साहित्य का समाजशास्त्र
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- 1 October, 2016
साहित्य का समाजशास्त्र
इस अंक के साथ ही ‘नई धारा’ के संपादन के मेरे 25 साल पूरे हुए! इससे पूर्व की अपनी साहित्यिक पत्रकारिता के 12 वर्षों के अनुभव को और जोड़ लूँ, तो पूरे 37 वर्ष हुए! मन में ख्याल आया कि साहित्यिक पत्रकारिता के बीते वर्षों के अपने अनुभवों पर कुछ लिखूँ, लेकिन विगत माह ही मधेपुरा के एक सेमिनार में भाग लेकर लौटा तो वहाँ कुछ ऐसी चर्चा हुई कि उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। 22-23 अक्तूबर, 2016 को भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा यू.जी.सी. संपोषित ‘कथा साहित्य के बदलते परिदृश्य’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई, जिसके उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए सातवें दशक के चर्चित कथाकार मधुकर गंगाधर ने कहा कि लोग प्रेमचंद को पूजते हैं, पर उनके एक उपन्यास ‘गोदान’ को छोड़कर बाकी सब बकवास हैं। अब आंचलिकता की ही बात करें तो लोग फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की पालकी ढोए फिरते हैं, जबकि ‘मैला आँचल’ में सिवाए नकल के कुछ नहीं है। यदि प्रथम आंचलिक कथाकार की ही बात करें तो ‘देहाती दुनिया’ के लेखक शिवपूजन सहाय हैं, लेकिन बिहार के तत्कालीन एक बड़बोले आलोचक ने रेणु के नाम को क्या उछाल दिया कि हर कोई आंचलिक लेखक के तौर पर रेणु की ही माला जपते रहे हैं। यह साहित्य में चिंतन का बौद्धिक दिवालियापन है। उस संगोष्ठी में उन्होंने अपने घंटे भर के भाषण में और भी बहुत-सी विवादास्पद बातें कहीं, लेकिन उन सबको छोड़ भी दें तो साहित्य में आंचलिकता को लेकर जो चर्चा उन्होंने छेड़ी, इस मुद्दे पर उन्हीं के कथनों से बात की जा सकती है।
हिंदी में आंचलिकता का स्वर जब भी उभरा हो, लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं में आंचलिकता का विकास आजादी के बहुत पहले से दिखाई पड़ता है। इस संदर्भ में उड़िया के गोपीनाथ महांति के उपन्यास ‘अमृत संतान’ तथा सतीनाथ भादुड़ी के चर्चित उपन्यास ‘ढोढ़ायचरित मानस’ की चर्चा विशेष रूप से की जा सकती है। ‘अमृत संतान’ में उड़ीसा के आदिवासी समाज (दक्षिणी जंगल) के जीवन-संघर्ष पर आधारित उस पूरे अंचल को कथा-पात्र बनाकर वहाँ की दिन प्रतिदिन की घटनाएँ, पर्व-त्योहारों के तौर तरीके, सामाजिक कार्यों को संचालित करने वाले संगठन, उसकी प्रतिक्रियाएँ आदि को गूँथकर यह रचना आदिवासी जीवन-संस्कृति की खूबसूरत प्रस्तुति करती है, जैसे नृविज्ञानी के रूप में कोई मानवशास्त्र के आचार व्यवहार का सर्वे प्रस्तुत कर रहा हो। इसी क्रम में बंगला के लेखक सतीनाथ भादुड़ी के चर्चित उपन्यास ‘ढोढ़ायचरित मानस’ की भी चर्चा की जाती है। बंगला में तब ताराशंकर बंद्योपाध्याय के ‘जनपद’, ‘आरोग्य निकेतन’, विभूतिनारायण मुखोपाध्याय के ‘आरण्यक’ आदि उपन्यासों की खास चर्चा होती थी। मानिक बंद्योपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी आदि तो लिख ही रहे थे। कहते हैं कि ये लेखक शरतचंद्र के ‘पल्लीसमाज’ जैसे गाँव केंद्रित बोलते हुए उपन्यास से प्रभावित होकर ही आंचलिक धारा के लेखन में सक्रिय थे। ये सभी जनपदीय समाज विशेषकर ग्रामीण जीवन-संस्कृति के आलोक में ही आंचलिक उपन्यासों की रचना कर रहे थे। पूर्णिया निवासी सतीनाथ भादुड़ी का उपन्यास ‘ढोढ़ायचरित मानस’ उन सबसे भिन्न है।
‘ढोढ़ायचरित मानस’ की रचना 1948-49 में हुई, जिसका कथा-काल 1907 से 1943-44 तक विस्तार पाता दिखाई पड़ता है। पूर्णिया के एक ग्रामीण अंचल को केंद्र में रखकर उसके माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को ही इस उपन्यास में रूपायित किया गया है। यह रूपांकन इतना सूक्ष्म, सार्थक, संवेदनक्षम एवं कलापूर्ण है कि उस अंचल की हँसी-रुलाई, सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु ही नहीं, अंचल के पात्रों की भंगिमा, वस्त्रों के रंग-गंध, पशु-पक्षी तक के चलन आदि सबके सब उसमें बोलते नजर आने लगते हैं। वह पूरा का पूरा अंचल मुखर हो उठता है। कहा जाना चाहिए कि पूर्णिया के उस क्षेत्र की दबी-पिछड़ी जातियों के आंचलिक परिवेश के जरिये वहाँ के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को अत्यंत सार्थक तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
उड़िया-बंगला के लेखकों को किसी क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के गढ़ने-रचने की प्रेरणा पर्ल बक से मिली, ऐसा माना जाता है। उन्नीसवीं शती के आरंभ में अँग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी आदि भाषाओं के लेखक अपने-अपने क्षेत्र के देशकाल का सामाजिक-सांस्कृतिक आख्यान प्रस्तुत कर रहे थे। क्षेत्र विशेष के जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करते हुए वे अपने समय की संस्कृति और विकास का दर्शन ही कथाओं में पिरो रहे थे। उनमें मनुष्य की स्वतंत्रता और समता को रेखांकित करने की ललक थी, जो किसी भी सभ्यता के विकास का आदिस्रोत बनता है। पर्ल बक के लेखन में क्षेत्र विशेष के लेखन को उसके समग्र यथार्थ में चित्रित किए जाने का मोहक आख्यान है, जिसने अपने बाद के लेखकों को बेतरह प्रभावित किया। पर्ल बक से बंगला के सतीनाथ भादुड़ी तक की आंचलिक कथाओं के विकास की धारा से हिंदी के कथा-विकास की धारा को जोड़ें, तो कहना होगा कि हिंदी में आजादी के पहले से ही आंचलिक लेखन का श्रीगणेश हो चुका था, जब शिवपूजन सहाय की ‘देहाती दुनिया’, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का ‘चतुरी चमार’, रामवृक्ष बेनीपुरी की ‘माटी की मूरतें’, नागार्जुन की ‘बलचनमा’ जैसी औपन्यासिक कृतियाँ सामने आ चुकी थीं। इन सबके अलावे भी आगे चलकर इसी कथा-धारा में देवेंद्र सत्यार्थी के उपन्यास ‘ब्रह्मपुत्र’ और ‘दूधगाछ’, उदयशंकर भट्ट के ‘सागर लहरें और मनुष्य’, भैरव प्रसाद गुप्त के ‘सती मैया का चौरा’, राजेंद्र अवस्थी का ‘जंगल के फूल’, मार्कंडेय का ‘अग्निबीज’, विवेकी राय के ‘सोना माटी’ जैसे अनगिन उपन्यास प्रकाशित हुए। इन सभी उपन्यासों में अपने-अपने क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक गाथा का रोचक आख्यान है।
आंचलिक उपन्यासों की इस परंपरा से फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ या ‘परती परिकथा’ को जोड़कर उसकी आंचलिकता के साथ न्याय नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि रेणु के ये उपन्यास ‘अंचल विशेष’ के हैं। अंचल और अंचल विशेष में फर्क होता है। इस फर्क को समझे बिना आंचलिकता की समझ भी विकसित नहीं हो सकती। यहाँ इस सवाल से भी इस विमर्श को आगे बढ़ाना होगा कि क्या ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के पूर्व ‘आंचलिक उपन्यास’ का विमर्श केंद्र में था? नहीं, तो क्यों? वास्तव में ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के बाद से ही हिंदी में ‘आंचलिकता’ की चर्चा शुरू होती है। आखिर रेणु के संदर्भ में आंचलिकता है क्या? भाषा विज्ञान की शब्दावली में उस अंचल विशेष को आइसलैंड कहते हैं, जहाँ तीन या तीन से अधिक भाषाओं का मेल देखने को मिलता है। भाषा के साथ-साथ वहाँ उन भाषा-क्षेत्रों की संस्कृतियाँ भी आपस में दूध-पानी की तरह मिल जाती हैं। भिन्न-भिन्न भाषा और संस्कृतियों के दूध-पानी मेल से एक नई कचराही या मिश्रित भाषा और संस्कृति का जन्म होता है। उस अंचल विशेष के लोग अपनी मूल भाषा और संस्कृति से परे उस नई भाषा-संस्कृति में ढलने लगते हैं। तब उस अंचल विशेष को उसकी मूल भाषा या संस्कृति में समझना मुश्किल-सा हो जाता है। कोशी अंचल में, जो रेणु की कथा-भूमि है, अनेक भाषाओं का मेल देखने को मिलता है। बिहार का वह क्षेत्र नेपाल की तराई एवं बंगलादेश की सीमा से सटे होने के कारण वहाँ अंगिका, मैथिली, भोजपुरी जैसी बिहारी भाषाओं के अलावे बंगला, भोटिया, नेपाली आदि भाषाओं और उनकी संस्कृतियों का भी मेल दिखता है। अब कोशी के उस अंचल विशेष की जीवन-कथा का आख्यान किसी भाषा विशेष में व्यक्त होकर उस पूरे क्षेत्र की पहचान और उसकी संस्कृति को व्यक्त नहीं कर सकता। ‘मैला आँचल’ में इसी अंचल विशेष की कथा रची गई है, जिसमें कचराही बोली का प्रयोग किया गया है। ध्यान रहे कि नागार्जुन का मिथिलांचल या शिवपूजन सहाय का भोजपुरी अंचल कचराही या मिश्रित भाषा-संस्कृति का क्षेत्र नहीं है, इसलिए उसकी आंचलिकता रेणु के कोशी क्षेत्र की आंचलिकता से नितांत भिन्न होगी। फिर रेणु सतीनाथ भादुड़ी को अपना कथा-गुरु मानते थे। उन्होंने लिखा भी है कि कथा-कहन की शैली उन्होंने सतीनाथ भादुड़ी से ही प्राप्त की थी। आंचलिक उपन्यास का पात्र व्यक्ति न होकर पूरा अंचल ही होता है और उसकी पूरी जीवनचर्या एवं संस्कृति को उद्घाटित करना आंचलिक उपन्यास का उद्देश्य होता है। इसी मानी में ‘रेणु’ के आंचलिक उपन्यास अपनी मौलिकता का दावा करते हैं।
‘मैला आँचल’ में ‘ढोढ़ायचरित मानस’ से आगे की काल-कथा है। भादुड़ी जी आजादी के पहले की ग्राम-कथा रचते हैं, तो रेणु आजादी के तुरंत पहले और बाद की कथा-संवेदना का आख्यान सुनाते हैं। दोनों के कथा-कहन की शैली एक होते हुए भी उसकी कथा-संवेदना और विजन में कोई मेल नहीं है। दोनों का टोन बिल्कुल अलग-अलग है। विडंबना देखिये कि जब ‘मैला आँचल’ की पांडुलिपि तैयार हुई तो उसे छापने को कोई बड़ा प्रकाशक तैयार नहीं था। पटना के अशोक प्रेस (जहाँ से ‘नई धारा’ छपती थी) ने उसे प्रकाशित करने की सहमति दी, लेकिन पहले से ही वहाँ पांडुलिपियों की भरमार थी। प्रकाशन में विलंब होता देख रेणु ने अपने पैसे खर्च कर उस उपन्यास को छपवाया। उपन्यास का वितरण शुरू हुआ। हिंदी में आए इस नए प्रकार के उपन्यास पर चर्चा शुरू ही होती कि रेणु के जवारी मित्र मधुकर गंगाधर ने उसकी निर्मम निंदा करनी शुरू कर दी, कि ‘रेणु ने बड़े कौशल से सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ‘ढोढ़ायचरित मानस’ के नीचे कार्बन रखकर इसका आलेखन किया है।’ मधुकर गंगाधर का मानना था कि ‘मैला आँचल’ की भाषा, उसके टोन, स्थापत्य, निष्कर्ष कुछ भी हिंदी से मेल नहीं रखता है। भादुड़ी ने पूर्णिया के ततमा, धांगड़ आदि की कथा जिस अंदाज, शक्ति, आदर्श एवं कलाकारिता से कही है, अगर पात्रों के नाम, घटनाओं की तिथि एवं उपशीर्षकों को अलग कर दिया जाए तो ‘मैला आँचल’ के लिखने का कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता है। मधुकर गंगाधर की इस निर्मम निंदा की पड़ताल की जानी चाहिए, क्योंकि इससे फणीश्वरनाथ रेणु की मौलिकता ही सामने आएगी और इससे आज साहित्याकाश में एक आंचलिक उपन्यास के रूप में सूर्य के समान उद्भाषित ‘मैला आँचल’ के यश में वृद्धि ही होगी!
मधुकर गंगाधर हिंदी के वरिष्ठ लेखक हैं और आज भी साहित्य में अपने पुराने पौरुष के साथ ही सक्रिय भी। उन्होंने आधुनिक कथा साहित्य के बदलते परिदृश्य को आदि से अंत तक देखा-परखा है और अपनी तरह से उसमें अपना योगदान भी करते रहे हैं। उन्हें निकट से जानने वाले कहते हैं कि वे अपने अंतस पर हुए चोट से अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति सही तरह से सही जगह पर कर नहीं पाते! दर्द कहीं होता है और उसे अभिव्यक्त कहीं और करते हैं। रेणु के संदर्भ में उन्होंने यही किया! हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद और रेणु जैसे शीर्षस्थ लेखकों की आलोचना वे निंदा की हद तक चाहे जितनी कर लें, इससे उन लेखकों के यश में तो कोई क्षय नहीं होता, लेकिन इससे मधुकर जी की अपनी लेखकीय गंभीरता जरूर शिथिल होती है। वे कहते रहें कि प्रेमचंद ने ‘गोदान’ के अलावे सब बकवास लिखा या फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने ‘ढोढ़ायचरित मानस’ के नीचे कार्बन कॉपी रखकर ‘मैला आँचल’ जैसा कालजयी उपन्यास लिखा, पर हिंदी संसार जानता है कि दोनों हमारे युगांतरकारी रचनाकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं से अपने समय का समाजशास्त्रीय आख्यान रचा। रेणु की रचनाओं से कोशी अंचल के मैला आँचल का जो समाजशास्त्रीय आख्यान हम पढ़ते हैं, वह वास्तव में आजादी के बाद के भारतीय समाज विशेषकर ग्राम-समाज का निर्मम यथार्थ ही है, जिसे देख-समझकर हम अपने समय और देश-समाज की एक वास्तविक समझ विकसित कर पाते हैं। इसी मानी में तो प्रेमचंद, रेणु जैसे लेखक का साहित्य हमारा मार्गदर्शन करते हैं!
Image : Portrait of Maria Adelaide of France in Turkish style clothes
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Artist : Jean Étienne Liotard
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