छात्र- जीवन में साहित्य का बीज

छात्र- जीवन में साहित्य का बीज

साहित्य केवल कविता-कहानी नहीं है, बल्कि जीवन की गति को पूरी संवेदनशीलता के साथ समझने का संस्कार है। जीवन की जटिलताओं से जूझते मनुष्य के मानस अथवा व्यक्तित्व में इस संस्कार के प्रवेश की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है, जिसका आमतौर पर अनुभव भी नहीं हो पाता। व्यक्ति का परिवार, परिवेश, शिक्षा-दीक्षा, उसकी सोच आदि सब मिलकर ही उसके संस्कार को गढ़ते हैं और इन सबके मूल में यह भावना होती है कि किसी आदमी में उसकी ‘आदमीयत’ को किस प्रकार जीवित रखा जाए। यह भावना ही किसी व्यक्ति को समाज में सदैव संतुलित रखती है जिससे देश-समाज की धारा सही दिशा में प्रवहमान होती रहती है। इसीलिए कहा जाता है कि साहित्य किसी मनुष्य की मनुष्यता को बनाए रखने का सर्वोत्तम साधन है। वह समाज एवं देश सुसभ्य तथा सुसंस्कृत माना जाता है, जहाँ साहित्य का समादर सबसे अधिक होता है। साहित्य किसी समाज का हृदय-भाग होता है, जिसके स्वस्थ रहने में ही संपूर्ण शरीर का हित निहित रहता है। अतः किसी साहित्य के प्रति अपनी रुचि विकसित करने के महत्त्व को समझते हुए इस भावना को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि उसके द्वारा हम अपनी जीवन-संस्कृति को भी समझने की चिंता में सक्रिय हैं।

किसी साहित्य के प्रति रुचि बढ़ाने या बनाने का काम अचानक नहीं होता, विशेषकर चरम वैज्ञानिक उपलब्धियों के आज के दौर में, जबकि भाँति-भाँति के वैज्ञानिक विस्फोटों के द्वारा समाज में वैचारिक-विस्फोट को गति देकर मनुष्य को संवेदनहीन बनाने की साजिश रची जा रही हो। आज का समाज बाज़ारवाद के ऐसे मोड़ पर संशय की स्थिति में खड़ा है, जहाँ से सभी रास्ते भावना-शून्य एवं संवेदनहीन दिशाओं में बढ़ते दिखाई देते हैं। मनुष्य पर नाना प्रकार के विचारों का बोझ है और वह बाज़ार-तंत्र के अर्थ-जाल में उलझा सुविधाभोगी ज़िंदगी जीने को विवश है। ऐसी विषम स्थिति में आज इस बात की महती आवश्यकता है कि मनुष्य में साहित्य की रुचि पैदा की जाए, ताकि उसके भीतर का ‘आदमी’ ज़िंदा रह सके।

‘आदमीयत’ को बचाए रखने के लिए साहित्य के प्रति रुचि का बढ़ना ज़रूरी है और इसकी कोशिश विद्यार्थी-जीवन से ही शुरू करनी होगी। विद्यार्थी-जीवन कच्ची मिट्टी का जीवन होता है, जहाँ से किसी भी प्रकार का निर्माण आरंभ होता है। निर्माण की प्रक्रिया जितनी नीरस होती है, उसका परिणाम उतना ही निरर्थक। निर्माण की प्रक्रिया को इस कारण भी सरस एवं लयपूर्ण बनाना ज़रूरी है। किसी विद्यार्थी में साहित्य के प्रति रुचि जगाने के लिए यह आवश्यक है कि उसे इस बात का एहसास होने नहीं दिया जाए कि साहित्य उसके पाठ्यक्रम का हिस्सा है। साहित्य के नाम पर जो कुछ पाठ्यक्रमों के माध्यम से छात्रों को परोसा जा रहा है, उसमें नीरस चीजों का भार अधिक है और इस कारण छात्रों को उससे अरुचि होने लगती है। कच्ची मिट्टी को सार्थक आकार देने में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि उसमें मिट्टी एवं पानी का सही मेल हो अन्यथा उसे किसी आकृति में ढालना मुश्किल हो जाएगा। साहित्य के प्रति रुचि जगाने के लिए छात्रों के साथ यही दृष्टि अपनानी होगी। साहित्य सरस होगा तो छात्र उसकी ओर आकर्षित होंगे, जबकि साहित्य का लक्ष्य होना चाहिए कि किसी छात्र को ऐसा संवेदनशील मनुष्य बनाया जाए कि उसमें भावनाओं का विकास हो तथा वह किसी मनुष्य को मनुष्य की गरिमा के साथ आदर दे सके।

आज का छात्र एक विकट संत्रास में जी रहा है। एक तरफ सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती बेरोज़गारी तथा दूसरी तरफ समाज के कुछ सुविधाभोगी वर्ग का विलासपूर्ण जीवन, जिसकी ओर छात्रों का सहज झुकाव हो जाता है। ऐसे में वह ऐसी पढ़ाई की तरफ खिंचता चला जाता है जो उसे सुख-सुविधा एवं आडंबरपूर्ण जीवन जीने की सीढ़ियाँ प्रदान करती है। प्रतियोगिता दर प्रतियोगिता वाली पढ़ाई में साहित्य काफी पीछे छूट जाता है। स्कूलों में नवीं-दसवीं कक्षा का छात्र सालों भर विज्ञान-गणित की पुस्तकों में खोया रहता है, जबकि परीक्षा निकट आने पर अनचाहे-अनमने भावों के साथ साहित्य की पुस्तकों को भी वह टटोल लेता है। दुर्भाग्यवश स्कूलों में साहित्य की पढ़ाई में भी वह लगन नहीं देखी जाती, जो उसके मन में साहित्य के प्रति रुचि जगा सके। ऐसे असंख्य छात्रों से मुझे बातें करने का अवसर मिलता है, जिन्हें साहित्य के विषयों में 75-80 या उससे भी अधिक अंक तो मिले, किंतु साहित्य में उनकी रुचि नहीं देखी गई। वर्ग में जिन छात्रों में साहित्य के प्रति रुचि होती है, उन्हें उतने अंक नहीं मिल पाते। कभी-कभी मैं उस स्थिति को समझ नहीं पाता कि जिन छात्रों को उसमें रुचि होती है उन्हें अधिक अंक नहीं मिल पाते, जबकि जिन छात्रों को अधिक अंक मिलते हैं उनकी रुचि साहित्य में नहीं होती–ऐसा क्योंकर होता है? साहित्य के विषयों में अधिक अंकों का आ जाना तथा उसमें रुचि होना, ये दोनों दो बातें हैं। साहित्य को गणित की तरह पढ़ने से अधिक अंक तो मिल जाते हैं, किंतु वह उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता, जिसके लिए साहित्य को परीक्षा से जोड़ा गया। ऐसे में साहित्य के अध्यापकों का दायित्व बढ़ जाता है कि वे अध्यापन का कोई ऐसा मार्ग निकालें कि छात्रों में साहित्य के प्रति रुचि भी जगे और अंक भी अच्छे मिलें। साहित्य पढ़कर भी यदि छात्रों की भावनाओं का विकास न हो, वे संवेदनशील न हों, हर चीज यहाँ तक कि रिश्तों-संबंधों को भी वे भौतिक विलासिता से जोड़कर ही देखना सीखें और इस तरह वे आदमीयत से दूर होते चले जाएँ…तो मानना चाहिए कि साहित्य की ओर उन्हें हम उन्मुख ही नहीं कर पाए। गणित-विज्ञान की मेधा छात्र को भविष्य में सुख-सुविधा दिला सकती है, किंतु उसे ‘आदमी’ तो साहित्य ही बनाता है। ऐसे विषय की ओर उसे उन्मुख न कर पाना, उसमें उसकी भूख पैदा न कर पाना हमारी सबसे बड़ी विफलता मानी जाएगी।

स्कूली पाठ्यक्रमों में साहित्य के नाम पर जो कुछ पढ़ाया जाता है, उसका संयोजन, अध्यापन एवं उसके प्रस्तुतिकरण में लय का होना आवश्यक है। लय ही वह परिवेश बनाता है, जिससे साहित्य की पढ़ाई हो सकती है। साहित्य का संबंध रचना से होता है, जबकि प्रत्येक छात्र में रचनात्मक क्षमता जन्मजात होती है। योग्य शिक्षक अपने अध्यापन के द्वारा दोनों में एक सेतु का काम करते हुए उसके फलाफल को एक-दूसरे से जोड़ देता है। अपनी मेधा का रचनात्मक विकास होते देख छात्र उसकी ओर उन्मुख हो जाता है। यहीं से छात्र में साहित्य की रुचि उत्पन्न हो जाती है। अब इस रुचि को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि विद्यालय से किसी पत्रिका का प्रकाशन हो, साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ, समस्या-पूर्ति जैसी विधि के द्वारा समय-समय पर ऐसी प्रतियोगिताएँ हों जिनमें छात्रों को अपनी रचनात्मक मेधा को दिखाने का अवसर मिले, तुकबंदी की युगलबंदी हो, कथा-लेखन की कार्यशालाएँ हों आदि आदि। वाचन-लेखन की क्षमता का विकास भी साथ-साथ होना चाहिए। ये सभी उपाय छात्रों को साहित्य की ओर उन्मुख करने के लिए हैं, किंतु इसे स्थायित्व मिलता है भारतीय साहित्य एवं संस्कृति की विरासत से छात्र के साहित्य-उन्मुखीकरण को जोड़कर। विरासत के साहित्य विशेषकर आध्यात्मिक साहित्य से छात्रों को ज़रूर परिचित कराना चाहिए, ताकि उनके मानसिक संस्कार का विकास हो। यों भी एक बार यदि छात्र साहित्य की ओर उन्मुख हो जाए तो भविष्य में जीवन की जटिलताओं से जूझते हुए भी वह उसकी रसधारा से विलग नहीं हो पाएगा। हिंदी के एक गीतकार ने एक जगह लिखा है–

‘क्या करेगा प्यार वह भगवान को
क्या करेगा प्यार वह ईमान को
जन्म लेकर गोद में इनसान की
प्यार कर पाया न जो इनसान को’

इनसान को प्यार करने की भावना छात्र में आ गई, तो साहित्य के प्रति रुचि होने से जो संस्कार उसमें बनेगा, वह जीवन भर बना रहेगा। वह मनुष्य होकर पूरी संवेदना एवं भावना की ऊष्मा के साथ जिएगा। उसका जीवन सार्थक हो जाएगा।

साहित्य अपने समय एवं समाज का दर्पण होता है। किसी समाज की अच्छी-बुरी चेतना का अक्स हम साहित्य में पाते हैं। साहित्य का सच समाज का सच होता है। ये सब होते हुए भी साहित्य में कल्याण की भावना ही मुखर होती है। जिस साहित्य में सहित अर्थात समाज की हित-भावना न हो, उसकी सार्थकता नहीं रह जाती है। समाज तथा जीवन में आदर्श स्थिति की चिंता यदि किसी को होती है, तो वह साहित्य ही है। इसलिए सत्य, शिव एवं सुंदर की कल्पना ही साहित्य के मूल में होती है। कल्पना क्योंकि अमूर्त्त होती है, इसलिए मनोवांछित फल की आशा के साथ लोकमन में उसके मूर्त्त होने की बलवती इच्छा बनती-मिटती रहती है। कल्पना मनुष्य की रचना-यात्रा को भी आयाम देती है। इन सब कारणों से छात्रों में कल्पनाशीलता अधिक होती है। जिन छात्रों में साहित्य के प्रति लगाव होता है, वह कल्पना की मदद से अपनी रचनात्मक क्षमता का विकास कर लेता है तथा जीवन के विविध पड़ावों पर सफलता उसका अनुसरण करती है। जो छात्र कल्पनाजीवी नहीं होते, वे अपेक्षाकृत अपने व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास से वंचित रह जाते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि साहित्य किसी व्यक्ति के जीवन में पग-पग पर उसके संपूर्ण विकास में सहायक बनता है। विद्यार्थी-जीवन से ही साहित्य के प्रति लगाव के बढ़ने से अन्य सुपरिणाम भी जीवन की आपाधापी में मिलते रहते हैं और जिसका समय-समय पर विस्तार होता रहता है। विश्व के अनेक महापुरुषों के जीवन में झाँकने से पता चलता है कि छात्र-जीवन से ही साहित्य की ओर उन्मुख होने के कारण ही उनमें संवेदना एवं भावनाओं का वह आवेग आ पाया, जो उन्हें जीवन में सिद्धि के शिखर तक ले जाने में सहायक बना। महापुरुषों की जीवनगाथा को देखने से लगता है कि वगैर संवेदनशील एवं भावनात्मक हुए जीवन के साध्य को नहीं समझा जा सकता है और उसकी नींव छात्र-जीवन में ही साहित्य के प्रति लगाव पैदा करने से पड़ जाती है। बर्टेड रसेल ने भी एक जगह लिखा है कि साहित्य से लगाव आरंभिक जीवन में ही न हो पाया तो मनुष्य सब कुछ होकर भी कुछ न हो पाने का दंश झेलता रहता है।

एक बार पटना के एक पब्लिक स्कूल की वार्षिक सभा को संबोधित करते हुए स्वामी चिदानन्द जी महाराज ने कहा था कि शिक्षा मनुष्य की आत्मा के सौंदर्य को उद्घाटित करती है। निश्चय ही स्वामी जी के इस कथन के मूल में यह भावना होगी कि साहित्य के प्रति लगाव से निर्मित संस्कार ही छात्रों में शिक्षा की वह ज्योति जलाते हैं जो उनकी आत्मा के सौंदर्य को उद्घाटित कर सके। आखिर, बीज का आरोपन सदैव नरम मिट्टी में ही होता है। छात्र-जीवन वह नरम मिट्टी है, जिसमें साहित्य का बीज डालने से जो फसल तैयार होगी, उसमें देश-समाज की चिंता के साथ-साथ राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी होगी। शायद वह समय आ गया है, जिसकी शुरुआत अब हम पवित्र हृदय से कर सकते हैं। इन्हीं भावनाओं के साथ ‘नई धारा’ ने युवाओं की सर्जनात्मकता को नवीन आयाम देने के उद्देश्य से देशभर में फैली युवाओं की सर्जनात्मकता को टटोलने का प्रयास किया।

देशभर में 18 से 30 वर्ष के बीच के आयुवर्ग के 4 सौ से अधिक युवा कवियों ने अपनी हिस्सेदारी निभाई, जिनमें सात प्रतिनिधि कवियों का चयन किया गया। उन युवा कवियों को दिल्ली में आयोजित ‘उदयोत्सव’ में काव्य पाठ करने का अवसर दिया गया। इसी अंक में हम उन युवा कवियों की कविताओं को प्रकाशित भी कर रहे हैं। इस प्रकार नई पीढ़ी में साहित्य-संस्कार भरने और उसे उभारने का हमारा यह प्रयास रहा है, जो आगे भी जारी रहेगा।


Image : Writing boy
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Artist : Albrecht Anker
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शिवनारायण द्वारा भी