नदी होती औरत

नदी होती औरत

यात्राओं का अपना आनंद है। किसिम-किसिम के लोग! भाँति-भाँति की संस्कृतियाँ। नाना प्रकार के व्यंजनों का स्वाद! मनोरम स्थलों का परिभ्रमण! अनुभवों का विस्तार! अनेकता में एकता के दर्शन! मुझे यात्रा आरंभ से ही प्रिय रही है। लंबी यात्रा में मन के मित्र हों, तो फिर यात्रा का आनंद चतुर्दिक विस्तार ग्रहण कर लेता है। मित्र न भी हों, तो यात्रा में अपनी दुनिया मैं सिरज लेता हूँ। विशाल भारतवर्ष की विविधता को जानने में रोमांचक अनुभवों से जाने कितनी बार गुजरा हूँ। यात्राएँ मन को विस्तार देती हैं। वस्तुजगत को निरपेक्ष भार से देखने-समझने की अद्भुत दृष्टि देती हैं। जीवन में मैंने यात्राओं से बहुत कुछ सीखा है। पुस्तकों की दुनिया ज्ञान को चाहे जितना विस्तार देती हों पर मन के लोक को विस्तार के साथ उजास तो यात्राओं से ही मिलता है। अवकाश के दिन हों, तो पर्वत-सागर की यात्राएँ मुझे प्रिय हैं। बीते दिनों मैं दिल्ली-भोपाल की यात्रा से पटना लौटा ही था कि विशाखापत्तनम और कोलकाता की यात्रा का आमंत्रण मिला। तत्क्षण हामी भेज दी।

कोलकाता का आकर्षण मन में अधिक था। 1985 में पटना से प्रकाशित जया पब्लिकेशन की दो पत्रिकाओं का संपादन किया करता था। साप्ताहिक ‘देखा लेखा’ और मासिक ‘शिक्षा डाइजेस्ट’। ‘शिक्षा’ कलकत्ते में छपती थी, जिस कारण प्रत्येक महीने सप्ताह भर के लिए मुझे वहाँ जाना पड़ता था। 1985 से 89 तक यह क्रम चलता रहा। उन पाँच वर्षों के कोलकाता प्रवास का मेरा अनुभव काफी रोचक रहा। उसी दौरान बांग्ला भाषा सीखी। प्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार विमल मित्र के संपर्क में आया। वर्षों चेतला स्थित उनके आवास में साथ रहने का अवसर मिला। उन पाँच वर्षों में कोलकाता में अनेक अच्छे अनुभवों को जीने का अवसर पाया। 1989 के आखिर में वह शहर मुझसे छूट गया। हावड़ा होकर कई बार गुजरा पर शहर में प्रवेश का अवसर नहीं पा सका। मेरी स्मृतियों में कोलकाता की जाने कितनी ही यादें हैं, जो मुझे अक्सर गुदगुदाती रहती हैं। उस शहर में कभी अजनबीपन से भेंट नहीं होती।

1985 में पहली बार कोलकाता गया था। एक दिन कॉलेज स्ट्रीट स्थित आशुतोष सेन लेन के अपने दफ्तर से काम खत्म कर पार्क सर्कस लौट रहा था। वहीं आई.ओ.सी. के गेस्ट हाउस में ठहरा था। पार्क सर्कस में गेस्ट हाउस का मार्ग भटक गया। एक युवक दिखा, तो उससे मार्ग पूछा। उसे कहीं जरूरी काम से जाना था पर मेरी बेचैनी देखकर ठहर गया। मुझे गन्तव्य तक पहुँचा कर ही उसे संतोष हुआ। उसे चाय पिलाने के नाम पर कमरे में ले गया। उसका नाम गणेश भौमिक था। उससे मेरी मित्रता हो गई। अगले दिन उसके घर भी गया। घर में उसके माँ-बाप सहित दो बहनें और एक छोटा भाई था। वह खुद एक निजी कंपनी में काम करता था। उसके परिवार ने मुझे इतना मान दिया कि में कब उसका हिस्सा बन गया, पता ही नहीं चला। जब कभी कोलकाता जाता, जब तक वहाँ रहता, गणेश मेरे आतिथ्य में साथ-साथ डोलता रहता। गणेश का घर बहुत छोटा था पर उसमें प्रेम लबालब भरा हुआ था। कोलकाता के पोर-पोर से गणेश ने मुझे परिचित कराया। जिस दिन मुझे लौटना होता, वह मुझे विक्टोरिया मेमोरियल पार्क जरूर ले जाता। ‘मैदान’ के रास्ते पाँव-पैदल। वहीं मोना सेन से मुलाकात हुई थी। खुली-सुलझी एवं शालीन मोना गणेश की दोस्त थी। दोनों एक-दूसरे को चाहते थे। मोना के पिता किसी कॉलेज में लाइब्रेरियन थे।

मोना सुंदर थी। देह से और मन दोनों से। उसकी बातों में मिठास होती। उन दिनों वह लाइब्रेरी साइंस से डिग्री कोर्स कर रही थी। वह मुझे गणेश की तरह ‘दादा’ संबोधित करती हुई मुझसे खुलकर बातें करती। घर-परिवार और गणेश की बातें। उसे बंगाल की संस्कृति की गहरी जानकारी थी। रवीन्द्र संगीत में निष्णात मोना की आवाज बहुत मीठी थी। वह कविताएँ भी लिखती थी। कविताओं में उसकी परिपक्वता उम्र से अधिक झलकती। उसकी अनेक कविताएँ मैंने ‘शिक्षा’ और ‘देखा लेखा’ में छापी भी। वास्तव में वह जीनियस थी। गणेश भावुक अधिक था। उसकी आवाज भी महीन थी, लड़कियों की तरह। दोनों का संबंध बढ़ते-बढ़ते विवाह तक पहुँच पाता कि मोना के साथ एक अनहोनी घट गई। उसकी बड़ी बहन ज्योत्स्ना की शादी जिस लड़के से तय हुई, उससे वह विवाह नहीं करना चाहती थी। उसे किसी अन्य लड़के से प्रेम था। शादी से सप्ताह भर पूर्व वह अपने प्रेमी के साथ घर छोड़कर भाग गई। लड़के वालों को पता चला तो उन्होंने खूब हंगामा किया। दोनों घर के रिश्तेदारों ने आपस में तय किया कि नियत समय पर उस लड़के की शादी मोना से कर दी जाए, जिसे उसके पिता ने स्वीकार कर लिया। मोना गणेश से प्यार करती थी पर नियति ने उसे किसी और की जीवनसंगिनी बना दिया।

मोना का पति टॉलीगंज के एक हाईस्कूल में भूगोल पढ़ाता था। मुझे याद है वह 1987 के नवंबर की 17 तारीख थी, जिस दिन मोना अंतिम बार अपने विवाह के दो महीने बाद विक्टोरिया मेमोरियल पार्क में गणेश से मिलने आई थी। मोना लाल पाड़ के क्रीम कलर की साड़ी में लिपटी बिल्कुल संयत हो गणेश को समझा रही थी कि वह उसे क्षमा करे और किसी दूसरी लड़की से विवाह कर सुखी जीवन व्यतीत करे। संयोग से मैं कोलकाता में था और गणेश मुझे साथ लेता गया था। गणेश रो रहा था और मोना उसे समझा रही थी। गणेश भी नहीं चाहता था कि विवाह संबंध के बाद मोना के जीवन में वह किसी तरह की कमजोरी बन उसके लिए असुविधा उत्पन्न करे, पर वह मोना से कुछ कह नहीं पा रहा था। मैं दोनों के प्रणय-संवाद को सुन रहा था। कभी मोना तो कभी गणेश की ओर टुकुर-टुकुर ताकता। एक बार मोना ने मुझे गहरी नजर से देखा और कहा, ‘दादा, आप गणेश को समझाइए। मैंने जान-समझकर कुछ नहीं किया। मेरे मन में अब भी यही है। जीवन भर रहेगा। पर परिस्थितियाँ ही ऐसी हो गई कि चाहकर भी मैं विरोध कर नहीं पाई। अब ये अगर दुखी रहेगा, तो क्या मैं सुखी रह पाऊँगी? आप इसे समझाइए दादा!’ लगभग तीन घंटे बाद मोना सेन जब वापस लौटने लगी थी, तो उसने पहली बार गणेश के साथ मेरे पैर भी छुए थे। उस दिन लगा था कि औरत नदी होती है, जो दो किनारों के बीच अपने को नियंत्रित-संतुलित कर उबड़-खाबड़ रास्तों से निरंतर बहती चली जाती है। उसे रुकना नहीं आता। बस, जीना आता है!

मोना से फिर मेरी मुलाकात कभी नहीं हुई। गणेश में भी काफी बदलाव आ गया था। उसने विवाह कभी नहीं किया। जब कभी उससे मेरी भेंट होती, वह ज्यादातर चुप रहता। यंत्रवत व्यवहार करता। जिस दिन मुझे लौटना होता, पहले की तरह विक्टोरिया मेमोरियल पार्क ले जाता। वहाँ भी वह चुप रहता। चाहकर भी मैं उसकी चुप्पी को कभी मुखर नहीं कर पाया। 1989 में ‘शिक्षा’ और ‘देखा लेखा’ से अलग होने पर मेरे कोलकाता जाने का सिलसिला भी खत्म हो गया। अब लगभग बाइस वर्षों बाद अचानक विशाखापत्तनम के साथ कोलकाता जाने का निमंत्रण पाकर मैं कितना आह्लादित हुआ, कह नहीं सकता!

हावड़ा होकर ही पहले विशाखापत्तनम गया। वहाँ वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा गाजुवाका स्थित एम.वी.आर. इंजीनियरिंग कॉलेज में ‘विज्ञान में तकनीकी शब्दावली का प्रयोग’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी थी, जिसमें मुझे व्याख्यान देना था। गाजुवाका विशाखापत्तनम से लगभग 25 किलोमीटर दूर है। वहाँ देश के अनेक शहरों से आए विद्वानों से मिलने का अवसर मिला। शाम में आयोजक विशाखापत्तनम स्थित कैलाशगिरि पर्वत दिखाने ले गए। वापसी में समुद्र का मनोरम आर.के. बीच भी देखा, जहाँ ‘कुरसुरा’ पनडुब्बी ने अपनी विलक्षण आकृति एवं विशिष्टता से खासा प्रभावित किया। अगले दिन शाम में आंध्र विश्वविद्यालय की पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. एस. शेषारत्नम् ने मेरे सम्मान में श्रीपुरम् स्टेशन स्थित होटल टॉयकोन में एक संगोष्ठी रखी थी, जिसमें मुझे ‘समकालीन कथा साहित्य और स्त्री विमर्श’ पर व्याख्यान देना था। हिंदी साहित्य किरण द्वारा आयोजित उस संगोष्ठी की अध्यक्षता तेलुगु के प्रसिद्ध कवि पी. आदेश्वर राव ने की। वहाँ अनेक कवि-लेखक एवं हिंदी सेवियों से मुलाकात हुई। हावड़ा के लिए जब रात्रि में ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुँचा, तो दर्जन भर लेखकों का समूह साथ था। उनके आतिथ्य एवं प्रेम ने खासा प्रभावित किया।

अगले दिन शाम चार बजे हावड़ा पहुँचा तो वहाँ पहले से ही मेरे मित्र संदीप सेनगुप्त मौजूद थे। संदीप संवेदनशील विचारप्रज्ञ कवि होने के साथ-साथ कोलकाता हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। हावड़ा ब्रिज से गुजरते हुए जाने कितनी सारी यादें मेरे साथ होती चली गईं। मनोहरपुकुर रोड स्थित उनकी कोठी पहुँचते-पहुँचते मुझे अहसास हो चुका था कि वे इन दिनों कितनी सघन व्यस्तताओं में जी रहे हैं। उस दिन मेरी कोई व्यस्तता नहीं थी। संदीप के साथ कोलकाता घूमने का ही मन था। उसने अपने एक और मित्र को बुला लिया। हम बगल के देशप्रिय पार्क में पैदल टहलने निकल गए। संदीप और उसका मित्र उस इलाके के इतिहास से परिचित कराता हुआ लेक की ओर निकल गया। लेक गार्डेन में प्रवेश करते हुए मैंने महसूस किया कि संदीप के चेहरे पर एक अजीब तरह की स्फूर्ति है। चाँदनी रात के उजास में चतुर्दिक बैठे युवक-युवतियों के जोड़े साफ दिखाई पड़ रहे थे, जो अपने प्रणयलोक में क्रीड़ारत थे। मैंने संदीप से कहा, ‘ये कहाँ ले आए? हर बड़े शहर के बाग-बगीचे या झील-सरोवर लवर्स कार्नर में तब्दील हो चुके हैं। महानगरों के ये सामान्य दृश्य हैं। इसमें क्या खास है?’ उसने मुरझाते हुए कहा, ‘मैं खुद यहाँ पहली बार आया हूँ। इस लेक की बड़ी महिमा सुन रखी थी, सोचा आपको दिखा दूँ। पास में होने के कारण इधर आ गया।’ कहने के साथ ही वह बाहर की ओर का मार्ग पकड़ चुका था, कि तभी जाने कौन-सी स्मृति मेरे अंदर से बाहर आने को कुलबुलाने लगी। यह लेक गार्डेन मुझे विक्टोरिया मेमोरियल पार्क की वर्षों पुरानी यादों से जोड़ने लगा।

घर लौटते हुए रास्ते में अचानक संदीप ने कहा, ‘कल आपको अपनी बेटी से मिलवाऊँगा। वह हिंदी में कविता लिखती है। जब आपके बारे में उसे बताया तो वह आपसे मिलने को उतावली हो उठी। मेरे घर से ‘नई धारा’ बराबर पढ़ने ले जाती है।’ मैंने कहा, ‘आपके तो दो बेटे ही हैं। यह बेटी कहाँ से आ गई?’ संदीप हँसने लगा। उसके मित्र ने कहा, ‘ये बहुत भावुक हैं। जाने कितनों के साथ इन्होंने नाता जोड़ रखा है। उन्हीं में कोई बेटी होगी।’ मैंने देखा, संदीप के चेहरे का रंग बदलने लगा। वह गंभीर हो गया।

भावुक प्राणियों की गंभीरता प्राय: सांघातिक होती है, अतएव मैं सचेत हो गया। उसने कहा, ‘रिया कोई सामान्य लड़की नहीं है। वह बी.ए. पार्ट वन में पढ़ती है पर उसकी कविताओं को पढ़कर आप दंग रह जाएँगे। इतनी कच्ची उम्र में वह जीवनानुभव की इतनी बड़ी-बड़ी बातें अपनी कविताओं में लिखती हैं, मानो वह दर्शनशास्त्र की व्याख्याता हो। वह जीनियस है, जीनियस!’ उसके अंतिम शब्द सुनकर मेरे अंदर की वर्षों पुरानी स्मृतियाँ पिघलने लगी। मैंने पूछा, ‘उसके अपने माँ-बाप क्या करते हैं?’ संदीप थोड़ी देर चुप रहा। यह उसकी पुरानी अदा है। वह कागज में तंबाकू डाल सिगरेट बनाने लगा। फिर सिगरेट के कश लेता हुआ आराम से कहने लगा, जैसे किसी मलबे के नीचे दबी कोई मूल्यवान स्मृति को कुरेद रहा हो, ‘उसकी अपनी माँ नहीं है। उसके पिता किसी स्कूल में टीचर थे। जाने कैसे उनकी नौकरी चली गई। आज कल वकालत करते हैं। बहुत पहले अपनी पहली पत्नी के रहते ही उन्होंने दूसरी शादी कर ली थी। रिया बताती है कि उसके पिता ने ही उसकी माँ को मार डाला था। पता नहीं, क्या बात है! रिया की अपनी सौतेली माँ से बनती नहीं। एक बार अपने पिता के साथ वह मेरे घर आई थी। उसने अपनी कविताएँ सुनाई थीं। उसकी कविताओं की प्रशंसा में मैंने कुछ कहा होगा, तभी से वह मेरे घर आने लगी। मुझे ‘पापा’ पुकारती है। वह बहुत अच्छी है।’ जाने क्या कुछ मेरे अंदर टूटा। पुरानी यादों के सैलाब ने मुझे घेर लिया। मेरे मुँह से निकला–‘रिया के पिता टॉलीगंज में रहते हैं? वह भूगोल पढ़ाते हैं?’ संदीप ने आश्चर्य से पूछा–‘हाँ, वह टॉलीगंज में ही रहते हैं। पर आपको कैसे मालूम?’ उसके प्रश्न को अनसुना कर मैंने पूछा–‘रिया की माँ मोना सेन मर गई?’ संदीप दूने आश्चर्य में–‘अरे, यही तो नाम है उसकी माँ का…आप जानते हैं उसे?’

‘सब बताऊँगा…पहले मुझे रिया से मिलवाइये!’ उसने रिया से मोबाइल पर संपर्क साधा, फिर कहा–‘लीजिए, बात कीजिए।’ जाने क्या मन में आया कि मैंने नकारते हुए कहा–‘नहीं, बात नहीं करूँगा। सीधे उससे मिलूँगा।’ मोबाइल पर संदीप ने रिया से अगले दिन सुबह दस बजे अपने घर आने को कहा।

उस पूरी रात मैं सो नहीं पाया। गणेश और मोना की स्मृति ने मुझे अपने वश में कर लिया था। कोलकाता में गणेश इस वक्त कहाँ होगा? क्या उसे मोना की मौत की जानकारी होगी? जाने कितने सवालों से मैं उस रात जूझता रहा। अगली सुबह तैयार होकर मैं दूसरी मंजिल स्थित माँ-बाबू जी (संदीप के माता-पिता) से मिलने उनके कमरे में जा ही रहा था कि संदीप ने सूचना दी–‘रिया को तेज बुखार है। वह शायद देर से आ पाएगी।’

उस दिन के नियत कार्यक्रमों में भाग लेते हुए करीब एक बजे मैं घर लौट आया था। दो बजे वरिष्ठ कवि मानिक बच्छावत जी से एम.जी. रोड स्थित उनके दफ्तर में मिलना था। मुझे वहीं उनके साथ भोजन भी करना था। चार बजे एक गोष्ठी में ‘भूमंडलीकरण और समकालीन कविता’ विषयक व्याख्यान देना था और आमंत्रित कवियों की कविताएँ सुनते हुए उधर से ही हावड़ा में आठ बजे की ट्रेन पकड़नी थी। सामान के साथ घर से निकलने लगा, तो भाभी जी ने संदीप की ओर इशारा करते हुए कहा–‘इनकी बेटी कई बार फोन कर चुकी है। वह आपसे मिलना चाहती है। बुखार में तप रही है…मैंने आने से मना किया, पर वह मान नहीं रही।’ मैंने धीरे से कहा–‘हाँ, उसे पहले अपनी सेहत का ध्यान रखना चाहिए।’

संदीप दिनभर मेरे साथ रहा। रिया से लगातार संपर्क में था। कभी उसे एम.जी. रोड आने को कहता, तो कभी राम मंदिर स्थित पुस्तकालय में। अंतिम में तय हुआ कि वह शाम सात बजे तक हावड़ा स्टेशन ही आ जाए। वह रिया को संकेत से बता चुका था कि मैं उसकी माँ को जानता हूँ। रिया की मुझसे मिलने की बेचैनी बढ़ चुकी थी। मैं खुद भी उससे मिलने को आतुर था। सारी व्यस्तताओं को यंत्रवत पार करता हुआ साढ़े सात बजे स्टेशन पहुँच गया। तब तक रिया नहीं पहुँची थी। संदीप की बेचैनी बढ़ गई। मोबाइल से सूचना मिली कि वह हावड़ा ब्रिज पार कर रही है। संदीप स्टेशन के मुख्य द्वार की ओर लपका।

जीवन की यात्रा कितने रहस्यों से भरी होती है, उसे जान पाना कहाँ संभव है! कितने ही चेहरे मोहासक्त हो जीवन में घुलते-मिलते चले जाते हैं और कुछ दूर की यात्रा के बाद फिर विलीन हो जाते हैं। इस यात्रा के आनंद को वही जी सकता है जो निरपेक्ष भाव से जीवन में आने-जाने वाले चेहरे को अपने में अंतर्लीन करने की क्षमता विकसित कर लेता है। मुझमें वह क्षमता नहीं, इसलिए आज इतने वर्षों बाद भी गणेश और मोना की यादें मुझे विह्वल कर रही हैं। मुझे नहीं मालूम कि रिया से मेरी मुलाकात फिर कभी हो भी पाएगी या नहीं, पर उस रात हावड़ा स्टेशन से मेरी ट्रेन खुलने ही वाली थी कि दूर से संदीप आता दिखाई पड़ा था। उसके साथ एक दुबली-पतली गोरे रंग की सुंदर लड़की भी तेज कदमों से चलती दिखाई पड़ी। इतने वर्षों बाद भी मुझे पहचानने में कोई परेशानी नहीं हुई कि वह मोना सेन की ही आकृति थी। हाँ, रिया मोना सेन की ही छवि में निकट आ रही थी। लगा, कोई नदी हहराती-सी बहती चली आ रही है। तब तक ट्रेन खुल चुकी थी!


Image: Howrah Bridge, Calcutta in 1945
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शिवनारायण द्वारा भी