नए लेखक : नए विषय

नए लेखक : नए विषय

हिंदी साहित्य अपनी दिशा ढूँढ़ रहा है। अपने विकास की सीढ़ियाँ पार कर वह जिस जगह पर पहुँचा है वहाँ से कई रास्ते फूटते हैं। और हमारा साहित्य उस मोड़ पर रुका पड़ा है। इस दिशा निर्धारण में उसकी गति कुछ शिथिल-सी हो गई है। वह हैसबैस में है कि किधर मुड़े। कुछ लोगों ने स्पष्ट रूप से अपनी दिशा चुन ली है। लेकिन उनके चुनाव से साहित्य को मानो संतोष नहीं है। प्रयोगवाद इत्यादि अन्य नामों से जो कोशिशें चल रही हैं वे मात्र टेकनिक की नूतनता से संबंध रखती हैं, विषयवस्तु से उसका बड़ा हल्का-सा संबंध है। और इसमें भी शक नहीं कि इस हैसबैस में काफी वक्त निकल गया, हिंद के राष्ट्रभाषा-पद पर आसीन हुए कई वर्ष बीत गए। नए लेखकों की बाढ़-सी आई पर उनमें कुछ ही ऐसे निकले जो अपना स्थान बना पाए। सर पर चढ़कर बोलने वाले जादू की बात अभी बहुत दूर है।

नई जिम्मेदारी : नया स्वर

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद एक झोंके से लेखकों का बड़ा-सा दल हिंदी के मैदान में आया! अन्य भाषाओं के ख्याति प्राप्त लेखकों का ध्यान भी हिंदी की ओर जोरों से आकृष्ट हुआ है और हिंदी में उनकी कृतियों के अनुवाद धड़ल्ले से प्रकाशित होने लगे हैं। स्पष्ट है कि इस रेले की असुविधाओं के साथ कुछ सुविधाएँ भी हमें प्राप्त हुईं। नई जिम्मेदारी के बोझ से हिंदी के कुछ नए लेखकों ने अपना नया स्वर प्रस्तुत किया है। उस स्वर की विशेषता रही है जन जीवन का व्यापक चित्रण। अब तक हमारा साहित्य मध्यमवर्गीय मान्यताओं की सीमा के अंदर था। यह बात नहीं कि उस सीमा के अंदर का साहित्य सुंदर नहीं होता या सिर्फ इसी कारण से उसमें कोई दोष आ जाता है। बल्कि साहित्य अब सिर्फ समाज के एक विशेष अंग को न छू कर उसके काफी बड़े हिस्से से संबंध स्थापित कर रहा है। इस नई प्रवृत्ति को लाने वाले लोगों ने अब तक परिपक्वता प्राप्त नहीं की है, इसमें संदेह नहीं। वस्तुत: इस नई प्रवृत्ति का श्रीगणेश ‘माटी की मूरतों’ से हुआ था। धारा बहुत आगे नहीं बढ़ पाई है लेकिन पुष्ट जरूर हुई है।

नई प्रतिभा की प्रतीक्षा

इस प्रवृत्ति को आगे बढ़ाना वर्तमान लेखकों के बस की बात नहीं मालूम होती। अंडे में ही बच्चा एक हद तक बढ़ता है लेकिन उसकी प्रगति के लिए यह जरूरी है कि निश्चित समय के बाद अंडा टूट जाए। नहीं तो वह बच्चा मर जाएगा। वही हालत इस नई प्रवृत्ति की है। जिन साहित्यकारों के बीच इसने जन्म लिया है वे अब इसके मार्ग में बाधक हो रहे हैं। अगर इसे आगे बढ़ना है, तो पुराने लोगों को छोड़ कर नए लोगों का सहारा लेना पड़ेगा। अभी तक इस नई प्रवृत्ति के पोषक मध्यमवर्गीय साहित्यकार ही रहे हैं। जनजीवन की दुहाई देकर सामने आने वाला साहित्य इन तमाशबीनों की कलम से ही अब तक निकलता आया है। जनजीवन से सीधा संबंध रखने वाले साहित्यकार के बिना यह प्रवृत्ति बहुत दूर आगे नहीं बढ़ सकती। वह अपनी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों की दुनिया से उतर कर जनजीवन से सीधा संबंध स्थापित करने में असमर्थ रहेगा। उर्दू के कुछ लेखकों ने इस दिशा में प्रयत्न करने की कोशिश की लेकिन नतीजा वही निकला जो निकलना था। अपने पूर्वाग्रहों के चक्कर में वे उलझ गए। जब तक उनके बीच से साहित्यकार पैदा नहीं होता तब तक उनके जीवन की सबल और सफल अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। इसलिए अभी तो उन कलाकारों की, जनजीवन से सीधा संबंध रखने वाली नई प्रतिभा की प्रतीक्षा ही है।

साहित्य बनाम उच्छृंखलता

नूतनता के चक्कर में हिंदी लेखकों का एक दल बड़ी दयनीय उच्छृंखलता का शिकार हो गया है। इसके नमूने हर जगह देखने को मिल सकते हैं। उनकी ओर से दलील पेश की जा सकती है कि उच्छृंखलता की सारी परिभाषा और मान्यता ही मध्यमवर्गीय आधार पर टिकी है, उन्हें मान कर वर्तमान युग का साहित्यकार नहीं चल सकता। लेकिन उनके साहित्य का न तो कोई सामाजिक और न व्यक्तिगत महत्त्व ही दिखाई देता है। सिर्फ आनंदोपलब्धि की बात भी वहाँ नहीं चलती। क्योंकि गदंगी से रस लेने वाले पाठक के लिए ही साहित्य का अस्तित्व नहीं माना जा सकता! तो उच्छृंखलता की आवश्यकता? और उच्छृंखलता तक ही बात सीमित रहती, तो खैरियत थी। बात बढ़कर भद्दी अश्लीलता तक पहुँच गई है।

साहित्य के उपादान

साहित्य के उपादानों पर कोई प्रतिबंध नहीं। किसी भी चीज का साहित्य में उपयोग हो सकता है और हुआ है। प्रश्न यह है कि उसका उद्देश्य क्या है। सुंदरता के लिए कालिख की बिंदी का उपयोग भी होता है और विद्रूप के लिए भी मुँह पर कालिख पोता जाता है। उद्देश्य निश्चित होते ही ढंग स्वयं निश्चित हो जाएगा। इसले अश्लील कहे जाने वाले व्यापारों के उल्लेखमात्र से किसी पर अश्लीलता का दोषारोपण गलत होगा। उस दृष्टि से ऊपर की पंक्तियों में अश्लीलता का दोषारोपण किया भी नहीं गया है। जिन रचनाओं को ध्यान में रख कर ऊपर की पंक्तियाँ लिखी गई हैं उनमें अश्लीलता सिर्फ अश्लीलता के लिए, नूतनता के लिए, चमत्कार के लिए लाई गई है और इसी के खिलाफ एतराज भी है।

सर पर जूता

शीर्षक विचित्र है। कुछ दिन हुए, हिंदी के एक वयोवृद्ध साहित्य सेवी नई पौध के एक लेखक की चर्चा कर रहे थे। उनके लेख में कई ऐसे स्थल थे जिन पर उन्हें एतराज था। उनके एक सहकर्मी उस लेख की सार्थकता बता रहे थे और कह रहे थे कि नूतनता के लिए यह आवश्यक था कि उन बातों पर जोर दिया जाए! नया दृष्टिकोण और नई टेकनिक के लिए लेख का यह रूप अपेक्षित था। वयोवृद्ध साहित्यिक की आँखें हँस पड़ीं और उन्होंने स्वाभाविक स्वर में कहा कि जूता सामने पड़ा है। मेरे सर पर दो-चार लगा दीजिए। उससे बढ़ कर नई बात नहीं होगी। वस्तुत: नूतनता के चक्कर में बहुत कुछ यही हो रहा है। फर्क इतना ही है कि दूसरों के सर के बदले लोग अपने ही सर का बड़ी उदारता से प्रयोग कर रहे हैं।

बाल-साहित्य और जीवनी

हिंदी साहित्य के सबसे उपेक्षित अंग का नाम लेना हो, तो हर कोई बाल-साहित्य और जीवनी की ओर उँगली उठा देगा। बाल-साहित्य के नाम पर जितनी चीजें निकल रही हैं, सबके पीछे यही मनोवृत्ति काम कर रही है कि किसी न किसी तरह सरकार इनकी हजार-दो-हजार प्रतियाँ खरीद ले। इससे उनका स्तर काफी नीचा हो जाता है क्योंकि बच्चों की जरूरत के बदले सरकार की जरूरत ध्यान में रहती है। अपनी रचना पर मेहनत करने के बदले लेखक सरकारी अफसरों की जूतियाँ सीधी करने में अपना अधिक समय खर्च करते हैं। जीवनी की तो कहीं चर्चा ही नहीं सुनाई पड़ती। अभिनंदन ग्रंथ जीवनी की आवश्यकता पूरी नहीं कर सकता। जीवनी के नाम पर पहले जो चीजें निकली थीं उनसे भी वर्तमान युग संतोष नहीं कर सकता। आज तो हमें चाहिए व्यक्तित्व के विकास की कहानी सिर्फ जन्म संवत् इत्यादि नहीं। अन्य भाषाओं में उसके सभी प्रमुख साहित्यकारों की पत्रावली तक प्रकाशित हो गई है। ईश्वर जाने हिंदी का कब वैसा भाग्य होगा।

राष्ट्रीय रंगमंच

कुछ दिन पहले राष्ट्रीय रंगमंच की चर्चा इन्हीं पृष्ठों में की गई थी। आज वह दुहराई जा रही है। सिर्फ दुहराने के ख्याल से नहीं, उसकी आवश्यकता आ पड़ी है। हिंदी का रंगमंच फिर अँगड़ाइयाँ लेने लगा है। हर प्रमुख शहर में हर साल आठ-दस बार नाटकों का अभिनय होता ही है। खतरा है कि राष्ट्रीय रंगमंच के अभाव में ये नाटक हिंदी सिनेमा की सतह पर उतर जाएँगे। क्योंकि उनके सामने आदर्श रूप में कुछ नहीं रहेगा और जनता की बिगड़ी हुई रुचि के दबाव में उनका फिसल जाना आसान होगा! राष्ट्रीय रंगमंच का काम काफी बड़ा है और उसे एक-दो आदमी पूरा नहीं करा सकेंगे। सरकार और अन्य संस्थाओं से भी मदद लेनी पड़ेगी। लेकिन उसकी शुरुआत तो इस तरह की संस्थाएँ नहीं कर सकतीं। उसके लिए तो कुछ लोगों को सामने आना पड़ेगा। क्या हिंदी के नाटककार इस काम का श्रीगणेश नहीं कर सकते? उनके हित की यह बात है। इससे उन्हें अपने पाठकों की संख्या बढ़ाने में सहायता मिलेगी और अपनी टेकनिक को सुधारने का मौका मिलेगा। फिर रंगमंच से रायल्टी भी मिल सकती है। क्या वे ध्यान देंगे?


Image: Autumn flowers in front of full moon
Image Source: WikiArt
Artist: Hiroshige
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