सम्मेलन : समाप्ति की ओर

सम्मेलन : समाप्ति की ओर

हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के दफ्तर पर मुहरबंद ताला पड़ा हुआ है। उसकी संपत्ति की सुरक्षा के लिए एक रिसीवर की नियुक्ति हुई है। उसका मामला अब भी हाइकोर्ट में पेश है। हाइकोर्ट क्या फैसला देगा, मालूम नहीं। यह अच्छी बात हुई है कि सारी बातें एक प्रदेश की सर्वोच्च अदालत में गई है और वहाँ से जो फैसला मिलेगा, निस्संदेह न्याय-दृष्टि से वह उचित ही होगा! हमें मालूम है, सम्मेलन के कुछ हितचिंतकों की बहुत दिनों से राय थी कि सम्मेलन की दुर्गति को ध्यान देते हुए इस मामले को अदालत तक ले जाया जाए और उसकी संपत्ति की सुरक्षा का तो, कम से कम, प्रबंध करा ही लिया जाए। क्योंकि इस विवाद के कारण सबसे बुरी बात यह हो रही थी कि सम्मेलन की संपत्तियों का सर्वथा दुरुपयोग हो रहा था। किंतु, कुछ लोग, जिनमें जनतंत्र की भावना ज़ोरों पर थी, इसको टालते जा रहे थे इस आशा में कि किसी-न-किसी जनतंत्रात्मक ढंग से भी सुधार हो सकता है। पर, कोटा-सम्मेलन ने उनकी उस आशा को चकनाचूर कर दिया और उसके बाद की घटनाओं ने तो यह सिद्ध कर दिया कि सम्मेलन वर्तमान रूप में ज़िंदा रह नहीं सकता, वह विनाश की ओर द्रुत गति से भागा जा रहा है। अत:, कम से कम उसकी संचित संपत्ति को ही बचा लिया जाए, तो हिंदी-साहित्य के लिए एक बहुत बड़ा काम हो जाएगा!

जयचंद जी की हठधर्मी

सम्मेलन के सभापति श्री जयचंद विद्यालंकार बनाए जाएँ, इस आंदोलन का श्रीगणेश किया था श्री आनंद कौसल्यायन ने और आनंद जी के इस प्रस्ताव को चारों तरफ से समर्थन मिला था। बिहार में इस चुनाव के सिलसिले में जयचंद जी खुद पधारे थे और बिहार ने उनका दिल खोल कर समर्थन भी किया। किंतु उसी समय, भारतीय इतिहास परिषद की घटना की याद दिलाते हुए, बिहार के एक बुजुर्ग साहित्य नेता ने भविष्यवाणी की थी कि सम्मेलन के हित में उनका सभापतित्व वांछनीय नहीं सिद्ध होगा। उनकी यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होकर रहेगी, इसका पता जयचंद जी के भाषण और कोटा में हुए उनके व्यवहार से ही मिल गया। कोटा में ही मालूम हो गया कि जयचंद जी हीन भावना से पीड़ित हैं, और उसकी क्षति-पूर्ति के लिए हर तरह के तिकड़म करने को तैयार हैं! यह भी पता चला कि अपने लिए कहीं योग्य स्थान का पाना असंभव देखकर अब वह तुले हुए हैं कि अपने कार्यकाल में सम्मेलन में ही कोई ऐसा काम चालू करा लें, जिसमें लगे रह कर ज़िदगी काट डाली जाए। उनका व्यवहार इतना बुरा हुआ, अपने को उन्होंने इतना उपहासास्पद बनाया कि एक साहित्यिक ने दर्द के साथ कहा था–उफ़, भले आदमी ने अपनी ज़िंदगी-भर की कमाई को दो दिनों में ही डुबो दिया! कोटा से लौटकर जयचंद जी बैठे नहीं रहे। उनका प्रयास हुआ कि सम्मेलन से उन सब को निकाल बाहर किया जाए, जो उनकी राह में तनिक भी बाधक सिद्ध हो सकते थे। सबसे पहली फूट उनके मंत्रिमंडल में ही पड़ी। जो लोग कल तक एक स्वर से टंडन जी को गालियाँ देते फिरते थे, वे आज एक दूसरे पर जूतीपैजार करने में भी नहीं शरमा रहे हैं!

पहला शिकार–आनंद कौसल्यायन

जयचंद जी को सभापति बनाकर भूल की गई–इसका सबसे पहले आनंद जी ने ही अनुभव दिया। कोटा से अधिवेशन की समाप्ति के पहले ही वह चल दिए। फिर कोशिश करने लगे कि पटना-अधिवेशन में नियुक्त नियमावली समिति से सम्मेलन के लिए नई नियमावली बनवाकर सम्मेलन को नया रूप दिया जाए। टंडन जी की देखरेख में नियमावली तैयार हुई और उस पर इतने सदस्यों के हस्ताक्षर भी हो गए जितने के हस्ताक्षर उसे कार्य में लाने के लिए अपेक्षित थे! अब तो जयचंद जी घबरा गए। एक ओर उन्होंने मुकदमे कराने शुरू किए कि समिति को इसका अधिकार नहीं और दूसरी ओर आनंद जी के खिलाफ तरह-तरह की पर्चेबाजियाँ शुरू कीं! वे पर्चे वर्धा और उसके आसपास से वितरित होते थे और देश के हर कोने में पहुँचाए जाते थे। वे पर्चे इतने अश्लील होते थे कि कोई भला आदमी उन्हें शुरू से आखीर तक पढ़ भी नहीं सकता था! अपने ऊपर ऐसे घृणित आक्षेपों को प्रचारित किया जाता देखकर आनंद जी ने अनशन शुरू किया। उनके अनशन से हिंदी-संसार में कुहराम मचा। राष्ट्रभाषा-प्रचार-समिति ने उनके प्रति पूर्ण विश्वास प्रगट किया। जयचंद जी भी स्वयं वर्धा पहुँचे और उन्होंने जो कुछ किया-कराया, उसके संबंध में अभी-अभी चार पर्चे उनकी ओर से वितरित किए गए हैं! इन पर्चों में जो पर्चा जयचंद जी ने अपने नाम से निकाला है, वह भी इतना अनर्गल, अभद्र और अश्लील है कि दुख होता है, यह देख कर कि सम्मेलन के सभापतित्व की मर्यादा को भी, अपनी मर्यादा के साथ ही, जयचंद जी डुबो बैठे!

अनर्गल, अभद्र, अश्लील

इन चार पर्चों में जो पर्चा “हिंदी साहित्य सम्मेलन और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के सभापति श्रीजयचंद विद्यालंकार का राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा की स्थिति पर वक्तव्य” के रूप में ‘प्रकाशनार्थ’ वितरित किया गया है, उसके एक पैरा को ही देखिए–“पिछले दस वर्षों से श्री आनंद कौसल्यायन समिति के मंत्री हैं। उनका मेरा संबंध पिछले तीस बरस से है। वे 1922-24 में लाहौर के राष्ट्रीय महाविद्यालय में मेरे विद्यार्थी थे। तब उनका नाम हरनाम दास था। 1926 के लगभग वे ब्रह्मचारी विश्वनाथ बन गए। 1929 से लगभग वे भिक्षु आनंद हो गए। उन्होंने गृहस्थ हुए बिना जवानी में ही गेरुआ पहन लिया।” मानसिक स्वस्थता वाला कोई भी आदमी हमें पढ़कर कहेगा कि जयचंद जी ने मानसिक संतुलन खो दिया है और अब ऐसे आदमी को सम्मेलन के सभापति पद पर एक क्षण के लिए भी नहीं रहना चाहिए! कहाँ ‘प्रचार-समिति की स्थिति पर वक्तव्य’ और कहाँ आनंद जी की यह जन्मपत्री! और हमें दुख हुआ यह सोच कर कि शायद जयचंद जी अपनी जन्मपत्री को भूल गए। शीशे के घर में रहने वाले दूसरों पर ढेले नहीं फेंकें! बिहार में जयचंद जी बहुत दिनों तक रह चुके हैं–उस काल की उनकी जन्मपत्री बहुत लोगों को मालूम है और यह ख़ैरियत हुई कि जिन लोगों को अपने शिष्य बता कर वे अपने को गौरवान्वित करते हैं, उनमें से बहुत-से लोग फाँसियों पर चढ़ गए! किंतु, जो बचे हैं, उनके पास उनके खिलाफ़ कुछ कम बातें नहीं हैं! किंतु, हम जानते हैं कि यदि सब लोग जयचंद जी की ही तरह अभद्रता और अश्लीलता पर उतर आवें, तो यह संसार मानवों के रहने लायक नहीं रह जाए। न-जानें जयचंद जी क्या सोचते हैं, या सोचने-समझने की शक्ति भी उनमें रह गई है या नहीं नहीं तो, उन्हें तो लज्जित होना चाहिए कि सम्मेलन को विनाश की ओर ले जाने का कलंक उन्हीं पर लगा।

श्रमी साहित्यिकों का नारा

जयचंद जी की ओर से जो चार पर्चे प्रचारित किए जा रहे हैं, उनमें से एक पर्चा किसी किसान पंचायत के सभापति की ओर से है। उस पर्चे में कहा गया है कि सम्मेलन का वर्तमान संघर्ष यथार्थत: श्रमी साहित्यिकों और गद्दीधारी साहित्यिकों के बीच का संघर्ष है। उस पर्चे में जयचंद जी को श्रमी साहित्यिकों के नेता के रूप में स्वीकार किया गया है। काश, ये बातें ठीक होतीं! यदि जयचंद जी का वर्तमान गुट हिंदी के श्रमी साहित्यिकों का प्रतिनिधित्व करता है, तो बेचारे श्रमी साहित्यिकों की रक्षा भगवान ही करें! “हुए तुम दोस्त जिसके, दुश्मन उसका आसमाँ क्यों हो!” ग़ालिब ने ऐसे ही प्रतिनिधियों और नेताओं की ओर लक्ष्य करके यह लिखा था! जो अनाचार, कदाचार, असत्य, ढोंग, दग़ा–किसी भी अनैतिक साधन को अपनाने में नहीं हिचकते, वे श्रमी साहित्यिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं? भले ही वे गद्दीधारी नहीं हों, किंतु गद्दी के लिए जितनी छटपटाहट उनमें है, वैसी अन्यत्र शायद ही दिखाई पड़े। कीचड़ से कीचड़ नहीं धुलता। यदि गद्दीधारियों से उन्हें चिढ़ है, तो सबसे पहले अपने मन से गद्दी का मोह हटावें! यदि इस नारे को सत्य माना जाए, तो कम से कम चार-पाँच वर्षों से सम्मेलन में श्रमी साहित्यिकों का ही राज है! इन चार-पाँच वर्षों में सम्मेलन की जो दुर्दशा हुई है, उसका सारा दोष तब श्रमी साहित्यिकों के ही सिर पर मढ़ेगा! क्या हिंदी के श्रमी साहित्यिक इस दोष को स्वीकार करने को तैयार हैं? किसान पंचायत के उक्त सभापति जी अपने सिर पर यह कलंक भले ही लें, सारे हिंदी संसार का श्रमी साहित्यिक इस आरोप का घोर प्रतिवाद करेगा। यह नारा गलत है–अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने का अधम प्रयत्न है।

क्या संगठन असंभव है?

तो क्या यह मान लिया जाए कि साहित्यिकों का कोई भी संगठन असंभव है? जरा हम गहरे उतर कर देखेंगे तो पता चलेगा कि सम्मेलन की राजनीति की तह में हमेशा यह बात रही है कि सम्मेलन आमदनी का जरिया बन गया है। परीक्षा के शुल्कों द्वारा ही सम्मेलन की सबसे अधिक आमदनी है। और भी अन्य जरिए हैं। इसलिए प्राय: हमेशा परीक्षा विभाग को लेकर ही झगड़े का सूत्रपात हुआ करता है। इसलिए अगर भविष्य में साहित्यिकों की कोई संस्था बने तो उसे इस खतरे से दूर रहना ही पड़ेगा। सम्मेलन का मामला अदालत के सुपुर्द है। वहाँ से फैसला हो जाने के बाद क्या सम्मेलन को ही इस दलदल से नहीं निकाला जा सकता और पुरानी गलतियों का रास्ता रोककर साहित्यिकों का सही संगठन नहीं तैयार किया जा सकता?


Image: Color Study. Squares with Concentric Circles
Image Source: WikiArt
Artist: Wassily Kandinsky
Image in Public Domain