रचनाकारों का सुवास

रचनाकारों का सुवास

टना मेरे सपनों का शहर रहा है! इतिहास और संस्कृति के स्वर्णिम साक्ष्य को जीता यह शहर आज भी जाग्रत है! पटना साहित्य और संस्कृति का केंद्र रहा है। कहते हैं, कोलकाता जब भारत की राजधानी हुआ करता था, तब कला-संस्कृति और साहित्य का केंद्र भी वहीं था। पश्चिमी आधुनिकता की हवा कोलकाता होकर ही पूरे देश में फैली। राजनीतिक दृष्टि से राजधानी जब कोलकाता से दिल्ली चली गई, तो कालांतर में कला-संस्कृति और साहित्य का केंद्र भी कोलकाता से विस्थापित होकर पटना, वाराणसी, इलाहाबाद होते हुए दिल्ली में ही स्थापित हो गया। अखंड बिहार में कभी शाहाबाद (अब भोजपुर), भागलपुर, मुजफ्फरपुर, राँची आदि साहित्य के मुख्य केंद्र हुआ करते थे, जिसकी समवेत अभिव्यक्ति पटना में देखने को मिलती थी। शाहाबाद से राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, आचार्य शिवपूजन सहाय, पंडित रामदयाल पांडेय आदि तो मुजफ्फरपुर से रामवृक्ष बेनीपुरी, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री; भागलपुर से लक्ष्मीनारायण सुधांशु, फणीश्वरनाथ रेणु, अनूपलाल मंडल, सतीनाथ भादुड़ी आदि तो राँची से कथाकार राधाकृष्ण आदि पटना में ही रचनात्मक गतिविधियों में सक्रिय थे। मिथिलांचल से नागार्जुन, चंपारण से गोपाल सिंह नेपाली, मगधांचल से मोहनलाल महतो ‘वियोगी’, हंसकुमार तिवारी, गुलाब खंडेलवाल, शंकरदयाल सिंह आदि की चमक पटना में देखने को मिल जाती थी। पटना में नकेन के नलिनविलोचन शर्मा, केसरी कुमार, नरेश सहित रामगोपाल रुद्र, आरसी प्रसाद सिंह, शिवचन्द्र शर्मा आदि तो थे ही। तब पटना पूरे देश में साहित्य-संस्कृतिकर्म का मुख्य गढ़ था। अब ये सब इतिहास की बातें हैं।

मैं पहली बार 1978 ई. में एस.एफ.आई. के तीसरे राष्ट्रीय अधिवेशन में बतौर प्रतिनिधि भाग लेने पटना आया था। तब यहाँ गंगा नदी पर महात्मा गाँधी सेतु नहीं बना था। उत्तर बिहार के लोग पानी जहाज़ से गंगा नदी पार कर पटना में कदम रखते थे। ‘पतली कमर के शहर’ के नाम से ख्यात पटना की लंबाई तब लगभग बीस किलोमीटर और चौड़ाई बमुश्किल दो किलोमीटर की रही होगी। डाक बंगला रोड साहित्यिक-सांस्कृतिक सक्रियताओं का केंद्र था। इसी रोड में ‘भारत कॉफी हाउस’ था और था ‘पारिजात प्रकाशन’। दोनों जगहों में रचनाकार जुटते थे। कॉफी हाउस का उजाड़ आरंभ हो चुका था, जो कभी बौद्धिक कलाबाजियों का अखाड़ा था और जिसे प्रसिद्ध कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की नियमित उपस्थिति से ऊष्मा मिलती रहती थी। इसी कॉफी हाउस में सन् चौहत्तर के जे.पी. आंदोलन के दिनों में रेणु जी के नेतृत्व में नुक्कड़ कविता आंदोलन का बीजवपन हुआ था, जिसकी अनुगूँज बाद को पूरे देश में सुनाई पड़ी। डाक बंगला चौराहा और उसके आसपास के नुक्कड़ों पर तब रेणु जी की अगुवाई में नागार्जुन, गोपीवल्लभ सहाय, परेश सिन्हा, सत्यनारायण, रवीन्द्र राजहंस, बाबूलाल मधुकर, मधुकर सिंह, बालेश्वर विद्रोही आदि दर्जनाधिक कवि सत्ता की तानाशाही और भ्रष्टाचार के प्रतिरोध में काव्यपाठ किया करते। यदाकदा ये कवि कदमकुआँ स्थित महिला चरखा समिति में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आमंत्रण पर काव्यपाठ करते थे। स्वतंत्र भारत में किंचित पहली बार किसी जनांदोलन में पटना की सड़कों पर कवियों-रचनाकारों की सीधी भागीदारी दर्ज की गई। बिहार आंदोलन, जो जे.पी. आंदोलन या चौहत्तर आंदोलन के नाम से भी जाना गया, में बुद्धिजीवियों-रचनाकारों के साथ-साथ छात्र-नौजवानों की सक्रिय भागीदारी थी और जिसका मुख्य केंद्र पटना था।

लंबे समय तक रेणु जी कॉफी हाउस में साहित्यिक-बौद्धिक गतिविधियों के केंद्र रहे। कहने को तब बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, भारतीय नृत्यकला मंदिर आदि केंद्र भी थे, जहाँ से साहित्य एवं संस्कृतिकर्म को ऊष्मा मिलती थी। अनेक रंग संस्थाएँ भी थीं, जिनके माध्यम से रंगमंचीय गतिविधियाँ होती रहतीं। पटना विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग था और थीं दर्जनाधिक साहित्यिक संस्थाएँ, जिनके माध्यम से नित्य संगोष्ठियाँ, सम्मेलन, परिचर्चाएँ आदि होते रहते। इसके अलावे ‘नई घारा’, ‘ज्योत्स्ना’, ‘स्थापना’, ‘साहित्य’, ‘मुक्तकंठ’ जैसी पत्रिकाएँ भी थीं। शिवचन्द्र शर्मा जी ‘स्थापना’ निकालते, जिसमें ‘संपादक’ की जगह वे ‘संपालक’ छापते थे। उनका मानना था कि पत्रिकाओं के माध्यम से केवल रचनाएँ ही संशोधित-परिवर्द्धित होकर प्रकाश में नहीं आतीं, बल्कि रचनाकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार होती है जो किसी समाज को रचनात्मक दिशा देने का काम करती हैं। इसलिए संपादक रचनाकारों का संपालन भी करता है। वे प्रयोगधर्मी संपादक थे। उन्होंने अपने समय में एक रचनात्मक परिवेश ही विनिर्मित कर रखा था, जिसे ऊर्जस्वित करने के लिए यदाकदा बाहर से भी रचनाकारों को आमंत्रित कर उनसे रचना-पाठ करवाते रहते थे। यही काम अपनी-अपनी तरह से नलिनविलोचन शर्मा, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, उदय राज सिंह, शिवेन्द्र नारायण, शंकरदयाल सिंह आदि भी करते ।

पटना का आकाशवाणी केंद्र भी तब रचनाकारों के जमावड़े और उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति का केंद्र था। सभी जानते हैं कि रेणु को एक आंचलिक उपन्यासकार के रूप में स्थापित करने का श्रेय आकाशवाणी के पटना केंद्र को भी जाता है, जहाँ से पहली बार नलिनविलोचन शर्मा ने ‘मैला आँचल’ की समीक्षा करते हुए उन्हें प्रेमचंद की कथा-परंपरा का महत्त्वपूर्ण लेखक घोषित किया था। आकाशवाणी से समीक्षा के प्रसारण के बाद ही रेणु जी की ख्याति चतुर्दिक फैली थी और फिर एक लेखक के रूप में उनकी यात्रा विस्तार पाती चली गई। नलिन जी ‘साहित्य’ का संपादन किया करते थे। पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आचार्य एवं अध्यक्ष तो वे थे ही। यहाँ की रचनाशीलता को प्रतिष्ठित करने और रचनाकारों के विकास में उनका अप्रतिम योगदान रहा। बिहार के रचनाकारों को वे प्राथमिकता के आधार पर मूल्यांकित कर उन्हें प्रकाश में लाने का काम करते थे। आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह आदि द्वारा रचनाशीलता को ऊर्वर और प्रोत्साहित करने की कार्य-परंपरा को आलोचना के स्तर पर समृद्ध करने वाले वे पटना में अंतिम आचार्य सिद्ध हुए। आलोचक तो यहाँ कई हुए, पर प्रायः सबने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ख्याति के लेखकों की रचनाओं पर ही लिख-लिखकर अपने को चमकाने का प्रयास किया। अपने पास-परिवेश के रचनाकारों को तो नलिन जी ही चमकाने-फैलाने की क्षमता रखते थे। कहते हैं कि वे न होते तो आज हिंदी साहित्य के खाते में रेणु जैसा अमर कथा शिल्पी न होता। स्वयं रेणु जी ने भी आगे चलकर अपने पटना प्रवास में नई पीढ़ी के रचनाकारों के निर्माण एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बीते दिनों मैं कोलकाता प्रवास में था, तो वहाँ एक मुलाकात में प्रसिद्ध कवि मानिक बच्छावत जी ने अपने पटना भ्रमण के दिनों को स्मरण करते हुए शिवचन्द्र शर्मा, रेणु जी, शंकरदयाल सिंह आदि के ऋजु व्यक्तित्व की अनेक स्मृतियों को साझा किया।

1982 में मैं एम.ए. के छात्र के रूप में दूसरी बार पटना आया था। इस शहर ने ऐसा अपनाया कि फिर कहीं बाहर जा नहीं पाया। उन्हीं दिनों पटना की दो पत्रिकाओं के संपादन से जुड़ा, तो अनेक रचनाकारों के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। रामगोपाल शर्मा रुद्र, रमण, उदय राज सिंह, आरसी प्रसाद सिंह, माहेश्वरी सिंह ‘महेश’, कुमार विमल, भगवतीशरण मिश्र, पंडित रामदयाल पांडेय आदि के निकट संपर्क में आने के बाद पटना की प्रकृति और इसके साहित्यिक मिज़ाज के सफर का बोध हुआ। इन्हीं साहित्यकारों के ब्याज से पटना के साहित्यिक-सांस्कृतिक अतीत के उत्खनन से उस समृद्ध विरासत और परंपरा का साक्षी बना, जिसने इस शहर को राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक पहचान दी। तब मैं अक्सर ‘पारिजात प्रकाशन’ चला जाता, जहाँ शंकरदयाल सिंह का मुक्त अट्टहास डाक बंगला रोड को गुंजायमान कर देता। वे जब-जब शहर में होते, उनके मुक्त अट्टहास से यहाँ का साहित्यिक-सांस्कृतिक माहौल महमह करता रहता। वे ‘मुक्तकथन’ का संपादन करते थे। उनका पूरा व्यक्तित्व ही इतना रचनात्मक था कि ‘पारिजात प्रकाशन’ में उनके रहते केसरी कुमार, रुद्र, शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव, सत्यनारायण, रवीन्द्रनाथ राजहंस, रिपुदमन सिंह, जितेन्द्र सिंह, रामशोभित प्रसाद सिंह आदि अनगिन रचनाकार खींचे चले आते। शैवाल, उषाकिरण खान, ऋता शुक्ल, मिथिलेश्वर जैसे अनगिन लेखकों को उन्होंने प्रकाश में आने का अवसर दिया। वे नए-पुराने रचनाकारों के बीच जीवंत सक्रिय सेतु थे। वे जब तक रहे, पटना का साहित्यिक माहौल मुक्त अट्टहास से खिलखिलाता रहा। वे नहीं रहे, तो फिर वैसा अट्टहास कभी सुनाई न पड़ा। उनके रहने तक साहित्य में कोई दल हो, सबमें समरसता थी। उनके बाद साहित्य का हर दल दलदल में धँसता चला गया।

पटना में एकांतप्रिय साधना के धुनी लेखकों की भी समृद्ध शृंखला रही है, जिनमें हरेन्द्रदेव नारायण, लालधुआँ से लेकर रघुनाथ प्रसाद ‘विकल’, विन्ध्यवासिनीदत्त त्रिपाठी तक के नामों को सहज ही स्मरण किया जा सकता है। एक जमाने में बाबा नागार्जुन के संग कवि कन्हैया, मधुकर सिंह आदि की जमात थी तो रेणु के संग भी समाजवादी रचनाकारों की बड़ी फ़ौज थी। ये दो बड़े ध्रुव थे, जो कई कोणों में परस्पर अलग रहते हुए भी अभिन्न थे। चौहत्तर आंदोलन का एक ध्रुव ने जमकर विरोध किया, तो दूसरे उससे आत्मसात थे। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ अक्सर लेखकों की प्राथमिकताएँ ही नहीं, उनकी निष्ठा को भी प्रभावित करती रही हैं। राजनीति के दलदली प्रभाव से वे मन से कुछ चाहते हुए भी बाहर से कुछ और करते रहे हैं। सर्वज्ञात तथ्य है कि आरंभ में बाबा नागार्जुन चौहत्तर आंदोलन में साथ थे। खंजड़ी बजा-बजाकर नुक्कड़ों पर काव्यपाठ करते और इंदिरा गाँधी की तानाशाही को ठेंगा दिखाते। राजनीतिक समीकरण ने प्रभावित किया तो चौहत्तर आंदोलन की तीखी भर्त्सना करते हुए उससे बाहर चले गए। रेणु जी उस आंदोलन में सने-रचे थे। प्रतिरोध में पद्मश्री का तगमा भी भारत सरकार को लौटा दिया। वास्तव में वे आंदोलनधर्मी रचनाकार थे। नेपाल क्रांति में उनकी सक्रियता सर्वज्ञात है। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं ने कभी उनकी निष्ठा को दिग्भ्रमित नहीं किया, गोकि वे चुनाव भी लड़े।

इन दो बड़े ध्रुवों के चतुर्दिक पटना का रचना-संसार अपने में अन्य अनेक आसंगों-प्रसंगों को समाहित किए हुए है, जिसकी चर्चा कभी विस्तार से होगी। इतना अवश्य है कि पटना में पट परिवर्तन की दशा बड़ी निराली होती है और इसीलिए इसका पट सबके लिए सपाट नहीं होता! इस शहर ने रचना, रचनाकार और रचना संसार को पद, पुरस्कार और अलंकरण के चतुर्दिक परिक्रमा करते हुए उन समीकरणों को भी निकट से देखा है जब रिश्ते और विचार समानांतर यात्रा करते हुए भी एक-दूसरे से लिपटे, अलग हुए, परस्पर झपटे या फिर कुछ दूर की सहयात्रा के बाद विलीन हो गए। इस महानगर में साहित्य और संस्कृति के कितने-कितने शहर बनते-मिटते रहे, पर रचनाकारों का सुवास आज भी शेष है!


शिवनारायण द्वारा भी