गजलों के गाँव में

गजलों के गाँव में

गजलों के गाँव का नया बाशिंदा हूँ। बीते कुछ वर्षों से ही उसके प्यार में हूँ। हालाँकि छात्र जीवन में गजलें खूब पढ़ता रहा। गुलाम रब्बानी ताबाँ की गजलों से शुरू होकर उस दुनिया का रस पाना आरंभ किया तो मीर, गालिब से लेकर फिराक गोरखपुरी तक सबको पढ़ गया। अपने शहर कटिहार के जिस जिला केंद्रीय सार्वजनिक पुस्तकालय का सदस्य था, वहाँ गजलों की जितनी पुस्तकें मिलीं, सबको चाट गया। अपने किशोरवय में जनवादी संगठनों से जुड़ाव के कारण रूसी-चीनी साहित्य भी खूब पढ़ा करता। उन्हीं दिनों गजल को लेकर कहीं डॉ. रामविलास शर्मा का एक वक्तव्य पढ़ा था–‘गजल तो राजदरबारों से निकली हुई विधा है, जो प्रगतिशील मूल्यों को व्यक्त करने में अक्षम है।’ उसी वक्तव्य के कारण मैं उर्दू गजलों से दूर होता चला गया।

कहते हैं गजल विधा भारत को ईरान की देन है। गजलों में अरबी का इश्क-ए-मजाजी फारसी में इश्क-ए-हकीकी हो गया। गजल अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है महबूब का महबूबा से गुफ्तगू अर्थात प्रेमालाप करना। अरबी गजल का पहला शाइर उल्कैस को माना जाता है, जिसने अपनी महबूबा अमीजा, जो उसकी चचेरी बहन थी, के लिए जो शायरी की, वही गजल कहलाई। यों भी महबूबा से की गई गुफ्तगू में रोमांस अपने परवान को चढ़ता हुआ दिलों दिमाग को मुहब्बत की खुशबू से तर कर देता है। प्रेमिका से प्यार की वे तमाम मनःस्थितियाँ गजलों में आई, जिसने पाठकों को खासा प्रभावित किया। देख जाए तो कम से कम शब्दों में लय और रवानी के साथ दो पंक्तियों में भरपुर बात कहने की हूनरमंदी ही शेर है और इन्हीं शेरों की मजलिस गजल में लगती है। अब जिस मजलिस में इश्क-मोहब्बत की रंगीनियों के साथ शराब का दरिया बहता हो, उसमें भला कौन स्नान करना नहीं चाहेगा! देखते ही देखते गजल की लोकप्रियता उसकी मूल भाषा अरबी-फारसी की सीमा लाँघ कर अन्य भाषाओं में फैलती चली गई। हिंदी में भी गजल की ख्याति खूब परवान चढ़ी।

हिंदी गजल में शिल्प तो उर्दू का रहा, लेकिन कथ्य बदल गया। शिल्प की बात करें, तो गजल एक ही बहर और वजन के अनुसार लिखे गए शेरों का समूह है। पहले शेर को मतला और अंतिम को मक्ता कहते हैं। आमतौर पर मक्ते के शेर में शाइर अपना नाम रखता है। माना जाता है कि एक गजल में पाँच से पच्चीस शेर तक हो सकते हैं। गजल प्रायः वर्णिक छंद में होता है। 2 से 5 वर्णों की इकाई बनती है, जिसे अरकान कहा जाता है। मसलन दो लघु को फउ तथा दो दीर्घ को फेलुन कहते हैं। लघु-दीर्घ को फऊ और दीर्घ-लघु को फात कहा जाता है। गजल के शिल्प को साधना बहुत मुश्किल नहीं है, गरचे लगन और अभ्यास का धैर्य हो! गजल के व्याकरण में शिल्प का जितना महत्त्व हो, पर हिंदी गजल में कथ्य को साधकर उसका कहन कौशल ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। आपातकाल के दिनों में दुष्यंत कुमार जिस हिंदी गजल के साथ अवतरित हुए, उसके कथ्य और मिजाज में अग्निधर्मा तेवर आ गया। कहना चाहिए कि दुष्यंत कुमार के बाद हिंदी में गजल सामयिक, जनोपयोगी तथा अपने परिवेश एवं अपनी धरती से जुड़ गई। प्रतिरोध का स्वर उसमें उत्तरोत्तर परवान चढ़ता गया।

हिंदी गजल के कथ्य को देखें, तो बीते दो-तीन दशकों में उसने भारतीय समाज की तमाम सामयिक समस्याओं सहित खिलाफत के स्वर को अंगीकार करते हुए अपने को जनप्रिय बनाया है। अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ ने एक जगह लिखा है कि ‘जर्जर गजल ने अपना कायाकल्प करके और रंगभूमि की झंकार को विस्मय के शून्य में सुलाकर आजकल आम आदमी की समस्याओं को शोषित-दलित वर्ग की दुरावस्थाओं के चित्रण एवं उनके विवरण की युक्तियाँ बतलाने का दायित्व वहन कर रखा है।’ (गजल से गजल तक, पृ.-18) हिंदी गजल की लोकप्रियता के कारणों की पड़ताल करते हुए चर्चित गजलकार अनिरुद्ध सिन्हा का मानना है कि ‘समकालीन हिंदी गजलें उत्तर आधुनिकतावाद एवं वैश्वीकरण का प्रतिवाद करती है। जीवन के निश्चित एवं एकात्मक रूप का प्रतिपादन आज अनिवार्य है। मनुष्य की आजादी और गरिमा से संबंधित बुनियादी बातें आज गायब होती जा रही हैं। विमर्श के नाम पर आदमी आदमी में भेद किया जा रहा है। जातीय दृष्टिकोण प्रबल हो रहा है। इधर नवसाम्राज्यवादी देश भारत की संप्रभुता को हथियाना चाह रहे हैं। गजल की लोकप्रियता का प्रमुख कारण है कि यह अपनी संस्कृति के पक्ष में है। गजल की चिंता आदमी के नैतिक हक के रूप में देखने की है। गजल को सांस्कृतिक स्वाधीनता का पर्याय माना जाए तो गलत नहीं होगा।’ (हिंदी गजल का नया पक्ष, पृ.-25) जिस सांस्कृतिक स्वाधीनता की बात अनिरुद्ध सिन्हा ने की है, वह अपनी विरासत और परंपरा के प्रगतिशील मूल्यों से जुड़कर ही अर्जित की जा सकती है और इसे हिंदी गजल ने आत्मसात करते हुए अपने जनपक्षधर मूल्यों को उद्भासित किया है। कहना चाहिए कि जो अपनी जड़ों से जुड़ा होता है, वही वर्तमान के कठोर संघर्षों का सामना करते हुए बेहतर भविष्य के सपने देख सकता है। हिंदी गजलों में इस सपनों के स्वर को आप सुन सकते हैं।

कोई भी रचना केवल अपनी तात्विकियों से बड़ी नहीं होती। तत्त्वों से रचना बनती जरूर है, लेकिन वह बड़ी होती है द्वंद्वों के उत्सर्जन से! द्वंद्व के उत्सर्जन के लिए सामाजिक अनुभवों की परिपक्वता के साथ-साथ भविष्य को पढ़ने की दक्षता भी चाहिए होती है। इन दोनों के मेल से रचनाकार को दृष्टिसंपन्नता मिलती है। देश-दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को जानने-समझने का विवेक, समाज, इतिहास और दर्शन के रसायन से प्राप्त होता है, जो मानविकियों के गढ़ने में सहायक बनता है। इस पूरी प्रक्रिया को अपने समय और समाज की चेतना से गहरे जुड़कर नैसर्गिक रूप में अर्जित किया जा सकता है। समकालीन हिंदी गजलों से गुजरते हुए स्वभावतः इस तात्विक प्रक्रिया बोध को महसूस किया जा सकता है। नवें दशक में मैं शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, बलवीर सिंह ‘रंग’, बालस्वरूप राही, रामदरश मिश्र, शेरजंग गर्ग, सूर्यभानु गुप्त, गोपालदास नीरज, दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी सहित जाने कितने ही हिंदी गजलकारों को पढ़ते हुए उस विधा के प्रति मुग्ध होता रहा। मुझे याद है, उन दिनों ‘साये में धूप’ तथा ‘बाजार को निकले हैं लोग’ शीर्षक गजल की पुस्तकों ने मुझे इस कदर प्रभावित किया कि मैंने उनकी दर्जनों प्रतियाँ खरीद कर उपहार स्वरूप अपने मित्रों-हितैषियों को भेंट की। उन पुस्तकों के एक-एक शेर पर मेरा कवि मन बासों उछालें मारता। हिंदी गजल की उस पीढ़ी के बाद जिन गजलकारों ने मुझे प्रभावित किया, उनमें ज्ञानप्रकाश विवेक, अनिरुद्ध सिन्हा, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, कुँवर बेचैन, रामकुमार कृषक, नचिकेता, वर्षा सिंह, बी.आर. विप्लवी, हरेराम समीप, विज्ञानव्रत, अशोक मिजाज, वशिष्ठ अनूप, कुमार नयन सहित बहुतेरे नाम हैं। इन गजलकारों को पढ़ते हुए ही हिंदी गजल से मेरा प्रेम बढ़ता गया। कभी डॉ. रामविलास शर्मा की गजल विषयक टिप्पणी पढ़ने से जो उस विधा के प्रति विकर्षण का भाव मन में उत्पन्न हुआ था, इन गजलकारों को पढ़ने के बाद वह जड़ से खत्म हो गया।

हिंदी गजलों में अपना समय बोलता है। देश-समाज जिन परिस्थितियों तथा वैचारिकियों से गुजर रहा है, उसकी अनुगूँज इस विधा में सुनाई पड़ती है। मनुष्य का संघर्ष और उसकी संवेदना भी वहाँ है। वहाँ ‘सुख-दुःख’ के वे तमाम पथ हैं, जिनसे होकर मनुष्य को अपने जीवन में गुजरना पड़ता है। बकौल डॉ. उर्मिलेश–‘हिंदी गजल अपने सहज, निष्फल, जीवंत और परिचित स्वरूप के जरिये आज के मनुष्य के दुःखों, संघर्षों और संवेगों से हमारा नितांत सीधा और अंतरंग साक्षात्कार कराती है।’ (गजल से गजल तक, पृ.-11) डॉ. उर्मिलेश के इस कथन के मूल में जीवन-संघर्ष से मनुष्य के जूझने की वो तमाम प्रक्रिया है, जिनसे होकर वह सफलता की ओर निरंतर गतिशील होता है। कहना चाहिए कि ‘जीवन की तमाम विसंगतियों, त्रासदियों और संघर्षों को बड़ी आत्मीयता और पैनेपन से उकेरने वाली हिंदी गजल अपने समकाल में अपने पुरातन हुस्न और इश्क की शायरी को अर्थात्मकता देने वाले परंपरागत स्वरूप को त्याग कर पूरी तरह से ‘प्रगतिशीलता’ को अभिव्यक्ति देने में सक्षम होकर उभरी है।’ लाक्षणिकता, व्यंजकता, प्रतीकात्मक और जीवन से जुड़े बिंबों के सहारे हिंदी गजल में आए कथ्य यों ही दिलों में उतर मष्तिष्क को नहीं झकझोरते, बल्कि कहन कौशल का उसमें अद्भुत सामंजस्य होता है। केवल सामाजिक-राजनीतिक ही नहीं, आध्यात्मिक, प्रेमपरक, सांस्कृतिक आदि संदर्भ भी इतिहास चेतना के साथ हिंदी गजल के कथ्य-संसार के विषय हैं, बल्कि अनिरुद्ध सिन्हा की भाषा में कहें तो हिंदी गजल की प्रगतिशीलता भारतीय जीवन पद्धति का निषेध नहीं है। एक तथ्य यह भी है कि हिंदी गजल के कथ्य का उत्स भारतीय संस्कृति, यहाँ की ग्राम्य चेतना, उदारवादी दर्शन तथा पौराणिक आख्यानों के समकाल से जोड़ती प्रवृत्तियाँ हैं। हमारे गजलकार भारतीय परिवेश से चुनकर ही नई उपमाओं, नए बिंबों-प्रतीकों का प्रयोग कर रहे हैं। समकालीन हिंदी गजलों में साकी, शराब, मैखाने आदि की जगह गंगाजल में धुले तुलसीदल, पीपल की छाँव, नीम के दर्द और आम आदमी की धूप से तपती संगमरमरी देह पर अमृत की तरह चमकते हुए स्वेद कणों का उल्लेख मिलता है, जो न केवल हिंदी गजल की स्वर्णिम संभावनाओं को रेखांकित, अपितु, बेहतर भविष्य को भी रूपायित करता है।

हिंदी गजल निरंतर लोकप्रिय होती जा रही है। कम से कम शब्दों में जीवन-जगत के व्यवहार में अपने को व्यक्त कर पाने का कौशल इस विधा में होने के कारण इसकी लोकप्रियता में इजाफा करता है। कहें कि गजल के शेरों में मंत्र शक्ति होती है, जो किसी भी व्यक्ति को गहरे प्रभावित करता है। उसकी जीवन-दिशा तक परिवर्तित कर देता है। हिंदी गजल के इन प्रभावों को देखते हुए उसके प्रति हमारा आकर्षण स्वभाविक रहा। यों भी हिंदी गजल आज जिस मुकाम पर है, उसे नित्य नई ऊँचाई देने में अनगिन गजलकारों का योगदान रहा है। जैसे हमने पश्चिमी मुल्कों से अनेक विधाओं को स्वीकार कर उसे अपने रंग में ढालकर जनप्रिय बनाया, वैसे ही गजल को भी हिंदी के रंग में अपना बनाकर उसे जनग्राह्य बनाया है। हिंदी क्षेत्र का मिजाज प्रतिरोध का रहा है। वर्तमान हिंदी गजल में भी वही स्वर मुखरित होता हुआ जनप्रिय हो रहा है। सड़क से संसद तक इसका प्रभाव अपना रंग दिखा रहा है। आम जनता तो आम जनता, बड़े-बड़े नेता भी अपने उद्बोधन में शेरों को शामिल कर अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बना रहे हैं। महाकवि नीरज मानते रहे कि गजल न तो प्रकृति की कविता है, न अध्यात्म की, वह हमारे उसी जीवन की कविता है, जिसे हम सचमुच जीते हैं। इसी तरह दुष्यंत कुमार अक्सर कहते हैं कि गजलों की भूमिका की जरूरत नहीं होनी चाहिए। उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती है, तो उसमें फर्क कर पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। इस तरह भाषा, शिल्प, कथ्य, कहन कौशल हर तरह से दक्ष हो हिंदी गजल ने अपने को इतना जनप्रिय बना लिया है कि भारत में गंगा-जमुनी संस्कृति की धारा उसमें अविरल प्रवाहित होती है।

यही कारण है कि बीते कई वर्षों से हिंदी गजलें ‘नई धारा’ में ससम्मान प्रकाशित होती रहीं। पाठकों-गजलकारों ने ‘नई धारा’ का गजल-अंक प्रकाशित करने का दवाब भी बनाया। आखिरकार हमने सबका सम्मान करते हुए गजलों के गाँव में पर्यटन का मन बनाया और यह अंक आपके सामने है। आशा है गजलों के गाँव में हमारा पर्यटन पाठकों को पसंद आएगा।


Image : Sower with Setting Sun
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Artist : Vincent van Gogh
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शिवनारायण द्वारा भी