व्रात्य सभ्यता और अंगिका

व्रात्य सभ्यता और अंगिका

पूर्व वैदिक काल में ऋग्वेद की रचना से भी पहले अंग देश में एक सभ्यता का जन्म हुआ, जिसे अपने व्रात्यकांड में अथर्ववेद ने व्रात्य सभ्यता के नाम से चिह्नित किया। संस्कृत के विद्वान उपनयन आदि संस्कारविहीन लोगों को व्रात्य मानते हैं–‘व्रात्योपनयनादि संस्कारविहीनः पुरुष।’ आज भी संस्कृत के पंडित व्रात्य को इसी अर्थ में लेते हैं। कोशकारों ने भी व्रात्य का अर्थ उस द्विज से जोड़ा है, जिसका समय पर यज्ञोपवीत संस्कार के न होने से वह पतित हो गया है अर्थात जिसे वैदिक कृत्यादि करने का अधिकार न रह गया हो। ऐसे लोगों को जानने के लिए अथर्ववेद के व्रात्यकांड में लगे 17 सूक्तों के 206 मंत्रों का अध्ययन करना चाहिए।

अंगिका साहित्य के विद्वान डॉ. तेजनारायण कुशवाहा के एक अध्ययन के अनुसार व्रात्य, कहिए सभी समूहों के हितकारी परमात्मा ने अपने प्रजापालक के यथारूप को उकसाया–‘व्रात्यः आसीदीयमान एवं सू प्रजापति समैरयत्’ अर्थात उस प्रजापति (परमात्मा) ने सुंदर वरणीय सामर्थ्य अथवा सुवर्ण समान प्रकाश स्वरूप को अपने में देखा और उसको प्रकट किया। ‘इस प्रापतिः सुवर्णमात्पन्नपश्यत् तत्प्राजनयत्।’ वह एक हुआ। वह प्रधान स्वरूप हुआ। वह वृद्ध हुआ। वह अत्यंत वयोवृद्ध हुआ। वह बह्म (बड़ा फैला हुआ व्यापक) हुआ। वह तय हुआ। वह सत्य (विद्यमान जगत का हितकारी कारण रूप) हुआ। उस स्वरूप के साथ वह परमात्मा प्रकट हुआ–‘तदेकमभवत् तल्लरभाम भवत, तत्महृदयवत तज्जयेष्ठम भवत। तद् ब्रह्माभवत तत् तपोऽभवत् तत्सत्य भवेत् तेन प्राजायत्।’ वह बढ़ा। उसकी अपनी साप्रर्श्य शक्ति प्रकट हुई। वह महान हुआ। वह महादेव हुआ–‘सोऽवर्धत् स महान अभवत् स महादेवोऽभवत्।’ उसने सभी ओर से ईश्वर भाव को पाया और वह परमेश्वर हुआ–‘स देवनानीशं पर्येत स इशानोऽभवत्।’ वह अकेले व्रात्य हुआ। संसार रचने की सामर्थ्य पाई। जीवों को उत्पन्न करने में वही समर्थ हुआ–‘स एक व्रात्योऽभवत् स धनरा छत्र त देवेन्द्रधनुः।’

उस व्रात्य से ब्रह्म, क्षत्र, सूर्य, चन्द्रादि नक्षत्र और जीव जगत की सृष्टि हुई। इस प्रकार संसार की पहली सभ्यता के उगने की भूमि अंग है। अंग-मगध है। इस सभ्यता से समीकृत अथर्ववेद के मंत्रों का विवरण इस प्रकार है–सूक्त संख्या 1 में 8 मंत्र, 2 में 22 मंत्र, 3 में 11, 4 में 18, 5 में 16, 6 में 26, 7 में 5, 8 में 3, 9 में 3, 10 में 11, 11 में 11, 12 में 11, 13 में 14, 14 में 24, 15 में 9, 16 में 9 और सूक्त संख्या 17 में 5 मंत्र अर्थात कुल 17 सूक्तों में 206 मंत्र हैं।

अथर्ववेद का व्रात्य (महादेव) ही ऋग्वेद का पुरुष हुआ, जो आगे चलकर महात्मा कबीर जैसे निर्गुण संतों का सत्यपुरुष कहलाया। संसार की पहली व्रात्य सभ्यता के अंग देश की भाषा अंगिका है, जो भाषाशास्त्र के अनुसार प्राच्या में आती है। प्राच्या की चर्चा व्याकरणाचार्य पाणिनि (ई.पू. 500) ने एक भाषा वर्ग विशेष में की है–‘प्राच्या भगोयौ धैयादिभ्यः।’ (सूत्र-4.1.178) आचार्य भरत (पहली शताब्दी) ने प्राचीन भारतीय भाषाओं को सात श्रेणियों में रखा–‘भागध्यवन्ति का प्राच्या शूरसेन्यदर्ध मागधी, वाह्लिका दाक्षिणात्या च सप्त भाषा प्रकीर्तिताः।’ ‘अष्टाध्यायी’ के काशिका वृति भाष्यकार वामन/जयादित्य (सातवीं शती) ने प्राच्या में पांचाली, वैदर्भी, आंगी, वांगी, मागधी एते प्राच्या (सिद्धांत कौमुदी) से आंगी की पहचान की है। बौद्ध ग्रंथ ‘ललित विस्तर’ में 64 लिपियों की नाम गणना में चौथे स्थान पर आंगी लिपि को रखा है! जो बताता है कि आंगी लिपि और उसकी भाषा अंगिका कितनी पुरानी है! डॉ. ग्रियर्सन ने अंगिका की पचान ‘धिकाधिका’ के रूप में की थी, जबकि पंडित राहुल सांकृत्यायन ने इसे ‘अंगिका’ नाम से पहचान दी।

अंगिका अंग क्षेत्र की जनभाषा है, जिसका फैलाव वर्तमान में बिहार और झारखंड प्रदेश के पाँच प्रमंडलों के 21 जिलों में है। इसके अलावे देश के अन्य भागों सहित दुनिया के अनेक मुल्कों में अंगिकाभाषी बड़ी संख्या में फैले हुए हैं। अंग क्षेत्र की भाषा, संस्कृति और भूगोल का इतिहास काफी पुराना है। देखा जाए तो अंग देश का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है–‘गंधारिभ्यं मूजवदीभ्योङ्गेभ्यो मगधेभ्यः प्रेष्यन जनमिव शेवधिं तवमानं परिदद्मसि।’ (5.22.14) अथर्ववेद की इस ऋचा में उल्लिखित अप्रशंसात्मक कथन से जानकारी मिलती है कि अथर्ववेद के रचनाकाल तक अंग क्षेत्र मगध की भाँति ही आर्य सभ्यता के बाहर था। तब उसकी सीमा उत्तर प्रदेश से पंजाब तक फैली थी। महाभारत काल में अंग और मगध एक ही प्रदेश के दो भाग थे। महाभारत के शांति पर्व 29, 35 (अंगं बृहद्रथं चैव मृतं सृंजय सुश्रुम) में मगधराज जरासंध के पिता बृहद्रथ को ही अंग क्षेत्र का शासक बताया गया है। शांति पर्व 5.6-7 (प्रीत्था ददौ स कर्णाय मालिनीं नगरमथ, अंगेषु नरशार्दूल स राजासीत् सपत्नजीत्। पालयामास चंपां च कर्णः परब्रलार्दनः, दुर्योधन स्यानुमते तवापि विदितं तथा) से स्पष्ट है कि जरासंध ने कर्ण को अंग स्थित मालिनी या चंपापुर, जो अंग देश की राजधानी थी, प्रदान कर उसे वहाँ का राजा मान लिया था। तत्पश्चात दुर्योधन ने भी कर्ण को अंगराज घोषित कर दिया था। कालांतर में मगध के राजकुमार बिंबिसार ने अंगराज ब्रह्मदत्त को मार कर उसका राज्य मगध में समाहित कर लिया। बिंबिसार अपने पिता के निधन होने तक अंग क्षेत्र का शासक भी रहा।

अथर्ववेद उत्तर वैदिककाल की रचना है। तब तक महाजनपद बनना आरंभ हो चुका था। तत्कालीन 16 महाजनपदों में अंग देश भी एक महाजनपद था, जिसकी सीमा असम, म्यांमार आदि को छूती थी। उस विशाल क्षेत्र की भाषा अंगिका थी। आठवीं सदी के विद्रोही कवि सरहपा अंगिका भाषा के प्रथम कवि माने गए। आधुनिक काल में राहुल सांकृत्यायन ने पाँच प्रमंडलों (मुंगेर, भागलपुर, पूर्णिया, कोसी और संथाल परगना प्रमंडल) के 21 जिलों में बोली जाने वाली भाषा के रूप में अंगिका को चिह्नित किया। अंग क्षेत्र की संस्कृति व्रात्य सभ्यता से जुड़ी रही है, जिस कारण आर्यों ने इसका काफी उपहास उड़ाया। कहते हैं आर्यवीर जब मध्य एशिया से जम्बूद्वीप (भारत) की ओर प्रस्थान कर रहे थे, तब तक लोहे का आविष्कार हो चुका था। वे वन प्रांतरों को लोहे के हथियारों से नष्ट करते हुए नदी किनारे पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ते गए। विजीत क्षेत्रों में वे जनपदों का निर्माण भी करते गए। इस क्रम में पहला महाजनपद तक्षशिला का उसने निर्माण किया और पूरब दिशा में गंगा नदी के किनारे-किनारे बढ़ते हुए अंतिम अंग महाजनपद स्थापित किया। उसके आगे समुद्र था, जो कालांतर में जल संकोच के कारण बंगाल की खाड़ी तक जा पहुँचा। तब आर्य वीरों और स्थानीय व्रात्य सभ्यता के शूरवीरों के बीच महासंग्राम हुआ, जिसका सुर-असुर संग्राम के रूप में पुरा कथाओं में वर्णन मिलता है। आर्यवीर सुर (देव) और व्रात्य सभ्यता के शूरवीर असुर (दानव) कहलाए। यह महासंग्राम मंदार गिरि पर हुआ। असुर अंततः लोहे के हथियारों का आक्रमण झेल नहीं पाए और वन-पर्वतों में जा छिपे। आर्य संस्कृति से घुलनशीलता के आभाव में वे पिछड़ते चले गए।

अंग महाजनपद का गौरव सर्वज्ञात है। वह क्षेत्र सदैव उपेक्षित रहा। दानवीर कर्ण के राजा बनने के बाद उसकी चर्चा फैलनी शुरू हुई। आज भी अंग क्षेत्र का प्राचीन गौरव शिक्षा, संस्कृति, भाषा, साहित्य आदि में देखा-परखा जा सकता है। भारतीय स्वाधीनता के बाद भी अंग क्षेत्र का पर्याप्त विकास नहीं हो पाया। उस क्षेत्र की भाषा और संस्कृति की समृद्ध विरासत के बावजूद उसकी निरंतर उपेक्षा होती रही। वज्जि महाजनपद का एक क्षेत्र मिथिला की संस्कृति भी समृद्ध रही है, जिसने आजादी के बाद अपनी राजनीतिक सत्ता के वर्चस्व का लाभ लेते हुए अपनी भाषा मैथिली को पर्याप्त सम्मान दिलाया। तेरहवीं शताब्दी के कवि विद्यापति मैथिली भाषा के कवि हैं, जिनके प्रति उस पूरे क्षेत्र में अगाध सम्मान का भाव है। कालांतर में मिथिला भाषियों ने चतुरतापूर्वक अंग और वज्जि क्षेत्र की भाषा को मैथिली की उपभाषा बताकर मैथिली के लिए राज्याश्रय प्राप्त कर लिया, जिस कारण वह बिहार लोकसेवा आयोग में तो शामिल हुई ही, भारत सरकार की अष्टम सूची में भी उसे दर्ज कर लिया गया। इस तरह मात्र दो-चार जिलों की भाषा होकर भी वह साजिशन राज्याश्रय पाने में सफल हो गई, जबकि भाषायी गौरव के अभाव में अंगिका 21 जिलों में बोली जाने के बावजूद उपेक्षित रह गई।

आज हम समय के एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं, जहाँ अंग क्षेत्र की भाषा के प्रति गौरव बोध जागृत कर ही उस भाषा को उसका सम्मान दिलाया जा सकता है। उसे ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के साथ रोजी-रोजगार और स्वाभिमान की भाषा बनानी होगी। यह काम अंगिका भाषा के साहित्यकारों को सम्मान देकर ही किया जा सकता है। जब तक अपनी संस्कृति, कला और साहित्य के प्रति हमारे अंदर स्वाभिमान और गौरव का भाव जाग्रत नहीं होगा, तब तक उस भाषा को राज्याश्रय दिलवाने की ओर हम आगे नहीं बढ़ सकते। हमें अपने अंग क्षेत्र और उसकी भाषा-संस्कृति पर अभिमान करना ही होगा!


Image: Vratya Civilization And Angika
Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
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शिवनारायण द्वारा भी