती, मुरझाए हुए फूलों में नई-नई कलियाँ फूटने लगतीं और उसकी सुगंध पूरे वातावरण को सुगंधित कर देती, कोयल सहित भाँति-भाँति के पक्षी अपने-अपने मधुर कलरव से संगीत सम्मेलन का समाँ बाँध देते, आम के पेड़ों पर नए बौर आ जाते, जिसकी मादकता में पूरा बगीचा महमह करने लगता, नदी-तालाब-झरने शीतल जल के तराने छेड़ देते, जिधर देखो उधर खुशनुमा वातावरण देखकर ऐसा लगता मानो प्रकृति ने इंद्रधनुषी चादर ओढ़ सबको लुभाने का दायित्व ले रखा हो। दिनभर हम बगीचे में झूला झूलते, आम के कुच्चे तैयार कर उसका आनंद लेते और जब इन सबसे थक जाते तो तरल-तलैयों में डुबकी लगाने के बाद घर की राह लेते। मध्य माघ से मध्य चैत के इन दो महीनों में हमारी मस्ती थमने का नाम नहीं लेती थी।

एक घटना की याद आती है। हम कुछ बच्चे बगीचे में खेल रहे थे। बगीचे के बीच से एक पगडंडी गुजरती थी। अक्सर राहगीर जब वहाँ से गुजरते तो थोड़ी देर छतनार पेड़ की छाँव में सुस्ताने के लिए वहाँ ठहर जाते। उस बार एक डोली ठहरी थी। कहार अलग जाकर सुस्ताने लगे तो डोली से एक नवेली दुल्हन निकली। इशारे से हमें बुलाया। कोई बच्चा जाने को तैयार नहीं। मैं बेधड़क चला गया। उसे प्यास लगी थी। मैं एक साथी को ले पास के कुएँ से बाल्टी भर पानी ले आया और उसकी प्यास बुझाने में मदद की। तभी दुल्हन की नजर उन टिकोरों पर पड़ी जो हमने बगीचे से चुन रखे थे कुच्चे बनाने के लिए। उसने टिकोरे माँगे। तब तक नई दुल्हन को देखने के लिए कई सारे बच्चे वहाँ जमा हो गए थे। दुल्हन ने टिकोरे माँगे तो बच्चे बिदक कर भागने लगे। जाने क्या दुल्हन के मन में आया कि उसने सारे टिकोरे झटक लिए। मैं उससे टिकोरे लौटाने को रार करने लगा, तो विहँसती-सी बोली–‘टिकोरे वापिस तो कर दूँ, पर तुझे मुझसे ब्याह करना पड़ेगा।’ मारे शर्म के मेरा चेहरा लाल हो गया। मैं ‘धत’ कहकर वहाँ से बेतहाशा भाग खड़ा हुआ। तब तक कहार डोली तक पहुँच चुके थे। बाद में पता लगा कि उस डोली को हमारे ही गाँव में जाना था। वह दुल्हन हमारे बासो काका के बड़े बेटे की पत्नी थी यानी गाँव के रिश्ते में हमारी भौजी लगी। बाद में हम उसे बड़की भौजी कहने लगे। वह जब भी हमें देखती, चिढ़ाने के लिए कहती–‘अब तो मुझसे ब्याह कर लो।’ मुझे बड़ी गुदगुदी होती और मारे शरम के भाग खड़ा होता। गाँव में हँसी-मजाक के ऐसे अनगिन रिश्ते स्वतः बन जाते हैं, जिनसे वहाँ का जीवन गमगम करता रहता है।

शहर आने के बाद भी गाँव से नाता बना रहा। संक्रांति पर्व के ठीक पहले गाँव जाता और होली तक वहीं रहता। वसंत पंचमी अथवा श्रीपंचमी, महाशिवरात्रि से लेकर रंगपंचमी तक के नाना लोकपर्वों का आनंद लेता। वैदिक ऋचाओं में प्रकृति को ईश्वर का साक्षात रूप मानकर उसके प्रत्येक रूप की वंदना की गई है। ऋषियों ने प्रकृति के अनुसार उसके रूप वैभव का आनंद लेते हुए जीवन यापन करने की सलाह दी है। पूरे वर्ष होने वाले ऋतु परिवर्तन चक्र को समझकर व्यक्ति को उस दौरान उपवास और उत्सव करने के नियम बनाए, ताकि मौसम परिवर्तन के नुकसान से बचकर उसका रसपान किया जा सके। प्रकृति हो या मानव-जीवन, वसंत उसमें नवता का संदेश भरता है। निर्द्वंद्व एवं स्वच्छंद जीवन ही वसंत का आभास करा सकता है। महानगर के यांत्रिक जीवन में वसंत कोई रस नहीं घोल पाता! वसंत का आनंद लेने के लिए निर्द्वंद्व होना जरूरी है। गाँव में बड़की भौजी जब ठिठोली करती हुई मुझसे ब्याह करने की चुहल करती तो मेरा पूरा मन और तन लाल हो जाता! शहर में बस जाने के बाद गाँव की बहुत-सी चीजें छूट गई, पर बड़की भौजी की ठिठोली की स्मृति नहीं छूटी। आज भी वह मुझे अपनी ओर खींचती है। मौसम और प्रकृति में मनोहारी परिवर्तन होते रहते हैं, जो मनुष्य को उल्लसित करते हैं। यह उल्लास जीवन में बना रहे, उसी की अभिव्यक्ति के लिए किसिम-किसिम के पर्व-त्योहार रचे गए हैं। लोकपर्वों के केंद्र में है मानव मन का उल्लास और प्रकृति के शृंगार! इन दोनों के मेल से ही सृष्टि में सृजन की शक्ति उत्पन्न होती है। प्रकृति से मनुष्य का मैत्रीभाव ही उसके जीवन में आनंद, उल्लास और सृजन का भाव भरता है।

भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मी रही है। किसी धर्म, संप्रदाय, भाषा, क्षेत्र की संस्कृति हो, उसकी पूर्णता उत्सव में ही खिल-खुलकर जन-जन के मन प्राणों को लुभाती रही है। कहना चाहिए कि इस देश की मिट्टी में ही उत्सव का राग है। अवसर आनंद का हो या शोक का, उसकी अभिव्यक्ति उत्सव के रूप में होती है। यह अवसर यदि किसी पर्व-त्योहार का हो तो फिर उत्सव का आनंद दूना हो जाता है। रंगपंचमी ऐसा ही एक पर्व है मन के आनंद को स्वच्छंद रूप में व्यक्त करने का! एक संवत्सर के अंत और नए के श्रीगणेश का सेतु-पर्व है रंगों का पावन त्योहार होली, जो पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। होली मनाने का समय फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के दिन माना जाता है और उसके अगले ही दिन चैत्र प्रतिपदा अर्थात नववर्ष का आरंभ हो जाता है।

होली लोकपर्व है। इस पर्व को लेकर अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं। इनमें सर्वप्रमुख होलिका कथा है। हमारे यहाँ लोकपर्वों का आधार लोककथाएँ ही हैं। इन लोककथाओं में स्त्री-शक्ति की जय कथा होती है, लेकिन होलिका कथा इसका अपवाद है। इस पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्यकशिपु एक अत्यंत शक्तिशाली राजा था, जो स्वयं को ईश्वर ही मानता था। वह प्रजा को अपनी पूजा करवाने के लिए बाध्य करता था। उसे जबरदस्त प्रतिरोध का सामना अपने घर में ही पुत्र प्रह्लाद से करना पड़ा। प्रह्लाद विष्णु का भक्त था। उसे ही अपना सर्वस्व मानता था। उसने अपने पिता को भी अहंकार छोड़ विष्णु को अपना आराध्य मानने के लिए प्रेरित करना चाहा, पर उसके पिता कुपित हो गए। पुत्र को दंडित करने के लिए भाँति-भाँति के विधान रचने लगे। सब में विफल होने के बाद अंततः अपनी बहन होलिका से कहा, जिसे आग में न जल पाने का वरदान प्राप्त था। होलिका विष्णु भक्त प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर चादर ओढ़ आग का आवाहन करती है। यहाँ चमत्कार होता है। होलिका जल मरती है और प्रह्लाद बच जाता है। इस प्रतीक कथा से होली बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व मान लिया गया और इसीलिए होली के पूर्व होलिका दहन का कार्यक्रम संपन्न किया जाता है। इस कार्यक्रम के द्वारा होलिका (अग्नि) दहन में तमाम प्रकार की बुराइयों के साथ ही अहंकार, तमस वृत्तियाँ और नकारात्मकता को खाक किया जाता है।

होली आनंद और उल्लास का पर्व है। राधा-कृष्ण के प्रणय को भी इस पर्व से जोड़कर उसका आनंद लिया जाता है। अनादि काल से मथुरा के वृन्दावन तथा कृष्ण की नगरी द्वारिकापुरी में होली की विशेष इंद्रधनुषी धूम देखने को मिलती है। आदिकाल से वर्तमान तक के अनगिन कवियों ने ब्रज-भूमि की होली और राधा-कृष्ण की रंगलीलापरक कविताएँ रचीं, जो लोकपर्व होली के रंग को महारस में बदल देती है। राधा की जन्मभूमि बरसाना की लाठीमार होली की मस्ती और उमंग पर तो दुनियाभर के लोग खींचे चले आते हैं। इस होली में नंदगाँव के पुरुष और बरसाने की स्त्रियाँ भाग लेती हैं। राधा और कृष्ण से जुड़ी गोप-गोपियों के बीच मनाया जाने वाला यह रंगपर्व जन-जन में फाग की मस्ती भर देता है–

‘ब्रज में हरि होरी मचाई’
हिलि-मिली फाग परस्पर खेलत शोभा बरनी न जाई
घरे-घरे बजत बधाई!’

ब्रज में इस अवसर पर गोपियाँ कृष्ण को अंगिया-चुनरी पहनाकर नथिया पहनाती हुई जो मनोरम दृश्य प्रदर्शित करती हैं, उसका नजारा अद्भुत होता है–

‘नेन नचाई कही मुसकाई लला फिर अइयो खेलन होरी।’

होली के विविध रास-रंगों पर रीतिकालीन कवियों ने जमकर लिखा है। कवि पद्माकर का एक सवैया का आनंद लीजिए, जिसमें श्रीकृष्ण से होली खेलने का एक रंग भरते हैं–

‘फाग की उमंग अनुराग की तरंग बैसी
तैसी छबि प्यारी की बिलोकी सखियन में
केसरि कपोलन में मुख में तमोल भरी
भाल में गुलाल नंदलाल अँखियन में।’

होली प्रेम और उल्लास का पर्व है। प्रेम और उल्लास की अभिव्यक्ति में कोई बंधन नहीं होता। छेड़छाड़ की मस्ती द्वारा लोक परंपरा में प्रेम की प्रतिष्ठा को होली बढ़ाती आई है। इसलिए इस रंगपर्व में धर्म, जाति, पद, संबंध आदि की सीमाओं को ध्वस्त करते हुए गालियों का विशेष विधान किया गया है। कहना चाहिए कि यह पर्व तमाम प्रकार के बंधनों को तोड़ते हुए जन-जन को प्रेम के एकसूत्र में बाँधने का महाउपक्रम है। अवध के सीता-राम की मर्यादा का रंगपर्व हो या फिर ब्रज के राधा-कृष्ण की रासलीला का रंगपर्व, उन सबके रंग हास-परिहास क्रीड़ा विधान द्वारा मनुष्य के उन्मुक्त प्रेम को ही व्यक्त किया गया है। इसे बिहार के भारतेन्दुकालीन कवि राजा राजराजेश्वरी प्रसाद सिंह उर्फ प्यारे कवि ने बहुत खूबसूरती से दर्शाया है–

‘अरी होरी है आज तो होरी अहै, खुलि खेलौ सबै न लजाओ कोऊ
बढ़े आवत नंद को लाल इतै, पिचकी भरि ताकि चलाओ कोऊ
मुख देखती क्यों चुपचाप खरी, अरी धाय अबीर उड़ाओ कोऊ
भरि झोरी गुलाल लिये हौ कहा, धँसि लाल के गाल लगाओ कोऊ।’

प्रेम मुक्त है तो उसका आनंद भी तमाम बंधनों से मुक्त होकर ही लिया जा सकता है और रंगपर्व होली उसकी अभिव्यक्ति का महापर्व है। इसलिए पूरे देश में यह मनाया जाता है।

होली को नये अन्न का पर्व भी कहा गया है। जब मौसम में फाग की मस्ती चढ़ती है तो पूरी प्रकृति भी भाँति-भाँति के रंगों में सजने-निखरने लगती है। गेहूँ, जौ, चना आदि फसलों के आमद से खेल-खलिहान, गाँव-नगर सब महँकने लगते हैं। खेतों में गायें चरने लगती हैं और आकाश नम हो जाता है, तो फाग की मस्ती में लोक-स्वर गूँजने लगता है–

‘कोनी वन हो, कोनी वन कान्हा गौवा चराये, कोनी वन हो
बूँद-बूँद-बूँद पानी परत है, अँगना हो गइले कादो
पाँव फिसल गइल फूट गैल घइला
सास परत मन गारी
हे हो सास परत मन गारी
कोनी वन हो…।’

गाँव के चौपालों में जन-जीवन से जुड़ी गाथाओं का फाग-राग में गायन होने लगता है तो नगर-डगर में बड़े-बूढ़े के कदम भी डगमगाने लगते हैं। कहते हैं होली दो-एक दिनों का पर्व है, लेकिन फाग की मस्ती पूरे माह भर चलती रहती है। घरों में तरह-तरह के पुआ-पकवानों की गंध भरने लगती है। होली यों तो पूरे देश में मनाया जाने वाला प्रेम-पर्व है, लेकिन उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में इसकी धूम रहती है। प्रेम की खुशियों के जाने कितने रंग यह अपने में समेटे रखता है, जिसके आकर्षण की डोर से खींचे, इस प्रदेश के लोग चाहे दुनिया में जहाँ कहीं भी हों, अपने घर की ओर भागे चले आते हैं। समय चाहे जितना भी बदल कर खुरदरा हो गया हो, पर भर फागुन जन-जन के मन की चाह प्रेम के रंग में डूबे मंजरी के साथ मदिर-मदिर बौराने लगता है, जो अपनी-अपनी सजनी के संग फागुन बाद चैत तक भी रंग-रास रचता रहता है। गाँव में इसका रंग ज्यादा जमता है। खेत-खलिहानों में जौ-गेहूँ की बालियाँ लहर-लहर मुसकाती हैं, तो रेड़ मकय की आड़ में पाहुन फागुन गाते नजर आते हैं।

महँगाई की मार और पूँजी संस्कृति की विकृत दहाड़ ने भारतीय समाज के मध्यवर्ग का रंग बदल दिया है, फिर भी लोकपर्व होली की बहार में कोई कमी नहीं आई है। शहरों में फूलों की, रंग-बिरंगे गुलाल की होली चलती है, लेकिन गाँवों में अभी भी धुरखेल और कीचड़ की होली होती है। होली रंगपर्व के साथ प्रेमपर्व भी है, इसलिए मस्ती ही इसका मूल है। यह मस्ती का भाव कई दिनों तक चढ़ा रहता है। प्रेम का रंग जन-जन पर चढ़ता है तो उसके कई-कई रंग देखने को मिलते हैं। समय ने द्वापर से वर्तमान तक उसके अनगिन रंग देखे हैं। समय महँगाई के सर्प को फन काढ़ता देखता रहा है–

‘अड़ा सर्प फन काढ़कर, दादुर की चित्कार
अबकी होली बाँसवन, दया करें सरकार!’

समय देखता रहेगा! लोगों की फाग-मस्ती परवान चढ़ती ही रहेगी! हाँ, महानगरों में इस मस्ती का एहसास थोड़े विलंब से होता है, पर होता है!


Image : Boulevard Montmartre Spring
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Artist : Camille Pissarro
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शिवनारायण द्वारा भी