शिवदान सिंह बनाम राजकमल

शिवदान सिंह बनाम राजकमल

हम ‘आपकी चिट्ठी’ में वह पत्र प्रकाशित कर रहे हैं, जिसे ‘आलोचना’ के भूतपूर्व संपादक श्री शिवदान सिंह चौहान ने हमारे पास प्रकाशनार्थ भेजा है। यह पत्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। यह पत्र उस चिरपरिचित प्रश्न की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, जिसको यों रखा जा सकता है–संपादक और प्रकाशक का संबंध कैसा हो? इस प्रश्न के साथ अनेक प्रश्न उठते हैं–क्या प्रकाशक को यह अधिकार है कि वह जब चाहे संपादक को निकाल बाहर कर दे? क्या संपादक का पद एक वेतनभोगी कर्मचारी-मात्र का है? जिस पत्र को बनाने-सँवारने में उसका प्रमुख हाथ रहा, जो उसकी मानस-संतान है, क्या उस पर उसका कोई अधिकार नहीं? संपादक का पारिश्रमिक क्या हो, उसके पद की सुरक्षा की क्या व्यवस्था हो, आदि प्रश्न तो हैं ही, एक प्रश्न और भी उठता है–उसके समानधर्मा संपादक या लेखक का क्या कर्तव्य है जब उस पर इस तरह बलात्कार किया जाता हो! हाँ, हम इसे बलात्कार समझते हैं और हर सुरुचिसंपन्न व्यक्ति से आशा रखते हैं कि वह ऐसे काम की भर्त्सना करे और जिनमें ताक़त हो, बल हो, उन्हें चाहिए कि उस अत्याचारी को सबक़ सिखाएँ! यह प्रश्न संपादकों और लेखकों की इज्ज़त का ही सवाल नहीं है, बल्कि उनके लिए जीवन-मरण का भी प्रश्न है, अत: हम चाहते हैं, इस पर गंभीरता से विचार किया जाए और इसके निराकरण के लिए कुछ उपाय सोचा जाए ।

प्रकाशकों का प्रहार : संपादकों की निरीहता !

यह प्रश्न हमारे सामने पहली बार नहीं आया है। प्रकाशकों द्वारा संपादकों और लेखकों पर किये गए अत्याचारों और बलात्कारों की एक लंबी कहानी है। हम बिहार को ही लें। अभी कुछ दिन हुए हैं, एक सुप्रसिद्ध अँग्रेजी दैनिक के अति प्रसिद्ध संपादक को इसी तरह निकाल बाहर किया गया। एक सुप्रतिष्ठित हिंदी-मासिक के एक ख्यातनामा वयोवृद्ध संपादक की यही दुर्गत हुई। सबसे विचित्र बात तो यह हुई कि एक संपादक कुछ दिनों के लिए बाहर गया और लौटा, तो पाया, उसके पत्र पर संपादक की जगह प्रकाशक का ही नाम छप रहा है! जब संपादक-शिरोमणियों की यह दशा है, तो बेचारे सह-संपादकों या उप-संपादकों की क्या बात? उनके साथ आए दिन जो अन्याय होते रहते हैं, उनकी संख्या इतनी अधिक हो चली है कि कोई उस ओर ध्यान भी नहीं देता! छोटे-छोटे वेतन पर दिन-रात खटने वाले वे लोग जब अकस्मात् एक दिन ऑफिस से धकेल दिए जाकर सड़कों पर बेबसी में घूमते हुए पाए जाते हैं, तो उन्हें देखकर किसको करुणा नहीं उमड़ आती है! किंतु आश्चर्य इस बात का नहीं है कि पत्रों के मालिक या प्रकाशक इन लोगों के साथ क्या व्यवहार करते हैं, बल्कि सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि ज्यों ही बड़े-से-बड़ा संपादक तक इस प्रकार निकाल बाहर किया जाता है कि उसके समानधर्मा लोग वहाँ झट पहुँच जाते और प्रकाशकों के हौसले बढ़ाते हुए अपनी जाति के, अपने वंश के मूल पर ही कुठाराघात करने लगते हैं! एक ओर हमारे पास शिवदान सिंह की वह चिट्ठी प्रकाशनार्थ आई है, दूसरी ओर राजकमल प्रकाशन की ओर से एक सूचना मिली है कि ‘आलोचना’ अब नए संपादक-मंडल द्वारा संपादित होकर निकलने जा रही है! उसमें जो चार नाम दिए गए हैं, उनमें से एक को हम व्यक्तिगत रूप से जानते हैं और हमें आश्चर्य है कि प्रकाशकों के हथकंडों को जानते हुए भी उन्होंने अपना नाम क्यों दिया?

कानूनी पहलू बनाम नैतिक पहलू

जिस समाज में पैसा ही पूँजी है और श्रम बाज़ार में बिकने वाला एक माल, उस समाज का कानून यदि प्रकाशकों के ही पक्ष में हो, तो आश्चर्य की क्या बात? किंतु, दुनिया में सिर्फ कानून ही नहीं है, हर प्रश्न का एक नैतिक पहलू भी है। फिर कानून तो बदलता रहता है, यह कानून भी बदलकर रहेगा। अत: देखना यह भी चाहिए कि नैतिकता की पुकार क्या है? क्या यह अन्याय की बात नहीं है कि एक संपादक युगों की अपनी साधना के बल पर किसी पत्र-पत्रिका की रूपरेखा तैयार करे और अनवरत प्रयत्नों द्वारा उस रूपरेखा को मूर्त रूप दे, उसे सुधी-समाज से स्वीकृति दिलावे, जनता द्वारा उसे आदृत करावे, तब, जब कि वह पत्र या पत्रिका चल निकले, अचानक एक दिन धक्के देकर उसे सड़क पर खड़ा कर दिया जाए! क्या यह कार्य अनैतिक नहीं है, अमानुषिक नहीं है? किंतु दुख है, आज के अधिकांश प्रकाशक इस प्रकार के अनैतिक कार्य को करते हुए जरा भी संकोच नहीं अनुभव करते! वे भूल जाते हैं कि यह अच्छा व्यवसाय भी नहीं है। पत्र या पत्रिका के साथ उसके संपादक की आत्मा भी घुली-मिली होती है और ज्यों ही वह हट जाता है, पत्र या पत्रिका भी म्रियमाण हो जाती है। यह श्री मोतीलाल घोष की कुशल व्यापार-नीति थी कि उन्होंने पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ऐसे क्रोधी और झक्की व्यक्ति को भी अपने स्नेह-सूत्र से बाँधकर ‘सरस्वती’ के संपादक-पद पर सदा अधिष्ठित रखा। और जब तक द्विवेदी जी थे ‘सरस्वती’ क्या थी और उनके बाद ‘सरस्वती’ क्या रही, क्या इस पर विस्तृत प्रकाश डालने की आवश्यकता है? हमारे प्रकाशक भूल जाते हैं कि पैसे से नौकर मिल सकते हैं, आदमी नहीं; पैसे से काम के घंटे गिन लिए जा सकते हैं, व्यक्तित्व के निखार के लिए स्नेह के कोमल स्पर्श की आवश्यकता होती है! किंतु, यदि वे यह अब नहीं समझें, तो स्वाभाविक ही है–पैसा उनमें उद्दंडता ला दे, तो यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं हुई। किंतु, हमें हार्दिक दुख तब होता है जब हम यह पाते हैं कि अपनी बिरादरी पर, अपनी जाति और वंश पर यह स्पष्ट अत्याचार होते देखकर भी हमारे संपादक या लेखक बंधु उनके हाथ अपनी प्रतिभा और साधना बेचते हुए संकोच नहीं करते। हमें सबसे बड़ा दुख इस बात का है! हम सबसे बड़ा अनैतिक कार्य इसे मानते हैं कि हमारे भाई की हत्या की जाए और हम कुत्ते की तरह उसके खून को चाटें और यह भूल जाएँ कि हत्यारे का हाथ एक दिन हमारी गर्दन के साथ भी ऐसा ही खिलवाड़ करेगा !!

शारदा के सुपूतो, होश सँभालो !

इस समस्या का समाधान एक ही है–जहाँ कहीं भी किसी संपादक या लेखक के साथ ऐसा अन्याय हो, उसके समानधर्मा बंधु तय कर लें कि हम उसकी जगह पर कदापि नहीं जाएँगे। हम मानते हैं, कहीं हमारे बंधुओं का ही अपराध हो, तो इसका निराकरण यह है कि हम उन्हें अपने कटघरे में खड़ा करें और यदि वह अपने को नहीं सँभालें, तो उन्हें जाति-च्युत कर दें; किंतु हम उन्हें उनके दुश्मन की मर्जी पर तो कदापि नहीं छोड़ें! नैतिकता का यही तकाज़ा है, आत्मरक्षा का तकाज़ा भी यही है। भाई शिवदान सिंह का मामला बिल्कुल साफ है, उनके साथ घोर अन्याय किया गया है। हमें राजकमल को साफ कह देना है, इस अन्याय में हम तुम्हारा साथ दे नहीं सकते। जिन चार भाइयों के नाम राजकमल ने ‘आलोचना’ के संपादक-मंडल में रखे हैं, हम उनसे प्रार्थना करते हैं, आप लोग अपने नाम वापस कर लें। आप में प्रतिभा है, तो कितनी ‘आलोचना’ और कितने ‘राजकमल’ आपके चरणों को चूमने आएँगे; आप सबके सब युवक हैं, घबराइए मत, बहुत-से सुनहले अवसर आपके सामने आएँगे। किंतु इस ‘आलोचना’ में आपके तीन भाइयों का खून सना हुआ है; इसे फेंकिए! उठाकर फेंकिए राजकमल के मुँह पर, जिसने आपकी बिरादरी पर इस तरह बलात्कार करने की चेष्टा की है!

आचार्य शिवजी अमर हों !

आचार्य शिवपूजन सहाय जी की बीमारी पर हमने जो कुछ लिखा, हमें प्रसन्नता है, हिंदी-संसार का ध्यान उस ओर तुरत आकृष्ट हुआ और पूछताछ एवं सहायता का ताँता-सा लग गया है। हमें प्रसन्नता यह है कि बिना किसी प्रयत्न के ही, लगभग दो हज़ार रुपए एकत्र हो चुके हैं–जबकि गर्मियों के कारण स्कूल-कॉलेज, कचहरियाँ, आदि बंद हैं। हमें विश्वास है, संघबद्ध प्रयत्न करने पर दस हज़ार रुपए तुरंत ही एकत्र हो जाएँगे। हमें यह सूचित करते हुए भी प्रसन्नता होती है, कि शिवजी की तबीयत सुधर रही है और यदि यही प्रगति रही, तो हम उन्हें फिर अपने बीच काम करते हुए पाएँगे। किंतु, हमारा विश्वास है, कम-से-कम एक साल तक शिवजी को किसी अच्छे सैनिटोरियम में हमें रखना होगा। इधर एक विज्ञप्ति हमने देखी, जिससे ऐसा लगता है कि सरकार ने उनकी चिकित्सा का सारा बोझ उठा लिया है। यह बात आंशिक रूप में ही सही है, उन्हें सिर्फ उतनी ही सरकारी सहायता मिल रही है, जो किसी भी सरकारी नौकर को सरकार से पाने का हक़ है। इस विज्ञप्ति को लेकर बहुत भ्रम फैला है और फैलाया गया है! शिवजी स्वाभिमानी हैं, तपस्वी हैं। अत: कुछ लोगों ने इस तरह की बातें शुरू की हैं, जिनसे उनको कष्ट हो। यह नीचता की हद है। शिवजी के लिए हिंदी-संसार को जो कुछ करना है, वह अपना कर्तव्य समझ कर करना है ठीक उसी रूप में जिस रूप में पुत्र पिता के लिए या एक साथी दूसरे साथी के लिए करता है। और हिंदी-संसार ने एक स्वर से आवाज़ दी है कि वह अपने इस आचार्य की रक्षा के लिए सब कुछ करने को तैयार है। यह हिंदी के लिए शुभ दिन की सूचना देता है। सरकार हमारी है, अत: हमारा विश्वास है, सरकारी सहायता भी उन्हें अवश्य ही मिलेगी। हिंदी-संसार के स्वर में स्वर मिलाकर हम कहते हैं–आचार्य शिवजी अमर हों!

आचार्य शिवपूजन–चिकित्सा-कोष

इस कोष के लिए अब तक जो रक़में प्राप्त हो चुकी हैं, उनका ब्यौरा यों है–
(1) नई धारा-परिवार (पहली किश्त) 500)
(2) नया समाज-परिवार, कलकत्ता 500)
(3) एस. एस. नेवटिया, बैंक स्ट्रीट, बंबई 250)
(4) मदनलाल गर्ग–नयाबाजार, लश्कर (म. भा.) 200)
(5) शिवजी के एक कलाकार मित्र 125)
(6) मध्य भारत के एक साहित्यिक बंधु 50)
(7) मंत्री, साहित्य-गोष्ठी, डी. ए. वी. स्कूल, धनबाद 36)
(8) गणेश चौबे बँगरी, पिपराकोठी, (चंपारण) 25)
(9) प्रधानाध्यापक, डी. ए. वी. हाई स्कूल, गोपालगंज (सारन)  20)
(10) प्रधानाध्यापक मिड्ल स्कूल, दलसिंगसराय (दरभंगा)  15)
(11) श्रीपतिराय, सेंट्रल एक्साइज इंस्पेक्टर, सासाराम (इलाहाबाद) 15)
(12) एक सज्जन चेक से– 15)
(13) प्रोफेसर रंजन, वर्धा, 15)
(14) योगेंद्र नाथ शर्मा–बड़हिया, पो. (मुंगेर) 10)
(15) बनारस से अज्ञात दान  5)
(16) मंत्री, जन-सेवक पुस्त.–पो. करनौल (मुजफ्फरपुर) 5)
(17) मांडलिक बाबू, अकदलपुर (उज्जैन) 5)
(18) ओम् प्रकाश–विद्यार्थी संघ, वासुदेवपुर, (मुंगेर) 3)
(19) श्री सत्यदेव–कॉमर्स कॉलेज, (पटना) 1)
कुल जोड़ 1795)

इन रक़मों के अतिरिक्त हमें सूचना मिली है, काशी और प्रयाग के साहित्यिक बंधुओं ने भी अच्छी रक़में एकत्र की हैं।

जो रक़में प्राप्त हो चुकी हैं, उन्हें अभी सुरक्षित रखा गया है क्योंकि अब तक बिहार सरकार ही व्यय-भार उठा रही है।


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Artist: Vladimir Makovsky
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